”युद्ध का स्त्री पर पड़ने वाले प्रभाव को दिखाने वाली अच्छी फ़िल्मों की संख्या और भी कम है। ‘टू वीमेन’ उन्हीं कुछ बहुत अच्छी फ़िल्मों से एक है। ‘टू वीमेन‘ उपन्यास युद्ध काल में स्त्री जीवन की विभीषिका का सचित्र, उत्कृष्ट एवं भयावह चित्रण करता है। स्त्री जीवन की इसी भयावहता, कठोरता और क्रूरता का फ़िल्मांकन इस फ़िल्म का कथानक है। यह एक बेबाक फ़िल्म है जो सोचने पर मजबूर करती है। युद्ध पुरुषों का शगल है, पर मारी जाती है स्त्री। मर जाती तो भी भला था। युद्ध काल में वह मृत्यु से भयंकर हालात में जीने को मजबूर होती है। स्त्री शांति काल में सुरक्षित नहीं है, वह युद्ध काल में सुरक्षित नहीं है। वह विदेश में असुरक्षित है, अपने देश में भी सुरक्षित नहीं है। और तो और वह देवालय-गिरजाघर में भी सुरक्षित नहीं है।” ‘टू वीमेन‘ के संदर्भ में ‘विश्व महिला दिवस‘ पर ‘डा० विजय शर्मा‘ का विस्तृत और समीक्षात्मक आलेख …….| – संपादक
टू वीमेन: युद्ध काल में स्त्री
विजय शर्मा
युद्ध विषय पर विभिन्न भाषाओं में बहुत सारी फ़िल्में बनी हैं। मगर युद्ध का प्रभाव दिखाने वाली फ़िल्में गिनी-चुनी हैं। उसमें भी युद्ध का स्त्री पर पड़ने वाले प्रभाव को दिखाने वाली फ़िल्में और भी कम हैं। युद्ध का स्त्री पर पड़ने वाले प्रभाव को दिखाने वाली अच्छी फ़िल्मों की संख्या और भी कम है। ‘टू वीमेन’ उन्हीं कुछ बहुत अच्छी फ़िल्मों से एक है।
सोफ़िया लॉरेन बहुत खूबसूरत हैं। खूबसूरती के साथ उनमें अभिनय की अकूत क्षमता है जिसका बहुत कम निर्देशक उपयोग कर सके। १९३४ में जन्मी इस इटैलियन अभिनेत्री को अधिकतर सेक्स सिम्बल के रूप में फ़िल्माया गया। रोम में जन्मी इस स्त्री ने सौंदर्य प्रतियोगिता जीती और बाद में अकादमी पुरस्कार भी जीता। इस सुंदरी को मात्र पंद्रह वर्ष की युवा उम्र में फ़िल्म प्रड्यूसर कार्लो पोंटी ने खोज निकाला। बाद में वे सोफ़िया के पति भी बने। बीस वर्ष की होते-न-होते वह एक स्टार बन गई हालाँकि उनकी शुरुआती फ़िल्में असफ़ल रहीं। १९६० में बनी फ़िल्म ‘हेलर इन पिंक टाइड्स’ के लिए भी उन्हें याद किया जाता है। उन्हें १९९१ में लाइफ़टाइम कार्य का ऑनरेरी अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। सोफ़िया लॉरेन ने ताजिंदगी यूरोपियन तथा हॉलीवुड फ़िल्मों में काम किया। उन्होंने ‘गोल्ड ऑफ़ नेपल्स’, ‘हाउसबोट’, ‘द ब्लैक ऑर्किड’, ‘एल सिड’, ‘ए काउंटेस फ़्रॉम हॉगकॉग’ तथा ‘ए स्पेशल डे’ जैसी फ़िल्मों में काम किया। लेकिन उनकी अभिनय प्रतिभा को देखने के लिए उनकी एक फ़िल्म ‘टू वीमेन’ देखना काफ़ी है। इस फ़िल्म में उनका सौंदर्य गजब का है, मगर इसमें उनका अभिनय भी कमाल का है। उनके इस अभिनय की दर्शकों ने जम कर तारीफ़ की। समीक्षकों और पुरस्कार जूरी के सदस्यों ने उनके अभिनय को भरपूर सराहा। नतीजन इस फ़िल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। इस फ़िल्म ने उन्हें कान विश्व फ़िल्म समारोह में सर्वोत्तम अभिनेत्री का सम्मान दिया तथा उस साल का न्यूयॉर्क फ़िल्म क्रिटिक अवार्ड भी उनकी झोली में आया। फ़िल्म एक टीम वर्क विधा है, ‘टू वीमेन’ फ़िल्म में सोफ़िया लॉरेन के साथ अन्य कलाकारों ने भी बेहतरीन अभिनय किया है। एलिओनोरा ब्राउन, जीन-पॉल बेल्मोंडो, रैफ़ वालोन सबने मिल कर इस फ़िल्म को एक खास ऊँचाई प्रदान की है।
विटोरिओ डि सिका एक जाने-माने फ़िल्म निर्देशक हैं। फ़िल्म अध्ययन-अध्यापन में उनकी फ़िल्मों का विश्लेषण किया जाता है। सत्यजित राय जैसे कई निर्देशकों के वे प्रेरणा स्रोत रहे हैं। पिछली सदी के दूसरे दशक में डि सिका ने एक लंबी तथा सफ़ल पारी स्टेज और फ़िल्म एक्टर के रूप में खेली और इसके बाद चौथे दशक से वे फ़िल्म निर्देशन में हाथ आजमाने लगे। यहाँ भी उन्हें भरपूर सफ़लता मिली। पहले वे कॉमिकल भूमिकाएँ कर रहे थे लेकिन फ़िल्में उन्होंने दूसरे मिजाज की बनाई। अपनी फ़िल्मों में उन्होंने चकाचौंध वाली सेटिंग्स, भड़काऊ चरित्रों और कथानकों को तिलांजलि दे दी और गंभीर काम के लिए उन्हें जाना जाने लगा। उन्होंने १९४६ में फ़िल्म ‘शूशाइन’ के लिए पहली बार ज़ावाटीनी के साथ कोलाबरेशन किया। डि सिका ने गैरपेशेवर एक्टरों से अनाथ बच्चों का क्रूर यथार्थवादी अभिनय कराया। ज़ावाटीनी के साथ उन्होंने हास्य फ़ंतासी ‘मिरकल इन मिलान’ तथा ‘उमेर्टो डी’ बनाई। उमेर्टो डी युद्धोपरांत रोम के एक अकेले बूढ़े आदमी का हताशा भरा चित्रण है। ये दोनों फ़िल्में गरीब और हाशिए के लोगों की जिंदगी को अंवेषित करती हैं। १९४८ में उनकी बनाई ‘द बाइसिकल थीफ़’ फ़िल्म इतिहास में मील का पत्थर है। एक आम आदमी की साइकिल चोरी होने पर आधारित इस फ़िल्म को सर्वोत्तम विदेशी भाषा की फ़िल्म का विशेष पुरस्कार प्राप्त हुआ। इसके पहले इस श्रेणी का पुरस्कार न था। डि सिका को फ़ेलिनी की भाँति चार बार विदेशी भाषा की फ़िल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ। जूआ खेलने की अपनी बुरी आदत के कारण वे सदैव ऋण के बोझ से दबे रहते थे। अत: उधार चुकाने के लिए इस प्रतिभाशाली निर्देशक ने कई बेकार की फ़िल्में भी बनाई।
डि सिका ने सोफ़िया लॉरेन को कई बार अपनी फ़िल्मों में निर्देशित किया। उन्होंने इटैलियन कॉमेडी ‘यस्टरडे, टूडे, एंड टुमारो’ तथा ‘मैरेज इटैलियन स्टाइल’ में सोफ़िया को मार्सेलो मास्ट्रोइआनी के साथ प्रस्तुत किया। २५ फ़िल्मों के निर्देशक तथा १५० फ़िल्मों के अभिनेता डि सिका की ‘द गार्डेन ऑफ़ फ़िंज़ी-कोंटिनिस’, ‘ए ब्रीफ़ वेकेशन’ इस श्रेणी की अन्य फ़िल्में हैं। ‘मैरेज इटैलियन स्टाइल’ के लिए सोफ़िया को ऑस्कर नामांकन मिला। उसे पहला पुरस्कार ‘टू वीमेन’ के लिए मिला। इस द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बची रही माँ-बेटी की फ़िल्म के लिए सोफ़िया को लिया जाना एक अजब-सा संयोग है।
जिंदगी में अजीब-अजीब संयोग होते हैं। निर्देशक विटोरिओ डि सिका ने पहले माँ के रूप में नायिका के किरदार के लिए एना मग्नानी को ध्यान में रख कर स्क्रीनप्ले लिखा था और बेटी के रूप में सोफ़िया लॉरेन को लेना तय किया था। किन्हीं कारणों से एना ने फ़िल्म में काम करने से इंकार कर दिया तो डि सिका ने पूर स्क्रीनप्ले फ़िर से लिखा। इस बार उन्होंने सोफ़िया को माँ की भूमिका के लिए ध्यान में रखा तथा किशोरी बेटी रोजेट्टा के लिए एलिओनोरा ब्राउन का चुनाव किया।
साभार google से
इस बेजोड़ अभिनय के लिए सोफ़िया लॉरेन युद्ध काल के अपने अनुभवों की गहराई में उतरती हैं। फ़िल्म में उन्होंने सेसिरा नामक एक युवा विधवा स्त्री और एक किशोरी की माँ का किरदार निभाया है। युद्ध की आर्थिक मार झेलती यह स्त्री अपनी बेटी की सुरक्षा के प्रति बहुत सतर्क है। वह हर हाल में उसकी रक्षा करना चाहती है। उसे दुनियादारी से बचा कर रखना चाहती है। क्या वह इस क्रूर दुनिया से उसे बचा पाती है? फ़िल्म की शुरुआत में वह खुद संघर्ष करती है लेकिन बेटी की सुख-सुविधाओं का इंतजाम करती रहती है। सोफ़िया ने स्वयं स्वीकार किया है कि इस फ़िल्म में आधिकारिक अभिनय हेतु उन्होंने अपने जीवन के वास्तविक अनुभवों का इस्तेमाल किया है। सोफ़िया लॉरेन की जिंदगी पर दृष्टि डाले तो पता चलता है कि उनका जीवन युद्ध की छाया से ग्रसित था। यह शर्मीली इटली की कन्या किसी तरह अपनी माँ और बहन के साथ घर चला रही थी। फ़िर उसने एक सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग लिया जिसमें वह जीती नहीं मगर इसके कारण उसका भाग्य बदल गया। वह फ़िल्मों में आ गई। शुरुआती दौर में सोफ़िया को इंग्लिश बोलने में बहुत कठिनाई होती थी लेकिन उसने मेहनत की। ‘टू वीमेन’ के संवाद इंग्लिश में उसने स्वायं डब किए।
‘टू वीमेन’ फ़िल्म का कथानक इटली के प्रसिद्ध साहित्यकार एल्बर्टो मोराविया के इसी नाम के उपन्यास से लिया गया है। मोराविया का वास्तविक नाम एल्बर्टो पिंशेरल था। १९०७ में जन्मे इस यथार्थवादी चित्रण के लिए प्रसिद्ध एल्बर्टो मोराविया ने तपेदिक से जूझते हुए ‘टाइम ऑफ़ इनडिफ़रेंस’, ‘द फ़ैंसी ड्रेस पार्टी’, ‘टू अडोलसेंट्स’, ‘द वूमन ऑफ़ रोम’, ‘ए घोस्ट एट नून’, दि एम्टी कैनवास’, ‘द लाई’, ‘टाइम ऑफ़ डेसक्रेशन, ‘१९३४’ तथा कई कहानियों जैसी कई उत्कृष्ट रचनाएँ कीं। उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध उपन्यास ‘टू वीमेन’ उनके अपने युद्ध काल के अनुभवों पर आधारित है।
‘टू वीमेन उपन्यास युद्ध काल में स्त्री जीवन की विभीषिका का सचित्र, उत्कृष्ट एवं भयावह चित्रण करता है। स्त्री जीवन की इसी भयावहता, कठोरता और क्रूरता का फ़िल्मांकन इस फ़िल्म का कथानक है। यह एक बेबाक फ़िल्म है जो सोचने पर मजबूर करती है। युद्ध पुरुषों का शगल है, पर मारी जाती है स्त्री। मर जाती तो भी भला था। युद्ध काल में वह मृत्यु से भयंकर हालात में जीने को मजबूर होती है। स्त्री शांति काल में सुरक्षित नहीं है, वह युद्ध काल में सुरक्षित नहीं है। वह विदेश में असुरक्षित है, अपने देश में भी सुरक्षित नहीं है। और तो और वह देवालय-गिरजाघर में भी सुरक्षित नहीं है। द्रोपदी की लाज बचाने कृष्ण आ गए थे (कुछ लोगों के मतानुसार ऐसा कुछ नहीं हुआ था), लेकिन जब अधिकाँश स्त्रियाँ सहायता की गुहार लगाती हैं तब कोई उनकी रक्षा के लिए नहीं आता है। तब तो और भी नहीं जब रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं। जिन पर देश-समाज की रक्षा का भार सौंप कर हम निश्चिंत, ये पुलिस-सैनिक हमारा घर-बार, हमारी अस्मत लूट लेते हैं। सैनिक दुश्मन से लड़ते हुए शहीद होने को तत्पर रहते हैं। यही सैनिक जब किसी निहत्थी, बेबस स्त्री को पाते हैं तो भूखे भेड़िए जैसे उस पार टूट पदअते हैं। उसे नोंचने-चींथने से गुरेज नहीं करते हैं। यही करते हैं जीत का जश्न मनाते सैनिक।
उजड़े हुए गिरजाघर में थकी-हारी, भूखी-प्यासी माँ-बेटी लिए हुए हैं। लौटती हुई मित्र राष्ट्र की सेना के मोरक्को सैनिकों द्वारा किया गया माँ-बेटी का बलात्कार इस फ़िल्म का टर्निंग पॉइंट है। यह दृश्य इस फ़िल्म का चरम दृश्य है और यहीं से यह फ़िल्म एक नया मोड़ लेती है। वैसे पूरी फ़िल्म बहुत गंभीर है, निर्देशक ने फ़िल्म की बोझिलता कम करने के लिए कुछ हल्के-फ़ुल्के प्रसंग डाले हैं। इससे थोड़ा मनोरंजन होता है। वरना यह फ़िल्म उनका मजाक उड़ाती है जो कहते हैं कि फ़िल्म केवाल और केवल मनोरंजन होती है। फ़िल्म निर्देशक विटोरिओ डि सिका नवयथार्थवादी सिनेमा के लिए प्रसिद्ध हैं और उनकी यह फ़िल्म नाव्यथार्थावादी सिनेमा का प्रतिनिधित्व करती है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लोगों का जीवन कितना कठिन, कितना अस्थिर औअर कितना असुरक्षित हो गया था, यह सारा कुछ इस फ़िल्म में बखूबी प्रदर्शित हुआ है। युद्ध काल में लोग कैसी दहशत, संघर्ष तथा कठिनाई झेलते हुए जीवन जीते हैं, स्त्री की मुसीबतें कितनी ज्यादा बढ़ जाती हैं, यह सब देखते हुए एक पल को भी परदे से आँखें नहीं हटती हैं।
विधवा सेसिरा रोम में परचून की एक दुकान चला कर अपना और अपनी बेटी का जीवन चला रही है। वह दुनियादार है और अपनी बेटी के लिए कुछ सुविधा पाने के एवज में एक अन्य व्यापारी से संबंध बनाती है। सेसिरा कोयले के एक व्यापारी गिओवानी (राफ़ वालोवान) के पास जाती है। वह शादीशुदा है फ़िर भी वे एक-दूसरे के प्रति आकर्षित हो कर संबंध बनाते हैं। गोदाम में शटर गिरा कर फ़र्श पर वे शारीरिक रूप से एक होते हैं। यहाँ तक सब ठीक है लेकिन जब वह गोदाम से बाहार निकलने लगती है गिओवानी पीछे से उसके नितंब पर प्रहार करता है। गर्वीली सेसिरा को यह अपना अपमान लगता है, उसे यह हरकत नागवार गुजरती है। वह प्रतिरोध में उलट कर कहती है कि वह किसी की संपत्ति नहीं है। इतना कहने के साथ वह उसकी दी हुई वस्तुएँ उसी पर फ़ेंक कर चली जाती है। अपनी मर्जी से राजी हो कर संबंध बनाना एक बात है और उस संबंध का फ़ायदा उठा कर लिबर्टी लेना एक अलग बात है। कोई सेसिरा का बेजा फ़ायदा उठाए यह उसे गँवारा नहीं है।
ऐसी गर्वीली स्त्री को युद्ध के भयानक दौर में क्या-क्या नहीं देखना पड़ता है। बमबारी शुरु हो गई है और उसमें सेसिरा का सब कुछ नष्ट हो जाता है। सेसिरा अपनी बेटी के संग रोम छोड़ कर अपने गाँव जाने का निश्चय करती है। उसका विचार था कुछ दिन गाँव में रहेगी और जब युद्ध रुकेगा, रोम शांत हो जाएगा वह वापस अपने घर लौट आएगी। युद्ध के बाद कब असल में शांति होती है? कब किसी का लौटना होता है। मगर वर्तमान में माँ-बेटी यात्रा पर चल पड़ती हैं।
गाँव पहुँच कर उसे ज्ञात होता है कि वहाँ भी सब चीजों के लाले पड़े हुए हैं। लोग किसी तरह वाइन और ब्रेड पर गुजारा कर रहे हैं। ऐसे लोग किसी और की सहायता कहाँ से करेंगे। इसी अभावग्रस्त गाँव में उन्हें एक पढ़ा-लिखा बौद्धिक युवक माइकेल (जीन पॉल बेल्मोंडो) मिलता है। माँ-बेटी दोनों उस पर फ़िदा हो जाती हैं। माइकेल एक किसान का बेटा है लेकिन उसके विचार फ़ासीवाद के खिलाफ़ हैं। तुर्रा यह कि वह अपने विचारों को छिपाता नहीं है वार्न खुल कार व्यक्त करता है। माँ को अपनी बेटी की भावनाओं का भान हो जाता अहि वह पूरे मन से चाहती है कि युवक उसकी बेती से प्रेम करे लेकिन युवक माइकेल बेटी को नहीं बल्कि माँ को तवज्जो देता है। सेसिरा युवक के बौद्धिक विचारों और उसकी बातों में रुचि लेती है पर उसके प्रणय निवेदन पर ध्यान नहीं देती है। माइकेल का किरदार कर रहे अभिनेता जीन पॉल बेल्मोंडो की ख्याति इसके पूर्व से ही थी। वह ‘ब्रेथलेस’ तथा ‘वूमन इज ए वूमन’ जैसी प्रसिद्ध फ़िल्मों में काम कर चुका था।
युद्ध से पीछे हटते हुए जर्मन सैनिक इस गाँव से हो कर गुजरते हैं, वे अबंदूक की नोंक पर माइकेल को रास्ता दिखाने के लिए अपने संग ले जाते हैं। बाद में पता चलता है कि उन सैनिकों ने माइकेल को मार डाला। इस सदमे वाली खबर माँ-बेटी को एक-दूसरे के करीब ला देती है। इसके पहले वे एक-दूसरे को समझ नहीं पा रही थीं। इस हादसे को झेलते हुए वे वापस रोम की ओर चल पड़ती हैं। कोई सवारी नहीं मिलती है अत: वे सर पर अपना सामान उठाए हुए पैदल चलती चली जा रही हैं। रास्ते में उन्हें मोरक्को के उदंड सैनिक मिलते हैं, वे माँ-बेटी पर फ़ब्बतियाँ कसते हैं।
चलते-चलते थक कर चूर हो माँ-बेटी एक उजाड़ चर्च में ठहर जाती हैं। अभी उनकी आँख लगी ही थी कि अचानक सब ओर से सैनिक उन्हें घेर लेते हैं। पहले वे जम कर उनकी कुटाई-पिटाई करते हैं फ़िर उससे भी ज्यादा क्रूरता से उनका सामूहिक बलात्कार करते हैं। लाचार माँ अपनी बेटी का बलात्कार रोक नहीं पाती है। इस दिल दहला देने वाले हादसे से रोजेट्टा दु:खी है। माँ ने उसकी रक्षा क्यों न की इस बात को ले कर वह अपनी माँ से गुस्सा भी है। फ़िल्म इतिहास में बलात्कार का यह क्रूर दृश्य अविस्मरणीय है। इस दृश्य में बलात्कार की आक्रमकता की प्रमुखता है। बलात्कार का यौन चित्रण नहीं है। इस दृश्य की जम कर कई जगह आलोचना हुई। इस पर कई अखबारों में संपादकीय लिखे गए। ध्यान से देखें तो भयभीत रोजेट्टा का क्लोजअप के फ़्रेम में फ़्रीज़ चेहरा बलात्कार को किसी भी कोण से ग्लोरीफ़ाई नहीं करता है। इसे देख कर दर्शक दहल जाता है, सिसकारी नहीं भरता है। आजकल फ़िल्मों में जम कार क्रूरता का प्रदर्शन होता है आज का दर्शक भी इसका आदी हो गया है। लेकिन जब बीसवीं सदी के छठवें दशक के प्रारंभ में ‘टू वीमेन रिलीज हुई थी तो इअस्में दिखाई क्रूरता पर बड़ी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी।
इस दुर्घटना के बाद सेसिरा करीब-करीब अपना मानसिक संतुलन खोने लगती है। फ़िर भी जीवन और यात्रा रुकती नहीं है। दोनों अपनी आगे की यात्रा जारी रखती हैं। मनुष्य की जिजीविषा बड़ी कठिन होती है। रोम की ओर जाते एक ट्रक ड्राइवर फ़्लोरिंडो (रेनाटो साल्वाटोरी) से सहायता ले कर वे उसके गाँव पहुँचती हैं। उसके गाँव में उस रात नाच-गाना चल रहा होता है। वह इसमें इन्हें भी शामिल करता है। इस तरह वे मानवीय संवेदना और मनुष्य समाज से पुन: जुड़ती हैं। मानवता में उनका विश्वास फ़िर से लौटता है। यह दिखाता है कि बेहद अमानुषिक कृत्य को आदमी जल्द ही भुला देना चाहता है। मनोविज्ञान कहता है कि आदमी दु:खद अनुभूतियों को भेला देना चाहता है।
राय में वे फ़्लोरिंडो के घर पर थक-हार कर बिस्तर पर जती हैं। थोड़ी देर बाद सेसिरा पाती है कि उसकी बेटी रोजेट्टा अपने बिस्तर पर नहीं है। बिस्तर पर गुलाबी सिल्क स्टॉकिंग्स पड़े देखती है। बाहर निकल कर वह उसकी खोज करती है। उसे फ़्लोरिंडो की माँ बताती है कि गाँव में चल रहे समारोह में वे दोनों नृत्य करने गए हैं। आशंकाओं से घिरी परेशान माँ बेसब्री से बेटी के लौटने का इंतजार करती है। जब बेटी लौटती है तो पहले वह किशोरों की तरह सफ़ाई देती हुई अपनी स्वातंत्रता की माँग करती है। माँ गुस्से में बेटी पर हाथ उठा देती है लेकिन उसे तत्काल अपनी गलती का एहसास होता है। उसे इस बात की प्रतीति होती है कि अब उसकी बेटी एक छोटी बच्ची नहीं रह गई है। अब वह एक औरत बन चुकी है, जिसे अब उसकी सुरक्षा की आवश्यकता नहीं रह गई है। वैसे भी वह पहले उसकी सुरक्षा कहाँ कर पाई थी। वह जान जाती है कि अब बेटी को अपनी तरह से जीवन अनुभव करना है। माँ-बेटी दोनों गले मिलती है। यह गले लगना पहली बार एक माँ-बेटी का न हो कर दो स्त्रियों का गले लगना है।
यह फ़िल्म एक किशोरी के युवती बनने की कहानी भी है, हालाँकि स्त्री बनने के लिए उसे भयंकर हादसे से गुजरना पड़ा। यह फ़िल्म बेटी के नजरिए से नहीं बनाई गई है। पूरी फ़िल्म को माँ की दृष्टि से दिखाया गया है। मोराबिया की इस उत्कृष्ट साहित्यिक रचना का निर्देशक डि सिका ने सेसारे ज़ावाटीनी के साथ मिल कर बहुत सुंदर स्क्रीनप्ले तैयार किया है। सोफ़िया लॉरेन के पति कार्लो पोंटी इस फ़िल्म के प्रोड्यूसर हैं। इस फ़िल्म में डि सिका का श्रेय सोफ़िया लॉरेन से इतना बेमिशाल अभिनय करा ले जाना है। इस फ़िल्म के दौरान डि सिका की प्रतिभा अपने पूरे निखार पर थी। आज की रंगीन, टैक्नोसेवी और तड़क-भड़क वाली फ़िल्मों के जमाने में ९९ मिनट की इस श्वेत-श्याम फ़िल्म को देखना एक सार्थक फ़िल्म देखने का सकून प्रदान करता है। बिना शोर-शराबे के, बिना कोई घोषणा या नारेबाजी अथवा भाषणबाजी किए यह फ़िल्म कई मानवीय सम्देश देती है।