वहां एक लेखक मंच भी था, यूँ खासा फोटोजैनिक था लेकिन सार्वजनिक शौचालय से बिलकुल लगा हुआ, कई आम आदमी जब शौचालय से निकल मंच के पास प्रकट होते तो उनका हाथ जिप पर आसानी से देखा जा सकता था। लेखक और सार्वजनिक शौचालय एक दूसरे के पूरक माने गये या हगो और बको में अंतर नहीं माना गया, एक ही बात है | प्रथम दृष्ट्या यह लेखकों को मुफ्तखोरी का दंड लगता था क्योंकि वे आठ दुकानों की जगह घेरकर बैठे थे, यदि लेखक मंच न होता तो आयोजकों को कई लाख का लाभ हो सकता था और लेखकों को भी शायद ही कोई फर्क पड़ता।…….
इस युग का कमाल, पुस्तक मेले का हाल
शक्ति प्रकाश
पुस्तक मेला दिल्ली में हर साल लगता है, आम आदमी को इससे खास मतलब नहीं होता, पहले हमें भी नहीं था । आम आदमी को आवास मेले से मतलब होता है, जिसमें दस हजार रूपये गज का प्लाट, बारह हजार का बताकर दस से पंद्रह प्रतिशत की छूट या सोने के सिक्के, चांदी के गणपति लिये भीड़ जुट जाती है, कार मेला, बाइक मेला सबमें यही होता है और आम आदमी को सारे मेलों से मतलब होता है सिवाय पुस्तक मेले के। होता पुस्तक मेले में भी यही है, सौ रूपये की लागत वाली किताब की कीमत छः सौ रख तीस प्रतिशत की छूट दी जाती है | लेकिन इस छूट के लिये तत्परता नहीं दिखती | अपने देश के गंजे पहले से ही समझदार थे, जो नहीं थे युवराज ने बना दिये, सो वे कंघी नहीं खरीदते । ऐसा भी नहीं कि व्यक्तिगत रूप से हम आम से खास खड़े पैर हो गये हों, दरअसल इस बार हम इसमें शामिल हुए क्योंकि अपनी भी भागेदारी इसमें ‘कंघी प्रदर्शन उत्सव’ में थी, हालाँकि भागेदारी वाली बात हमारी अपनी सोच है, ये बात पुस्तक मेले का कोई दूसरा भागीदार शायद ही माने लेकिन एक किताब का छपना और बड़े प्रकाशन पर डिसप्ले होना ये मुगालता तो देता है।
खैर हम इस मुगालते के साथ वहां थे, वाकई पुस्तक मेला शानदार था, वहां लेखक थे, पुस्तकें थीं, प्रकाशक थे, उनके कर्मचारी थे, पम्फलेट थे, होर्डिंग थे, भीड़ थी पर ग्राहक…? हर प्रकाशन के स्टाल पर एक दो बंदे ‘आइये आइये’ की मुद्रा में बाहर ही तैयार खड़े थे लेकिन मेले ठेलों की तरह खींच तान नहीं थी | उसका भी कारण था, जैसे ही पहला बंदा दूसरे से कहता -‘पांच छः हैं, बुला बुला’ दूसरा कहता -‘रहने दे, सब लेखक दिखते हैं, ससुरे चाय और रोयल्टी के लिये कभी मना नहीं करते | रॉयल्टी की पूछो न पूछो चाय तो…… इसीलिये सेठ जी ने मना किया है, लेखक को बुलाया तो चाय अपने खाते में चढ़ा देंगे’ इस कन्फ्यूजन में आम ग्राहक खींचतान से बचे हुए थे । आम आदमी की सरकार दिल्ली में आज भी है ये भ्रम वहां बड़ी हस्तियों को आम आदमी बने हुए देख आसानी से हो सकता था ।
बड़ी बड़ी अकादमियों के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, आयोगों की होपफुली भावी अध्यक्षाऐं, पीठों के निदेशक भले अपनी लेखक बिरादरी के लोगों को चेयरमैनी दिखा रहे हों लेकिन आम आदमी के लिये वे पका पपीता ( पिंकू पकड़े पका पपीता, पका पपीता पकड़े पिंकू वाले ) बने हुए थे -‘हाँ तो भइया आपका नाम…? शशिकान्त…?’ फिर कलम से मोतीनुमा अक्षरों में किताब पर लिखते-‘सूर सूर तुलसी शशी, उड़गन केशवदास, मनैं छोड़ खद्योत सब जहॅं तहॅं करत प्रकाश’ खरीदने वाले का नाम शशिकान्त के बजाय उड़गनसिंह, खद्योतचंद्र या प्रकाशवीर होता तब भी यही दोहा लिखा जा सकता था और आम आदमी को खास के आम होने का मुगालता भी बना रहता ।
पुस्तकें हर वैरायटी की उपलब्ध थीं, भयानक ज्ञानवर्धक भी, अझेल दर्शन वाली भी, कथा, उपन्यास, कविता भी और रेल यात्रा बिताऊ साहित्य भी । वहां हिन्दू बनाने वाली किताबें भी थीं और मुसलमान या ईसाई बनाने वाली भी, दक्षिण पंथी या वाम पंथी बनाने वाली भी पर जो मजेदार था वो ये कि मोटी मोटी धार्मिक किताबें मुफ्त मिल रही थीं और ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ कीमत देकर, इससे एक फिलास्फीकल सिद्धान्त की खोज हुई वो ये कि धर्म मुफ्त मिल सकता है किन्तु नास्तिकता कीमत चुकाये बिना नहीं मिलती।
वहां एक लेखक मंच भी था, यूँ खासा फोटोजैनिक था लेकिन सार्वजनिक शौचालय से बिलकुल लगा हुआ, कई आम आदमी जब शौचालय से निकल मंच के पास प्रकट होते तो उनका हाथ जिप पर आसानी से देखा जा सकता था। लेखक और सार्वजनिक शौचालय एक दूसरे के पूरक माने गये या हगो और बको में अंतर नहीं माना गया, एक ही बात है | प्रथम दृष्ट्या यह लेखकों को मुफ्तखोरी का दंड लगता था क्योंकि वे आठ दुकानों की जगह घेरकर बैठे थे, यदि लेखक मंच न होता तो आयोजकों को कई लाख का लाभ हो सकता था और लेखकों को भी शायद ही कोई फर्क पड़ता।
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लेखक मंच पर पहले बुकिंग कराकर कोई भी आ सकता था, कुछ भी बक सकता था, सुबह सुबह एक जासूसी उपन्यासकार आये और साहित्यक उपन्यासकारों को गरियाकर चले गये, उनके हिसाब से उनके बाद हिन्दी में कोई उपन्यासकार पैदा ही नहीं हुआ । उन्होंने हिन्दी पर अहसान किया कि वे प्रेमचंद युग में पैदा नहीं हुए, क्या पता उनकी छाया में प्रेमचंद भी दम तोड़ जाते बहरहाल तालियाँ उनके हर संवाद पर बजीं, शायद इसी को लोकप्रियता कहते हैं | लेखक चाहें तो उनसे भी बहुत कुछ सीख सकते हैं, जैसे युवराज ने लोकप्रिय आम आदमी पार्टी से सीखा। कुछ सज्जन ऐसे थे जिन्होंने पूरे दिन मंच नहीं छोड़ा, वे हर प्रकाशक, हर लेखक के कार्यक्रम में उपस्थित थे, ऐसा नहीं कि वे इंटरनेशनल ठसियल थे, बाकायदा मंच से मुनादी होती थी, उन्हें ससम्मान बुलाया जाता था । वे हर कार्यक्रम में पांच से दस मिनट बोलते भी थे, हालाँकि उनके वक्तव्य का कार्यक्रम से कोई मतलब भी नहीं होता था, वे नक्सलवाद पर लिखी किताब पर चर्चा में ‘मेरी रेल यात्रा’ पर निबंध सुना सकते थे ।
किसी दूसरे के काव्य संग्रह के लोकार्पण में अपनी कविता भी पेल सकते थे जिस पर विमोचित पुस्तक का लेखक भी ताली ठोक रहा होता था। बाद में पता चला कि उनकी किताबें भी लगभग हर प्रकाशक की दुकान पर मौजूद थी, यह भी कि वे बडे़ अधिकारी थे और पुस्तकें सरकार को बिकवाने में समर्थ थे । जैसा वे बोल रहे थे वैसा ही लिखते भी हों तो जासूसी उपन्यासकार ने हिन्दी वालों को कम गरियाया था, यदि उन्होंने सार्वजनिक रूप से हम जैसे एकाध हिन्दी लेखक को पीटा भी होता तब भी उनका अपराध इतना ही होता जितना वे कर गये थे ।
हालाँकि लेखक का मतलब आजकल मास्टर (यूनिवर्सिटी वाले) और पत्रकार ही रह गया है, क्योंकि ये पढ़े लिखे होते हैं, इनका काम ही ज्ञान बघारना होता है, ये अपने लिखे की समीक्षा खुद कर सकते हैं, लिखवा सकते हैं, छपवा सकते हैं, किताबें बिकवा सकते हैं । फिर भी चैनल वाले पत्रकार का रूतबा ही अलग है, वे सैलिब्रिटी होते हैं, उनकी चाल में चुलबुल पांडे जैसी गमक होती है, किताब लिखना उनके बायें हाथ के अॅंगूठे का काम होता है, बस चैनल पर हुई बहसों की रिकार्डिंग देखना है किताब तैयार, जो उनकी शक्ल से बिक ही जानी हैं । अचानक घोषणा हुई कि चैनल पत्रकार ‘ फलां कुमार’ ‘अमुक प्रकाशन’ के स्टाल पर मौजूद हैं, जहाँ वे हस्ताक्षरित प्रतियां बेच रहे हैं, पब्लिक दौड़ी, एकाध लेखक भी, हम गुस्से में अपने मित्र के प्रकाशक के स्टाल में घुसे, मित्र मुस्कराये –
‘कुढ़ रहे हो?’
‘ हाँ, किताब तो अपनी भी बड़े प्रकाशन से छपी है, मगर मुनादी तो नहीं हुई’
उन्होंने हमें लक्ष्मीकांत वैष्णव की तरह घूरा और निगाहों से कह दिया –
‘ अबे साले नंगे, चाटुकार तेरा चाटेंगे क्या?’
‘ मगर किताबें तो बच्चों की तरह होती हैं, उनमें अंतर कैसे कर..सक…ते’ हमने उनकी निगाह समझ सहमते हुए कहा
‘ किताबें लेखक के लिये बच्चा होती होंगी, प्रकाशक के लिये पेइंग गेस्ट होती हैं, जो ज्यादा दाम देगा, रात को उसी को दूध का गिलास मिलेगा’
तभी उनकी किताब को पूछता एक ग्राहक आया, बहुत देर बाद फॅंसे एक ग्राहक की किताब पर दस्तखत करने के लिये वे लपके, उधर लेखक मंच से ‘फलां कुमार’ की आवाज आने लगी थी जिसमें वे बाजारवाद को कोस रहे थे, हम भी बाजारवाद को कोस रहे थे, हम मन से, वे मंच से, हमारे पास आवाज़ नहीं थी, उनके पास लाउड स्पीकर, वे नीबुआ रोशनी मे थे, हम भीड़ में । अगले साल तक हम नया उपन्यास लिखेंगे, वे निबंध, फिर दोनों इसी स्थिति में होंगे, दोनों बाजारवाद को कोसेंगे लेकिन दोनों बाजार के बीच भी खड़े होंगे ।