एक रचनाकार को उसकी रचनाएं जीवित रखती हैं पुरस्कार नहीं: हृषिकेश सुलभ

बहुरंग साक्षात्कार

सुशील कुमार भारद्वाज 456 11/18/2018 12:00:00 AM

एक रचनाकार को उसकी रचनाएं जीवित रखती हैं पुरस्कार नहीं: हृषिकेश सुलभ

एक रचनाकार को उसकी रचनाएं जीवित रखती हैं पुरस्कार नहीं: 

15 फरवरी 1955 को बिहार के सीवान जिले के लहेजी ग्राम में स्वतंत्रता सेनानी रमाशंकर श्रीवास्तव के आंगन में एक बच्चे का जन्म हुआ जो अपनी प्रारंभिक पढाई के साथ –साथ वहां के सांस्कृतिक परिवेश में भी घुलने लगा. 1968 में जब वह बालक बिहार की राजधानी पटना आया तो यहां की उर्वर भूमि ने पढाई के साथ –साथ उसे साहित्य और रंगमंच की दुनियां की ओर भी खींचना शुरू कर दिया. उसने बाल कथा लिखते लिखते 1976 ई० में मुख्यधारा के साहित्यकार के रूप में अपनी पहचान बनाने की कोशिश की. जो कि  आज न सिर्फ एक लब्ध –प्रतिष्ठित एवं देश के ख्यातिप्राप्त साहित्यकार हैं बल्कि उनके साहित्यिक खाते में लगभग आधा दर्जन नाटक, आधा दर्जन कहानी संग्रह और रंगमंच आधारित किताब एवं लेखों के अलावे लगभग आधा दर्जन से अधिक क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान भी हैं. जी हां, हम बात कर रहे हाल के वर्ष में आकाशवाणी पटना से सेवानिवृत हुए साहित्यकार हृषिकेश सुलभ की. आइए पढ़ते हैं सुशील कुमार भारद्वाज से हुई उनकी बातचीत के अंश  ……

:- अपने साहित्यिक सफर के बारे में बताएं.

सुशील कुमार भारद्वाज

यूं तो लिखना विद्यालय स्तर पर ही शुरू कर दिया था लेकिन 1976 ई० में श्रीपत राय जी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका “कहानियां” और वसंत जी की पत्रिका  “समझ” में प्रकाशित अपनी कहानियों को ही अपनी शुरुआत मानता हुआ. उसके बाद 1977 ई० में सारिका के नव लेखन अंक में छपने के बाद से यह सफर अब तक जारी है. समय के साथ जीवन और साहित्य में परिपक्वता आई, नये नये जीवनानुभव मिले. दृष्टि में विकास एवं बदलाव हुए. कहानी कहने का अंदाज और भाषा पहले की तुलना में काफी बदल गया है.

:- कभी कहानी, नाटक के अलावे कविता या उपन्यास लिखने की इच्छा हुई?

मैंने अभी तक कविता नहीं लिखी है लेकिन सिर्फ कविता ही साहित्य तो नहीं है. अरुण कमल ने महत्वपूर्ण गद्य भी लिखे हैं. मुक्तिबोध की कहानी या अज्ञेय की शेखर एक जीवनी को भी देखा जा सकता है. मैं मानता हूं कि किसी रचनाकार को किसी खास विधा में बांधकर उसका मूल्यांकन नहीं करना चाहिए. यह महज सम्प्रेषण में सहजता का मामला है. वैसे नाटकों में गीत लिखें हैं. हो सकता है कि भविष्य में कभी कविता भी लिखूं. वैसे एक उपन्यास पर काम जारी है.

:- आपकी रचना प्रक्रिया क्या है?

मैं जो कुछ भी अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बोलूँगा वह बिल्कुल झूठ बोलूँगा. मेरे लिखने का कोई खास तौर- तरीका नहीं है. मैंने कोई भी कहानी एक बैठक में पूरी नहीं की है. कहानियां लंबे समय तक चलती रहती हैं. कहानी और पात्र के साथ संघर्ष चलते रहता है. कहानी लेखक के नियंत्रण –अनियन्त्रण के द्वन्द से आगे बढती है. दरअसल में लेखन एक जटिल प्रक्रिया है. लेखक की रचना प्रक्रिया को समझने में लोगों की उम्र निकल जाती है. किसी लेखक ने सच ही कहा है कि लेखक का निजी जीवन फूहर औरत का वार्डरोब होता है इसलिए इसमें कभी हाथ नहीं डालना चाहिए. कब क्या निकल आए और लेखक की बनी छवि टूट जाय, कहना मुश्किल है. रचनाकार का मूल्यांकन सिर्फ उसकी रचना से ही करना उचित है.

हृषिकेश सुलभ

:- आपको किस साहित्यकार ने सर्वाधिक प्रभावित किया?

जिस तरह एक बालक के विकास में उसके माता –पिता, नाते –रिश्तेदार और उसके परिवेश का अहम योगदान होता है उसी प्रकार एक लेखक के निर्माण में भी उसके सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिवेश के साथ –साथ अपने पूर्ववर्ती एवं अन्य का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है. किसी के प्रभाव को कम या अधिक नहीं बताया जा सकता. लेकिन किसी के प्रभाव में आकर उसी का अनुकरण करते हुए लिखकर कोई बेहतर भी नहीं कर सकता. वैसे यह एक आलोचक की जिम्मेवारी है कि वह पता करे कि किसी रचना पर किसका प्रभाव दिखता है?

:- लोकप्रिय साहित्य एवं गंभीर साहित्य के बहस को आप किस रूप में देखते हैं?

साहित्य में इस तरह का बंटवारा बहुत पहले से होता रहा है लेकिन अंततः इसका कोई अर्थ नहीं है. जो लोकप्रिय है वह श्रेष्ठ या दीर्घजीवी हो कोई जरूरी नहीं और जो लोकप्रिय हो वह कूड़ा या क्षणभंगुर ही हो यह भी जरूरी नहीं. महत्वपूर्ण उदाहरण हैं भिखारी ठाकुर. वे अपने समय में भी लोकप्रिय थे और आज भी उनकी रचनाओं पर विमर्श चल रहा है, मंचन हो रहा है और उनकी लोकप्रियता बरकरार है. साहित्य का परिवेश सबसे मिलकर बनता है. अभी जो लोकप्रिय साहित्य प्रकाशित होता है उसको लेकर किसी प्रकार से भयभीत या चिंतित होने की जरूरत नहीं है. अगर उस साहित्य में जीवन होगा, हमारे समय का सुख –दुःख और अंतर्द्वंद्व होगा तो वह जीवित रहेगा नहीं तो नष्ट हो जाएगा. बाज़ार को लेकर बहुत भय व्यक्त किया जा रहा है लेकिन मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि बाज़ार की जो खरीद –बिक्री के आंकड़े हैं वे साहित्य का मूल्य नहीं तय करते हैं और ना ही साहित्य को दीर्घ जीवन दे पाते हैं. अंग्रेजी में साहित्य को प्रचारित –प्रसारित करने की और बाज़ार में बेचने की पद्धति कुछ ऐसी है कि पाठकों तक पुस्तकों के पहुंचने में सुविधा होती है. हिन्दी में यह परम्परा ही नहीं रही है. अब कुछ प्रकाशक अपनी सीमाओं के बीच ही सही, ऐसा प्रयास कर रहे हैं और यह एक अच्छी बात है.

:- साहित्य के दलित साहित्य, स्त्री साहित्य आदि में वर्गीकृत होने को आप किस तरह से देखते हैं?

ये सारे बंटवारे साहित्य की दुनियां में तात्कालिक प्रभाव भले ही डाल लें लेकिन अंततः बचता वही साहित्य है जो मनुष्य की गरिमा की रक्षा कर सके.

:- लिखना आपके जीने की एक जरूरी शर्त है. थोड़ा स्पष्ट करें.

मेरे लिए लिखना जीने की शर्त है इन अर्थों में कि वह मेरे जीवन के लिए जरूरी है. अंदर की व्याकुलता, छटपटाहट को अभिव्यक्त करने की जरूरत है, जिसे मैं अपनी कहानियों एवं नाटकों में अभिव्यक्त करता हूं.

:- एक लेखक के लिए सम्मान और पुरस्कार के क्या मायने हैं?

यदि कोई सम्मान और पुरस्कार दे रहा हो और अगर आपको यह महसूस होता है कि यह सही मायने में सही भाव के साथ दे रहा है तो स्वीकार करना चाहिए नहीं तो छोड़ देना चाहिए. एक रचनाकार को उसकी रचनाएं जीवित रखती हैं पुरस्कार नहीं. लेखक को सिर्फ लिखना चाहिए.

:- भागमभाग वाली डिजिटल एज में लंबी कहानियों के बारे में आप क्या सोचते हैं?

जो पढता है वह लम्बी कहानियों को पढ़ेगा ही. जिसके पास समय नहीं है वह लम्बी क्या छोटी रचना को भी नहीं पढ़ेगा. मोबाइल, ई –पत्रिका आदि नये माध्यम हैं. मैं इसे बुरा नहीं मानता. लेकिन यह कहना निरर्थक है कि भागमभाग वाली डिजिटल एज में लोग चार पंक्ति की ही चीजों को पढ़ना चाहते हैं.

:- अभी के साहित्य और रंगमंच के बारे में क्या महसूस करते हैं?

समय के साथ चीजें तेजी से बदल रही हैं, माहौल से तालमेल के साथ आगे बढ़ रहीं हैं. एक ही जगह टिके रहने से नष्ट होने का खतरा रहता है. रंगमंच हो या साहित्य हर जगह बदलाव आता है और आते रहना चाहिए. परिवर्तन ही संसार का नियम है.

सुशील कुमार भारद्वाज द्वारा लिखित

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