प्रेमचंद के १३७ वें जन्मदिवस पर विशेष –
(यह सिनेमा का शुरुआती दौर था। प्रेमचंद की निगाह इस विधा पर थी। तीस के दशक में उन्होंने सिनेमा पर अपनी चिंताओं को दर्ज करते हुए एक लेख ‘सिनेमा और जीवन’ लिखा। इस लेख को पढ़ते हुए मेरे मन में बार-बार विचार आ रहा है कि यदि आज प्रेमचंद होते तो सिनेमा पर उनके विचार कैसे होते?)
प्रेमचंद और सिनेमा
विजय शर्मा
यह सर्वविदित है कि कई अन्य हिन्दी विद्वानों की भाँति प्रेमचंद माया नगरी बंबई में अपना हाथ आजमाने गए। वहाँ उन्होंने सिनेमा से जुड़ने का प्रयास किया, मगर फ़िल्मी दुनिया उन्हें रास न आई और वे वापस लौट आए। उनके जीवित रहते उनके कुछ साहित्यिक कर्म पर फ़िल्में बनी लेकिन वे आर्थिक रूप से सफ़ल न हो सकीं। जिस तरह उनके कार्य का फ़िल्मीकरण हुआ उससे वे प्रसन्न नहीं थे। वे इन सबसे बहुत निराश हुए। बाद में उनके उपन्यास ‘गबन’ पर कृष्ण चोपड़ा और ऋषिकेश मुखर्जी ने मिल कर फ़िल्म बनाई जो असफ़ल रही। जब वे बंबई में थे उनकी फ़िल्म बनाने वालों से कभी न पटी। बहुत बाद में १९७७ में सत्यजित राय ने उनकी कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर इसी नाम से फ़िल्म बनाई। यह फ़िल्म अंतरराष्ट्रीय समारोहों में दिखाई गई और इसे पुरस्कार भी मिले। राय ने ‘सद्गति’ पर भी इसी नाम से टेलेफ़िल्म बनाई। उनकी कई अन्य कहानियों पर भी टेलीफ़िल्म बनी हैं।
google से साभार
प्रेमचंद अपने समय और समाज को ले कर सदैव चिंतित थे। यह सिनेमा का शुरुआती दौर था। प्रेमचंद की निगाह इस विधा पर थी। तीस के दशक में उन्होंने सिनेमा पर अपनी चिंताओं को दर्ज करते हुए एक लेख ‘सिनेमा और जीवन’ लिखा। इस लेख को पढ़ते हुए मेरे मन में बार-बार विचार आ रहा है कि यदि आज प्रेमचंद होते तो सिनेमा पर उनके विचार कैसे होते? उस समय वे सिनेमा की विषय-वस्तु को ले कर चिंतित थे, जन रूचि को विकृत करने की उसके प्रभाव से दु:खी थे, साहित्य पर बने सिनेमा को ले कर वे आश्वस्त नहीं थे, फ़िल्म में गीतों से असंतुष्ट थे। फ़िल्म को उद्योग के नियमों पर नहीं रखना चाहते हैं। यह चार पन्नों का लेख पूरा-का-पूरा हताशा-निराशा, दु:ख-संताप से भरा हुआ है। वे फ़िल्मों में भी साहित्य की भाँति आदर्शोन्मुख यथार्थवाद देखना चाहते थे। सिनेमा को ले कर वे इतने दु:खी थे कि इसी क्रम में कजली, होली, बारहमासे को साहित्य से खारिज कर देते हैं। पारसी थियेटर को साहित्य का गौरव देने को राजी नहीं होते हैं। आज समय और समाज बदल गया है, इसके साथ सोच भी बदली है। आज बारहमासा, कजली, होली को साहित्य में समाहित किया जा चुका है, लोक साहित्य साहित्य का अंग है, मौखिक परम्परा को साहित्य में समावेश कर उसके संरक्षण, प्रसार-प्रचार का काम हो रहा है। उस पर पठन-पाठन, शोध कार्य हो रहा है। लोक से साहित्य समृद्ध होता है, हुआ है।
पिछले नब्बे सालों में देश-दुनिया बहुत बदल गई है। फ़िल्में भी। वह सिनेमा का प्रारंभिक दौर था आज हम उसकी शताब्दी मना चुके हैं। तब देश परतंत्र था, आज स्वतंत्रता के कई दशक बीत चुके हैं, देश नेहरू के आदर्शवादी युग से होते हुए मोहभंग और इमरजेंसी के दंश को भोग कर तकनीकि से लैस हो चुका है। हम उदारीकरण, ग्लोबलाइजेशन, आर्थिक उपनिवेशवाद के समय में जी रहे हैं। बाजारवाद की गिरफ़्त में हैं। फ़िल्म एक उद्योग के रूप में स्थापित हो चुका है। हिन्दी सिनेमा विश्व सिनेमा से टक्कर ले रहा है। दर्शकों की अपार संख्या को देखते हुए विश्व की अन्य भाषाओं के सिनेमा ने अपने लाभ को ध्यान में रख कर हिन्दी डबिंग को अपना लिया है। सिनेमा के निर्माण एवं प्रदर्शन की तकनीक बदल चुकी है। दर्शक वर्ग की रूचि बदल चुकी है। सिनेमा आज मात्र मनोरंजन का साधन न हो कर अध्ययन-अध्यापन का अंग है। इस परिवर्तित समय में मेरे जैसी सिनेमा के अध्येता के लिए प्रेमचंद के इस लेख से पूरी तरह सहमत होना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।
प्रेमचंद इस लेख में सिनेमा से जुड़ी सारी बातों का सामान्यीकरण करते हैं। पहले और आज भी सब तरह का सिनेमा बनता है और आगे भी बनता रहेगा, ऐसा मेरा विचार है। भारत में ढ़ेर सारी बनने वाली फ़िल्मों में कुछ अच्छी होंगी, कुछ थोड़ी-सी बहुत अच्छी होंगी और अधिकाँश औसत और औसत से नीचे दर्जे की होंगी। प्रेमचंद सिनेमा व्यवसाय और ताड़ी-शराब बनाने को एक श्रेणी में रखते हैं और दोनों व्यवसायों को उसके उपभोक्ता के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मानते हैं। सिनेमा बनाने वालों को वे धन-लुटेरों की संज्ञा से नवाजते हैं। इनसे दैहिक, आत्मिक, चारित्रिक, आर्थिक और पारिवारिक हानि की बात कहते हैं। मेरे विचार से दोनों को एक तराजू से तौलना ठीक नहीं है। सिनेमा निर्माण एक सामूहिक और महँगा उद्योग है। जबकि ताड़ी-शराब मेरे घर के पास की बस्ती का मलैया बना सकता है, विजय माल्या भी इस उद्योग को साध सकते हैं, लेकिन फ़िल्म बनाना सबके बस की बात नहीं है। इसके लिए बड़ी पूँजी के साथ-साथ तकनीकि समझ और जानकारी भी होनी जरूरी है।
प्रेमचंद सिनेमा को कोरा व्यवसाय कहते हैं, उस समय तक कलात्मक फ़िल्मों का दौर नहीं चला था, न ही कला और व्यवसाय दोनों मोर्चों को साधने वाली फ़िल्मों की सोच लोगों के पास थी। आज की कई फ़िल्में कला और व्यवसाय का सुंदर समिश्रण हैं। ‘उत्सव’, ‘आनंद’, ‘अभिमान’, ‘दिल चाहता है’, ‘तमस’, ‘चौदहवीं का चाँद’, ‘तीसरी कसम’, ‘तारे जमीन पर’, ‘बंदिनी’, ‘मदर इंडिया’, ‘मिर्जा गालिब’, ‘सरकार’, ‘सुजाता’, ‘अर्ध सत्य’, ‘कहानी’ कुछ इसी तरह फ़िल्में हैं (कोई क्रम नहीं लगाया है जैसे मन में नाम आते गए लिखा है) जो मन में आ रही हैं (लिस्ट बहुत लंबी हो सकती है)।
प्रेमचंद का दौर वह दौर था जब राजनैतिक प्रतिबद्ध लोगों की भरमार थी। लोगों का अपने राजनेताओं पर भरोसा था। इसीलिए प्रेमचंद लिखते हैं, ‘जिस जमाने में बंबई में कांग्रेस का जलसा था, सिनेमा हाल अधिकांशत: खाली रहते थे और उन दिनों जो दिखाए गए उन्हें घाटा ही रहा।’ इसका कारण वे बताते हैं कि जनता मार-काट वाली, सनसनी पैदा करने वाली शोरगुल से भरी फ़िल्में नहीं देखना चाहती है। आज के समय को देखें, यदि ये दो काम – जलसा और फ़िल्म – एक साथ हो रहे हों तो नतीजा बताने की जरूरत नहीं है। कौन बाहर निकल कर जलसे में जाएगा, घर में बैठे फ़िल्म न देखेगा? जलसा भी आज मनोरंजन के अलावा कुछ और नहीं रह गया है। आज सरकार खुद जब जरूरत हो अपने फ़ायदे के लिए लोगों को घर के भीतर रखने के लिए, उन्हें सोचने-विचारने से रोकने के लिए प्रसिद्ध फ़िल्मों का टी.वी. पर प्रदर्शन करवाती है। आज न तो लोगों को फ़िल्म देखने सिनेमा हॉल जाने की जरूरत है, न वे नेता का भाषण सुनने बाहर जाते हैं, अगर मन हुआ तो लाइव प्रसारण देख लेते हैं, फ़िर न्यूज चैनल तो भाषण के अंश चौबीसों घंटे घोटते ही रहते हैं।
प्रेमचंद अगर होते तो उनका यह भ्रम टूट जाता कि दर्शक को हजारों (उन्होंने सौ लिखा है) फ़ीट से कूदने वाले और टीन की तलवार (आज पिस्तौल, बंदूक, बम होते हैं) चलाने वाले को देख कर आनंद आता है। आज फ़िल्में मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन का साधन हैं। अगर ऐसा न होता तो ‘शोले’, ‘सिंघम’, ‘एनएच १०’, ‘गैंग ऑफ़ वासेपुर’, ‘शूट आउट एट वडाला’ को बॉक्स ऑफ़िस पर रिकॉर्डतोड़ सफ़लता न मिलती। फ़िल्म हमारे समाज का आईना है। जब राज्य जनता की सुरक्षा और संरक्षण न कर सके, जनता का विश्वास न्याय पर से उठ जाए तो आम आदमी खुद हथियार उठाने पर मजबूर हो जाता है और ऐसे समय में कभी अंधेरी गलियों में ‘शहंशाह’ निकलता है तो कभी ‘दीवारें’ टूटती हैं।
google से साभार
वे फ़िल्म में आलिंगन-चुंबन के खिलाफ़ थे। आज यह विडम्बनापूर्ण है कि एक ओर फ़िल्म में सैक्स की छूट है और दूसरी ओर समाज में मोरल पोलिसिंग भी होती है। पुलिस, समाज के स्वनामधन्य लोग लड़के-लड़कियों के कहीं मिल बैठने को सहन नहीं कर पाते हैं, खाप पंचायतें तो हैं हीं। प्रेमचंद के अनुसार सिनेमा अगर हमारे जीवन को स्वस्थ आनंद दे सके, तो उसे जिंदा रहने का हक है। आज स्थिति यह है कि वह स्वस्थ आनंद दे अथवा नहीं उससे उसके जीने का हक कोई नहीं छीन सकता है। आगे वे कहते हैं कि अब यह बात धीरे-धीरे समझ में आने लगी है कि अर्धनग्न तस्वीरें दिखा कर और नंगे नाचों का प्रदर्शन करके जनता को लूटना इतना आसान नहीं रहा। आज अगर प्रेमचंद जिंदा होते तो फ़िल्म के आइटम सॉन्ग्स देख कर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती? वे कहते हैं कि ऐसी तस्वीरें अब आमतौर पर नापसंद की जाती हैं। असल में प्रेमचंद के समय ऐसी तो दूर रही किसी भी प्रकार का सिनेमा देखना हेय कर्म माना जाता था। बच्चों के लिए फ़िल्में वर्जित थीं, अधिकाँश वयस्क अपने घर के बड़े-बूढ़ों से झूठ बोल कर फ़िल्म देखने जाते थे। असल में जनमत सिनेमा में सच्चे और संस्कृत जीवन का प्रतिबिंब कभी नहीं देखना चाहता था, न देखना चाहता है। न प्रेमचंद के समय न आज। यही कारण है कि एक दौर में कला फ़िल्में एक-एक कर बॉक्स ऑफ़िस पार पिटती गई। अगर ऐसा होता तो ‘भुवन शोम’, ‘पार’, ‘न्यू दिल्ली टाइम्स’, ‘लिबास’, ‘द्रोहकाल’, ‘शहर और सपना’, ‘गर्म हवा’ खूब चली होतीं, डिब्बे में बंद न रहतीं। वे मानते थे कि राजाओं के विलासमय जीवन और उनकी ऐयाशियों और लड़ाइयों से किसी को प्रेम न रहा। तब ‘नूर जहाँ’, ‘मुगले आज़म’, ‘अनारकली’, ‘शाहजहाँ’, ‘उत्सव’, ‘पाकीज़ा’, ‘जोधा अकबर’, ‘साहब बीबी और गुलाम’ जैसी फ़िल्मों के बारे में उनका क्या ख्याल होता?
मेरे मन में कहानीकार प्रेमचंद को ले कर बहुत आदर और श्रद्धा है, मगर मैं उनके इस लेख से पूरी तौर पर सहमत नहीं हूँ। उन्हीं के समय में कई साहित्यकार फ़िल्मों से जुड़े हुए थे और सफ़ल-असफ़ाल फ़िल्मों के निर्माण में अपना योगदान कर रहे थे। क्या भगवतीचरण वर्मा, ख्वाज़ा अहमद अब्बास, कृष्ण चंदर, बलराज साहनी, नरेंद्र देव, मजरूह सुल्तानपुरी, राही मासूम रज़ा, राजेंद्र सिंह बेदी, इस्मत चुगताई, मंटो, साहिर लुधयानवी, गुलजार उच्च कोटि के साहित्यकार नहीं हैं? क्या ‘साहब, बीबी और गुलाम’, ‘तीसरी कसम’, ‘रुदाली’, ‘पथेर पांचाली’, ‘गाइड’, ‘चित्रलेखा, ‘दीक्षा’, ‘देवदास’, ‘गाइड’, ‘हजार चौरासी की माँ’, ‘बैंडिट क्वीन’, ‘बिराज बहु’, ‘परिणीता’, ‘ओंकारा’, ‘मकबूल’, ‘हैदर’, ‘रजनीगंधा’, ‘सारा आकाश’, ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ साहित्यिक कृतियों पर बनी फ़िल्में नहीं हैं?
अपने इस लेख में साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फ़िल्मों के विषय में भी उनका मानना है कि साहित्य में जो बात मिलती है वह बात फ़िल्म में नहीं मिलती है। उन्हें फ़िल्म का सुरूचि या सौंदर्य से कोई संबंध नजर नहीं आता है। वे साहित्य की तुलना दूध से करते हैं और फ़िल्म को ताड़ी या शराब की संज्ञा देते हैं। उनके लिए साहित्य के सामने आदर्श है, संयम है, मर्यादा है। आदर्श, संयम और मर्यादा को ले कर बनी फ़िल्मों की एक लंबी सूची तैयार हो सकती है, दर्जनों साहित्यिक कृतियों पर सफ़ल फ़िल्में बनी है। नहीं जानती हूँ यदि प्रेमचंद आज जीवित होते तो क्या सोचते, आज प्रेमचंद का इनको ले कर क्या विचार होता? सुरूचिपूर्ण फ़िल्मों को देख कर वे क्या कहते? मुझे लगता है कि समय के साथ उनकी सोच में भी परिवर्तन हुआ होता, वे प्रगतिशील लेखक संघ से शिद्दत से जुड़े थे, प्रगतिशील का अर्थ ही है समय के साथ बदलाव, समय के साथ विचारों का नवीनीकरण। प्रेमचंद अपने इस लेख में सिनेमा को सिरे से खारिज करते हैं। आज अगर वे जिंदा होते तो मुझे पूरा विश्वास है वे ऐसा कदपि न कर करते/ कर पाते। वे न केवल अच्छा सिनेमा खुद देखते और दोस्तों को उसे देखने की सलाह देते वरन स्वयं भी सिनेमा निर्माण में किसी-न-किसी रूप में जुड़े होते और सिनेमा को उन जैसे समर्थ साहित्यकार का लाभ प्राप्त होता। समय के साथ बहुत कुछ बदलता है। समय के साथ विचार भी बदलते हैं/ बदलने चहिए।