‘ताजमहल’ कविता में मजदूरों के दर्द, पीड़ा और उनकी दुर्दशा पर मुख्य रूप से बात की गई है। लोक प्रचलित धारणा से हटकर कवयित्राी यहां अपने दृष्टिकोण को विस्तार देती है। काव्य-गोष्ठी के तीसरे कवि रमेश प्रजापति रहे। जिनकी पहचान देशज कविता के लिए है। इन्होंने ‘पानी का राम’, ‘अरी लकड़ी’, ‘तपो-तपो हे सूर्य’ और ‘महानगर में मजदूर’ कविताओं का पाठ किया। इनके सभी विषय गांव और गांव से जुड़ी समस्याओं से संब( हैं। ‘पानी’ की महत्ता पर अपनी बात कहते हुए रमेश प्रजापति कहते हैं कि, ‘‘बेहिसाब बर्बाद हो रहा पूंजीपतियों की ऐय्यासी में कालाहांडी ही नहीं बल्कि बुंदेलखंड के साथ-साथ अब सूखने लगा है लातूर और भीलवाड़ा का कंठ।’’……
विभिन्न सुर-ताल से सजी कविताएं
सुमन कुमारी
‘रमणिका पफाउंडेशन’ और ‘भारतीय दलित लेखक संघ’ के संयुक्त तत्वावधान में 11 जून, 2016 को मासिक काव्य-पाठ का आयोजन किया गया। इस काव्य-पाठ में छह कवियों ने अपना दृष्टिकोण कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत किया। नरेन्द्र पुण्डरीक, देवेन्द्र कुमार देवेश, राम अवतार बैरवा, रमेश प्रजापति, सुधा त्रिपाठी और पूनम शुक्ला ने इस काव्य-पाठ में शिरकत की। कार्यक्रम का संचालन भारतीय दलित लेखक संघ के सदस्य विवेक कुमार रजक ने किया और धन्यवाद ज्ञापन श्रीनिवास त्यागी ने किया। कार्यक्रम में वरिष्ठ कवि मदन कश्यप भी मौजूद रहे।
सर्वप्रथम सुधा त्रिपाठी ने ‘एक नया मैदान’, ‘नदी’ और ‘जिंदगी का चेहरा’ शीर्षक कविताओं का पाठ किया। इन तीनों कविताओं में जिंदगी के अलग-अलग रूप को दर्शाने का प्रयास किया है। ‘जिंदगी का चेहरा’ कविता की पंक्ति में
‘हर गांव हर शहर
भागती-पिफरती बदहवास जिंदगी
हांपफती-कांपती जिंदगी
हर जगह दिखाई देते आदमी आकृतिविहीन
आदमी होने की प्रतीति से रहित’
जहां इस कविता में सुधा जिंदगी को परिभाषित करती हैं वहीं पूनम शुक्ला की कविताएं दृष्टिकोण को नए आयाम देती हैं। वह ‘ताजमहल’ को प्रेम का प्रतीक नहीं, मजदूरों के शोषण का मकबरा मानती हैं। ‘स्त्राी’ को कोमल नहीं, धूप में जाने वाली नायिका बनाकर प्रस्तुत करती हैं। पूनम शुक्ला ने ‘मत कहो इसे प्रेम का प्रतीक’, ‘धूप में निकला न करो रूप की रानी’, ‘नापसंद’, ‘जब हम बोलते हैं’ जैसी कविताओं का पाठ किया। इनमें से ‘ताजमहल’ कविता ने सभी का मन अभिभूत किया। जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं |
‘नहीं मुझे तो कहीं भी नहीं दिखता
तुम्हारे प्रति शाहजहां का प्रेम
नक्काशियों भरा यह मकबरा
उसके लिए था बस अपने अहं की तुष्टि
जिसके लिए हाथ तक कटवा दिए गए
कर्मठ मजदूरों के
मकबरे में तो तुम जीते जी
तब्दील हो गई थी मुमताज़’
‘ताजमहल’ कविता में मजदूरों के दर्द, पीड़ा और उनकी दुर्दशा पर मुख्य रूप से बात की गई है। लोक प्रचलित धारणा से हटकर कवयित्राी यहां अपने दृष्टिकोण को विस्तार देती है।
काव्य-गोष्ठी के तीसरे कवि रमेश प्रजापति रहे। जिनकी पहचान देशज कविता के लिए है। इन्होंने ‘पानी का राम’, ‘अरी लकड़ी’, ‘तपो-तपो हे सूर्य’ और ‘महानगर में मजदूर’ कविताओं का पाठ किया। इनके सभी विषय गांव और गांव से जुड़ी समस्याओं से संब( हैं। ‘पानी’ की महत्ता पर अपनी बात कहते हुए रमेश प्रजापति कहते हैं कि,
‘‘बेहिसाब बर्बाद हो रहा पूंजीपतियों की ऐय्यासी में कालाहांडी ही नहीं बल्कि बुंदेलखंड के साथ-साथ अब सूखने लगा है लातूर और भीलवाड़ा का कंठ।’’
अगले कवि राम अवतार बैरवा ने अपनी कविताओं और गजल की प्रस्तुति की। इन्होंने ‘पानी की बूंद’, ‘अपनी ठौर’, ‘कटे हाथ’, ‘सबूत’ और एक गजल को प्रस्तुत किया। इनकी सभी कविताएं छोटी और विचारपरक थीं। कम शब्दों में अपनी बात कहने की कला इनमें बखूबी हैं। जैसे‘कटे हाथ’ कविता में,
‘मेरे हाथ मेरे सबूत थे
जो पड़े थे अलग-अलग से
मेरे पास
बहुत पास
एकदम नीचे, बिल्कुल नीचे
मैं कटे हुए हाथ कैसे उठाता’
देवेन्द्र कुमार देवेश साहित्य अकादेमी में विशेष कार्याधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। देवेश की एक अलग पहचान है। इनके कई काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। देवेश लम्बी और छोटी दोनों कविताएं लिखते हैं। वे कविता के माध्यम से जिंदगी की कड़ियों को जोड़कर बुनते हैं। इन्होंने ‘ऐ लड़की’ , ‘सपने’ और ‘सपनों की दुनिया’ शीर्षक कविताओं का पाठ किया। भावविभोर करती इनकी ‘सपने’ कविता की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैंµ
‘क्यों होते हैं हमारे सपने
सपनों में ही?
क्या कभी नहीं होंगे
वे साकार
किसी कोख में पलते
शिशु की तरह’
इन पंक्तियों में सवाल भी है और इच्छाएं भी।
इस कार्यक्रम के अंतिम और वरिष्ठ कवि थे नरेन्द्र पुण्डरीक। नरेन्द्र पुण्डरीक ‘माटी’ पत्रिका के संपादक हैं, जो ;बांदाद्ध उत्तर प्रदेश से प्रकाशित होती है। ‘बांदा’ से इनकी कविताएं कभी-कभी पूरे जीवन को बयां कर देती है, जो चित्रात्मक होकर पाठक के मन-मस्तिष्क में घूमने लगती हैं। इन्होंने ‘वे हमारे भीतर बैठी हमारे लिए स्वेटर बुन रही है’, ‘कपास के पूफल की चिंता में’, ‘उसे कम से कम दिखे’, ‘पढ़ाने वाले मास्टर गद्दार थे’ शीर्षक कविताओं का पाठ किया। ‘कपास के पूफल की चिंता में’ जीवन के अभाव को बताते हुए कवि कहते हैंµ
‘कभी-कभी दो-दो साल
कपास के पूफल की चिंता में गुजर जाते थे
पिफर ऐसी सकीनों में
कहां से पाते जीवन में गुलाब के पूफल’
सभी छह कवियों के काव्य-पाठ में अलग-अलग दृष्टिकोणों का परिचय मिला। साथ ही नई-पुरानी धारणाओं को समझाने का मौका मिला।
काव्य-पाठ के बाद कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए सभी श्रोतागण से कविताओं पर उनके विचार लिए गए, जिसमें सबसे पहले भीमसेन आनंद ने सभी को कविताओं के लिए बधाई दी और कहा कि पूनम शुक्ला की कविता ‘ताजमहल’ से उन्हें एक दर्द का परिचय मिला, इनकी दूसरी कविता ‘धूप में ना निकला करो’ में स्त्राी संवेदना है। रमेश प्रजापति अपनी कविताओं में मजदूरों की दशा व स्थिति पर बात करते हैं। वहीं राम अवतार बैरवा की छोटी-छोटी कविताएं मन को छूती हैं। देवेन्द्र कुमार देवेश की लम्बी कविताएं विशिष्ट हैं। नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताएं संपूर्ण जीवन को व्यक्त करती हैं।
श्रोतागण में से ही श्रीनिवास त्यागी कहते हैं कि आज कविता लय खो चुकी है, जिसे वापस लाने की दरकार है। उन्होंने कहा कि नए-पुराने लेखकों को एक साथ इस मंच पर लाने के लिए रमणिका पफाउंडेशन और भारतीय दलित लेखक संघ को बहुत-बहुत बधाई।
जामिया के छात्रा आमिर कहते हैं कि सभी लेखकांे को शब्दों पर ध्यान देना चाहिए। शब्दों की त्राुटि लेखन को कमतर आंकती है।
उत्तर प्रदेश से आए मनोज साहू ने कार्यक्रम की तारीपफ की और कहा कि उन्होंने यहां कविता के कई रूप देखे हैं। बचपन में पढ़ी गई कविताओं का अर्थ अब समझ में आता है।
कार्यक्रम में वरिष्ठ कवि मदन कश्यप ने भी अपने विचार सभी के समक्ष रखे। इन्होंने कहा कि सभी कवियों ने अपनी स्मृतियों के माध्यम से कविता पढ़ी और उन्होंने बदलते हुए यथार्थ को सामने रखा है। कविताएं शिल्प, शैली के माध्यम से भी अपना उच्च स्थान पाती हैं। इन्होंने तुकबंदी को ज्यादा तवज्जो ना देते हुए कहा कि जरूरी नहीं कविता लयब( हो। देखने का दृष्टिकोण ही कविता का सच बयां करता है। प्राचीन काल में भी बिना लयब( के कविता लिखी जाती थी। भाषा जैसे-जैसे प्रौढ़ होती है लेखन उसी तरह श्रेष्ठ होता है। सभी कवियों ने आज के समय की विडंबना को कविताओं में व्यक्त किया है। मदन कश्यप ने सभी को काव्य-पाठ के लिए बधाई दी।
भारतीय दलित लेखक संघ के अध्यक्ष अजय नावरिया कहते हैं कि हमारा प्रयास यही रहता है कि हर बार अलग-अलग सुरों को एकत्रित कर सकें। इसी के साथ उन्होंने सभी को काव्य-पाठ के लिए बधाई दी।
कार्यक्रम में रमणिका पफाउंडेशन की अध्यक्ष रमणिका गुप्ता ने कहा कि देवेन्द्र कुमार देवेश की कविता ‘सपने’ से बहुत अभिभूत हुईं। रमेश प्रजापति की ‘लड़की’ कविता की प्रस्तुति अच्छी लगी। पूनम शुक्ला की कविताओं में एक नया सुर मिलता है और नरेन्द्र पुण्डरीक जी की कविता ‘वह हमारे भीतर बैठी हमारे लिए स्वेटर बुन रही है’ में ‘अरेंज मैरिज’ की सभी स्थितियों से परिचय कराया है।
कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन श्रीनिवास त्यागी करते हैं और सभी का आभार व्यक्त करते हुए कार्यक्रम की समाप्ति होती है।