‘राजेश कुमार’ ऐसे इकलौते हिंदी नाटककार हैं जो निरंतरता में ऐसे नाट्यालेखों को लिख रहे हैं जो यथा स्थिति ही बयान नहीं करते बल्कि वे एक चेतना भी पैदा करते हैं और प्रतिरोध भी | उदारीकरण के प्रभाव में वर्तमान दौर से उपजी राजनैतिक उथल पुथल जिसके कारण विभिन्न सामाजिक तबकों की विविधता भरी जिंदगियों में तरह – तरह के बदलाव आये हैं जो सामान्यतः सकारात्मक से कहीं ज्यादा नकारात्मक हैं | राजनैतिक लालसा के प्रभाव में सामाजिक व्यक्तित्व भी, व्यक्तिवादी अंधी सोच में तब्दील हो रहा है | सामाजिक रूप से हमें इसका अंदाजा भी नहीं होता | चारों तरफ से राजनैतिक चालों से घिरे आम-जन के, इन्हीं बेरहम सवालों से जूझते हुए उनके जबाव खोजने का रचनात्मक प्रयास है नाटक ‘झोपडपट्टी”
झोपड़पट्टी
राजेश कुमार
पात्र—
जट्टा ः 22 वर्ष का युवक/रिक्शा चालक
खेलावन ः साइकिल मरम्मत करने वाला/साठ साल का
सावित्री ः चाय बेचने वाली/बीस वर्ष
जलधर ः सावित्री का पति/ठेला खींचने वाला
कविजी ः जिल्दसाज़/लँगड़ा/एक टाँग टूटी हुई/उम्र 35 वर्ष
गोपी ः रेडीमेड कपड़ों की फेरीवाला
मिसिरजी ः स्थानीय स्तर के टोपीधारी नेता
जंगी ः शहर का जाना-माना गुण्डा
कॉमरेड बाबू ः तथाकथित माक्र्सवादी कार्यकर्ता
गजराज सिंह ः शहर का नामी-गिरामी रईस एवं सत्ताधारी वर्ग का अध्यक्ष प्रांतीय मुख्यमंत्री एवं पुलिस।
दृश्य-1
स्थान: 1 सड़क का किनारा
समय: 25 दिसम्बर, 1987, पाँच बजे सुबह।
(पी0डब्ल्यू0डी0 की ख़ाली ज़मीन पर सड़क के दोनों तरफ़ एक लम्बी क़तार में छोटी-छोटी फूस की झोपड़ियाँ बसी हुई हैं। मौसम में ठंडक है। हल्का-हल्का कोहरा है। अभी-अभी कई-एक मेलगाड़ियाँ आई हैं, जिनके यात्रियों के आने-जाने के कारण सड़क चालू हो जाती है। झोपड़पट्टी के लोग अभी भी अंदर है। कोई जगा नहीं है। तभी मुर्ग़ा बाँग देता है। घंटाघर पाँच का घंटा मारता है। मस्जिद से अज़ान शुरू।
जलधर जम्हाइयाँ भरता हुआ झोपड़ी से बाहर आता है। जाँघ खुजलाता है। देह मरोड़ता है। फिर कान पर जनेऊ चढ़ाकर सड़क के एक कोने में बैठ जाता है। उठकर दो-तीन क़दम आगे बढ़कर आवाज़ देता है।)
जलधर ः अरे सवित्तिरिया, आज सुतले रहबे का रे ? मुर्गा बाग भइल, घंटाघर के घंटा बजल और मस्जिद में अजान … लेकिन तोहरा में जान कब आई ? (कोई जवाब नहीं) खाली सुताइये होई कि काम भी ? आज चूल्हा नहीं जलेगा का ?
(झोपड़ी के अंदर से आवाज़ आती है।)
सावित्री ः का हल्ला मचाये है जी। तनी तू ही जला देते तो का होता ?
जलधर ः (झल्लाकर) हियाँ तो झाड़ा लगा हुआ है। अब हम झाड़ा फिरे जायें कि चूल्हा जलायें। तनी जल्दी से बीड़ी और माचिस ले के आव। (स्वगत) साला अइसन चीज है कि रोकाते नहीं रुकता। (पकट) अ ल ले ऽ ऽ …
(दौड़कर सावित्री आती है। बीड़ी-माचिस देती है। जब तक वो सुलगाता है, सावित्री बोलती है।)
सावित्री ः (चुटकी लेकर) बाप रे, अइसन हगवास त कहीं ना देखनी। तनी और सबेरे जागल करी।
जलधर ः अच्छा-अच्छा, चूल्हा जला दे। गाँहक के आने का टैम हो रहा है।
(कहने के साथ जलधर तेज़ी से बाहर की तरफ़ भागता है। सावित्री चूल्हे के पास आती है। जलाने का मूकाभिनय करती है जैसे कि गोइठा लाना/कोयला फोड़ना/गोइठा पर किरोसिन डालना/माचिस मारना/फिर गोइठा ऊपर डालकर पंखा देना/और कोयला डालना। फिर नीचे से हवा देना। धुएँ से परेशान है सावित्री। फिर भी वो पंखा हिलाती है और बोलती जाती है।)
सावित्री ः ये भी भला कोई जिंदगी है। सुबह पाँच बजे से रात बारह बजे तक इस चूल्हे के साथ जलते रहो …
(बग़ल की झोपड़ी से बूढ़े खिलावन के खाँसने की आवाज़ उभरती है। थोड़ी देर के बाद लेदरा ओढ़े हुए बाहर आता है। ठंड से ठिठुरने का भाव।)
खेलावन ः अरे बाप रे, कित्ता ठंडा है। इ बुढ़ारी में ठंड हड्डी में ही घुस जाता है।
(तभी निगाह चूल्हे पर पड़ती है, सावित्री चूल्हे में हवा दे रही है।)
का बेटी सावि ऽऽऽ …
(पूरा नहीं बोल पाता है। बोलते-बोलते खाँसी का दौरा। हाँफ़ने लगता है। सावित्री चूल्हा छोड़कर, थाम लेती है।)
सावित्री ः कित्ता बार तो कहे बाबा कि ठंड में बाहर न निकलो। लेकिन तू हो जो आदत से लाचार हो।
खेलावन ः का करूँ बेटी, नींद तो तीन बजे भोरो में टूट गयी। मन मार के इत्ता देर तक पड़े रहे। (ठहर कर) आज तो दस बजे एक साइकिल के डिलवरी देना है। (खाँसने लगता है) अब से ना लगम ते समय पर दे पायब का ? ना देम तो गाली-फजीहत … हाँ, चाय में कित्ता देरी है ?
सावित्री ः चलअ, तू अंदर जा। बन जाई तो आवाज दे देम।
(खेलावन अंदर चला जाता है। इसी बीच जट्टा प्रवेश करता है। उसकी बनियान पसीने से भीगी है। चेहरा पसीने से लथपथ। चेहरे पर से चुहचुहाता पसीना पोंछता हुआ।)
जट्टा ः का सावित्री दीदी चा है ?
सावित्री ः इत्ता भोरे कहाँ से जट्टा ?
जट्टा ः इ हफता का नाइट ड्यूटी है। पसिंजर को हस्पताल पहुँचा के आया हूँ। साढ़े पाँच बजे रिक्शा खटाल में जमा करना है। चा है तो झटपट दे दे।
सावित्री ः ना बाबा ना, अभी तो चूल्हा में ताव आया ही नहीं है। जा तू जमा करके आव, तम्मे चाय पीहअ।
जट्टा ः ठीक बा।
(और जट्टा चला जाता है। सावित्री केतली में पानी भरकर चूल्हे पर चढ़ा देती है। जल्दी-जल्दी पंखा चलाने लगती है। हल्का-सा उजाला होता है … इसी बीच जलधर लोटा लिये वापस आता है।)
सावित्री ः जा जल्दी से हाथ माँजकर हवा दअ। हमहूँ पाखान से हो आएँ।
(जलधर के छोड़े हुए टीन के डिब्बे में पानी भरकर वो चल देती है। जलधर हाथ माँजकर चूल्हे में हवा करने लगता है। तभी एक झोपड़ी से गोपी की आवाज़।)
गोपी ः का भउजी चाह हुआ ? एक ठो भेजना।
जलधर ः अभी सुतअ। थोड़ी देर बाद आना। (अपने से) पानी भी खौले लागल है और इ झाड़े फिरत है। लोग अभी जा रहे हैं। हम कित्ता चीनी डाली, कित्ता चाय डाली, मालुम थोड़े बा। (अनसाकर) जाए दअ, चाय ना बन अपने बुझाई।
(छोड़कर इधर-उधर चहलक़दमी करने लगता है। फिर पाॅकेट से माचिस-बीड़ी निकालता है। बीड़ी सुलगाकर पीने लगता है। तभी सामने से लोटा लिये सावित्री आती है। जलधर बरस पड़ता है।)
जलधर ः का करत रहूँअ। हाथी के हगान रहे कि आदमी के ? इहाँ तीन घंटा से पानी खौल रहल बा और तू वा बैठ के गोबर पाथत रहूँअ।
सावित्री ः (ग़्ाुस्से से) इतने ताव रहे तो काहे न बाप कहलअ कि एगो पाखाना बनवा दें। स्साला जइसे सड़क के किनारे बैठत रही कि खट से कोई गाड़ी वाला आ जाय। कौवनो रिक्शावाला आ जाय। कवनो टैक्सी वाला आ जाय। का करती ? उनके सामने बैठकर पाखाना करती। उठत-बैठत, उठत-बैठत त इत्ता देर गइल। पाखाना भी न भइल।
जलधर ः अच्छा, छोड़-छोड़ पानी कब से खौल रहा है। चाय-चीनी डाल।
(सावित्री आकर काम में लग जाती है। तभी- पौ फट चुका है। सड़क पर आवाजाही बढ़ने लगती है। गोपी का प्रवेश। एक छोटी सी कंघी से केश सँवारता हुआ। लुंगी और कमीज़ पहने।)
गोपी ः का जलधर भैया, का हो-हल्ला मचाये हो ? (सावित्री से) भउजी तोहर चाय बन रहा है कि बीरबल की खिचड़ी ? अरे इहे तोहर एक कप चाय पर दिन भर का जतरा बनता है और ऊहो में इतना देरी।
(कहता हुआ सामने की बंेच पर बैठ जाता है। तभी जट्टा आ जाता है। सावित्री चाय छान रही है। चूल्हे के नज़दीक बाल्टी और जग रखा हुआ है। जट्टा एक जग पानी निकालकर मुँह-हाथ धोता है। फिर चूल्हे के नज़दीक से थोड़ी राख लेता है। मुँह धोने लगता है। फिर मुँह में कुल्ला भर पानी लेकर हिलोर-हिलोर कर बाहर फेंकता है। पुनः बेंच पर आकर बैठ जाता है। तभी खेलावन बोलते हुए झोपड़ी से निकलता है।)
खेलावन ः बड़ी देर हो गइल चाय में।
जलधर ः बस्स हो गइल चाचा …
(सावित्री चाय छानने का अभिनय करती है। छोटे-छोटे गिलासों में डालती जाती है। एक साथ एक हाथ में दो गिलास थामती है और दूसरे में दो गिलास। सबसे पहले वो बंेच पर बैठे खेलावन को देती है। फिर गोपी को। फिर जलधर को। उसके बाद जट्टा को। मुड़कर चूल्हे के पास पहुँचती है कि खेलावन बोल पड़ता है …)
खेलावन ः एक ठो तु हूँ ले ले बेटी …
जलधर ः (चुस्की लेकर) वाह-वाह ! क्या कड़क चाय बना है।
सावित्री ः ठठ्ठा मत करअ। पीयअ चुपचाप … का बात है, कवि भइया का नींद नहीं टूटी का।
(तभी कवि का प्रवेश)
कवि ः नींद टूटेगी क्या ? हम सोये ही कब ? देर रात तक तो किताबों पर ज़िल्द चढ़ाते रहे। कितनी सड़ी-गली किताबें लोग दे जाते हैं और कहते हैं बाँध दो। बड़ी मुश्किल है। एक किताब पर जिल्द चढ़ाने में घंटों लग जाते हैं। नया कुठ लगाओ, नई ज़िल्द लगाओ। भारी-भरकम किताबें और पैसा … मात्र चार रुपया। जोड़ूँ तो एक घंटे का मेहनताना आठ आना भी नहीं पड़ता।
(इतना कहकर बंेच पर बैठ जाता है। सावित्री उसके बंेच पर चाय रखकर)
सावित्री ः लो भइया, चाय लो। सारी थकान मिट जायेगी।
कवि ः अरे हम क्या थकेंगे। थकान के तो हम आदी हो गये और थकान हमारी।
सावित्री ः अरे वाह, कवि जी, ये तो कविता हो गयी है।
कवि ः अरे नाँहि रे गोपी। कविता तो उसको कहते हैं जो सजे-धजे कमरों में, एकांत में बैठकर, सोफ़े के मुलायम गद्दों पर बैठकर की जाय। यहाँ तो रहने का ठौर नहीं। इसे कविता मत कहो, ये तो ज़िंदगी का बोल है।
गोपी ः तोहार बात तअ भैया, अपन समझ में नहीं आती। (गिलास को बेंच पर रखते हुए) चलता हूँ भइया, दूकान सजाना है। परब का टाइम है न। लोग सबेरे ही खरीदारी को निकल आते हैं।
कवि ः (गोपी से) आजकल क्या चल रहा है ?
गोपी ः वही कलकत्ता से नये रेडीमेड कपड़ा लाया हूँं।
जट्टा ः तो कुछ बचता-ऊचता है कि नहीं ?
गोपी ः का बचेगा ही, एक तो दस रुपया सामान का दाम बोलो तो लगायेंगे चार रुपये। बड़ा दूकान में कोई मोल-मोलाई नहीं। अपन यहाँ दाम छुड़ाने के लिये ही झगड़ा कर लेते हैं। ऊपर से स्साला ई पुलिस का जोर। रोज स्साला ट्राफिक का पुलिस बदलता रहता है। एक न एक कपड़ा बट्टी में लेगा ही। बँधा-बँधाया पैसा तो अलग। ऊपर से धौंस और।
सावित्री ः हमरो दूकान पर तो भइया, दस कप चाय ई मुँहजला तो पी ही जाता है। ऊपर से चुटकी। जैसे कि हम उन की भउजाई हुई।
खेलावन ः पूरे देश का यही हाल है। कलकत्ता में रहली तअ यहे देखनी। दिल्ली में यही होता था। यहाँ भी यही है। पुलिस और गुंडा का राज।
(सब अपना-अपना गिलास रखकर चले जाते हैं। सावित्री समेटकर गिलास धोने का मूकाभिनय करती है। साथ-साथ कल्पित ग्राहकों को चाय देने लगती है। कुछ क्षण तक यही …)
जलधर ः (आते हुए) अरे सवित्तिरिया, ठेला ले के जा रहे हैं। गोदाम से बाज़ार तक सामान पहुँचावे के है। बारह बजे आयेंगे। खाना तैयार रखना।
(कहकर चला जाता है।
सावित्री अपने काम में लग जाती है। कुछ क्षण उपरान्त।)
सावित्री ः ओह, चूल्हा का ताव ख़त्म हो गया और कोयला भी नहीं है। जाते हैं पहले कोयला ले आयें। खाना भी बनाना है।
(कहने के साथ बाहर चली जाती है।)
दृश्य-2
स्थान: वही
समय: दोपहर।
(अब गोपी, कवि, सावित्री और खेलावन एक साथ अपने-अपने सामानों के साथ आते हैं। सड़क के किनारे अपनी दुकानें लगाते हैं। जैसे कि सावित्री पहले जैसा चाय बनाने लगती है। गोपी ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ देने लगता है। खेलावन साइकिल बनाने में जुट जाता है। कवि के सामने कटी-फटी किताबें हंै, उन्हें वो सी रहा है। सभी अपने-अपने कार्यों में तल्लीन। सड़क पर लोगों का आना, जाना और ज़्यादा।)
गोपी ः (आ-जा रहे लोगों को आवाज़ दे-देकर) ले लो, ले लो। रंग-बिरंगे कलकत्ते वाला माल। ले लो, ले लो बाबू। हर तरह का माल मिलेगा। बाबा सूट, बेबी सूट। मैक्सी ले लो, मीडी ले लो। इस्कर्ट, फ्राक, ब्लाउज, पेटीकोट, टी-शर्ट, फ्लाइंग शर्ट। सब माल मिलेगा रेडीमेड। माल बच गया थोड़ा। बाबा सूट दस रुपये जोड़ा। काला हो या गोरा। सबके लिए एक दाम।
(और हाथ हिला-हिलाकर बेचने का मूकाभिनय करता है। खेलावन साइकिल में हवा देते हुए।)
खेलावन ः अरे, जल्दी है तो दूसरी दूकान से हवा ले लीजिये न। काहे माथा चाट रहे हैं। कहीं बैठे हैं का ? (दूसरे से) देखिये बाबू, एक पंचर की बनवाई एक रुपया लगेगा। वो भी आधा घंटा के बाद मिलेगा … अरे जल्दबाज़ी है तो मैं का करूँ ? चार हाथ हैं का हमारे ? (पाॅज़) जबान सम्भाल के बाबू, यहाँ रे तो नहीं चलेगा … आपके जैसे बहुत देखे हैं, जाइये-जाइये अपना काम देखिये।
(गोपी अपने ग्राहक से)
गोपी ः अरे दीदी जी, इसके रंग का क्या कहना। फटने के बाद भी यदि मद्धिम हो जाय तो लौटा दीजिएगा। यह दूकान यहीं मिलेगी। गोपी कहीं भागने वाला नहीं है।
(सावित्री चाय उलिझ-उलिझ कर दे रही है।)
सावित्री ः तनिक रुक जाइये भइया। गिलास खाली होय दअ। हाँ भाई, हाँ, सावित्री के चाय के साठे पइसा दाम रही। का कहलअ, महँगा है, तअ हियाँ सस्ता का है ? जोड़ ल न, साठ रुपये किला तो चाय के पत्ती हो गइल, चालीस रुपये कोयला, आठ रुपये चीनी और सात रुपये दूध। हमरा का बचलऽ, दस पइसा। अरे कह त हम दूसरे के सामान बेचत हैं। आपन मिहनत के बस दस पइसा। ऊहो दस पैसा छोड़िये देम तो अपने जिये खातिर का बची ? इहे दस पइसा में पुलिस बाबू की बट्टी, रंगबाजन के मुफतखोरी भी शामिल बा।
(तभी सड़क पर से जलधर ठेला लिये गुज़्ार रहा है। वहीं से आवाज़ देता है।)
जलधर ः इ सामान पहुँचा के आवत हैं, खाना तैयार रखिये।
सावित्री ः ओह, अभी तक खाना भी नहीं बना है। केतली उतार कर तनी खिचड़ी ही बना लेते हैं।
(खेलावन पुकारता है।)
खेलावन ः अरी सावित्री बेटी एगो चाय भेजना तअ।
(कवि अपना काम छोड़कर चाय की दुकान पर आता है। एक गिलास चाय लेकर अपनी जगह फिर वापस आ जाता है।)
कवि ः ये किताब बाँधना भी अजीब पेशा है। जनाब बोल गये कि किताब बाँधकर तैयार रखना … किताब तैयार है लेकिन अभी तक उनका दर्शन नहीं है। बोहनी भी नहीं हुई है। (दूसरी किताब बाँधने के लिए जब उठाता है।) अरे, ये तो कार्ल माक्र्स का कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र है। (पढ़ता है) लिखा है, अभी तक आविर्भूत समाज का इतिहास वर्ग संघर्षांे का इतिहास रहा है।
(सावित्री की दुकान पर)
सावित्री ः कह दिया न चाह नहीं है। देखते नहीं, खाना चढ़ा है।
(तभी जंगी आता दिखाई देता है। जब वो सावित्री की दुकान पर आता है तो बोलता है।)
जंगी ः (मुस्कराकर) का सवितरी, चाय पिलाओगी ?
सावित्री ः ना भइया, अभी तो खाना चढ़ा है।
जंगी ः लेकिन हम तो तोहरा हाथ के आज चाय पी ही के जायेंगे।
सावित्री ः ना भइया, अभी तो मजबूरी है …
जंगी ः ऐ सवितरी, तुमको एहो नहीं बुझा रहा है कि किससे बात कर रही हो ?
सावित्री ः त इ हम कहाँ कह रहे हैं कि चाह नहीं पिलायेंगे। हम तो कहत है अभी खाना चढ़ा है।
जंगी ः खाना उतारो और चाय चढ़ाओ। जासती नखरा मत पसार स्साली …
सावित्री ः ऐ ऽ ऽ ऽ जंगी, ज़बान सम्भाल के। सावित्री चाह बेचती है, इज्जत नाहीं।
जंगी ः हरामजादी इज्जत पसारती है। दिन भर दस गो यार जुटाये रखती है और हमरा सामने सती-सावित्री बनती है।
सावित्री ः (अत्यंत ग़्ाुस्से में भरकर) अरे जा-जा, यार जुटाती होगी तेरी माँ-बहन।
जंगी ः ह-रा-म … जा-दी ऽ ऽ ऽ …
(कहते हुए सावित्री की तरफ़ बढ़ता है। सावित्री ज़मीन पर से चिमटा उठा लेती है।)
सावित्री ः बढ़ के तो देख कमीने …
(जंगी थमक जाता है। तभी आवाज़ सुनकर गोपी, खेलावन और कवि वहाँ आ जाते हैं।)
सब ः क्या हुआ ? क्या हुआ ?
सावित्री ः (रोते हुए) इ मुँहझौंसा, हमको गाली दिया …
(तभी अचानक जलधर पहुँच जाता है।)
जंगी ः अरे स्साला जलधरवा, चेता दे अपनी जनानी को। नहीं तो झोपड़ी उखड़ कर फेंक दूँगा।
जलधर ः अरे नासमझ है जंगी भइया, माफ कर देना। (और पलटकर सावित्री से) तू रोज के रोज दूकान पर झंझटें करती है। जानती नहीं जंगी भइया को। खबरदार जो आगे से मुँह लड़ाया। जबान काट के रख दूँगा। चल अंदर चल, जाती है कि नहीं रे …
(ठेलकर सावित्री को दूर करता है। फिर जंगी से)
माफ कर दो भइया, अब आगे से भइया ग़लती नहीं होगा।
जंगी ः ठीक है, अभी तो जाता हूँ लेकिन इसका मज़ा एक दिन चख के रहेगी।
(और तैश में बाहर … तब तक खिचड़ी जल जाती है। जलधर चिल्लाकर।)
जलधर ः अरे दौड़ सावित्री, खिचड़ी जल गया।
सावित्री ः जले दअ। हमरा ना खाय के है खिचड़ी।
जलधर ः तब मात खा … रहअ भुखासल।
(जलधर ग़्ाुस्से से खिचड़ी उतारता है। गर्म हाड़ी उसके हाथ से छूट जाती है। खिचड़ी नीचे पसर जाती है।)
जलधर ः (बड़बड़ाकर) स्साली ग्राहक से झगड़ा करत रही, मुँह फुलावत रही और खिचड़ियो गिर गइल। अब का खाई … अरे उठबे कि आ के चार लात दीहिं … जा … फेंकना के दूकान से पाव भर सतुआ ले आ …
(सावित्री नहीं आती है।)
अइले ऽऽऽ …
(फिर भी नहीं उठती है।)
लात के देवता, बात से ना बूझे। कह देतनीऽ …
(अभी भी सावित्री नहीं आती है।)
स्साली ऽऽऽ …
(दाँत पीसते हुए जलधर उठता है, बग़ल से लकड़ी का एक डंडा उठा लेता है और तेज़ी से झोपड़ी के अंदर घुस जाता है। अंदर से जलधर के पीटने और सावित्री के ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़। फिर गोपी, कवि, खेलावन दौड़े हुए आते हैं।)
सब ः अरे जलधर, अरे सवित्तरी बाहर आ। काहे को लड़ रहा है।
(सावित्री रोते हुए बाहर आती है। पीछे-पीछे जलधर। तभी अचानक सामने से जट्टा का प्रवेश।)
सावित्री ः देखअ-देखअ भइया, न मौउगा हमरा पिटअता। हम जँगिया के चाह ना देनी तो इ हमरा के मारलस। आकरा के सामने हमरा बेइज्जत करलस। अरे जँगिया से डर लागत बा, त जाकर चूड़ी पहिनके घर मँ बैठअ।
जट्टा ः जलधर भइया, इ ठीक बात नइखे। इ गुंडा के खातिर अपन जनानी के पीटल।
कवि ः अपनी कमज़ोरी छुपाने के लिए तू अपनी औरत को पीटता है। लाज नहीं आती ?
खेलावन ः जा-जा, सब अपना काम कर सअ। सड़क पर भीड़-भाड़ होवे से ट्राफिक जाम हो जाई। पुलिस वाला आके गाली दीहिं।
(सब जाने को होते हैं कि तभी सड़कर पर पुलिस का प्रवेश। उसके हाथ में डंडा है। ज़ोर-ज़्ाोर से बोलता है।)
पुलिस ः सुनो-सुनो-सुनो झोपड़पट्टी वालों, ध्यान से सुनो। हमारे राज्य के मुख्यमंत्री परसों पधार रहे हैं। शहर की सफाई होगी। सड़कों पर तोरणद्वार बनेंगे। ये झोपड़पट्टी हटा लो नहीं तो कल शाम को पूरी झोपड़पट्टी उजाड़ दी जायेगी ऽ ऽ ऽ …
(घोषणा करते हुए चला जाता है। ये सुनते सभी लोग स्तब्ध और भौचक से। मानो उनके सोचने की शक्ति एकाएक जवाब दे गई हो। कुछ क्षण तक बुत बने रहते हैं, अपनी-अपनी जगहों पर। काम में किसी का मन नहीं लगता। वे उठ जाते हैं। अपनी-अपनी झोपड़ी की तरफ़ प्रस्थान।)
दृश्य-3
स्थान: पूर्ववत्।
समय: शाम 6 बजे।
(सूर्य ढल चुका है। अँधेरा पाँव पसारने लगा है। शनैः-शनैः ठंड भी शुरू हो गयी है। लोगों का आना-जाना कम होने लगा है। सावित्री की दुकान पर एक लालटेन टँगी है। छन-छनकर रोशनी सड़क पर आ रही है अन्यथा सड़क के सारे लैम्पपोस्ट बुझे हैं। सड़क के एक किनारे पीपल के पेड़ के नीचे हनुमानजी की एक मूर्ति है। वहाँ अलाव जल रहा है। अलाव के नज़दीक कवि बैठा हुआ है। वो दर्दीले स्वर में गाना गा रहा है। गाना सुनकर झोपड़पट्टी के लोग आ-आकर अलाव के चारों तरफ़ बैठते जाते हैं।)
गीत
आज़ादी के बाद यहाँ घटना कुछ ऐसी घटी।
गाँवों से बेघर हुए, शहरों में बनी झोपड़पट्टी।
गोरी चमड़ी चली गई पर काली चमड़ी वालों ने
लूट करोड़ों की मेहनत को भेजा विदेशी ख़ज़ानों में।
हर पाँच साल पर नारों से बाँधी आँखों पर काली पट्टी
गाँवों से बेघर हुए, शहरों में बनी झोपड़पट्टी।
सैंतालीस के बाद यहाँ, ऐसा कुछ कमाल हुआ
क़ुर्बानों का गला यहाँ फिर एक बार हलाल हुआ।
शहादत का क्रम जारी है कहती यहाँ की लाल मिट्टी
गाँवों से बेघर हुए, शहरों में बनी झोपड़पट्टी।
बढ़त रही धनवानों की, महलें छूती आसमाँ
जिनके थे घर-द्वार कभी, उनका नहीं नामो-निशाँ।
इतिहासों में क़ैद यहाँ जनता की बस छटपटी
गाँवों से बेघर हुए, शहरों में बनी झोपड़पट्टी।
दिन भर करते काम, नहीं आराम, मगर पेट ख़ाली
बदहाली का कारण है, ये सरकार दिल्ली वाली।
कैसा है ये समाजवाद कि नुचती है बोटी-बोटी
गाँवों से बेघर हुए, शहरों में बनी झोपड़पट्टी।
जो शोषित हैं जो शासित है उनकी कैसी आज़ादी
देश हुआ आज़ाद मगर, अपनी केवल बरबादी।
ज़िंदा लाशों से पटी है, ये देश है या मरघाटी
गाँवों से बेघर हुए, शहरों में बनी झोपड़पट्टी।
(गाना समाप्त)
(गाना सुनकर कुछ क्षण तक वहाँ बड़ी ही शांति एवं सन्नाटा व्याप्त रहा। उस नीरवता को भंग करता है गोपी।)
गोपी ः ओह, बड़ा दर्दीला गीत गाये कवि भइया। लेकिन अर्थ समझ में नहीं आया।
खिलावन ः ठीक तो गइलन कवि जी। हम जावन रही, पन्द्रह-बीस के रही। अंगरेज के जुलुम देखले रही। लेकिन ई का ? आजादी मिले के बाद का भइल ? गाँव छुटल, दुआर छुटल, बनिहारी करते-करते शहर आ गइनी। रिक्शा चलावे लगनी और अब यही रिक्शा फिटिंग करत बानी … हाँ एक अंतर त जरूर भइल- पहिले कमात रही त मौउगी के खिलावत रही, दू गो बेटी बियाहली लेकिन अब … भर दिन के कमाई से तो आपन पेट भी न पोसाला।
गोपी ः ओह, बड़ा दर्दीला गीत गाये कवि भइया। लेकिन अर्थ समझ में नहीं आया।
खिलावन ः ठीक तो गइलन कवि जी। हम जावन रही, पन्द्रह-बीस के रही। अंगरेज के जुलुम देखले रही। लेकिन ई का ? आजादी मिले के बाद का भइल ? गाँव छुटल, दुआर छुटल, बनिहारी करते-करते शहर आ गइनी। रिक्शा चलावे लगनी और अब यही रिक्शा फिटिंग करत बानी … हाँ एक अंतर त जरूर भइल- पहिले कमात रही त मौउगी के खिलावत रही, दू गो बेटी बियाहली लेकिन अब … भर दिन के कमाई से तो आपन पेट भी न पोसाला।
कवि ः आज की घोषणा सुने थे न, कल शाम तक ये झोपड़पट्टी अगर ख़ाली नहीं किये तो पुलिस ख़ाली करा देगी।
(तभी जट्टा आता है।)
जट्टा ः केकर मजाल, जो खाली करा दिहीं। पिछली बार चुनाव में भोट लेवे बेरा तो कहले रहन कि हमनी के बासगीत के परचा देंगे। भोटर लिस्ट में नाम चढ़ गया, अब हटा कैसे देंगे ? मिसिर बाबा तो कह रहे थे कि अब ये ज़मीन तुम लोगों का हमेशा-हमेशा के लिये हो गया। अब फिर उजाड़े के बात कहाँ से आ गई ?
(तभी मिसिरजी का प्रवेश। अधेड़ उम्र के। सर पर गाँधी टोपी लगाये। कंधे से झोला लटकाये।)
लअ, मिसिर बाबा आ गये … का हो बाबा, हमरा सबके इ जमीन छोड़ना पड़ेगा।
खिलावन ः का हो मिसिर जी, आज के घोषणा सुन लअ ! मुख्यमंत्री के आवल हमरा सबके लेल खुशी का बात है कि आफत का खजाना।
गोपी ः हाँ-हाँ मिसिर जी, बताई रउवा तअ सरकार के काफी नजदीकी है।
मिसिरजी ः (सम्भल-सम्भलकर) देखो भाई, ई सरकार को तो तुम लोगों ने जिताया। हमारी पार्टी को तुम लोगों ने जिताया। बोलो, तुम लोग वोट दिये थे न ?
सब ः हाँ-हाँ देले रही, देले रही।
मिसिरजी ः तो इस सरकार की इज्जत, शान, शोभा ही तो हमारी शोभा है, इज्जत है, शान है। मुख्यमंत्री के स्वागत में अगर इस शहर को सुन्दर बनाने के नाम पर यह झोपड़पट्टी थोड़ी देर के लिए हटा दी जाय तो तुम्हारे लिये ख़ुशी की बात नहीं होगी।
(सब चुप)
अरे मेरी मानो तो मानो, इस शहर का तो भाग्य ही जग रहा है।
जट्टा ः अरे भाग तो आप ही के जग रहा होगा मिसिर जी। यहाँ तो करम फूट रहा है। सोचिये भला, इस जाड़े की रात में सैकड़ों बाल-बच्चे कहाँ रात गुज़ारेंगे ?
मिसिरजी ः देख जट्टा, हमको बहस करने नहीं आता। हम तो यह समझाने आये थे कि मुख्यमंत्री जी को खुश करने के लिए एक सौ ग्यारहवाँ तोरणद्वार यहीं की झोपड़पट्टी कमेटी बनायेगी।
कवि ः झोपड़पट्टी उजाड़ देने की ख़ुशी में, क्या मिसिर जी … यही न ?
मिसिरजी ः मैं सब जानता हूँ। जब से वह दाढ़ी वाला नेता आने लगा है, तुम लोगों का मिज़ाज़ उलट गया है।
कवि ः हाँ-हाँ मिसिर जी, जब तक कंधा पर चढ़ा बोझ ढोते रहे तब तक तो मीठा और जैसे ही कहे कि भारी लगता है कि तीता !
मिसिरजी ः ठीक है, जो अच्छा समझो करो भाई। पीछे हमको दोष मत देना।
(और उसके बाद सब उठकर अपने-अपने ठिकानों को रवाना।)
जट्टा ः तो बताओ कवि भइया कि अब का होई ? कई जगह से तो उखड़ के यहाँ तनी बसे थे। पाँच साल से रह रहे थे। लोग कहा करते थे कि अब तुम लोगों का भोटर लिस्ट में नाम चढ़ गया। नागरिकता मिल गयी। अब कुछो न होगा।
कवि ः विपत्ति तो सचमुच आन पड़ी है। लेकिन सब लोगों को मिलकर एक रास्ता तो तय करना ही होगा। ऐसा करते हैं कल यहीं काॅमरेड बाबू को बुलाकर दस बजे दिन में मीटिंग करते हैं।
खिलावन ः बिल्कुल ठीक, वही अब कोई रास्ता दिखायेंगे।
गोपी ः त हमार एक राय। कल झोपड़पट्टी के सब दूकान बन्द रहेगा।
सब ः ठीक-ठीक ! बन्द रहेगा, बन्द।
(और उसके बाद सब उठकर अपने-अपने ठिकानों को रवाना।)
दृश्य-4
स्थान: पूर्ववत्।
समय: 26 दिसम्बर, दिन के 10 बजे।
(सड़क के एक किनारे, पीपल के उसी पेड़ के नीचे जहाँ हनुमान जी की मूर्ति है, झोपड़पट्टी के लोग जुटे हुए हैं। उनके बीच काॅमरेड बाबू भी हैं। सब उदास और मन मारे हुए। कवि उनके बीच से उठता है। चबूतरे पर खड़का होकर लोगों को सम्बोधित करता है।)
कवि ः (गम्भीर आवाज़ में) मेरे प्यारे झुग्गी-झोपड़ीवासियों। आज शाम को हमारी झुग्गी-झोपड़ी उजाड़ दी जायेगी। नगर प्रशासन की ओर से ऐसा ऐलान कर दिया गया है। वजह हमारे राज्य के माननीय मुख्यमंत्री आने वाले हैं। उनको ये शहर नई नवेली दुल्हन सी सजी भेंट होगी और हमारी झुग्गी-झोपड़ी उन्हैं पैबन्द लगी साड़ी-सी लगती है। हम गन्दगी के प्रतीक हैं उनके नज़रों में। एक बदनुमा दाग़ हैं इस शहर के। ऐसे ही मुश्किल और आफ़त के क्षणों में (काॅमरेड बाबू की तरफ़ देखकर) एक सही सलाह के लिए हम काॅमरेड बाबू से गुज़ारिश करते हैं कि ये हमें सही सुझाव दें कि अब हम क्या करें। आइये काॅमरेड बाबू …
(काॅमरेड बाबू झोले को सम्भालते हुए, कंधे से क़रीने से लटकाये मुस्कुराहट और गम्भीरता का भाव चेहरे पर लाते हुए चबूतरे पर चढ़ जाते हैं। लोग तालियाँ देते हैं। कवि अपनी जगह पर आकर बैठ जाता है। कुछ क्षण तक काॅमरेड बाबू गम्भीर होने की मुद्रा बनाते हैं। फिर …)
काॅमरेड बाबू ः (नपे तुले शब्दों के साथ गम्भीर आवाज़ में) झुग्गी-झोपड़ी के मेहनतकश मज़दूर भाइयों ! जिस समय आप लोगों को बासगीत परचा देने का आश्वासन मिला था, उस दिन भी मैंने आप लोगों से कहा था कि ये मात्र आपके वोट को ख़रीदने का झूठा आश्वासन है। आज तक इस सत्ताधारी पार्टी ने पूँजीपतियों का ही साथ दिया है। इनकी नीतियाँ हमेशा मज़दूर विरोधी रही हैं। झूठे आश्वासनों और नारों के सब्ज़बाग़ दिखाकर ये ग़रीब मेहनतकशों के साथ छल और प्रपंच करके अपना ही नहीं, पूँजीवादी और साम्राज्यवादी ताक़तों के हाथ मज़बूत करते रहे ! झुग्गी-झोपड़ियों को उजाड़ते रहना इनका पुश्तैनी धंधा रहा है। जात का नारा, धर्म का भेद, प्रांत की भावना लोगों में जितनी इस सत्ताधारी वर्ग ने भरी उतनी तो यहाँ फिरंगियों ने भी नहीं भरी। लेकिन जैसे फिरंगियों को सात समुद्र पार भगाया। (हवा में हाथ लहराकर) वैसे ही इस पूँजीवादी, अलोकतांत्रिक, फ़ासिस्ट सरकार का हम नामोनिशान मिटा देंगे।
(गोपी उठकर ताली बजाता है। सभी ताली बजाने लगते हैं।)
गोपी ः कामरेड बाबू जिन्दाबाद।
सभी ः जिन्दाबाद-जिन्दाबाद।
गोपी ः इंकलाब-जिन्दाबाद।
सभी ः जिन्दाबाद-जिन्दाबाद।
(काॅमरेड बाबू हाथों से रुकने का इशारा करते हैं।)
काॅमरेड बाबू ः आप लोग उत्तेजित न हों। ध्यान से मेरी बात सुनें … हाँ तो मैं कह रहा था कि झुग्गी-झोपड़ी उजाड़ने में भी साम्राज्यवादी ताक़तों का हाथ हो सकता है। सी.आई.ए. का हो सकता है। लेकिन हमें अति उत्साहित होकर आत्मघाती लड़ाई नहीं लड़नी। अगर वो झोपड़ी उखाड़ने लगते हैं तो हम हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रहेंगे। हम लड़ेंगे। मज़बूत इरादों के साथ लड़ेंगे। लेकिन हमारा रास्ता हिंसा का रास्ता क़तई नहीं होगा। हम धरना देंगे। जुलूस निकालेंगे। मुख्यमंत्री के समीप प्रदर्शन करेंगे। भूख-हड़ताल करेंगे। लेकिन अपना हक़ लेके रहेंगे।
(ताली)
मैं आपके सम्मुख उर्दू के महान् शायर इक़बाल का एक शेर सुनाता हूँ। उन्होंने कहा है –
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर के पहले,
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है ?
(सभी वाह-वाह और ताली की आवाज़ देते हैं। फिर चुप होकर सुनने लगते हैं।)
तो साथियों, आप अपना हौसला बुलंद रखें। आप अकेले नहीं हैं। आपके साथ मैं हूँ। और है मेरा संगठन। इसके साथ ही अपनी बात समाप्त करता हूँ। (ज़ोर से) लाल सलाम।
(सब केवल ताली बजाते हैं। मीटिंग समाप्त होती है। काॅमरेड बाबू हाथ हिलाते हैं। चबूतरे से उतरकर जाने लगते हैं। अन्य लोग इधर-उधर बिखरने लगते हैं। जट्टा काॅमरेड बाबू के पास आता है।)
जट्टा ः भाषण तो आपका बहुत अच्छा रहा कामरेड बाबू। लेकिन हम लोगों को का करना होगा ई तो बुझाया ही नहीं। उ झोपड़ी उखोड़ेंगे तो क्या हम टुकुर-टुकुर देखते रहेंगे।
काॅमरेड बाबू ः देखो जट्टा, हम लोगों ने हिंसा का रास्ता त्याग दिया है। हम लोग शांतिपूर्ण तरीक़े से क्रांति में विश्वास करते हैं। लेनिन ने भी कहा है शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व के सिद्धान्त पर अमल करना। इसका असली मतलब हुआ हम लड़ाई नहीं बंद करेंगे बल्कि लड़ने का तरीक़ा बदलेंगे। जैसाकि मैंने भाषण में भी कहा था। वो झोपड़ी उखाड़ेंगे, हम धरना देंगे। जुलूस, प्रदर्शन करेंगे।
जट्टा ः ठीक है काॅमरेड बाबू, जैसी आपकी मरज़ी।
काॅमरेड बाबू ः ऐसा करो जट्टा, आज शाम को पार्टी दफ़्तर में एक क्लास है। तुम्हारे जैसे उत्साही नौजवान को इसमें भाग लेना चाहिए।
जट्टा ः ना कामरेड बाबू, कोई दूसरा दिन। आज तो यहाँ झोपड़ी उजड़ी। रहना ज़रूरी है।
काॅमरेड बाबू ः ठीक है, फिर कभी …
(कहते हुए काॅमरेड बाबू चले जाते हैं।)
दृश्य-5
स्थान: झोपड़पट्टी
समय: उसी दिन के शाम का।
(आज सभी की दुकानें बंद हैं, इसलिए सब अपने-अपने झोपड़ों में हैं। पूरी झोपड़पट्टी वीरान। एक-दो लोग सड़क पर आ-जा रहे हैं। अँधेरा होने लगा है। झोपड़ियों में कहीं-कहीं ढिबरी जल रही है।
तभी सन्नाटे को भेदती हुई, कड़कती आवाज़ में दहाड़ते हुए पुलिस के सिपाही आते हैं। आते ही तूफ़ान मचा देती है। जैसे बाल्टी को पैरों में लात मारते हैं। बाल्टी दूर सड़क पर जा गिरती है। बंेच उलट देते हैं। चूल्हे को लात मारकर तोड़ देते हैं। उसके बाद दहाड़ पड़ते हैं।)
सिपाही ः का रे गोपिया, जलधरवा ! स्साला सरकारी हुकुम का तामील नहीं किया।
(सब घबड़ाकर बाहर निकल आते हैं।)
झोपड़ी काहे नहीं हटाया रे अब तक …?
(और एक-दो झोपड़ी पर डंडा मारकर गिरा देता है। अंधाधंुध अग़ल-बग़ल की झोपड़ियाँ तोड़ने-फोड़ने लगता है।)
खेलावन ः तनी रुक जा सिपाही जी, सामान निकाले देअ …
(सिपाही खेलावन को ढकेल देता है।)
सिपाही ः हट स्साला बुढ्ढा खूँसट … ज़बान लड़ाता है।
(सावित्री दौड़कर खेलावन को उठाने लगती है। खेलावन खाँसने लगता है।)
जट्टा ः ऐ ऐ ऽ ऽ ऽ … ई का कर रहे हैं। चुपचाप झोपड़ी उजाड़िये। हाथ मत छोड़िये।
(सिपाही जट्टा की तरफ़ दौड़ता है।)
सिपाही ः स्साला बोलेगा रे …
(और लाठी बरसाने लगता है। जट्टा गिर पड़ता है। हाथ पकड़कर घसीटते हुए।)
चल स्साला, गाड़ी में बैठ। सरकारी काम में बाधा देता है।
(जलधर दौड़कर उसकी तरफ़ बढ़ता है।)
जलधर ः छोड़ दो सिपाही जी, ई बुड़बक है …
सावित्री ः (जलधर से) गोड़ का पड़त है रे, जो करे के है करे दे।
सिपाही ः कुत्ती … रस्सी जर गइल, अँइठन न गइल। करेंगे तो अइसा कि परपराये लगेगा। (जट्टा को ठेलता हुआ) बेट्टे चल, जेल की खिचड़ी खायेगा तो सब होश ठीक आ जायेगा।
(जट्टा को ठेलकर बाहर कर देता है। फिर लौटकर अंधाधुंध सड़क पर लाठी भाँजता है जैसे कि कोई गुंडा भाँज रहा हो और बोलता जा रहा है।)
ः ख़बरदार … कोई स्साला सामने नहीं आयेगा। छठी का दूध याद करा दूँगा।
(इसके साथ ही सारी झोपड़ियाँ तहस-नहस कर देता है। कहीं घड़ी बिखरी हुई है, साड़ी, कहीं रेडियो … सबको उठा-उठाकर खोंसने, ज़ब्त करने, हथियाने का मूकाभिनय और साथ-साथ बोले जा रहा है। )
ः लाद दो – लाद दो – सब झोपड़ी को ट्रक पर लाद दो और मुंसीपलटी के कूड़ा-करकट पर फेंक दो। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। कहाँ से ई कंगाली सब आके झोपड़ी बना लेते हैं, और मुसीबत हमारे गले बँधती है। आये दिन शहर में चोरी-चमारी, छीना-छोरी करते रहते हैं चोट्टे। अब पता चलेगा।
(झोपड़पट्टी के लोग केवल देख रहे हैं। सबों के चेहरे पर भय और आतंक। अपनी-अपनी जगह पर स्थिर हैं।
सिपाही अब पलटता है।
सड़क पर भयावह सन्नाटा है । दूर-दूर तक।
किनारे पर टीन का डिब्बा पड़ा है। पुलिस लौटने लगती है। पैरों की गहरी चाप ! डिब्बा उसके बूट के नीचे आ जाता है। दबा देता है। डिब्बे की कड़कड़ाहट। फिर शांति।)
ः यहाँ कोई नहीं रहेगा। यहाँ तोरण द्वार बनेगा।
(इसके साथ ही सिपाही गहरी चाप से चलते हुए खट-खट की आवाज़ करता हुआ बाहर की तरफ़ रवाना। दूर कहीं से कुत्ते की भूँकने की आवाज़ जो भय और आतंक की नीरवता को तोड़ती हुई आतंक की भयावहता को और भी गहरा कर देती है।
झोपड़पट्टी वाले देख रहे हैं … खेलावन के रह-रहकर खाँसने की आवाज़ । कवि केवल घूर रहा है, आँखें स्थिर, फैली उदासी को टटोलता हुआ। उसके ज़ेहन में जमी उदासी पिघल-पिघलकर गुनगुनाने एवं गाने के रूप में फूट पड़ी है …)
गीत
ये मायूस चेहरा, ख़ामोश आँखें
न जाने किसे हर तरफ़ ढूँढ़ती हैं।
सूनी निगाहें तड़पती सी आहें
मौत की वादियों में किसे खोजती हैं।
ठिुठुरता ये मौसम जला आशियाना
कौन सुनेगा दर्दे दिल फ़साना।
रोती हवायें, सुनो कह रही हैं
हर आहट लिये मौत का बहाना।
उजड़ा-उजड़ा समाँ है, चुप आसमाँ
रोती रातों के हो गई सर्द ज़्ाुबाँ।
ख़ामोशियों का है डेरा यहाँ
चुप्पियों में ही होता है दर्द बयाँ।
ख़ौफ़ में डूबा ज़र्रा-ज़र्रा कहे
आँधियाँ बाग़ों से जब गुज़रा करें।
मौत के ढेरों में मिलेगी ज़िन्दगी
नादिरशाही का कितना भी पहरा रहे।
(धीरे-धीरे रात बढ़ती जा रही है। रात का अँधेरा पूरी बस्ती को अपने आग़ोश में समेट जाता है। एक-एक करके लोग पीपल के पेड़ के नीचे जुटते हैं। अलाव जल रहा है। लोग बैठे रात काट रहे हैं। इसी सन्नाटे को भेदती है तोरण द्वार बनने की खटखट … तथा कभी-कभी दूर से कुत्तों की भौं-भौं)
दृश्य-6
स्थान: वही
समय: 27 दिसम्बर, दिन के 8 बजे।
(कल की घटना से थके-माँदे लोग, रात ठंड के कारण देर तक जगे रहने के कारण अभी तक झोपड़पट्टी वाले उस पीपल के पेड़ के नीचे सोये हैं। अलाव बुझ चुकी है। इनके सोने का ढंग उसी तरह का है जैसे कि भेड़-बकरियाँ एक-दूसरे से चिपक कर झंुड में सोयी रहती हैं। यहाँ एक ही आदमी जगा हुआ है, वो है कवि। पेड़ से उढँ़गे हुए। उसकी वीरान आँखें सड़क को, बने हुए तोरणद्वार को ताक रही हैं। एकटक। लगातार। सोये हुए लोगों में सबसे पहले गोपी की नींद टूटती है। हिलता-डुलता है। लेटे-लेटे मज़ाक़ भरे स्वर में सावित्री को कहता है।)
गोपी ः का भउजी, आज चाय का जुगाड़ ना है का ? (हड़बड़ाकर सावित्री उठती है।) सब लोग अइसे ही सोये रहेंगे का ? उठना नहीं है ?
(सब लोग कसमसाते हुए, अँगड़ाई तोड़ते हुए, बुझे हुए अलाव के क़रीब खिसक आते हैं। खेलावन अभी भी वहीं पड़ा है।)
गोपी ः काका, आव-आव आग तापव।
(खेलावन के शरीर में स्पंदन नहीं।)
सावित्री ः (उठते हुए) काका को भी रात चोट लग गइल रहे। ठहरो हम ही उठाते हैं। (खेलावन के पास जाकर) उठअ काका, सवेरा हो गइल। धूप निकल आइल। कब तक सुतल रहब।
(खेलावन ज्यों का त्यों)
(हाथ पकड़कर हिलाती है) उठअ काका, उठअ …(अचानक बोलते-बोलते रुक जाती है) अरे गोपिया, अरे तनी सुनत बानी जी, अरे हो कवि भइया … देखअ त काका के का भइल।
(सभी दौड़ते हैं। जलधर खेलावन की नब्ज़ देखता है। नाक के नज़दीक साँस टटोलता है और दूसरे ही क्षण अत्यंत घबरा जाता है।)
जलधर ः अरे काका, तो मर गइलन।
(ये सुनते ही सावित्री दहाड़ मारकर खेलावन की देह पर गिर पड़ती है। बाक़ी घेर कर खड़े हो जाते हैं। सावित्री लगातार रोये जा रही है।)
सावित्री ः काका हो काका … हमरा सबके अइसे छोड़कर कहाँ चल गईलअ हो काका … हमरा अब के बेटी-बेटी कही हो काका … हमरा से बेटी कह के कौन चाह माँगी हो काका … काका हो काका ऽ ऽ ऽ …
(ये सुनते ही सावित्री दहाड़ मारकर खेलावन की देह पर गिर पड़ती है। बाक़ी घेर कर खड़े हो जाते हैं। सावित्री लगातार रोये जा रही है।)
जलधर ः देखअ हो कामरेड भइया … लोग मार देलन हमार काका के, उजाड़ देलन हमार घर को … लूट लेलन हमार सामान को … हम कहाँ रहब हो कामरेड भइया … हम कहाँ से पावम अपन काका को हे कामरेड भइया …
(इसी बीच बैंड-बाजे के साथ, फूलों से लदा, हाथ जोड़े हुए मुख्यमंत्री का पूरा काफ़िला उस सड़क से गुज़रता है। आगे-आगे पुलिस भीड़ को हटाती जा रही है। बग़ल में हैं मिसिर जी, गजराज सिंह, जंगी। बाजे की गूँज और नेताजी जय-जयकार में सावित्री का चीख़ना-चिल्लाना ग़्ाुम हो जाता है।
इस बीच सावित्री के छाती पीट-पीट के रोने का अभिनय … और इधर जुलूस के गुज़रने का दृश्य …
जुलूस चला जाता है। अब सावित्री के रोने की आवाज़ सुनाई देने लगती है। नेताजी को देखने के लिए जुटी भीड़ अब चबूतरे की तरफ़ जुटने लगी है। काॅमरेड बाबू सावित्री से …)
काॅमरेड बाबू ः ऐ सावित्री, इस तरह रोने से काम चलेगा क्या ? हमारे खेलावन की क़ुर्बानी आँसू बहाने से पूरी नहीं हो सकती। हमें इनकी शहादत से सबक़ लेना है। काका जिस उद्देश्य और मक़सद को लेकर ज़िंदगी भर लड़े, उसको पूरा करने का भार हमारे कंधे पर दे गये। अभी काका की अर्थी का जुलूस निकालेंगे और मुख्यमंत्री से मिलेंगे। हमारी पार्टी के और नेता लोग भी इस जुलूस में शरीक़ होंगे। उन लोगों की पूरी हमदर्दी तुम लोगों के साथ है।
(ये सुनते ही सावित्री दहाड़ मारकर खेलावन की देह पर गिर पड़ती है। बाक़ी घेर कर खड़े हो जाते हैं। सावित्री लगातार रोये जा रही है।)
गोपी ः तब हम लोगों को का करना होगा कामरेड बाबू ?
काॅमरेड बाबू ः जब तक हम माँगपत्र बनाते हैं, तुम लोग अर्थी तैयार करो। लोगों को जुटाओ।
सावित्री ः (रो रही है) काका होअ काका ऽ ऽ ऽ …
काॅमरेड बाबू ः बस सावित्री बस … रोने-धोने से काम नहीं होगा। जलधर, इसको अलग ले जाओ।
(कामरेड बाबू माँगपत्र तैयार करने लगते हैं। बीच-बीच में कवि से विचार-विमर्श। तब तक गोपी, जलधर, सावित्री अर्थी तैयार करते हैं।)
दृश्य-7
स्थान: सार्वजनिक मैदान।
समय: 27 दिसम्बर, दिन के 11 बजे।
(मुख्यमंत्री मंच पर खड़े हैं। सामने चार-पाँच मुँह वाला माइक है। पीछे कुर्सी पर बैठे हैं गजराज सिंह, मिसिर जी, जंगी। बीच की कुर्सी ख़ाली है। मंच के नीचे पुलिस मुस्तैद है। मुख्यमंत्री जी भाषण दिये जा रहे हैं। बीच-बीच में हाथ उठाकर नाटकीय मुद्रा में आवाज़ को कभी तेज़ स्वर, कभी धीरे से बोल-बोलकर अपने भाषण में प्रभाव लाना चाहते हैं।)
मुख्यमंत्री ः इस शहर से मेरा मोह तभी से बना हुआ है जब मैं विद्यार्थी था। मैं इस शहर को राजधानी के बराबर … राजधानी के बराबर स्तर पर लाना चाहता हूँ … गंगा पर पुल बनाने की मेरी योजना है … थर्मल प्लांट का काम चालू करवा चुका हूँ … और तो और यहाँ के रेलवे लाइन के दोहरीकरण की सिफ़ारिश रेलवे मंत्रालय को दे चुका हूँ। नगर में जब नये-नये उद्योग-धन्धे विकसित होंगे तभी इस नगर में ख़ुशहाली आयेगी …
(तभी दूर से एक जुलूस के नारों की आवाज़ सुनाई देती है।
ज़िंदाबाद-जिं़दाबाद …
मुख्यमंत्री आवाज़ की टोल लेने की कोशिश करते हैं। कंधे को उचका-उचकाकर इधर-उधर कान का उपयोग करते हैं, आवाज़ की ध्वनि को पकड़ने का प्रयास करते हैं। अब समझ में नहीं आता तो मिसिर जी को इशारे से बुलाते हैं और इशारे से पूछते हैं कि ये क्या है ?)
मिसिर जी ः (फुसफुसाहट भरी आवाज़ में) कल रात आपके स्वागत की तैयारी में झोपड़पट्टी उजाड़ी गयी थी। लगता है उन्हीं लोगों का जुलूस है।
मुख्यमंत्री ः (धीमी आवाज़ में) सब गड़बड़ कर दिया। सारा इमेज चैपट हो जायेगा। (इशारे से पुलिस बुलाता है) जाओ, जुलूस को दूर ही रोको। या ऐसा करो, उनसे कहो सर्किट हाउस में मिलें।
(पुलिस डंडा भाँजती हुई जुलूस के पास जाती है। जुलूस बढ़ती जाती है। इस बीच नेता जी का हाथ भाँज-भाँज कर भाषण का मूकाभिनय। साथ ही साथ पुलिस का डंडा तानकर जुलूस को रोकने का अभिनय। लेकिन जुलूस का सैलाब आगे बढ़ता ही जा रहा है। मंच के क़रीब चला जाता है।)
ः (पुलिस को जुलूस रोकने में विफल पाकर तथा जुलूस को मंच के क़रीब आते देखकर झट पैंतरा बदलते हुए) लेकिन मैं देख रहा हूँ कि शहर में मेरे कुछ भाई दुःखी हैं। अभी-अभी सुना है कि प्रशासन ने उनके साथ ज़्यादती की है। उनके घर उजाड़े हैं … मैं तो जनता का आदमी हूँ। जनता के बिना मेरा अस्तित्व कैसा ? मैं अभी इ समंच से घोषण करता हूँ, साथ ही डी0एम0/कमिश्नर को ये आदेश देता हूँ कि इनकी झोपड़ियाँ वहीं रहेंगी, जहाँ थीं। साथ ही साथ हर उजड़े हुए परिवार को एक-एक कम्बल और पाँच सौ रुपये की नगद राशि सहायतार्थ दी जाय।
(भीड़ में ताली)
ः लेकिन इसके साथ-साथ मैं झुग्गी-झोपड़ी वालों को आगाह कर देना चाहता हूँ कि वे वामपंथियों के बहकावे में न आवें। देश के ग़द्दारों के साथ किसी तरह की साँठ-गाँठ न रखें क्योंकि हिंसा फैलाने वालों के साथ प्रशासन सख़्ती से पेश आयेगा …
(पानी माँगता है। मिसिर जी गिलास बढ़ाते हैं। गटागट तीन-चार घूँट पीकर गिलास लौटाता है।)
जलधर ः (मुँह माइक पर लेकिन हाथ जोड़े मुख्यमंत्री की तरफ़) हुज़्ाूर के, सरकार के, बहुत-बहुुत कृपा। जल्दी से हमरा सबके बासगीत परचा मिल जाये के चाही। (फिर उसकी निगाह खेलावन की अर्थी पर) हमर खेलावन काका मर गइलन, हमर जट्टा जेहल चल गइल। हुजूर एकरो पर ध्यान रखल जाए।
मुख्यमंत्री ः (मिसिर जी) बोल दीजिए कि इनका आदमी छूट जायेगा और इस लाश की किरया-कर्म के लिए दो हज़ार रुपया दे दिया जायेगा। इसके साथ ही अपने आदमी से ज़िंदाबाद करवा दीजिए।
(मिसिर इन सब बातों की घोषणा कर, साथ ही मीटिंग समाप्त होने की भी घोषणा करता है। घोषणा के साथ ‘मुख्यमंत्री ज़िंदाबाद’ के नारे होते हैं। इसके साथ ही सभा विसर्जित।)
दृश्य-8
स्थान: सर्किट हाउस।
समय: वही तारीख़, रात के नौ बजे।
(सर्किट हाउस के गेट पर पुलिस का पहरा। अंदर मुख्यमंत्री जी की बैठक चल रही है। बैठक में शरीक़ हैं मुख्यमंत्री जी के अलावा शहर के गजराज सिंह, मिसिर जी और जंगी। हाथों में हैं काॅफ़ी के प्याले। टेबल पर कुछ स्नैक्स। आपस में बातचीत चल रही हैं मुख्यमंत्री और गजराज सिंह रह-रहकर कान में मुँह सटाये कुछ बातें करते हैं और ठठाकर हँस पड़ते हैं। मिसिर जी और जंगी भी कभी-कभी कान में मुँह सटा लेते हैं।)
जंगी ः हुजूर, अगर इजाजत दें तो कुछ कहें।
मुख्यमंत्री ः बोलते चलो, हम सब सुनते हैं।
(अभी भी उनका कान गजराज सिंह के मुँह से ही लगा है। बार-बार सिर हिला रहे हैं।)
जंगी ः आज तो बहुत गड़बड़ हो गया हुज़्ाूर।
मुख्यमंत्री ः (चांैककर) क्या ?
जंगी ः यही कि बड़ी मुश्किल से सबन को उजाड़ा गया था। लेकिन एक आप हैं भोलेनाथ कि फिर से बसा दिये।
मिसिर जी ः हाँ हुज़्ाूर, आप ही का तो नाम कहकर डी0एम0 सा’ब से उन लोगों को उजाड़ने का आॅर्डर तामील करवाया था। बेचारे वो आॅफ़िसर क्या सोचते होंगे ? सोचे थे कि इन कंगालन को हटाकर एक गाय का खटाल खोल देते। बड़ी संुदर जगह है। व्योपार के व्योपार अउर गऊ माता के सेवा भी।
गजराज ंिसंह ः नहीं-नहीं, खटाल-फआल वहाँ क्या खुलेगा ? वो जगह तो होटल के लायक़ है ? (मुख्यमंत्री से) और हुज़्ाूर, शहर में तो कोई अच्छा सा होटल भी नहीं है। आप की राजधानी में तो पाँचसितारा होटल है। एक तीन सितार यहाँ भी खुल जाता।
मुख्यमंत्री ः का गजराज बाबू … दो सिनेमा हाॅल, सौ ट्रक, तीन कोल्ट स्टोरेज, तीन काॅलेज और शराब का लाइसेंस, सीमेन्ट का लाइसेन्स … इतना पइसा कहाँ रखियेगा। कौन भोगेगा ? किसके लिये रखियेगा ?
गजराज सिंह ः हुजूर तो ठीक फरमाए, लेकिन अधूरा ही। आपने केवल आमदनी जुड़वाई। खरचा नहीं जुड़वाया। और सब जाने दीजिए न, केवल इस बार आपके इस शहर में आने पर पंद्रह लाख का ख़र्चा हुआ। इसके दो सिनेमा हाॅल या सात ट्रक तो ज़रूर आ जाता। अपने ज़िन्दगी में है क्या ? पार्टी के लिए कमाता हूँ। पार्टी के लिए मरता हूँ। पार्टी के लिए जीता हूँ।
मिसिर जी ः गजराज बाबू एकदम ठीक कहे। इस बार तो इनको इस नगर से जिताना ही होगा।
मुख्यमंत्री ः अरे मिसिर, यही सोचकर तो इन झोपड़ियों को बसाया ताकि ये हमारे लिए वोट बैंक का काम कर सकें। इन कंगालों की ज़िंदगी में केवल पेट है, पेट। रोटी का टुकड़ा फेंको और ख़रीदो।
जंगी ः लेकिन हुजूर, इन लोगों का मन बहुत बढ़ गया है। अब तो वहाँ एकाध दाढ़ी वाला नेता भी पहुँचता है।
मिसिर जी ः हाँ हुजूर, कवनो कम्यूनिस्ट का नेता हैं उन लोगों के बीच जाता है। कुछ भाषण-तासन देता रहता है। सनने में तो आया है कि इहे गजराज बाबू के काॅलेज मे वह दढ़ियल पढ़ाता है।
गजराज सिंह ः अरे-अरे मिसिर, तोरे जात भाई मिसिर बाबा जो महाबीर मंदिर में पुजारी हैं; उन्हीं का तो लड़का है। अरे अभी जवानी है इसलिए ज़रा कम्युनिस्ट-उम्यूनिस्ट बनता है। हम लोग अपने जवानी में नहीं रहे हैं का ? और तू अपने को देखो न। तु हूँ तो कम्यूनिस्ट पार्टी से आया है।
मिसिर जी ः लेकिन फिर भी ठीक नहीं। जाने-अनजाने इन छोटहन को क-ख-ग पढ़ाइए तो य-र-ल-व अपने आप समझ जाते हैं। (मुख्यमंत्री से) हुजूर हमार त राय यही है, छोड़िये हमार गाय के खटाल … गजराज बाबू के जीते-जी हमको कुछ कमी नहीं होगा … लेकिन वहाँ होटल जरूर बनना चाहिए।
मुख्यमंत्री ः का मिसिर होटल-होटल चिल्लाये हो। का जरूरी है इस शहर में होटल का ?
गजराज ंिसंह ः जरूरी तो बहुत है हुजूर। यहाँ पार्टी के नामी-गिरामी नेता सब आते रहते हैं। विदेशी टूरिस्ट आते रहते हैं। अच्छा होटल नहीं हो तो शहर की ही बदनामी होगी।
मिसिर जी ः लेकिन कब कइसे होगा ? हुजूर तो उन लोगन को फिर से बसा दिये।
जंगी ः एक दिन में सब झुग्गी-झोपड़ी जला दूँगा। मार-मार कर स्साले को गंगा पार भेज दूँगा। हुजूर ख़ाली आर्डर तो कर दें।
मुख्यमंत्री ः जँगिया तो गुंडा का गुंडा ही रहेगा। हम तो सोचते हैं कि राजनीति में आकर थोड़ा चेहरा साफ़ करो। सामने चुनाव है और इन कंगालों को उजाड़ दो ? और इन विरोधी पार्टियों को, प्रेस वालों को मौक़ा दो इन सब चीज़ों को हमारे खि़लाफ़ देश-विदेश में उछालने को। यही सीखा है ? (मिसिर की तरफ़ मुख़ातिब होकर) और आप मिसिर जी, इतने दिन आपको साथ रहते हो गये। राजनीति का ककहरा भी नहीं सीखे। अरे मेरे रहते, कुछ बनना है तो मिहनत कीजिए। वार्ड कमिश्नर का चुनाव है और आपके मुहल्ले में दाढ़ी वाला आकर भाषण देता है। का जीतियेगा ?
जंगी ः हूजूर, मिसिर के लिए निश्चिंत रहिए। अकेले हम ही काफी हैं।
मुख्यमंत्री ः (ग़्ाुस्साकर) चुप बेवकूफ़ ! अपने चेहरे पर से पहले ये गुंडा का नक़ाब हटा। अगले बार से तुमको ख़ादी का कुरता-पाजामा और टोपी में देखना चाहता हूँ। (आह्लादित होकर) आ ह् हा … ख़ादी पहनने से तो आत्मा ही पवित्र हो जाती है। गाँधी बाबा का दिया हुआ अभेद्य कवच है ये … अच्छा हाँ गजराज बाबू, होटल-फोटल के लिए ज़मीन ख़ाली होगी, चुनाव के बाद ही, ये बात ध्यान दीजियेगा।
मिसिरजी ः हुजूर हमारा एक विचार। इस बार वार्ड कमिश्नर के चुनाव में हम लोग जंगी भइया को ही खड़ा कर रहे हैं। चेहरा-मोहरा, धाक-रुतबा सब वार्ड कमिश्नर लायक है। बिल्कुल जीत जायेगा।
गजराज सिंह ः हम भी मिसिर के प्रस्ताव से राज़ी हैं हुज़्ाूर।
मुख्यमंत्री ः लोकल स्तर पर तुम लोगों को जैसा अच्छा लगे, करो।
गजराज ंिसंह ः अच्छा हुज़्ाूर, चलते हैं … आपके आराम करने का अब वक़्त भी हो गया है। बहुत थक गये होंगे। वैसे आराम की सारी सुविधा की व्यवस्था मैंने कर दी है।
(सब जाने लगते हैं। पैर छू-छ ूप्रणाम करते हैं। इसी दौरान मुख्यमंत्री -)
मुख्यमंत्री ः अरे जंगी बेटा, मन लगा कर काम किया कर। आगे का भविष्य तुम्हारा है।
(जंगी पुनः पैर छूकर प्रणाम करते हुए चला जाता है।)
दृश्य-9
स्थान: वही झोपड़पट्टी
समय: 10 जनवरी, 1988, शाम का समय।
(सड़क के दोनों किनारों पर झोपड़पट्टी फिर पहले जैसी बस गयी है। सावित्री की चाय की दुकान खुल गई है। गोपी धीरे-धीरे अपना सामान समेट रहा है। कवि किताबों को बाँधकर, बंडल बनाकर उठने की तैयारी में है। जलधर ठेला लिये आता है। ठेला रखकर चाय की दुकान के पास आता है। धूल-पसीने से लथपथ अपने मुँह-हाथ को धो रहा है। सावित्री की चाय की दुकान की बेंच पर काॅमरेड बाबू बैठे चाय पी रहे हैं। इसी बीच जट्टा का आगमन। देखते ही गोपी चिल्ला पड़ता है। गठ्ठर लिये भागता है।)
गोपी ः अरे जट्टा भइया आ गया।
जट्टा ः (कवि से) प्रणाम कवि भइया …
(अभी भी उनका कान गजराज सिंह के मुँह से ही लगा है। बार-बार सिर हिला रहे हैं।)
काॅमरेड बाबू ः कहो जट्टा, कैसे हो ?
जट्टा ः ठीक हूँ। सबके प्रणाम भाई। (सावित्री से) का दीदी, चाय पिलाओगी ?
सावित्री ः (उत्साहित होकर) आप सब लोग जल्दी-जल्दी बैठअ। इहें इतना चाय बाँटके पियेके होई। चूल्हा के ताव उतरत बा।
(सब बेंच के पास आ जाते हैं। सावित्री सबको चाय देती है।)
जट्टा ः (चुस्की लेते) ओह ऽ ऽ ऽ … काका के याद यकायक आ गइल। हमरा सबके बीच बाप दाखिल रहल। कइसे ठिठुर-ठिठुर के मर गइल।
काॅमरेड बाबू ः क्या व्यर्थ की बकवास लगाये हो। पता है तुम लोगों को कि जंगी खड़ा हुआ है चुनाव में।
गोपी ः अरे वाह, जंगी भइयवा तो आजकल खादी के कुरता-पजामा पहनता है। कितना मीठा-मीठा बोलता है।
जलधर ः नेता बनेगा भी तो साॅलिड। का मजाल कि ओकरा सामने पुलिस-कलट्टर के कुछ चल सके।
गोपी ः सुनते हैं कि मुख्यमंत्री का दुलेरुवा है। हम तो अपन वोट उसी को देंगे।
जलधर ः कोई हरजा तो नहीं है।
काॅमरेड बाबू ः (बिफर पड़ता है) तुम लोगों को इतना दिन हम क्लास किये और अब तक वर्ग दुश्मन को नहीं पहचान सके।
जलधर ः अभी हम लोगों को बासगीत का परचा लेना है। भोट न देंगे तो फिर परचा भी नहीं।
जट्टा ः नहीं परचा तो नहीं। एक गुंडा को तो भोट देने नहीं जायेंगे। कल तक माँ-बहिन की इज्जत से खेलता था और आज खादी पहन कर भगत बनता है।
काॅमरेड बाबू ः नहीं जट्टा, वोट तो हमारा अपना अधिकार है। हक़ है। इसे छोड़ना बेवकूफ़ी होगी।
जट्टा ः कैसा बेवकूफी कामरेड बाबू। जेहल में तो हमको एक नेता भेटाया था। कहता था आजकल बक्सा भी उलट-पुलट हो जाता है। सौ के बदले एक आदमी ठपपा मारता है। ई कौन भोट हुआ ? और इसको पकड़ रहना कौन अकलमंदी ?
काॅमरेड बाबू ः फिर भी जट्टा, अगर अच्छे आदमी चुनाव मंे खड़े हों जो तुम्हारे लिये लड़ते हों, उन्हें वोट देने में कोई हर्ज़ नहीं। आखि़र इसी के द्वारा तो हम सरकार चुनते हैं।
गोपी ः देखो न, मुख्यमंत्री जी के पार्टी का जंगी है। झोपड़ी उजड़ी थी तो बेचारे को कितना कष्ट हुआ था। कम्बल बँटवाया, रुपया दिया। बिना मंत्री जी के पार्टी के उम्मीदवार ई सब कहाँ से देगा ?
जट्टा ः चुप्प थुकचट्टा … थोड़ा सा रोटी का टुकड़ा पर हम अपना इज्जत बेचते रहे इसीलिए तो आज हम इस हालत में हैं। (अधिकार भरे स्वर में) साफ़-साफ़ सुन लो तुम लोग। भोट देने के पहले एकमत हो जाना चाहिए। हमारे बीच फूट नहीं चलेगी। कवि भइया तू काहे चुप बाड़अ। अपना राय दअ।
कवि ः बरबाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी है, हर साख पर उल्लू बैठा है अंजामे …
काॅमरेड बाबू ः (बीच में) कवि जी, इसका माने हम सभी उल्लू हैं।
गोपी ः हमरा का मजाल कि कामरेड बाबू हम किसी को उल्लू कहें। हाँ, हर चुनाव में हमें उल्लू जरूर बनाया जाता है।
जट्टा ः कवि भइया एकदम ठीक कहते हैं।
सावित्री ः अरे, रात कित्ता हो गइल। गप्पे कर बस का ? जा सुतअ लोग।
कवि ः अच्छा ठीक है काॅमरेड बाबू। आपकी पार्टी के लिये कैन्डीडेट के लिए हम फिर से विचार करेंगे।
जट्टा ः विचार का करेंगे कवि भइया। कामरेड बाबू जब हम लोगों के साथ उठते-बैठते हैं। जब इनकी इच्छा है तो कह दीजिए इन्हीं की पार्टी को अबकी भोट देंगे।
(तभी घंटाघर का ग्यारह बजे का घंटा)
जलधर ः और कहीं जंगी तंग करेगा तब।
सावित्री ः तंग करेगा तअ तोहरा से रिश्ता तोड़ेगा। हम लोगों का क्या ?
जट्टा ः कोई तंग-वंग का बहाना नहीं, जलधर भइया। हमारा भोट जिधर जायेगा, एक तरफ़ जायेगा।
(सब लोग एक-दूसरे को नमस्कार करके इधर-उधर चल देते हैं।)
दृश्य-10
स्थान: वही।
समय: 15 जनवरी, शाम।
(जंगी खद्दरधारी बन अपने प्रचार अभियान पर निकला है। उसके साथ हैं मिसिरजी और कुछ लफ़ंगे क़िस्म के कार्यकर्ता। जंगी दुकानदारों को नमस्कार करते हुए बढ़ता है। बढ़ते हुए गोपी की दुकान तक आता है। गोपी सामान समेट रहा है।)
मिसिरजी ः जानते हो न गोपी, इस बार अपने एरिया के चुनाव में जंगी बाबू खड़े हैं।
गोपी ः त हम जंगी भइया को पहचानत नहीं हैं ?
जंगी ः तब गोपी ? तोहार एरिया का क्या हाल है ?
गोपी ः भइया हाल खराब है।
मिसिरजी ः का बोले रे ?
गोपी ः अब की सब लोग कामरेड बाबू के पार्टी को भोट देगा। एकमत से विचार हुआ है … हमार नाम मत कहिएगा। जट्टा के घर में ही मीटिंग हो रहा है।
(जंगी तमतमाते हुए सावित्री की दुकान के सामने आता है। सावित्री चाय बना रही है।)
जंगी ः हुअ। त तू भोट किसको देगी ?
सावित्री ः इ भोट भी का दिखा के और कह के देखल जाला।
जंगी ः तनी ठीक से बात कर सवित्तिरिया। एक बित्ता के जीभ रखी है न, खच्च से काट देम।
(जंगी चाकू निकाल लेता है)
सावित्री ः दौड़अ जट्टा भइया। गुंडवा आइल।
जंगी ः स्साला तू मीटिंग करता है। यहाँ कामरेडवा को बुला के रखा है। नमकहराम, बासगीत परचा हम देंगे, कम्बल हम बाँटेंगे, स्साले को अरथी जलाने का पैसा हम देंगे और वोट कामरेडवा के पार्टी को।
जट्टा ः चुपचाप यहाँ से चला जा जंगी।
जंगी ः नहीं तो का कर लेगा ?
(और छूरा उठाता है। जट्टा एक हाथ से उसके छुरे वाले हाथ को पकड़ता है और दूसरे हाथ से जंगी के मुँह पर प्रहार करता है। जंगी के हाथ से छुरा गिर पड़ता है। जंगी गिर पड़ता है। जंगी अपने साथियों को आवाज़ देता है।)
जंगी ः मारो स्साले को। जला डालो झोपड़पट्टी।
(तथा वो पलटकर सावित्री की चाय की दुकान से चिमटा उठा लेता है। सावित्री पकड़ने के लिए दौड़ती है कि हाथ सावित्री पर दे देता है।)
जंगी ः हट स्सालाऽऽ …
(सावित्री गिर पड़ती है। उसका सर फट जाता है। जलधर सावित्री की तरफ़ दौड़ता है। जलधर के सर पर भी जंगी प्रहार करता है। जलधर के सर से ख़ून निकलने लगता है। आह करके वहीं बैठ जाता है। जट्टा जिसको मिसिर जी पकड़े हुए हैं, एक झटका देकर नीचे गिरा देता है तथा जंगी पर झपटता है। जंगी जट्टा पर भी चिमटे से वार करता है। जट्टा का सर फट जाता है। ख़ून बहने लगता है। इसी बीच गोपी दौड़ता हुआ आता है, पीछे-पीछे कवि लड़खड़ाते हुए)
जंगी ः चुप स्साला कंगाल ! (वो एक लात गोपी को और एक लात कवि को मारता है। फिर अपने साथियों से।) देखो कोई बचने न पाये ! भसम कर दो !
(जंगी के कार्यकर्ताओं के अंदर मानों ख़ून सवार हो गया हो। वे दानवों की तरह उत्पात मचाने लगते हैं। झोपड़ी में आग लगाने लगते हैं। उजाड़ने-उखाड़ने लगते हैं।
ये सब देखकर सावित्री अपना होश खो बैठती है। अर्द्धविक्षिप्त-सी दशा हो जाती है। केश बिखरे हैं। आँखें फैली हुईं। चेहरा उखड़ा-उखड़ा। वो सड़क पर इधर-उधर बेतहाशा भाग रही है। चिल्ला-चिल्ला कर आते-जाते लोगों को बुला रही है।)
सवित्री ः अरे दौड़अ रे, कोई बचाव रे … ई राक्षसवा से कोई बचाव रे … मर गइनी रे दादा … मार देलस रे दादा … अरे देखअ-देखअ … ई जुलमी हमार झोपड़िया उजाड़ता रे, जलावत बा रे, हमार स्वाँग के मारत बा रे, अब ना बचम … अब का होई … ई गुंडवा कोई के ना छोड़ी … कोई रोकस रे … अरे रामजीउवा … धन्ना … वसीमवा रे … दौड़अ सअ रे … (आकर जंगी को पकड़ लेती है) … ना-ना-ना-ना तोड़े दम … अरे छोड़बे की ना रे … (जंगी दूर ढकेल देता है, सावित्री सड़क के बीचो-बीच आ जाती है, लोगों को आवाज़ देने लगती है।) ए भइया … ए बाबू … ए वकील बाबू … सुनअ-सुनअ … तोरे कहत बानी … सुनअ-सुनअ … देखअ-देखअ … (जंगी आकर सावित्री को लात मारता है। वो गिर पड़ती है। दर्द से कराह पड़ती है। चीख़कर ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगती है।) हे रे जुल्मी, औरत को लात मारता है रे, गरीबन पर हाथ उठाता है रे … निपूतरा तोरा कोढ़ फूटे रे … तेरा वंश मिट जाये रे … तेरा नाश हो जाये रे निरदइया … हत्यरवा … डकुवा ऽ ऽ …
(जंगी ग़्ाुस्से से तमतमाते हुए आता है और उसे पीछे ठेलता है। वो औंधे मुँह गिर पड़ती है। फिर पलटता है, गरजता है।)
जंगी ः कहाँ है रे कामरेडवा ? निकल स्साला बाहर। तेरी माँ के … आज तुमको भी जला देंगे।
(काॅमरेड बाबू सर झुकाये झोपड़ी से बाहर निकलते हैं। तभी जट्टा न जाने किस जोश से उठ खड़ा होता है और लड़खड़ाते हुए पूरी ताक़त के साथ जंगी पर झपटता है। जट्टा और जंगी उलझ गये हैं।
इसी बीच काॅमरेड बाबू आँख बचाकर झोपड़पट्टी से निकल जाते हैं …
तभी पुलिस की सीटी बजती है …
जंगी और उसके गुंडे घटनास्थल से भाग खड़े होते हैं। जट्टा फटी-फटी आँखों से काॅमरेड बाबू का भागना देखता रहता है।
पुलिस आती है। सामने जलधर को खड़ा पाती है। सिपाही पकड़ लेता है।)
सिपाही ः का रे जलधरवा, खाली बलवा करता है ? चल थाना पर।
(उसे घसीटते हुए ले जाता है …
सावित्री धीरे-धीरे उठती है। अपने साड़ी का आँचल फाड़कर जट्टा के सर पट्टी बाँधती है।)
काॅमरेड बाबू ः घबराओ नहीं जट्टा। चुनाव में तो ऐसा होता होता ही रहता है। हम इस घटना को लेकर कल सवेरे जुलूस निकालेंगे। डी0एम0 के यहाँ धरना देंगे। झोपड़ी जलने का मुआविज़ा माँगेंगे।
जट्टा ः ना काॅमरेड बाबू, अब तोहार हियाँ जरूरत ना है। दू बार तोहरा हम देख लेहली। पहिला बार जब झोपड़पट्टी उजड़ल रहे। तब तू स्टडी सर्किल में क्लास लेवे जात रहअ। अबकी बार जंगी के डर से दुम दबा के भाग गइलअ। तू कामरेड के नाम पर कलंग बाड़अ। कामरेड के अर्थ होला, दुःख-सुख के साथी। तू बड़का लोग का कामरेड बनअ (उसकी तरफ़ बढ़ता हुआ) वाह, अपने त तू कालेज में नौकरी करेलअ … बाल-बच्चा तोहार कानमेंड में पढे़ला और हमनी के क्रांति के पाठ सिखावेलअ। ई तू कइसन कामरेड बाड़अ …
काॅमरेड बाबू ः देखो मुझे ग़लत मत समझो जट्टा।
जट्टा ः मोटका-मोटका किताब पढ़े से कोई कामरेड ना होखेला। जीवन में अपनावअ। जा कामरेड, जा … हमनी के आपन लड़ाई अपने लड़म देब।
(काॅमरेड बाबू वापस लौट जाता है। जाने के बाद एक क्षण तक वहाँ सन्नाटा व्याप्त रहता है। अचानक गोपी उबल पड़ता है।)
गोपी ः इस तरह कब तक हम इज्जत, घर-द्वार लुटाते रहेंगे। आख़िर कब तक ? चल सअ हियाँ न रहेंगे। रोज के रोज हियाँ झोपड़िये उजड़ी, जली। खेलावन काका मर गहलन, आज सब के माथा फूट गइल।
कवि ः हम कहाँ-कहाँ भागते रहेंगे गोपी। मैं गाँव से टाँग तुड़वा के शहर आया। जट्टा घर जलवा के आया। सावित्री इज़्ज़त गँवा कर आई। सभी लोग तो बेघर होकर आये। भाग कर जाओगे कहाँ ? सभी जगह तो जंगी है।
(जट्टा कहता है)
जट्टा ः कवि भइया ठीक कहत हैं। अब इस जंगी से यहीं लड़ना होगा। चाहे कितने ही जंगी क्यों न आयें, बसना यहीं होगा।
गोपी ः तो फिर आ के जलायेंगे।
कवि ः तो हम फिर यहीं बनायेंगे।
सावित्री ः उ तो बार-बार उजाड़ेंगे।
जट्टा ः हम बार-बार यहीं बनायेंगे। वे हजार बार उजाड़ेंगे, हम हजार बार बनायेंगे … हम तब तक बनाते रहेंगे जब तक वे उजाड़ते-उजाड़ते थकेंगे नहीं।
कवि ः वाह जट्टा वाह, तुमने तो आज सबकी आँखें खोल दीं। आशा की एक नई किरण जगा दी। देखो रात ढलने को है। नई सुबह आने को है। ये संदेशा दे रहा है।
(सब अपनी-अपनी जगह से उठते हैं। झोपड़ी को फिर से बनाने में लग जाते हैं। कवि गुनगुनाने लगता है। धीरे-धीरे अन्य भी उसकी आवाज़ में आवाज़ देने लगते हैं। सब गाने लगते हैं।)
ये जिं़दगी का कारवाँ
बढ़ता रहे क़दम
ना रुके हैं हम कभी
ना रुकेंगे हम।
सामने तूफ़ान हो
नदी हो पहाड़ हो
शेरों की दहाड़ हो
क़दम जो है ये बढ़ चला
बढ़ता ही जायेगा।
कारवाँ हमारा बढ़ता ही जायेगा
हरगिज़ न रुकेंगे, खायें ये क़सम
ना रुके हैं हम कभी
ना रुकेंगे हम।
ये जिं़दगी का कारवाँ
बढ़ता रहे क़दम
ना रुके हैं हम कभी
ना रुकेंगे हम।