“जब कलाकार और उसकी कृतियों की कहानी किसी दूसरे कैनवस पर उकेरी जाती है तो वहाँ बहुत कुछ बदल जाती है। सच्चाई और कल्पना का मिश्रण एक नई कृति रचता है। यही हुआ है हाल में बनी दो फ़िल्मों में। ‘मकर मञ्ञ्’ और ‘रंग रसिया’ की। एक सेल्यूलायड पर उकेरी गई कविता है तो दूसरी सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर बहस। एक का वातावरण पूरी तरह से ऐतिहासिक है जबकि दूसरी को आधुनिकता का जामा पहनाया गया है।” इसी विषय पर विस्तृत चर्चा कर रहीं हैं ‘डा० विजय शर्मा‘ …..|
राजा रवि वर्मा: दो फ़िल्में, दो नजरिए
विजय शर्मा
जब कलाकार और उसकी कृतियों की कहानी किसी दूसरे कैनवस पर उकेरी जाती है तो वहाँ बहुत कुछ बदल जाती है। सच्चाई और कल्पना का मिश्रण एक नई कृति रचता है। यही हुआ है हाल में बनी दो फ़िल्मों में। २००८ में केतन मेहता ने हिन्दी में बनाई ‘रंग रसिया’ जो कई बरसों के इंतजार के बाद हाल में रिलीज हुई है और २०१० में लेनिन राजेंद्रन ने मलयालम में ‘मकर मञ्ञ्’ फ़िल्म बनाई। संयोग से दोनों का प्रतिपाद्य एक ही है, केरल के प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा का जीवन और उनकी कला। हाल में मैंने दोनों फ़िल्में देखी। दोनों फ़िल्मों का कथानक एक होते हुए भी दोनों के ट्रीटमेंट में जमीन-आसमान का अंतर है। मेरी दृष्टि में एक ओस की नाजुक बूँद है तो दूसरी ओलावृष्टि। ‘मकर मञ्ञ्’ ओस की बूँद की तरह वायवी और कोमल है, जबकि ‘रंग रसिया’ मुझे बहुत लाउड, भयंकर ओलावृष्टि की भाँति लगी। हालाँकि ओलावृष्टि का भी अपना सौंदर्य होता है। पर वह काफ़ी कुछ नष्ट कर डालती है। यह भी सच है कि दोनों फ़िल्मों में राजा रवि वर्मा के जीवन को यथार्थ और कल्पना के रंगों के समिश्रण से चित्रित किया गया है। दोनों निर्देशक अपने क्षेत्र के जाने-माने व्यक्ति हैं, जाहिर-सी बात है दोनों के काम में भिन्नता होगी, दोनों का काम मौलिक है।
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मेरे मन में केतन मेहता के लिए पर्याप्त सम्मान है। कौन भूल सकता है उनकी ‘मिर्च मसाला’, ‘आर या पार’, ‘माया मेमसाब’, ‘हीरो हीरालाल’, ‘होली’! उन्होंने अपने फ़िल्म निर्देशन जीवन का प्रारंभ १९७५ से किया और ‘सरदार’ (सरदार वल्लभभाई पटेल), ‘मंगल पाण्डे’ जैसी ऐतिहासिक फ़िल्में भी बनाई। ‘मिर्च मसाला’ स्त्री एकजुटता और सशक्तिकरण का बेजोड़ नमूना है। नसीर, ओमपुरी, सुप्रिया पाठक, दीना पाठक की बेहतरीन अदाकारी का नमूना। भव्य सेट्स केतन मेहता की फ़िल्मों की एक विशेषता है। ‘माया मेमसाब’ गुस्तॉव फ़्लाबेयर की प्रसिद्ध कृति ‘मेडम बोवरी’ पर आधारित है। दीपा साही (‘मेडम बोवेरी’, ‘आर या पार’) उनकी पत्नी भी हैं। ‘हीरो हीरालाल’ हल्के-फ़ुल्के हास्य के भीतर गंभीर विषय उठाता है और नसीर के एक अन्य पक्ष से दर्शकों को परिचित कराता है। इस फ़िल्म में भव्य सेट्स नहीं हैं फ़िर भी यह एक उत्तम कोटि फ़िल्म है। ‘रंग रसिया’ की वे प्रड्यूसर हैं। केतन मेहता ने टीवी सीरियल भी बनाए और डॉक्यूमेंट्री भी बनाई हैं। उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार-सम्मान प्राप्त हुए हैं। मगर उनकी नवीनतम फ़िल्म ‘रंग रसिया’ से मुझे कुछ शिकायत है।
दूसरी ओर मलयाली फ़िल्म निर्देशक लेनिन राजेंद्रन कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य हैं। १९८१ में ‘वेनल’ (द समर) से फ़िल्म बनाने की शुरुआत करने वाले राजेंद्रन ने अब तक पंद्रह फ़िल्में बनाई हैं उन्हें भी कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार-सम्मान प्राप्त हुए हैं। लेनिन राजेंद्रन ने भी ऐतिहासिक फ़िल्में बनाई हैं। उन्नीसवीं सदी के ट्रावणकोर के विद्वान और संगीत प्रवीण राजा पर ‘स्वाति तिरुनाल’ बनाई है। उन्होंने प्रसिद्ध अभिनेता प्रेम नजीर पर ‘प्रेम नज़ीरिने काणानिल्ला’ (प्रेम नज़ीर दिखाई नहीं देते) फ़िल्म बनाई है। ‘मकर मञ्ञ्’ के अलावा उन्होंने ‘चिल्ल’ [द फ़्रैग्मेंट (किरचें)], ‘मीनमासत्तिले सूर्यन (मिड-समर सन), ‘मषक्काल मेघम’ (वर्षाकाल के मेघ), ‘पुरावृत्तम’ [द पास्ट(अतीत)], ‘वचनम्’ (द वर्ड), ‘दैवत्तिन्टे विकृतिकाल’ (द विकेड वेज ऑफ़ गॉड), ‘कुलम्’, ‘मषा’ (द रेन), ‘अन्यर’ (द आउटसाइडर), ‘रात्रि मषा’ (नाइट रेन), ‘एडवप्पाति’ (द मानसून) नामक फ़िल्में भी बनाई हैं।
हाँ तो बात हो रही है ‘मकर मञ्ञ्’ और ‘रंग रसिया’ की। एक सेल्यूलायड पर उकेरी गई कविता है तो दूसरी सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर बहस। एक का वातावरण पूरी तरह से ऐतिहासिक है जबकि दूसरी को आधुनिकता का जामा पहनाया गया है। केतन मेहता राजा रवि वर्मा को आधुनिक संदर्भों से जोड़ते हैं, फ़िल्म में दलित, स्त्री मुद्दों को उठाते हैं, कला और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लंबी बहस चलाते हैं। अभिव्यक्ति पर होने वाली आक्रमणों की बात करते हैं। फ़िल्म कई बार बहुत लाउड हो जाती है, राजा रवि वर्मा पृष्ठभूमि में चले जाते हैं और कई अन्य बातें अग्रभूमि ग्रहण कर लेती हैं।
‘मकर मञ्ञ्’ एक बहुत संश्लिष्ट फ़िल्म है। विचार और सृजन का अद्भुद सामंजस्य है यह फ़िल्म। मकर मञ्ञ् का शाब्दिक अर्थ होगा ‘कैप्रिकोन (पूस महीने) का कुहासा’ (मिस्ट ऑफ़ कैप्रीकोन)। भारत में होते हुए भी केरल में बहुत कम स्थानों पर सर्दी पड़ती है। वहाँ पूस मास का कुहासा बड़ी भली अनुभूति देता है, जिस तरह उत्तर भारत में ओस की अनुभूति होती है, वसंत ऋतु की होती है। मगर उत्तर भारत में पूस कहते ही प्रेमचंद की ‘पूस की रात’ और उससे जुड़ी भयंकर सर्दी साकार हो उठती है, कंपाने लगती है। इसीलिए मैं इस फ़िल्म को हिन्दी में ‘पूस का कोहरा’ नहीं बल्कि ‘ओस’ नाम देना पसंद करूँगी। एक कलाकार के जीवन की जटिलता दिखाने के लिए कुहासा उपयुक्त शब्द है, पर उसकी अनुभूति ओस द्वारा ही हो सकती है। उसका व्यक्तित्व ओस की भाँति नाजुक और भंगुर होता है।
राजा रवि वर्मा एक चित्रकार थे उन्होंने भारत के मिथकों, देवी-देवताओं खासकर देवियों के चित्र बनाए और यह कलैंडर में रूपांतरित हो कर आज भी घर-घर में विराजमान हैं। लेनिन राजेंद्रन ने अपने नायक की भूमिका में संतोष शिवन को लिया है, संतोष शिवन स्वयं एक जाने-माने सिनेमैटोग्राफ़र हैं। यही पर केतन मेहता मात खा गए हैं। राजा रवि वर्मा, यानी एक कलाकार के लिए राजदीप हुडा का उनका चयन खलता है। हुड़ा बहुत अच्छे अभिनेता हैं, मगर इस भूमिका के लिए सटीक नहीं । वे कहीं से भी चित्रकार नहीं लगते हैं। कलाकार के लिए जिस कोमलता, जिस सौम्यता, जिस तरलता की जरूरत होती है, वह उनमें सिरे से नदारत है। फ़ाइटिंग सीन्स में वे बहुत जँच सकते हैं, मगर प्रेमानुभूति का प्रदर्शन करते वे नहीं जमते हैं, ठीक उसी तरह जैसे कोमल क्षणों के फ़िल्मांकन में ओम पुरी प्रभाव नहीं डाल पाते हैं। पात्रों के अनुकूल अभिनेता का चुनाव अत्यंत आवश्यक है। अभिनेता का शारीरिक सौष्ठव, उसका चेहरा-मोहरा चरित्र, खड़े होने-बैठके ता तरीका, चाल-मुद्राएँ कथानक के अनुकूल होना फ़िल्म (नाटक भी) की सफ़लता की एक महत्वपूर्ण शर्त है। हर आदमी सभी तरह के चरित्रों की भूमिका में सटीक नहीं बैठता है। हर कोई नसीरुद्दीन शाह नहीं है जो हर खांचे में, हर भूमिका में फ़िट बैठे।
केतन मेहता ने हिन्दी फ़िल्म में एक अनूठा विषय उठाया है। ऐतिहासिक काल को वर्तमान से जोड़ा है। कला और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला कोई आज का मुद्दा नहीं है, वह पहले भी होता रहा है। राजा रवि वर्मा को भी इसका सामना करना पड़ा था। कलाकार की काल्पनिक दुनिया और वास्तविक जगत में बहुत अंतर होता है। फ़िल्म में भी इस अंतर को बहुत शिद्दत के साथ दिखाया गया है। ‘रंग रसिया’ एक अच्छी फ़िल्म है। मगर तभी तक जब तक आपने ‘मकर मञ्ञ्’ नहीं देखी है। तब तक आप इसे एक बेहतरीन फ़िल्म की संज्ञा भी दे सकते हैं। लेकिन एक बार आपने मलयालम फ़िल्म देख ली तो आप न चाहते हुए भी तुलना करने पर मजबूर हो जाएँगे और जैसा कि इंग्लिश में कहा जाता है, ‘कम्पेरिजन इज हेल’। पर आप चाहे-अनचाहे तुलना करने लगते हैं।
दोनों फ़िल्में चूँकि एक चित्रकार के काम और उसके जीवन से जुड़ी हैं अत: इन दोनों फ़िल्मों में रंगों की बहार है, भरपूर चाक्षुष सकून है। कैनवास के साथ-साथ जीवन में, फ़िल्म के पूरे परदे पर रंग-ही-रंग हैं। मानो सेल्यूलाइड पर कूँची (कैमरे) से चित्रकारी की जा रही हो। राजा रवि वर्मा ने भारतीय चित्रकला को सदैव के लिए बदल दिया, हालाँकि उन पर आरोप लगता रहा कि वे विदेशी कला शैली को भारतीय कला पर आरोपित करते हैं। केतन मेहता इस बात कर जोर देते हैं कि रवि वर्मा कला को महलों और मंदिरों से बाहर निकाल कर जनता के बीच ले आए। और फ़ोटोग्राफ़ी तथा प्रिंटिंग प्रेस की उन्होंने ही शुरुआत की। इतना ही नहीं वे दिखाते हैं कि ढ़ूँढ़ीराज गोविंद फ़ाल्के ने भारत में फ़िल्म निर्माण राजा रवि वर्मा की कृपा/रकम से ही किया। केतन मेहता ने अपनी फ़िल्म का आधार रंजीत देसाई की मराठी में लिखी राजा रवि वर्मा की जीवनी को बनाया है। जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक कट्टरता, जाति प्रथा, वर्ग भेद, स्त्री की आहत भावनाओं, कलाकार की द्विविधा आदि कई विषयों पर एक साथ ध्यान केंद्रित किया गया है। दिखाया है कि स्त्री निर्बाध रूप से स्वयं को सौंप देती है, जबकि कलाकार के लिए उसकी कला प्राथमिकता रखती है, उसे स्त्री का किया गया समर्पण सहज-स्वाभाविक लगता है। लेकिन वह इस संबंध में बँधने की बात स्वप्न में भी नहीं सोच पाता है। जबकि स्त्री प्रतिदान की आकांक्षा रखती है।
दोनों फ़िल्मों में सिनेमाटोग्राफ़र का काम काबिले तारीफ़ है। ‘मकर मञ्ञ्’ के सिनेमाटोग्राफ़र हैं प्रसिद्ध-पुरस्कृत और गोल्ड मेडलिस्ट मधु अंबाट। इस फ़िल्म के लिए भी उन्हें सर्वोत्तम सिनेमाटोग्राफ़र का पुरस्कार मिला। अनिल मेहता ने भी ‘रंग रसिया’ में कैमरे का उचित इस्तेमाल किया है। उन्होंने फ़िल्म के रंगीन हिस्सों को जिस कुशलता से पकड़ा है, उसी कुशलता से कलाकार के आंतरिक संघर्ष और श्याम पक्ष को भी उजागर करने का प्रयास किया है।
लेनिन राजेंद्रन के रवि वर्मा न केवल कुशल चित्रकार हैं वरन चित्रकला में प्रयुक्त समस्त सामग्री का चयन, आयोजन यहाँ तक कि उसकी निर्माण प्रक्रिया में भी रूचि लेते हैं। कभी वे मॉडल को पहनाई जाने वाली साड़ी के किनारे को अपना मनचाहा रूप देते हुए रंग रहे हैं, तो कभी उसके गहनों की डिजाइन में खुद नग जड़ रहे हैं। कभी मॉडल पर प्रकाश और छाया का संतुलन करते हुए आईने का कोण ठीक करते नजर आते हैं। वे संगीत से जुगलबंदी करती रचना करते हैं। फ़िल्म का मूड ‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने…’ और इसी धुन पर आधारित मलयालम बंदिश से प्रारंभ में ही सेट हो जाता है। ‘रंग रसिया’ में राजा रवि वर्मा स्त्री को देवी की अनुभूति कराने का आयोजन करते नजर आते हैं।
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दोनों फ़िल्मों में राजा रवि वर्मा की पत्नी है। केतन मेहता उसे बेचारी, घर-बच्चों में जकड़ी हुई स्त्री चित्रित करते हैं, जिसे छोड़ कर राजा रवि वर्मा सैर-सपाटा करते रहते हैं। जबकि लेनिन राजेंद्रन उनकी पत्नी भागीरथी (लक्ष्मी शर्मा) का श्याम पक्ष भी उजागर करते हैं। यह पत्नी ईर्ष्या के वशीभूत हो कर एक मासूम कन्या की हत्यारिन बनती है। लेकिन मासूमियत का दिखावा करती हुई पति को उसकी सफ़लता के उपहार स्वरूप खुद को समर्पित करने का नाटक रचती है। पति रवि वर्मा को उसकी सच्चाई ज्ञात है। मितभाषी रवि वर्मा पत्नी को उसकी करतूत बता देते हैं। इस मासूम की हत्या के साथ उनकी सारी खुशी, सारी प्रसन्नता नष्ट हो जाती है और वे उसी दिन घर छोड़ कर बंबई चले जाते हैं। जबकि केतन मेहता रवि वर्मा के घर छोड़ने का कारण कुछ और दिखाते/फ़िल्माते हैं। मेहता के लिए स्त्री मुद्दा प्रमुख हो उठता है।
भागीरथी जिस निष्पाप बालिका की हत्या करवाती है, उस मासूम दासी कन्या की भूमिका में मलयालम की अभिनेत्री नित्या मेनन को देखना एक सुंदर कविता की अनुभूति जैसा है। उसकी आँखें, उसकी मुद्राएँ, उसकी हिचकिचाहट, उसकी बेबाकी, उसकी चाल सब मोहित करती है। १९८८ में जन्मी नित्या मेनन एक बहुत अच्छी गायिका भी हैं, उन्होंने कई (मलयालम, तमिल, कन्नड, तेलगू) फ़िल्मों में पार्श्व गायन किया है। नित्या मेनन ने इंग्लिश, हिन्दी (छोटी माँ एक अनोखा बंधन), कन्नड, तेलगू, तमिल, मलयालम फ़िल्मों में काम किया है। इसी तरह नर्तकी सुगंधा बाई तथा उर्वशी की भूमिका के साथ कार्तिका नायर ने पूरा-पूरा न्याय किया है। सुगंधा बाई मॉडल बनती है लेकिन एक दिन अपनी अर्धनग्न तस्वीर देख कर बहुत क्रोधित और निराश होती है। उसे रवि वर्मा की नीयत ठीक नहीं लगती है। इस पर रवि वर्मा उसे उर्वशी की पौराणिक कहानी सुनाते हैं। यहीं से कहानी एक नया मोड़ लेती है और फ़िल्म में दो सामानांतर कथाएँ चलने लगती हैं। एक कहानी है चित्रकार राजा रवि वर्मा की तथा उनकी मॉडल बनी सुगंधा बाई की है और दूसरी कथा राजा पुरुरवा और उर्वशी की। कहानी के भीतर कथा के इस संगुफ़न से फ़िल्म में एक नई जान आ जाती है। इस कारण फ़िल्म संश्लिष्ट हो जाती है। दर्शक का भारतीय पौराणिक कथाओं का जानकार होना एक शर्त बन जाती है। सुगंधा बाई कलाकार की प्रेरणा बन जाती है, उर्वशी पुरुरवा के प्रेम में पागल। मगर दैव अपना खेल खेलते हैं, उर्वशी के साथ शाप जुड़ा हुआ है। फ़िल्म में चित्रकला और जीवन तथा पौराणिक गाथा साथ-साथ चलती है। १९९२ में जन्मी कार्तिका नायर की यह मात्र तीसरी फ़िल्म है, मलयालम में उनकी पहली फ़िल्म। इस फ़िल्म के लिए उसे ‘केरल स्टेट फ़िल्म क्रिटिक अवार्ड फ़ॉर द बेस्ट डेब्यू’, ‘वनिता फ़िल्म अवार्ड फ़ॉर बेस्ट डेब्यू’ तथा ‘सीमा अवार्ड फ़ॉर द बेस्ट फ़ीमेल डेब्यू’ मिला था। संतोष शिवन की यह बतौर अभिनेता पहली फ़िल्म है, उनकी प्रतिभा का लोहा मानना पड़ेगा। वे यहाँ राजा रवि वर्मा तथा राजा पुरुरवा की दोहरी भूमिका में तथा तीन अभिनेत्रियों के साथ बड़ी सहजता से अभिनय करते हैं।
‘मकर मञ्ञ्’ फ़िल्म में राजा रवि वर्मा के काल को मूर्तिमान करता है गोकुलदास (कला निर्देशक) का सेट डिजाइन। उस काल के मोमबत्ती स्तंभ और फ़र्नीचर दर्शक को एक दूसरे लोक में ले जाते हैं। अभिनेताओं की पोशाक भी इसे ऐतिहासिक संदर्भ प्रदान करती है। इस फ़िल्म के इंग्लिश अथवा हिन्दी सबटाइटिल्स उपलब्ध नहीं हैं अत: गैर मलयाली के लिए फ़िल्म देखना और समझना आसान नहीं है। मेरा यह सौभाग्य है कि मेरे सखा सत्य ने न केवल मेरे साथ बैठ कर यह फ़िल्म देखी वरन इसके एक-एक संवाद का मेरे लिए रूपांतरण भी किया। हमने दोनों फ़िल्मों पर खूब चर्चा भी की। भाषा के व्यवधान के बावजूद इसे देखा जा सकता है, सराहा जा सकता है। इसमें राजा रवि वर्मा एक मित भाषी व्यक्ति हैं और किसी दूसरे चरित्रों को भी बहुत बोलने की आवश्यकता नहीं पड़ी है। फ़िल्म चित्रकला पर है और इसे यह फ़िल्म चाक्षुक माध्यम से बखूबी प्रकट करती है। कहना नहीं होगा कि फ़िल्म को राज्य, राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुए।
केतन मेहता नैतिकता और धर्म के ठेकेदारों द्वारा राजा रवि वर्मा का अपमान होता दिखाते हैं। बंबई जा कर वे महाराजा बड़ौदा के संरक्षण में विकसित होते हैं। प्रेरणा की खोज में उत्तर-पूर्व-पश्चिम पूरे देश की यात्रा करते हैं और एक सफ़ल कलाकार के रूप में स्थापित होते हैं। एक व्यापारी गोवर्धन दास (परेश रावल) की सहायता से एक जर्मन के सहयोग से प्रिंटिंग प्रेस खोलते हैं तथा अपनी कृतियों की हजारों लाखों प्रतिया छापते हैं। ‘रंग रसिया’ की सबसे चिंता कि आखिर इतनी मेहनत से चित्रकार जो बना रहा है वो किसके लिए है? राजा रवि वर्मा दूसरे चित्रकारों की तरह राजा-महाराजाओं के चित्र बनाकर, उन्हें राजमहल की दीवारों पर टंगवा कर खुश नहीं होते हैं। वे चित्रकला को एलीट के चंगुल से बाहर निकाल कर जन सामान्य के लिए सुलभ बनाते हैं। इसी का प्रतिफ़ल है कि फ़िल्म के अंत की ओर एक कलाकार सड़क पर एक धार्मिक देवता का चित्र बना रहा है। मंदिरों में जिनका प्रवेश वर्जित था उनके लिए भगवान को मंदिर से बाहर ला कर अछूतों के घरों में स्थापित करते हैं। लेकिन कट्टरपंथी उन्हें अदालत में खींच ले जाते हैं। फ़िर हिन्दी फ़िल्मों का अदालती दृश्य प्रारंभ होता है जहाँ लंबी बहसें चलती हैं। धर्म की आड़ में रवि वर्मा पर आक्रमण होता है। कोर्ट में कला, कला की मर्यादा पर बहस चलती है। उन पर अश्लीलता और स्त्री शोषण के आरोप लगते हैं। यह सब ऐतिहासिक फ़िल्म को वर्तमान से जोड़ता है। यहाँ सुगंधा बाई के रूप में नन्दना सेन हैं। नन्दना सेन ने हिन्दी फ़िल्मों की परम्परा के विपरीत काफ़ी बोल्ड सीन किए हैं। अंतरंग संबंध के दृश्यों में वे बहुत सहजता से अभिनय करती हैं, जिसके लिए उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। विक्रम गोखले और सचिन केडकर और आशीष विद्यार्थी भी इसमें उपस्थित हैं। नन्दना सेन का अभिनय बहुत प्रभावित करता है। केतन मेहता सुगंधा से आत्महत्या करवाते हैं। जबकि लेनिन राजेंद्रन उसे अंत तक जीवित रखते हैं। केतन मेहता ने राजा रवि वर्मा के जीवन और कार्य को सामयिक संदर्भ दे दिया है। खुद इस फ़िल्म को काफ़ी समय तक सैंसरशिप से जूझना पड़ा है। फ़िल्म रिलीज होने में कई साल लग गए। नायक-नायिका के अंतरंग पलों का एक दृश्य फ़िल्म रिलीज होने के पूर्व ही बाहर आ गया था और इसको ले कर खूब हंगामा हुआ।
‘रंग रसिया’ में हिन्दी फ़िल्मों की एक अन्य विशेषता शामिल है वह है गीत-संगीत की भरमार। गाने ‘मकर मञ्ञ्’ में भी हैं मगर वे कथानक के साथ जाते हैं और कर्णप्रिय हैं। इसका संगीत रमेश नारायण ने बनाया है और गीत के. एन. पणिकर, के. जयकुमार तथा चंद्रन नायर के हैं। पणिकर का ‘मेले मेले…’ गीत इतना सुमधुर है कि बिना भाषा जाने भी इसका आनंद लिया जा सकता है। ‘रंग रसिया’ का संगीत संदेश शांडिल्य ने दिया है। इसके गीत मनोज मुंतसिर के हैं। इस फ़िल्म के गीत न तो जबान पर चढ़ते हैं न ही फ़िल्म के दौरान प्रभावित करते हैं। यहाँ तक कि शीर्षक गीत ‘रंग रसिया…’ भी फ़िल्म में चिप्पी की तरह लगता है। यह फ़िल्म एक और बात चिह्नित करती है, कोई भी वास्तविक कलाकार कृति के पूरा होते है ही उससे पूरी तरह से विमुख हो जाता है, उससे दूर हो कर अपनी अगली संरचना की ओर मुड़ जाता है। वह अतेत से चिपका नहीं रहता है। कलाकार और मॉडल में यह अंतर होता है। इसीलिए पेंटिंग पूरी होने के बाद मॉडल से भी उनका लगाव समाप्त हो जाता है। मगर मॉडल को कलाकार से कुछ और अपेक्षाएँ होती हैं। प्रतिदान न पा कर वह बेहद अस्वाभाविक कदम उठा लेता/लेती है। उसके इस कदम में समाज की भागीदारी ज्यादा होती है। समाज मॉडल को नीची निगाह से देखता अहि, उस पर फ़ब्बतियाँ कसता है। ‘मकर मञ्ञ्’ में भी समाज के ठेकेदार सुगंधा बाई और उसकी माँ को डराने-धमकाने का प्रयास करते हैं। वह खुद के लिए उतना नहीं डरती है जितनी उसे राजा रवि वर्मा की चिंता है क्योंकि इन धर्म और नैतिकता के ठेकेदारों ने यह भी धमकी दी थी कि यदि सुगंधा फ़िर कभी रवि वर्मा के साथ देखी गई तो वे रवि वर्मा को भी नष्ट कर देंगे। दूसरी ओर रवि वर्मा इन बातों से अनजान सुगंधा की प्रतीक्षा कर रहे हैं, उनकी कला उसकी अनुपस्थिति में स्थगित पड़ी हुई है। इसीलिए जब राजा रवि वर्मा का छोटा भाई उसे बुलाने जाता है तो वह खून का घूँट पी कर चुप रहती है। मगर फ़िल्म के अंत की ओर वह चुपचाप घर से निकल पड़ती है पता नहीं राजा रवि वर्मा के पास जाने के लिए अथवा…। निर्देशक कोई निश्चित अंत नहीं देता है वह इसे दर्शकों की कल्पना पर छोड़ देता है। ‘रंग रसिया’ की तरह यहाँ कोई विदेशी स्त्री कलाकार को नहीं बताती है कि उसे क्या पेंट करना चाहिए, क्या पेंट नहीं करना चाहिए।
‘रंग रसिया’ की शुरुआत बंबई से होती है जहाँ राजा रवि वर्मा की पेंटिंग की नीलामी हो रही है, करोड़ों में पेंटिंग बिक रही है। बाहर लोग कला का विरोध कर रहे हैं, पेंटिंग्स पार काला रंग फ़ेंक रहे हैं, नारे लगा रहे हैं, पेंटिंग्स को कुचल रहे हैं। दोनों फ़िल्मों का शुरुआती दृश्य दोनों फ़िल्मों के नजरिए को स्पष्ट कर देता है। केतन मेहता का ध्यान कला की स्वतंत्र अभिव्यक्ति, नारीवाद की ओर है जबकि लेनिन राजेंद्रन रवि वर्मा और उनकी चित्रकला पर खुद को केंद्रित करते हैं। ‘मकार मञ्ञ्’ में राजेंद्रन रवि वर्मा के पूरे जीवन को न ले कर जीवन के एक कालखंड विशेष को लेते हैं। इस काल में राजा रवि वर्मा चित्रकला की एक श्रृंखला – अप्सरा ऊर्वशी-राजा पुरुरवा के चित्र बना रहे हैं। यह उनका मास्टरपीस काम है। सुगंधा बाई उनकी मॉडल है, दोनों के संबंध चित्रकार-मॉडल के संबंध से अधिक प्रगाढ़ होते जाते हैं। राजेंद्रन ने कुछ साल पहले राजा रवि वर्मा पर एक नाटक किया था, इसी सिलसिले में उन्होंने शोध औअर् अध्ययन किया तो उन्हें फ़िल्म बनाने की प्रेरणा मिली। उन्हें कलाकार की पीड़ा का अहसास हुआ। राजा रवि वर्मा एक सम्पन्न परिवार से थे मगर अपनी कला की बेचैनी में वे घर-परिवार छोड़ते हैं, समाज की उपेक्षा, आरोप, आलोचना और आक्रमण झेलते हैं। सब सहते हुए रंग और कूँची से अपना संबंध बनाए रखते हैं। यह सही है कि मुकदमे में उनकी जीत होती है, मगर इस दौरान उनका कलाकार मन कितना आहत हुआ होगा, उनकी कला का कितना नुकसान हुआ होगा यह कोई सहृदय ही जान सकता है। इसीलिए राजेंद्रन राजा रवि वर्मा का समस्त जीवन न ले कर अपनी फ़िल्म के लिए एक खास काल चुनते हैं। जीवन के उस खास काल का चुनाव करते हैं जब कलाकार के जीवन में विभिन्न संवेदनाओं का विस्फ़ोट हो रहा था। वे कलाकार के सृजनात्मक पलों को परदे पर उतारते हैं। भारत में कलाकारों पर बहुत कम फ़िल्में बनती हैं, न के बराबर। इस मायने में केतन मेहता और लेनिन राजेंद्रन दोनों बधाई और धन्यवाद के पात्र हैं।