जब ग़ज़ल मेहराबान होती है: समीक्षालेख (प्रदीप कांत)

कविता पुस्तक समीक्षा

प्रदीप्त कान्त 444 11/17/2018 12:00:00 AM

कभी कतील शिफाई ने कहा था- लाख परदों में रहूँ, भेद मेरे खोलती है, शायरी सच बोलती है| अशोक भी इस तरह के सच का सामना करने की हिम्मत रखते हैं तभी कह पाते हैं-

“मुझे ज़रूर कोई जानता है अन्दर तक
मेरे खिलाफ़ ये सच्चा बयान किसका है”

अशोक ‘मिजाज़’ के हालिया प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह पर चर्चा करता ‘प्रदीप कान्त’ का आलेख ……..

जब ग़ज़ल मेहराबान होती है 

प्रदीप कान्त

लहू तो कम है मगर रक्तचाप भारी है
अब ऐसे रोग का आख़िर इलाज क्या होगा
न सुर समझते हैं ये न ताल की संगत
यमन सुनाओ इन्हें या खमाज क्या होगा

अशोक ‘मिजाज़’ के ये शेर हमारे वर्तमान समय के लिए मौजूं हैं| हमारे ही नहीं, समूचे विश्व के वर्तमान का हाल यही नजर आता है| अरसे से शायरी कर रहे चिर परिचित शायर अशोक ‘मिजाज़’ का नया ग़ज़ल संग्रह किसी किसी पे ग़ज़ल मेहरबान होती है, हाल ही में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है| संग्रह में लगभग सौ गज़लें हैं जो शायर के शायरी के मिजाज़ का परिचय देती हैं| शायर की शायरी में से हमारा समय और समाज झाँकता हुआ नज़र आता है| यहाँ हिन्दुस्तान का मज़दूर कहता है-

पसीने भर की कमाई भी क्या
मैं हिन्दुस्तान का मज़दूर हूँ

मज़दूर ही नहीं वरन आज के आम आदमी का भी यही हाल है जो क़र्ज़ ले कर, जिसे सभ्य भाषा में होम लोन भी कहते हैं, बमुश्किल एक मकान बनाता है और ज़िंदगी भर चुकाता रहता है-

किसी किसी पे ग़ज़ल मेहरबान होती है (ग़ज़ल संग्रह)
लेखक- अशोक मिज़ाज
मूल्य— 225 रूपये
वाणी प्रकाशन, 4695, 21—ए दरियागंज, नई दिल्ली 110002

उधार लेके बना तो लिया है लेकिन 
हमें किराए पे आधा मकान देना है

और अब यही जीवन है कि आदमी एक मुसीबत से उबरने लगता है कि दूसरी में उलझ जाता है| कहावत की भाषा में एक तरफ कुआँ तो दूसरी तरफ खाई-

मैं पहाड़ों को रौंद आया हूँ 
अब मेरे सामने समंदर है

हो सकता है, जवान पीढ़ी इससे इत्तफ़ाक न रखती हो, वो तो कहेगी पहाड़ रौंद दिया है, समंदर भी चीर देंगे| और शायर जवान पीढ़ी के इस गर्वीले अंदाज को जानता है| उसे ये भी इल्म है कि जवान पीढ़ी अपनी जवानी के मद में चूर है-

बुढ़ापा उनपे भी आख़िर कभी तो आएगा 
जवान होती हुई ये पीढ़ियाँ क्या जाने

एक तरफ जवान होती पीढ़ियों का ये गर्वीलापन तो दूसरी तरफ हमारे समाज में फैलती संवेदनहीनता कि शायर को कहना पड़ता है-

कुछ फ़ायदा न होगा न माने तो रोके देख 
दो चार बूँद और समन्दर में डाल दे

ये जो समाज है इसकी अपनी विसंगतियाँ हैं और कुछ विसंगतियाँ तो लगभग वही होती हैं| तो फिर शायर लिखे क्या? इसी लिए वर्तमान साहित्य में कथ्य या विषय वस्तु से ज्यादा मौलिक कहन है जो शायर के अपने एक अंदाज से आती है, अशोक का भी अपना अंदाज कहीं झलकता है| वो भी कुछ नया कहने की चाहत रखते हैं-

इक्कीसवीं सदी की अदा कह सकें जिसे 
ऐसा भी कुछ लिखो कि नया कह सकें जिसे
इक ग़ज़ल, इक शेर, इक मिसरा
कुछ तो अपनी भी यादगार रहे

और उनकी ये चाहत कहीं कहीं झलकती भी है-

अशोक ‘मिज़ाज़’

हम समझते थे जिनकी थाह नहीं
आज ऐसे कुएँ भी रीत गए 
आँच के आगे सभी मज़बूर हैं
काँच क्या, संग क्या, फौलाद क्या
ये बात कोई शिकारी कहाँ समझता है
‘थके हुए हैं परिंदे शिकार मत करना’

जिस शायरी में मासूम तितलियाँ और निश्छल बच्चे न हो वो शायरी क्या? अशोक की शायरी में भी ये मासूमियत आती है-

सैर करने के बहाने आओ गुलशन में चलें 
कुछ वहाँ भँवरे मिलेंगे, कुछ मिलेंगी तितलियाँ
फिर वही बस्ते वही स्कूल बस का इंतज़ार 
ख़त्म होती जा रही है गर्मियों की छुट्टियाँ

और अब आज के बच्चों का किया जाए? सवाल यह है कि इना बच्चों का बचपन बचा भी है या नहीं? स्कूल की गर्मियों की छुट्टियाँ तो इतनी भी नहीं बची कि बच्चे दादा-दादी या नाना-नानी के यहाँ जा सके| बचपन में ही ज्ञानियों की सी प्रौढ़ता सिखाई जा रही है| तो फिर इन्हें कौन तो परियों या राजा रानी की कहानी सुनाए और समझाए?

सुनाऊँ कौनसा किरदार बच्चों को, कि अब उनको 
न राजा अच्छा लगता है, न रानी अच्छी लगती है

कभी कतील शिफाई ने कहा था- लाख परदों में रहूँ, भेद मेरे खोलती है, शायरी सच बोलती है| अशोक भी इस तरह के सच का सामना करने की हिम्मत रखते हैं तभी कह पाते हैं-

मुझे ज़रूर कोई जानता है अन्दर तक
मेरे खिलाफ़ ये सच्चा बयान किसका है

हालांकि हालात कैसे भी हों जीने का एक हुनर होता है जो आपको आप बने रहने देता है| और ये हुनर आपके आत्मविश्वास से आता है जिसके बिना जीवन संभव नहीं, अशोक भी अपना आत्मविश्वास प्रकट करना जानते हैं-

अपनी मेहनत की इस कमाई की 
चाँदनी लूंगा पाई पाई की

बहरहाल, शायरी तो प्रेम की बात ज़रूर करेगी| अशोक की शायरी भी करती है-

तुम्हारे दिल में ज़रासी जगह का तालिब हूँ 
ज़माने भर की रियासत कभी नहीं माँगी
उससे मिलना है तो मिलने का कोई बहाना ढूंढो 
चाँद की तरह वो छत पे नहीं आने वाला

कुला मिलाकर जीवन के कई रंग लिए अशोक की गज़लें ग़ज़ल की परम्परा में भी पूरी है और अपनी कहन में भी प्रभावित करती है जिसके लिए उन्हें बधाई दी जानी चाहिए|

प्रदीप्त कान्त द्वारा लिखित

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