आस-पास या पूरे सामाजिक परिवेश में हर क्षण स्वतःस्फूर्त घटित होती घटनाएं या वाक़यात किसी ख़ास व्यक्ति के इर्द-गिर्द ही घटित होते हों ऐसा तो नहीं ही है | सामाजिक संस्कृति में मानवीय संवेदनाओं से उत्पन्न होते ऐसे दृश्य दुनिया ज़हान में हर पल नज़र आते ही हैं | किन्तु सामाजिक रूप से गैर-जरूरी मानकर अनदेखी की जाने वाली इन उत्पत्तियों में, इंसानी ज़ज्बातों को झकझोर देने वाले इंसानी पहलुओं को पकड़ लेने की संवेदनशील दृष्टि ‘शक्ति प्रकाश’ के पास है | घटना या चरित्रों के अलावा सजीव भाषाई मौजूदगी के साथ, खूबसूरत रचनात्मक अंदाज़ में लेखकीय स्मृतियों की कोख से निकलती यह लघुकथाएं वर्तमान के लिए सम्पूर्ण सामाजिकता के सांस्कृतिक ताने-बाने का पुनर्पाठ हैं | – संपादक
‘कान्दू – कटुए’
शक्ति प्रकाश
दृश्य-1
मास्टर जी और उनका पूरा परिवार बीमार है, पता नहीं कौन बुखार है उतरता ही नहीं, सब बुखार में तप रहे हैं, कोई इस हालत में नहीं कि किसी को दवा तो दूर पानी भी पिला सके, मास्टरनी में हिम्मत गजब है, खुद बुखार में तपते हुए चारों बच्चो के माथे पर पट्टी रखती हैं, कभी पति की नब्ज देखती हैं, अचानक दरवाज़ा खटकता है, मास्टरनी उठती हैं, सहारा लेकर चलती हैं, दरवाज़ा खोलती हैं, सामने उनके पति के साथी मुख़्तार हसन खड़े हैं
‘ पंडी जी हैं भाभी ? अरे आपकी तबीयत ..’ वे एक साथ दो सवाल करते हैं
‘ मेरी क्या सबकी तबीयत एक सी है मास्साब’ वे पलटते हुए कहती हैं
‘ अरे!’ कहते हुए मुख़्तार हसन अंदर आते हैं
‘ राम राम पंडी जी’ कहते हुए स्टूल पर बैठ जाते हैं
‘ सलाम मुख़्तार भाई ’ मास्टर जी उठने का प्रयास करते हैं
‘ लेटे रहो, लेटे रहो, आप आये नहीं स्कूल दो दिन से, अर्जी भी नहीं आयी, मुझे लगा पंडी जी की खोज खबर जरुरी है अब तो, गाँव जाते हुए मिलता हूँ’
‘ हाँ मुख़्तार एक तुम्हें ही फ़िक्र है पंडित की, वरना घर से तीन सौ मील दूर किसे फुर्सत…’ मास्टर जी बडबडाते हैं
उधर मास्टरनी खराब तबीयत के बावजूद स्टोव में पम्प मारने लग जाती हैं
‘ क्या कर रही हो भाभी ?’
‘ चाय…’
‘ इस हालत में भी मेहमान नवाजी..’ वे हँसते हैं
‘ नहीं ये भी पी लेंगे, मैं भी’
‘ पर मैं नहीं पी पाऊंगा, आप लोगों को पीना है तो मैं बना दूंगा, आप लेटिये’
‘ अभी तो आप बना दोगे मास्साब, फिर तो मुझे ही करना है’ वे धीमे से कहती हैं
‘ फिर का भी इंतजाम है मेरे पास अगर इस मियां से दिक्कत न हो तो, फ़िलहाल हटिये..’
कहकर हंसते हुए मुख़्तार हसन नीचे बैठकर स्टोव अपनी ओर खींच लेते हैं, मास्टरनी चारपाई पर लेट जाती हैं, दस मिनट में मुख़्तार हसन चाय छान कर ले आते हैं, मास्टरजी बैठकर प्याला ले लेते हैं, मास्टरनी थोडा अचकचा रही हैं, मुख़्तार हसन हंसकर कहते हैं –
‘ आपत्ति काले मर्यादा नास्ति भाभी, ठीक हो जाओ तो गंगाजल पी लेना’
‘ नहीं मास्साब ऐसा नहीं है, पर मेहमान से..’
‘ काहे का मेहमान, पंडी जी से तो रोज मिलता हूँ, महीने में एकाध बार आपसे भी’
कोई बहस नहीं होती, चाय पीकर मुख़्तार हसन चले जाते हैं. दो घंटे बाद फिर दरवाज़ा खटकता है, मास्टरनी फिर दरवाज़ा खोलती हैं, दरवाजे पर मुख़्तार हसन खड़े हैं , इस बार वे अकेले नहीं हैं उनके साथ उनकी पत्नी भी है.
‘ मास्साब आप..?’ मास्टरनी आश्चर्य से कहती हैं
‘ कहा था ना फिर का भी इंतजाम है मेरे पास, ये रहा’ वे पत्नी की ओर इशारा करते हुए अंदर की ओर बढ़ते हैं, स्टूल पर बैठकर फिर बोलते हैं –
‘ जब तक आप सब ठीक नहीं हो जाते हम दोनों यहीं रहेंगे’
‘ मगर आपके भी तो…’
‘ बच्चे हैं मगर कोई बीमार नहीं, उनके पास दादा दादी हैं और पांच किलोमीटर ही तो है, दिन में एक चक्कर वहां का भी लगा लूँगा’
‘ मगर..’
‘ मगर क्या ? अगर मैं आपके मथुरा में होता तो पंडी जी मुझे छोड़ देते रामभरोसे?’
मास्टरनी चुप हो जाती हैं , ये साल शायद 1968 का है.
दृश्य – 2
साभार google से
ये सातों जात का मुहल्ला है, पीछे जाटवों और मुसलमानों का एक पुराना गाँव है जो अब कस्बे में मिल चुका है, इस मुहल्ले वाले जाटवों और मुसलमानों से कुछ डरते हैं क्योंकि झगड़े की स्थिति में वे लोग संगठित होकर धावा बोल देते हैं इसलिए वे ‘कौन मुंह लगे’ कहकर पीछा छुड़ा लेते हैं. इसी मुहल्ले में पंडितों का एक दस बारह साल का लड़का है, पतंगबाजी का शौक है, पूरा दिन पतंग लूटने में बीत जाता है, वह कभी पीछे के गाँव में पतंग लूटने नहीं जाता, जबकि वहां के लडके इस मुहल्ले की छतों पर भी बिना पूछे चढ़ जाते हैं. एक पतंग नो मैन्स लैंड यानी जहाँ मुहल्ला खत्म और गाँव शुरू होता है, में गिरती है, वह लूट भी लेता है, मगर अचानक उसके हमउम्र मुसलमानों के लड़कों का एक गैंग उससे पतंग छीनता है, वह प्रतिरोध करता है. पतंग फट जाती है उसे गुस्सा आता है, वह एक को झापड़ रसीद करता है, बदले में उसमे भी पड़ता है, वह भागकर पेड़ के पीछे छुप जाता है और पत्थर फेंकना शुरू कर देता है, दोनों ओर से पत्थर बाजी होती है, वह पेड़ के पीछे है मुसलमान लड़के खुले में, दो के सर फूट जाते हैं, राहगीर इकट्ठे हो जाते हैं जो अधिकतर मुसलमान हैं, एक मुस्लिम युवक तेजी से पेड़ की ओर बढ़ता है, चूँकि वह शत्रु नहीं है इसलिए वह लड़का उसे कुछ नहीं कहता, वह युवक उसकी गर्दन पकड़ उसे मारने के लिए हाथ उठाता है लेकिन उसका भी हाथ कोई पकड़ लेता है, वह मुडकर देखता है उसका हाथ उसके गाँव के सलाम चच्चा ने पकड़ा हुआ है
‘ का कर रए चचे?’
‘ मैं जो कर रिया सो कर रिया, पर तू हाथ कौं उठा रिया लोंडे पे, लड़ना ऐ तौ बराबरी का ढूंढ़ ले’
‘ तुम ना जानौ चच्चा, महल्ले के दो लौंडों के खोपड़े खोल दिए इसने’
‘ जे ना खोलता तौ वो खोल देते’
‘ तुमने ना देखा चचे जे लौंडा जादा बदमास ऐ’
‘ कौन सरीफ कौन बदमास सब देख रिया मैं, वो भैन के… क्यों अटके इससे?’
‘ पतंग ई तौ लूटी क्या गुना कर दिया?’
‘ लूटी ना, छीनी ही और फाड़ भी दी, दिन भर इसी में घूमें ये बच्चे, जान से प्यारी हो पतंग’
‘ बच्चे एं, बच्चे तौ ये ई किया करें’
‘ जे कौन सा बाप ऐ, जे भी बच्चा ई ऐ’
‘ अरे तौ खोपड़ी फोड़ेगा?’
‘ इकले पे जब पांच पिलेंगे तौ ये ई करेगा, इंसाफ की बात कर इस्माइल, कुछ गलत ना किया इसने, लौंडे की हिम्मत की तारीफ कर, इकला पांच पे भारी पड़ रिया ’
‘ पर जे म्हारे महल्ले के लौंडे एँ, बिनकी तरफदारी ना करोगे?’
‘ ना भाई इंसाफ में तरफदारी त ना हो और गलत की तौ कतई ना, जाओ अब’
पर वे लडके नहीं हिलते, वह युवक भी नहीं, सलाम चचे घूरते हैं –
‘ तौ बलदा ले के ई जाओगे? चल भाई लौंडे मैं छोड़ता तेरे घर, मैं भी देखूं कौन छुए तेरे कूं’
कहकर वे उस लड़के का हाथ पकड़ लेते हैं. ये शायद 1975 की बात है.
दृश्य – 3
अचानक दरवाजा भडभडाया जाता है, दरवाजे के बाहर से एक स्त्री स्वर में रोने की आवाजें भी आ रही हैं, रोते रोते किसी को कोसने के स्वर भी, मास्टरनी विस्मय और कौतूहल के साथ दरवाजा खोल देती हैं, सामने एक बीस इक्कीस साल की मुस्लिम युवती है, जो उसके पहनावे से पता चल रहा है, मास्टरनी उसे नहीं जानतीं, उस युवती के बाल बिखरे हैं, चेहरे पर एकाध चोट का निशान भी है.
‘ हाय अल्ला, भौत मारा ए चच्ची, नास जागा नासपीटे का…’
मास्टरनी अचानक आई भतीजी को देख स्तब्ध हैं-
‘ किससे मिलना है? किसने मारा?’
‘ चच्चा से मिलना और किससे मिलना, खसम नें मारा और किन्ने मारा’ उसका रोना कम हो जाता है
‘ कौन चच्चा?’
‘ सरमा मास्साब, नार्मल स्कूल वाले’
यानी वह ठीक जगह आई है लेकिन इस भतीजी का जिक्र तो कभी हुआ नहीं? फिर भी वे उसे चारपाई पर बैठने का इशारा करती हैं
‘ बुलाती हूँ’ कहकर अंदर चली जाती हैं
एक मिनट में मास्टर जी के साथ आती हैं, मास्टरजी को देख वह युवती फिर दहाड़ें मारना शुरू कर देती है और खड़े होकर मास्टरजी से लिपट जाती है, मास्टरजी धीरे से उसे अलग करते हैं
‘ बैठ, चुप हो जा’
वह बैठ जाती है, एकाध मिनट में चुप हो जाती है.
‘ तू बदलशेर की बेटी है ?’ मास्टरजी पूछते हैं
‘ हाँ, सकीना, बड़ी वाली’
‘ यहाँ नगले में ब्याही है?’
‘ तमने ई तौ कराया निका?’
‘ म.. म.. मैंने ?’ मास्टरजी हकलाते हैं
‘ और किन्ने कराया?’ उसका स्वर शिकायती हो जाता है
‘ चल ठीक है, वैसे तेरे बाप ने कहा था मनिहारों में कोई लड़का बताना, वो लड़का इधर चूड़ी वूडी बेचने आता था, बता दिया और फिर मैंने तो एक बताया था उसने दोनों भाइयों से दोनों बेटियों की शादी की ये तो मुझे भी शादी पर पता चला’
‘ तम थे ना निका में?’
‘ था भाई’
‘ तौ गवा ना हुए?’
साभार google से
‘ मान लिया बेटा पर समस्या कहाँ है?’ वे हंसते हैं
‘ मिजे लिकाल दिया उन्ने, मारा कूटा भी’ वह सुबकने लग जाती है
‘ सास ससुर से कहती’
‘ वो तो छोटी के संग रहें’
‘ किसी के संग भी रहें पर समझा तो सकते हैं बेटे को’
‘….’ वह चुप हो जाती है
‘ मतलब उनसे लड़कर तू पहले ही अलग हो चुकी, वे तेरा साथ क्यों देंगे? ठीक है ना?’
‘ मैं काय कूँ लड़ी, सास ई लडती ही मिजसे’
‘ जो भी हो अब वो तेरा साथ नहीं देंगे, मुहल्ले वालों से बात करती’
‘ क्यों बात करती महल्ले वालों से? मेरे बाप नै कई कै कोई बात हो तो सरमा मास्साब के पास जाइयो’
‘ इतनी आसान बात नहीं है, मेरी कोई क्यों मानेगा?’
‘ निका की क्यों मान गया तमारी?’
‘ मैंने लड़का बताया था बस, जानता भी है मुझे, पर मेरे दवाब में थोडा है’
‘ अच्छा, जो मैं तमारी बेटी होती तब भी दबाव देखते चच्चा?’
मास्टर जी निरुत्तर हो जाते हैं-
‘ ठीक है, कपडे बदल लूं, चलता हूँ’
वे अंदर जाते हैं, मास्टरनी कहती हैं –
‘ लड़ न पड़ें मुसल्ले तुमसे..’
‘ अरे नहीं, जानते हैं मुझे’
‘ बात मानेंगे तुम्हारी?’
‘ कुछ मुअज्जिज मुसलमानों को साथ ले लूँगा, सलाम उसका भाई बुंदू ..’
‘ इसके बाप को बुला लो’
‘ मथुरा से? पूरा दिन लगेगा आने जाने में, तब तक क्या ये रोती ही रहेगी?’
‘ अब लोगों को इकठ्ठा करते फिरो, तुम भी पता नहीं किन चक्करों में पड़ जाते हो?’
‘ चक्कर कुछ नहीं, लड़का बताया था बस’
‘ मुझे तो ये लड़की ही लड़ाकू लगती है’
‘ हाँ कुछ तेज तो है’
‘ मरने दो…’
‘ अपनी लड़की होती तो मरने दे सकता था क्या, बदलशेर मेरा चपरासी था भाई, उसके लिए चार बातें करना पड़ें, माफ़ी भी माँगना पड़े तो क्या दिक्कत है?’
कहते हुए मास्टरजी निकल जाते हैं ये दृश्य 1978 का है शायद…
दृश्य – 4
मुहल्ला वही है, नो मैन्स लैंड यानी चौराहे पर श्रीराम हलवाई की दूकान है, अग्रवाल बनिया है लेकिन शरीर कसरती, शाम को उसकी दूकान पर कढ़ाई का दूध पीने दोनों ओर के लोग आते हैं सभी से उसकी दोस्ती है. ये दिन का वक्त है, श्रीराम गद्दी पर बैठा है, सामने दो लडके लड़ रहे हैं, दोनों मुसलमान हैं लेकिन एक करीब पंद्रह का है दूसरा दस एक साल का. छोटा लड़का नीचे पड़ा गालियाँ बक रहा है, बड़ा उसे पीट रहा है, अचानक श्रीराम की निगाह ग्राहकों से हटकर उधर जाती है वह कूदकर दूकान से उतरता है और बड़े लड़के को खींचकर दूर फेंक देता है-
‘ हट तेरी..’
दोनों लड़के हतप्रभ हैं, बड़ा लड़का प्रश्न करता है –
‘ मुझे कौं मार रिया बे ?’
‘ तू वाहे चौं मार रह्यो’
‘ मार रिया तौ मार रिया तुझे क्या मतलब?’
‘ लौंडा कौ चोदौ…मतलब पूछै..अबै दुनिया दुनिया ते मतलब न रखे तौ दुनिया दुनिया कूँ खाय जाय, भग जा यहाँ ते, भौत कुटैगो’
‘ जाने ना कौन हूँ ?’
‘ ऐसो दारा सींग तौ है नाय, जा भग जा’
‘ जाने ना हम कसाई हैं, दिमाग ना हो म्हारे, खोपड़े में गोस भरा हो गोस’
‘ तेरे गोस कौ मलीदा बनाऊँ का? नाय जायेगो बिना पिटे’
कहते हुए श्रीराम उसकी ओर बढ़ता है, तभी दो तीन मुस्लिम युवक आते हैं-
‘ का हुआ सिरीराम भैये ’
‘ कछु नाय यार, भैन्चो नैक से छोरा कूँ मारे, अपने दिमाग में गोस बतावे’
वे तीनों हँसते हैं-
‘ अबे भाग जा बुल्लन के, कै पिट कै ई जागा?’
वह लड़का चुपचाप चला जाता है, ये शायद 1980 का वाकया है.
-: अगले भाग में भी चार दृश्य जल्द ही :-