भाषा बहता नीर है: समीक्षा ‘कुतुबनुमा’ कविता संग्रह, (प्रदीप कांत)

कविता पुस्तक समीक्षा

प्रदीप्त कान्त 856 11/17/2018 12:00:00 AM

अग्रज कवि सुमित्रानंदन पंत ने कहा था – वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान…| यह कविता का एक कारण हो सकता है| इस कोमल भावना से थोड़ा आगे बढ़ें, व्यक्तिगत पीढा केवल कविता नहीं हो सकती, उस व्यक्तिगत में से जो सार्वजनिक के लिए निकल सके वह कविता है| रतन जी को भी मैं नहीं, हम की पीड़ा सालती है,…….| ‘रतन चौहान’ के कविता संग्रह ‘कुतुबनुमा’ पर ‘प्रदीप कांत’ का समीक्षालेख……

भाषा बहता नीर है: समीक्षा ‘कुतुबनुमा’ कविता संग्रह प्रदीप कान्त की ग़ज़लें

प्रतिबद्ध कवि की प्रतिबद्ध कविताएँ

कविता में एक सूक्ति की तरह आती यह पंक्ति हमारे समय के जन-पक्षधर कवि रतन चौहान की है| 6 जुलाई 1945 को रतलाम के एक छोटे से गाँव इटावा खुर्द में जन्मे रतन जी हिन्दी और अंग्रजी, दोनों भाषाओं में समान रूप से लिखते हैं| रतन जी केवल कविता ही नहीं लिखते, वे कथाकार भी हैं, नाटककार भी, अनुवादक भी हैं और रंगकर्मी भी| हाल ही में रतन जी का एक नया कविता संग्रह आया है – कुतुबनुमा | पढ़ने पर ये कविताएँ एक अलग कलेवर की कविताएँ नज़र आती है| लगभग 5 दशकों से साहित्य और रंगकर्म के क्षेत्र में कार्य करते हुए रतन जी की कविताएँ जीवन को अपने एक अलग नजरिये से देखती है| उदाहरण के लिए एक कविता है – जिजीविषा| इस कविता में एक वृद्ध में बची संबंधों की उष्मा और उसकी जिजीविषा नज़र आती है –

उसने मुझे फूटती हुई सुबह की
कविता सुनाई
उसने वीणा के तारों के झनझनाने की बातें की 
(जिजीविषा)

सामान्यत: पात्र कहानियों में होते है किन्तु रतन जी की कविताओं में आम जीवन के पात्र आते हैं जैसे सिकंदर, रविन्द्र व्यास, भारतदास बैरागी और पीरूलाल आदि| ये पात्र अपने नामों के माध्यम से जीवन की विभिन्न कथा-व्यथाओं को बाँचते हैं| बानगी के लिए एक कविता हैं – प्रगतिशील विचारों का एक और सैनिक गिर गया, यह एक कविता का शीर्षक है जो खुद ही एक मुकम्मल कविता लगने लगता है जो इसी समाज के किसी प्रगतिशील पात्र रविन्द्र व्यास के लिए है जिसे शायद यह बहुजन समाज जानता भी न हो| इसी तरह एक और कविता है – ढिकवा से भारतदास बैरागी| इस कविता में भारतदास बैरागी के माध्यम से रतन जी भाषा, कला, सभ्यता और तथाकथित विकास की बात करते हैं| इस कविता में ढिकवा से निकलती कुडेल नदी के बारे में रतन जी बड़ी रोचकता से लिखते हैं –

अब मुझे यह तो नहीं मालूम
और न ही ढिकवा के लोगों को
कि कब और कौनसी बहू
नहा रही थी वहाँ/ गाँव के किसी कुएँ पर
अपने ऊपर की स्त्री को उघाड़ कर
कि उधर आते ससुर को देख
लाज से डूब मारी वह कुएँ में
और फूट पड़ी थी जलधारा
आश्चर्य होता है कि ससुर के सामने न आने की पुरानी उस परम्परा के न निभ पाने को रतन जी का कवि लाज और फिर जलधारा से जोड़ने लगता है| इसी कविता में आगे आता है –

सभ्यताओं की चकाचौंध
और विकास की होड़ में
हमने कितनी नदियों को मार डाला
भाषा और कलाओं को मार डाला

कुतुबनुमा (कविता संग्रह)
रतन चौहान
उद्भावना प्रकाशन।
प्रथम संस्करण, 2016
मूल्य 150/-

यह पश्चाताप है, एक कवि का पश्चाताप, अपने समय की एक पीढी की तरफ से – तथाकथित विकास की होड़ और दौड़ के बीच में ख़त्म होती जा रही भाषा और कला के लिए| ये कौनसी विकास की होड़ है, दुनिया की नहीं वरन खुद के विकास की चिंता| इसी तरह किसी और पात्र की कविता है – पीरुलाल बादल सो गए| कहने का मतलब यह है कि रतन जी के यहाँ कुछ पात्रों की कथा-व्यथा कविता में बदल जाती है जो उनकी इन कविताओं की एक विशेषता के रूप में रखी जा सकती है|

अग्रज कवि सुमित्रानंदन पंत ने कहा था – वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान…| यह कविता का एक कारण हो सकता है| इस कोमल भावना से थोड़ा आगे बढ़ें, व्यक्तिगत पीढा केवल कविता नहीं हो सकती, उस व्यक्तिगत में से जो सार्वजनिक के लिए निकल सके वह कविता है| रतन जी को भी मैं नहीं, हम की पीड़ा सालती है, वे पूछते हैं –

कौनसा अपराध था, 
हम निरपराधों का कि हम जन्मे 
(हम कभी नहीं जन्मे इस धरती पर)

वरिष्ठ कवि राजेश जोशी की एक कविता है – मारे जाएँगे… (कौन – वे ही ना| जो निरपराध होंगे)| इसलिए रतन जी सवाल पूछते हैं – कौनसा अपराध… और जवाब कौन दे? ऐसा नहीं कि केवल कवि ही जानता है कि आज के समाज की दशा और दिशा कौन तय कर रहा है? समझती तो सामान्य जनता भी होगी – ये पब्लिक है सब जानती है की तर्ज़ पर| तो फिर कवि क्या विशेष है? दरअसल कवि के पास चिन्तन और शब्दरूपी वह औज़ार है जो ऐसे चेहरों को बेनकाब करना जानता है| संग्रह की शीर्षक कविता है – कुतुबनुमा, यहाँ रतन जी ऐसे ही चेहरों को पहचानने की कोशिश करते हैं –

जो नहीं जानते ग़ालिब के अश्यार क्या हैं
और कहाँ तक जाती है मीरा की दीवानगी
वे ग़ज़ल और गीत पर बात कर रहे हैं
जिन्होंने नहीं समझा कभी
विराट आकाश का विस्तार
वे दिशाओं को तय करने वाला क़ुतुबनुमा बना रहे हैं

रतन चौहान

बताने की आवश्यकता नहीं कि वे लोग कौन हैं और यहाँ – ना समझे वो अनाड़ी नहीं बल्कि अनाड़ी बनने की कोशिश कर रहा है और वही इस समाज के लिए सबसे घातक है| रतन जी की ये कविताएँ, वे कविताएँ हैं जिनमे बिना किसी शोर-शराबे और नारेबाजी के एक एक प्रतिरोध को देखा जा सकता है जो भले बहुत लाऊड न हो पर अंडरटोन भी नहीं है| और यह प्रतिरोध धीरे-धीरे बाहर आता है और दूर तक जाता है|

प्रतिरोध कौन कर सकता है, जिसके पास संवेदनाएँ हैं| और यदि किसी के पास संवेदना है तो उसे समाज में होता भी शोषण नज़र आता है तो रिश्तों की बची हुई उष्मा उद्द्वेलित करती है और रिश्तों में खटास विचलित करती है| रतन जी यहाँ भी अपनी लेखकीय ज़िम्मेदारी निभाते हैं| मायके आई बहिने उनसे लिखवाती हैं –

उनकी आत्मा ने फिर पहन ली है
फूलों वाले बॉर्डर की साड़ी
उनकी आँखों के सामने चारों और फ़ैली हुई है
जीवन की हरियाली
………………………
लगता है बहिने फिर मायके आई हैं
आई हैं पिता के घर
उनके साथ लौट आया है
पृथ्वी भर उल्लास 
(बहिने आई हैं मायके)

बहिनों के आने से घर में कैसी खुशी आ जाती है उसके लिए पृथ्वी भर उल्लास के उपयोग से इस खुशी के अनंत को समझा जा सकता है| एक और कविता है – घर, यहाँ माँ आती है| माँ कविता के लिए एक ऐसा शब्द है जिस पर कोई भी कविता लिखो अच्छी लगने लगती है| रतन जी भी माँ को कविता के घर में लाते हैं –

बेटे बँटते रहे
बांधते रहे अपने अपने घर
एक दूसरे के यहाँ खींचते रहे माँ को/
पर माँ तो आकाश थी
पूरा ब्रह्माण्ड थी
वह सब जगह एक जैसे सूर्योदय की तरह
फूटती रही
सब के घरों के आँगन में धूप की तरह
उतरती रही 
(घर)

पारिवारिक संवेदना से थोड़ा बाहर चलें तो रोटी-कपड़ा-मकान का सवाल आता है| दुनिया को लें तो अमीर और ग़रीब, मकान को लें तो कोई मकान मालिक तो किरायेदार| और कविता मकान मालिक और किरायेदार का सम्बन्ध भी उकेरती है –

यह मकान मालिक तय करेगा 
कि आप क्या खाएँ, क्या ओढ़े
कैसे बैठें और कितना मुस्कुराएँ 
(फ़ज़ाहत)

एक संवेदनशील पड़ोसी को पड़ोसी से अबोला या अनबन सालता है| वह इस समस्या को हल करना चाहता है| कवि का संवेदन केवल लोकल की नहीं, ग्लोबल की बात करता है| वह घर-परिवार नहीं, देश-संसार की बात करता है| एक तरफ जहाँ तथाकथित कवि सम्मेलनों में तथाकथित कवियों की तथाकथित वीर रस की कविता में पड़ोसी देश पाकिस्तान को गाली देने पर तथाकथित श्रोताओं की ताली मिलती है वहीं रतन जी इस समस्या के हल की बात करते हैं| पड़ोसी देशों की यह समस्या रतन जी से मेज़ पर बैठें जैसी एक कविता रचवाती है –

आओ मेज़ पर बैठें
यहाँ लकड़ी की कुछ कुर्सियाँ भी डली है
केवल लकड़ी ही नहीं है यह मेज़
जंगल की सभी खुशबुएँ
सिमटी हैं इसमे
फूल हैं
लहराती डालियाँ भी हैं
जहाँ बच्चों के वास्ते झूले डाले जा सकते हैं

यह इस संग्रह की एक महत्वपूर्ण कविता ही नहीं बल्कि एक उपलब्धि कही जा सकती है –

तुम अपने अंतरमहाद्वीपीय आणविक प्रेक्षपाशस्त्र
अपने घर की दीवार पर रख कर आना
और मैं अपनी ए के फोर्टी सेवन
अपनी दीवार पर टांग कर आऊँगा
नहीं तो फिर मेज़ पर दो पिता, दोस्त बात नहीं करेंगे
तुम्हारा प्रेक्षपाशस्त्र मेरी ए के फोर्टी सेवन 
और मेरी ए के फोर्टी सेवन तुम्हारे प्रेक्षपाशस्त्र से संवाद करेगी
और दो मनुष्यों के चेहरे स्तब्ध और निर्वाक, लोहे को देखते रहेंगे

इस कविता का सवाल जायज़ है –

महान सभ्यताओं को तामीर करने वाले हम मनुष्य
क्या छोटी छोटी बातों का भी
समाधान नहीं कर सकते 
(मेज़ पर बैठें)

इस कविता से समझा जा सकता है कि रतन जी की कवि की दृष्टि लोकल से ग्लोबल तक है|

बहरहाल, तमाम कविताओं पढ़ने के बाद महसूस होता है कि यह एक प्रतिबद्ध कवि की प्रतिबद्ध कविताओं का संकलन है| इस समाज के पात्रों से निकलती ये कविताएँ मुझे प्रभावित करती हैं| आप पढ़कर देखिये आपको भी प्रभावित करेंगी|

प्रदीप्त कान्त द्वारा लिखित

प्रदीप्त कान्त बायोग्राफी !

नाम : प्रदीप्त कान्त
निक नाम :
ईमेल आईडी :
फॉलो करे :
ऑथर के बारे में :

अपनी टिप्पणी पोस्ट करें -

एडमिन द्वारा पुस्टि करने बाद ही कमेंट को पब्लिश किया जायेगा !

पोस्ट की गई टिप्पणी -

हाल ही में प्रकाशित

नोट-

हमरंग पूर्णतः अव्यावसायिक एवं अवैतनिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक साझा प्रयास है | हमरंग पर प्रकाशित किसी भी रचना, लेख-आलेख में प्रयुक्त भाव व् विचार लेखक के खुद के विचार हैं, उन भाव या विचारों से हमरंग या हमरंग टीम का सहमत होना अनिवार्य नहीं है । हमरंग जन-सहयोग से संचालित साझा प्रयास है, अतः आप रचनात्मक सहयोग, और आर्थिक सहयोग कर हमरंग को प्राणवायु दे सकते हैं | आर्थिक सहयोग करें -
Humrang
A/c- 158505000774
IFSC: - ICIC0001585

सम्पर्क सूत्र

हमरंग डॉट कॉम - ISSN-NO. - 2455-2011
संपादक - हनीफ़ मदार । सह-संपादक - अनीता चौधरी
हाइब्रिड पब्लिक स्कूल, तैयबपुर रोड,
निकट - ढहरुआ रेलवे क्रासिंग यमुनापार,
मथुरा, उत्तर प्रदेश , इंडिया 281001
info@humrang.com
07417177177 , 07417661666
http://www.humrang.com/
Follow on
Copyright © 2014 - 2018 All rights reserved.