(इन गजलों में दुष्यंत के बाद का विकास नज़र आता है. अनुभव और सम्वेदना के नए आयाम के साथ हिंदी गजल साहित्य को समृद्ध करती ग़ज़लें…humrang के पाठकों के लिए…………..संपादक)
संध्या नवोदिता
ग़ज़ल-1
जहाँ दिल को मेरे सुकूँ मिले कोई ऐसा आशियाँ तो हो
मेरे साथ मेरी उदासियाँ कोई इनके दरमियाँ तो हो
तू कहे तो तेरी राह में यूँ ही ज़िंदगी गुज़ार दूँ
मैं कभी न तुझसे जुदा रहूँ तेरा प्यार जाविदाँ तो हो
मेरे और दुनिया के बीच में मेरी चाहतों की दीवार है
मैं ज़रूर दुनिया को देखती पर कोई सायबाँ तो हो
यूँ खेलने से पेशतर दावा न करिए जीत का
ज़रा सामने तो आइये दो-चार बाजियां तो हों
ग़ज़ल- 2
किसी को चाहा जाना जानते हैं
नज़र से दिल में आना जानते हैं
तमन्ना रखते हैं छू लें फलक को
ज़मीं पर जड़ जमाना जानते हैं
हमारे दिल को तुम छोटा न समझो
समन्दर को समाना जानते हैं
बहुत चालाक बच्चे आजकल के
हकीकत और फ़साना जानते हैं
ग़ज़ल-3
यूँ दिल की हकीकत को हमसे न कहा होता
एक ख़्वाब सही लेकिन अपना तो रहा होता
इज़हार-ए-वफ़ा क्यों की खुदगर्ज ज़माने से
इस दर्द-ए-मुहब्बत को ताउम्र सहा होता
कुछ आपकी आँखों में आया था नज़र हमको
कुछ मेरी निगाहों में तुमने भी पढ़ा होता
देखा भी नहीं हमने जीभर के अभी उनको
वो प्यार भरा लम्हा कुछ देर रहा होता
ग़ज़ल-4
जीवन कितना अच्छा था
झूठा था या सच्चा था
रात-रात हम जगते थे
दिन का सपना सच्चा था
पंख लगे थे साँसों में
ख़ुशी का मेला अच्छा था
आँखें आँखें मिलती थीं
नशा शरबती अच्छा था।
यादें डंक ततैया का
इससे मरना अच्छा था