“पिछली सदी के चालीस और पचास के दशक में मराठी मंच और फ़िल्म की प्रसिद्ध अभिनेत्री हंसा वाडेकर ने पत्रकार अनिल साधु के साथ मिल कर अपनी जीवनी लिखी। मराठी में इस आत्मकथा का शीर्षक ‘सांगत्ये आएका’ (सुनो और मैं कहती हूँ) है। हंसा ने बहुत बेबाक तरीके से इस आत्मकथा में अपने जीवन को कागज पर खोल कर रख दिया था। हंसा की इसी आत्मकथा को आधार बना कर बेनेगल ने ‘भूमिका’ फ़िल्म बनाई। चूँकि वे मराठी परिवेश से पूरी तरह परिचित नहीं थे अत: उन्होंने पटकथा लेखन के लिए अपने अलावा गिरीश कर्नाड तथा सत्यदेव दूबे का साथ लिया। फ़िल्म ‘भूमिका’ की कहानी एक तरह से शाश्वत है। स्त्री का परिवार-समाज द्वारा शोषण। हम कथानक की ज्यादा बात न करके फ़िल्म की भाषा की बात अधिक करेंगे। फ़िल्म में उषा एक जन्मजात कलाकार है। वह देवदासी परिवार से आती है। बचपन में उसने अपनी नानी से संगीत की शिक्षा ली है, अभिनय उसकी रग-रग में समाया हुआ है। वह मंच और फ़िल्म में अभिनय करके खूब शौहरत और पैसा पाती है। गाने के लिए ही वह पेशेगत रूप से काम शुरु करती है, अभिनेत्री बाद में बनती है।
जीवन से लबालब भरी यही उषा जब शूटिंग के बाद स्टूडियो बाहर निकलती है, घर लौटती है तो उसकी द्विविधा और बेबसी का नजारा दर्शक को मिलता है। फ़िल्म में कुछ भी अनावश्यक नहीं होना चाहिए। उषा जब स्टूडियो से बाहर निकल रही है तो उसी की एक फ़िल्म ‘अग्नि परीक्षा’ का पोस्टर उठा कर कुछ लोग ले जा रहे हैं। घर जा कर उसे अग्नि परीक्षा से गुजरना है। वह दोहरी जिंदगी जीती है, कई भिन्न भूमिकाएँ उसे करनी होती हैं। फ़िल्म की भाषा निर्देशक के विचार होते हैं, जिन्हें वह कैमरे की आँख, साउंड तथा संगीत के माध्यम से प्रस्तुत करता है। जहाँ बिना संवाद बोले विचारों, भावनाओं, दृष्टिकोण को प्रकट किया जाता है।” ‘भूमिका‘ के संदर्भ में सिनेमा के तकनीकी व् वैचारिक पक्ष पर विस्तृत चर्चा करता ‘प्रो0 विजय शर्मा‘ का आलेख …….
भूमिका: सिनेमा की भाषा में
विजय शर्मा
शब्द, वाक्य और संवाद सिनेमा की भाषा के प्रमुख अंग नहीं होते हैं। शब्द, वाक्य और संवाद साहित्य की भाषा के अंग हैं। सिनेमा की भाषा साहित्य की भाषा से अलग होती है। इसलिए साहित्य और सिनेमा की कसौटी भी भिन्न है। सिनेमा की भाषा वह है जिसे निर्देशक कैमरे की आँख से अभिव्यक्त करता है। कैमरे का एंगल, संगीत, गति (मूवमेंट्स), अभिनय, रंग, ड्रेस, लोकेशन सिनेमा की भाषा के प्रमुख अंग होते हैं। संवाद भी इसका हिस्सा होते हैं, मगर उनका स्थान काफ़ी बाद में आता है। साहित्य में जो बात पन्ने-के-पन्ने रंग कर कही जाती है सिनेमा वह बात कुछ दृश्यों के माध्यम से चुटकियों में कह जाता है। जरा याद कीजिए ‘मुगले आज़म’ फ़िल्म का वह दृश्य जहाँ अनारकली सलीम के साथ बाग में है और बादशाह सलामत के आने की मुनादी होती है। कैसी भयभीत हिरणी जैसी वह भागती है और उसका सामना अकबर बादशाह से होता है वह वापस भागती है और अंत में सलीम के गले में पड़ी मोतियों की माला पकड़ कर झूलती हुई बेहोश हो जाती है। माला के मोतियों के टूट कर बिखरने की ध्वनि बहुत कुछ कह जाती है। मोतियों के टूट कर बिखरने की ध्वनि साहित्य कैसे उत्पन्न करेगा? शब्दों द्वारा। वे शब्द होंगे ध्वनि नहीं। मगर सिनेमा ध्वनि द्वारा बहुत सारा अनकहा कह जाता है। सलीम, अनारकली और बादशाह सलामत के चेहरे के भावों का वर्णन शब्दों में साहित्य कर सकता है, मगर सिनेमा उसे दिखाता है। यही उसकी शक्ति है, यही उसकी सीमा भी। सिनेमा चाक्षुष माध्यम है। नाटक में भी सारे दर्शक अभिनेता के चेहरे के सारे भावों को पूरी तौर पर नहीं नहीं देख सकते हैं। और इस सारे समय फ़िल्म ‘मुगले आज़म’ में चलता पार्श्व संगीत इस पूरे परिदृश्य को और सशक्त बनाता है। संगीत सिनेमा का अनिवार्य अंग है। सिनेमा में संगीत दृश्य के मूड को अभिव्यक्त करता है। यह सिनेमा की भाषा की ताकत है जो प्रकाश-छाया, रंग, लोकेशन, कैमरे के कोण, गति, ड्रेस, अभिनय तथा संगीत द्वारा इतने प्रभावपूर्ण ढ़ंग से अपनी बात दर्शक तक पहुँचाता है।
हम बात कर रहे हैं फ़िल्म ‘भूमिका’ की। ‘भूमिका’ फ़िल्म में निर्देशक श्याम बेनेगल दर्शकों तक अपनी बात सिनेमा की भाषा में पहुँचाते हैं और बड़े कलात्मक तरीके से पहुँचाते हैं। १९७७ में बनी इस फ़िल्म का संदेश आज भी अर्थपूर्ण है। यह फ़िल्म समसामयिक है इसीलिए मैंने इसको अपने इस आलेख का विषय बनाया है। फ़िल्म ‘भूमिका’ फ़िल्म अध्ययनकर्ता और शोधार्थियों के लिए अनिवार्य है। इससे सिनेमा की भाषा के विषय में काफ़ी कुछ सीखा जा सकता है। फ़िल्म चूँकि बायोपिक है अत: इसको बनाने के अपने खतरे और अपनी चुनौतियाँ हैं। श्याम बेनेगल ने यह खतरा उठाया है और इन चुनौतितों को स्वीकार किया है। तभी वे और उनकी ‘भूमिका’ सोने-सी खरी निकली है।
चूँकि बायोपिक्स किसी व्यक्ति के जीवन पर आधारित होता है अत: एक ओर इसके डॉक्यूमेंट्री बन जाने का खतरा रहता है तो दूसरी ओर यह बहुत लाउड हो जा सकती है या फ़िर बहुत उबाऊ (बोरिंग) हो जा सकती है। बायोपिक में फ़िल्म निर्देशक ज्यादा सिनेमैटिक लिबर्टी नहीं ले सकता है। फ़िल्म मनोरंजन का भी साधन है अत: यथार्थवादी फ़िल्म का बॉक्स ऑफ़िस पर पिटने का खतरा सदैव बना रहता है। यदि निर्देशक फ़िल्म में अपनी ओर से रंग भरता है तो विवाद उत्पन्न होने की संभावना होती है। बायोपिक से जुड़े व्यक्ति सदैव फ़िल्म में खोट निकालने को तैयार रहते हैं। उन्हें मालूम होता है कि फ़िल्म से कमाई होगी तो वे भी उसमें हिस्सा पाने की आशा लगा लेते हैं और आर्थिक लाभ न मिलने पर उत्पात करते हैं। बायोपिक में सदा किसी व्यक्ति, समाज, जाति, धर्म, समुदाय की भावनाओं के आहत होने की संभावना बनी रहती है। जिसके जीवन पर फ़िल्म बनी होती है, कभी-कभी वे फ़िल्म की कहानी से सहमत नहीं होते हैं। इन खतरों के बावजूद सदा से बायोपिक फ़िल्में बनती रही हैं और आगे भी बनती रहेंगी।
पिछली सदी के चालीस और पचास के दशक में मराठी मंच और फ़िल्म की प्रसिद्ध अभिनेत्री हंसा वाडेकर ने पत्रकार अनिल साधु के साथ मिल कर अपनी जीवनी लिखी। मराठी में इस आत्मकथा का शीर्षक ‘सांगत्ये आएका’ (सुनो और मैं कहती हूँ) है। हंसा ने बहुत बेबाक तरीके से इस आत्मकथा में अपने जीवन को कागज पर खोल कर रख दिया था। हंसा का जन्म का नाम रतन भालचंद्र था। माता-पिता दोनों पी कर टुन्न रहने वाले गैरजिम्मेदार व्यक्ति थे। परिवार के एक उम्रदराज मित्र से बच्ची हंसा ने विवाह किया। पंद्रह साल की उम्र तक वह नौ-दस फ़िल्मों में काम करके खूब नाम कमा चुकी थी। घर उसकी कमाई से चल रहा था लेकिन उसका अपनी कमाई पर कोई अधिकार न था। वह खूबसूरत थी, प्रतिभाशालिनी थी, महत्वाकांक्षी थी, साथ ही वह जिद्दी और कठोर भी थी। घरेलू हिंसा, बाल शोषण, बलात्कार का शिकार वह हुई, जिंदगी में अपनों और परायों सबने उसे सदैव केवल एक वस्तु की तरह इस्तेमाल किया, व्यक्ति के रूप में उसकी उपेक्षा की गई। रक्षा करने वालों ने उसका भक्षण किया। जब वह तलाक लेने गई तो उसके पति को काम के बहाने बाहर भेज कर स्वयं मजिस्ट्रेट ने उसका बलात्कार किया। न जाने कितनी स्त्रियाँ इसी तरह का जीवन जीने को मजबूर होती हैं, मगर हंसा ने विद्रोह किया और मनचाहा जीवन जीने का प्रयास किया।
हंसा की इसी आत्मकथा को आधार बना कर बेनेगल ने ‘भूमिका’ फ़िल्म बनाई। चूँकि वे मराठी परिवेश से पूरी तरह परिचित नहीं थे अत: उन्होंने पटकथा लेखन के लिए अपने अलावा गिरीश कर्नाड तथा सत्यदेव दूबे का साथ लिया। फ़िल्म में उषा या उर्वशी दलवी की मुख्य भूमिका स्मिता पाटिल ने निभाई है। फ़िल्म बनते समय वे मात्र २२ साल की थीं और यह ‘कमिंग ऑफ़ एज़’ कहानी है। स्मिता ने इस फ़िल्म में बड़ी सरलता और सहजता से एक लड़की से एक प्रौढ़ा तक की भूमिका का अभिनय किया है। उन्होंने इस फ़िल्म में अपना सर्वोत्तम दिया है। असल व्यक्ति, खासकर प्रसिद्ध अभिनेत्री का अभिनय करना अत्यधिक कठिन होता है, स्मिता पाटिल फ़िल्म में हंसा वाडेकर ही नजर आती हैं। साँवली-सलोनी स्मिता पाटिल के स्थान पर उषा की भूमिका के लिए किस और अभिनेत्री को लिया जा सकता था? स्मिता जैसी सघनता से बोलती आँखें बहुत कम अभिनेत्रियों के पास हैं। स्मिता के व्यक्तित्व की कशिश, उनके अभिनय की रेंज इस फ़िल्म में अनुभव की जा सकती है। परदे से उतर कर ये आँखें दर्शक के दिल में गहरे उतर जाती हैं। दर्शक से ऐसे-ऐसे प्रश्न करती हैं कि वह बेचैन हो जाता है। स्मिता की आँखों को कैमरे का क्लोजअप बार-बार पकड़ता है। इसी क्लोजअप तकनीकि के कारण सिनेमा नाटक से आगे निकल जाता है। कोई आश्चर्य नहीं कि इस फ़िल्म के लिए स्मिता पाटिल को राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।
अमोल पालेकर जो सदा हल्की-फ़ुल्की भूमिका के लिए जाने जाते रहे हैं यहाँ एक बहुत घुन्ने, चालाक, क्रूर और शोषण करने वाले पति केशव दलवी के रूप में दिखाई देते हैं। बाद में उषा के प्रति उनका व्यवहार तनिक नरम पड़ता है। विनायक काले के रूप में अमरीश पुरी ने अपने मंजे हुए अभिनय से फ़िल्म को एक ऊँचाई दी है और बेफ़िक्र सुनील वर्मा (नसीरुद्दीन शाह) मात्र कुछ पलों के लिए फ़िल्म में अवतरित होते हैं और अपनी छाप छोड़ जाते हैं। फ़िल्म निर्देशक की भूमिका में कुलभूषण खरबंदा सटीक हैं और उषा (स्मिता पाटिल) के फ़िल्मी सहनायक के रूप में राजन (अनंत नाग) जमते हैं। बेबस माँ शांता की भूमिका में सुलभा देशपांडे अपना प्रभाव छोड़ती हैं। कहने का मतलब यह है कि पात्रों के अनुरूप अभिनेताओं का चुनाव किया गया है। यह फ़िल्म की सफ़लता के लिए आवश्यक है। कास्टिंग फ़िल्म का अहम हिस्सा होती है।
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फ़िल्म ‘भूमिका’ की कहानी एक तरह से शाश्वत है। स्त्री का परिवार-समाज द्वारा शोषण। हम कथानक की ज्यादा बात न करके फ़िल्म की भाषा की बात अधिक करेंगे। फ़िल्म में उषा एक जन्मजात कलाकार है। वह देवदासी परिवार से आती है। बचपन में उसने अपनी नानी से संगीत की शिक्षा ली है, अभिनय उसकी रग-रग में समाया हुआ है। वह मंच और फ़िल्म में अभिनय करके खूब शौहरत और पैसा पाती है। गाने के लिए ही वह पेशेगत रूप से काम शुरु करती है, अभिनेत्री बाद में बनती है। फ़िल्म में लगातार दोहरी कहानी चलती है। एक अभिनेत्री के रूप में, दूसरा उषा की निजी जिंदगी। फ़िल्म के भीतर फ़िल्म चलती है और जब भी उषा शूटिंग कर रही होती है उसकी प्रफ़ुल्लता देखते बनती है। उसकी स्फ़ूर्ति को नृत्य-गान द्वारा दिखाया गया है। इस दौरान खूब चटकीले रंगों का प्रयोग हुआ है। सारे ऐसे दृश्य बहुत त्वरा के साथ घटित होते हैं। चूँकि फ़िल्म बायोपिक है अत: उसी काल के गानों तथा नृत्य शैली का प्रयोग किया गया है। वसंत देव के गीत ‘घट-घट में राम रमैया’, ‘तुम्हारे बिना जी न लागे घर में’ उस युग को साकार करते हैं। ‘बाजू रे माँडर बाजू रे’ तथा ‘मेरा जिस्कीला बालम’ की त्वरा फ़िल्म को गति देती है, साथ ही उषा के जीवन के एक पक्ष, जहाँ उसका मन रमता है, को अभिव्यक्त करती है। लांवणी शैली का यह गीत तथा नायिका की पोशाक (ड्रेस डिजाइनर: कल्पना लाज़मी) उस काल और उस स्थान (मराठी शैली) को फ़िल्म में स्थापित कार देता है। ये गीत भी वसंत देव ने ही लिखे हैं। केवल एक गीत ‘सावन के दिन आए’ मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा हुआ है। चहकते स्वर में सरस्वती राणे तथा मीणा फ़टारफ़ेकर का गाया ‘बाजू रे माँडर’ तथा प्रीति सागर का गाया ‘मेरा जिस्कीला बालम’ फ़िल्म में जान डाल देते हैं। शूटिंग के दौरान उषा ‘फ़्लो स्टेट’ में होती है। पात्र में स्वयं को पूरी तरह से उड़ेल देती है। शूटिंग के लिए डॉन्स करती हुई उषा किसी और लोक की सुंदरी नजर आती है। फ़िल्मों की प्रसिद्ध सफ़ल अभिनेत्री उषा पारीवारिक जीवन में, निजी जीवन में सदा असफ़लता का मुँह देखती है।
जीवन से लबालब भरी यही उषा जब शूटिंग के बाद स्टूडियो बाहर निकलती है, घर लौटती है तो उसकी द्विविधा और बेबसी का नजारा दर्शक को मिलता है। फ़िल्म में कुछ भी अनावश्यक नहीं होना चाहिए। उषा जब स्टूडियो से बाहर निकल रही है तो उसी की एक फ़िल्म ‘अग्नि परीक्षा’ का पोस्टर उठा कर कुछ लोग ले जा रहे हैं। घर जा कर उसे अग्नि परीक्षा से गुजरना है। वह दोहरी जिंदगी जीती है, कई भिन्न भूमिकाएँ उसे करनी होती हैं। फ़िल्म की भाषा निर्देशक के विचार होते हैं, जिन्हें वह कैमरे की आँख, साउंड तथा संगीत के माध्यम से प्रस्तुत करता है। जहाँ बिना संवाद बोले विचारों, भावनाओं, दृष्टिकोण को प्रकट किया जाता है। भूमिका का एक दृश्य इस बात को बड़ी सहजता से अभिव्यक्त करता है। उषा फ़िल्म की शूटिंग के बाद स्टूडियो के बाहर खड़ी है उसकी गाड़ी नहीं आई है, उसी समय उसका सहनायक राजन स्टूडियो से निकलता है। वह उषा से कहता है कि तुम्हारी गाड़ी नहीं आई है, चलो मैं तुम्हें घर छोड़ दूँ। उषा एक पल को हिचकती है फ़िर उसकी कार में बैठ जाती है। कैमरा दिखाता है कि कार उषा के घर के सामने सड़क पर रुकती है, जहाँ ऊपर से उषा का पति उसे कार से उतरते हुए देखता है। सीढ़ियों पर चढ़ती उषा का पति को देख कर ठिठकना, फ़िर घर में दाखिल होना। उसकी माँ का चाय का प्याला लिए हुए उसके पति केशव के सामने पड़ कर ठिठक जाना। केशव का कमरे में जाना, जहाँ उषा कपड़े बदल रही है, दोनों की झड़प-बहस। शोर से बेटी का आहत होना। परेशान उषा का सूटकेस में सामान ठूँसना, सूटकेस उठा कर घर से निकलने का प्रयास, बेटी को देख कर ठिठकना, माँ की ओर देखना, पति का सामना होने पर फ़िर-फ़िर ठिठकना। कैमरे द्वारा कट हो कर बार-बार परिवार के सदस्यों के चेहरे के भाव को क्लोजअप में पकड़ना। उषा का सूटकेस नीचे रखना, उसे फ़िर उठाना, उसका घर छोड़ते समय होने वाला आत्म संघर्ष। बच्ची का उषा से लिपटना, उषा की आँखों में बेबसी-लाचारी, दृढ़ता, ऊहापोह, चेहरे पर आते-जाते तमाम भाव तीन-चार मिनट में इतना कुछ कह जाते हैं जिसे शब्दों में बयान करने में कई पन्ने भरने होते। कई पन्नों में भी वह बात न आती जो बात फ़िल्म में निर्देशक कैमरे के एंगेल और अभिनेता कुछ भंगिमाओं में इतनी खूबसूरती से कह डालते हैं। मीडियम क्लोजअप, क्लोजअप और एक्ट्रीम क्लोजअप में लिए गए ये फ़्रेम इस फ़िल्म को एक क्लासिक फ़िल्म के स्तर पर ले जाते हैं। क्लासिक फ़िल्म ‘भूमिका’ का इस दृश्य का आनंद (अगर इसे आनंद कहा जाए) उठाने के लिए फ़िल्म की भाषा जानना अत्यावश्यक है, वरना दर्शक कई बातों से वंचित रह जाएगा। घर के फ़र्नीचर, परदों का रंग घर की महत्ता, उषा के मन में घर के प्रति लगाव दिखाते हैं, वह रंगीन साड़ी पहने हुए है जो उसके अभिनेत्री पक्ष को प्रकट करता है। सारा कुछ कमरे के भीतर चल रहा है जो उसकी घुटन को प्रस्तुत करता है, जिससे छूट कर वह बाहर जाती है या जाना चाहती है।
स्मिता पाटिल ने स्वयं स्वीकार किया है कि यह उनके जीवन की सर्वाधिक कठिन फ़िल्म थी, लेकिन इसी कारण यह उनके लिए सर्वाधिक संतोषप्रद फ़िल्म भी थी। पहले वे सोच रही थीं कि वे यह भूमिका न कर पाएँगी लेकिन उन्हें अपने निर्देशक पर बहुत भरोसा था (वे श्याम बेनेगल के साथ तीन फ़िल्में कर चुकी थीं), दोनों की बहुत अच्छी ट्यूनिंग थी अत: उन्होंने इस रोल को स्वीकार किया। फ़िल्म के एक और दृश्य पर ध्यान दें। उषा का वही घर है, समय रात का है। केशव और उषा नई फ़िल्म घोषणा के उपलक्ष में दी गई पार्टी से लौटे हैं। पार्टी में उषा की अपेक्षा केशव स्वयं को उपेक्षित पाता है और ईर्ष्या-क्रोध से भरा हुआ है। उषा कपड़े बदल रही है तभी केशव हाथ में बेल्ट लिए उषा से सवाल-जवाब करता है। बेल्ट से नहीं मारता है मगर दूसरी तरह अत्याचार करता है। पति-पत्नी की तकरार से बच्ची और उषा की माँ जग जाती हैं, दोनों बेबस हैं। केशव उषा को आहत करता है, उसे घसीटता है। वह चाहता है कि वह पति के प्रति वफ़ादारी की सौगंध खाए। इसके लिए वह उषा के साथ जबरदस्ती करता है, उस पर अत्याचार करता है।
कहावत है आप घोड़े को पानी तक ला सकते हैं उसे पानी पीने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं। ऐसा ही कुछ होता है ‘भूमिका’ फ़िल्म के इस दृश्य में। केशव दलवी अपनी पत्नी उषा को पीटता हुआ जबरदस्ती खींच कर भगवान के सामने ले जाता है और उसे बेवफ़ाई न करने की कसम खाने के लिए कहता है। दबाव में वह कहती है, “कसम खाती हूँ”। केशव मगन मन यह सोचता हुआ वहाँ से चला जाता है कि वह जो चाहता था उसने करवा लिया। मगर उषा तनिक ठहर कर दाँत पीसती हुई, चीख कर कहती है, “कि जो चाहती हूँ, वही करूँगी!” हर बार जब भी इस दृश्य को देखती हूँ, मेरा मन करता है कि इस संवाद पर जी खोल कर ताली बजाऊँ। उषा वही करती भी है जो उसका मन चाहता है। चालीस साल बाद भी यह फ़िल्म समसामयिक है क्योंकि आज भी शिक्षा, उदारीकरण, भूमंडलीकरण आदि, आदि के बावजूद अधिकाँश औरतों को अग्नि परीक्षा से गुजरना होता है। वफ़ाई की कसम खानी पड़ती है। वे गलती करें अथवा नहीं उन्हें माफ़ी माँगनी पड़ती है, बेकसूर होते हुए भी अत्याचार सहना पड़ता है। कितनी औरतें उषा की तरह ‘जो चाहती हूँ, वही करूँगी’ कह और कर पाती हैं। पुरुष सत्तात्मक समाज उन्हें कुचलने का कोई अवसर नहीं छोड़ता है। मगर हाय रे यह समाज! मनचीता करके भी अंत में उषा के हाथ क्या लगता है? मात्र और मात्र अकेलापन, शायद हर विद्रोही की यही नियति होती है।
श्याम बेनेगल की ‘भूमिका’ शुरु से अंत तक रील लाइफ़ और रीयल लाइफ़ की बिना किसी दरार के एक-दूसरे में आवाजाही है। यह एक संवेदनशील-प्रतिभावान व्यक्ति की उथल-पुथल भरी जिंदगी का लेखा-जोखा है। अपनी पहचान की तलाश में उषा एक पुरुष से दूसरे पुरुष तक का सफ़र तय करती जाती है। यह कहानी है, प्यार की खोज में भटकने की, जीवन में प्रयोग करने की और अपने अस्तित्व का अर्थ जानने की प्यास की। राजन उसे चाहता है, उषा भी उसे पसंद करती है। उससे अपना दु:ख-सुख साझा करती है मगर उसके साथ रहने नहीं जाती है। एक बार गई थी तब वह उसे रख न सका था। वह जानती है संग रहने पर यहाँ भी राजन का पुरुष अहं आड़े आएगा। लेकिन वह विनायक काले के साथ उसकी तीसरी पत्नी बन कर उसके घर जाती है। उसके बेटे को अपना लेती है, बच्चा भी उसे अपना लेता है। काले उसे घर की चाभियाँ सौंप देता है। उषा काले की अपंग दूसरी पत्नी से भी बहनापा कर लेती है। लेकिन जब उसे काले के सामंतवादी विचारों का पता चलता है। जब उसे बताया जाता है कि काले परिवार की स्त्रियाँ हवेली के बाहर कदम नहीं रख सकती हैं तो वह उससे नाता तोड़ लेती है।
उषा का बच्चे को मेला ले जाने के लिए माली से मोटर निकालने के लिए कहना, माली का इंकार करना। उषा उम्मीद करती है कि विनायक माली को हुक्म उदूली की सजा देगा। मगर काले उसे परिवार की मर्यादा-मूल्यों का पाठ पढ़ाता है। विनायक की माँ (दीना पाठक) की बिना एक शब्द बोले अपनी लाचारी प्रकट करना। इस पूरे दृश्य और आगे के कुछ पलों में फ़िल्म जिस भाषा का प्रयोग करती है वह फ़िल्म भाषा का एक बेहतरीन उदाहरण है। उषा की आँखों का भाव, कम-से-कम संवाद में अधिक-से-अधिक व्यक्त करना, घर के लोगों का मूवमेंट, प्रकाश-छाया का संयोजन सब मिल जो कहते हैं वह लिखने की नहीं देखने और अनुभव करने की बात है। इसके प्रभाव से तत्काल नहीं उबरा जा सकता है। उषा की मन:स्थिति कितनी बेबस है जब उसे काले के घर की इस कैद से निकलने के लिए अपने उसी क्रूर पति का सहारा लिएना पड़ता है। अपनी ही नजरों में वह गिर गई होगी। कितनी अपमानजनक स्थिति है यह!
पुलिस के आने पर उषा सब कुछ त्याग कर निकल आती है, बिना एक शब्द बोले। सब कुछ ज्यों-का-त्यों छोड़ कर। वह गुस्सा नहीं दिखाती है, सपत्नी, सास, बच्चे, पति सबसे मूक विदा लेती है। प्रकाश-छाया का संयोजन, कैमरे का एंगेल, स्मिता पाटिल, अमरीश पुरी के चेहरे के उतार-चढ़ाव सब मिल कर इसे एक क्लासिक फ़िल्म का दर्जा देते हैं। यहाँ कोई संवाद-विवाद नहीं होता है और जीवन का एक बड़ा अध्याय समाप्त हो जाता है। इस बीच उसकी माँ गुजर चुकी है। पहले के वर्णित दृश्य और इस दृश्य तथा अन्य दृश्यों को प्रभावपूर्ण बनाने में पार्श्व संगीत का महत्वपूर्ण योगदान है। वनराज भाटिया का पार्श्व संगीत पूरी फ़िल्म को एक ऊँचाई प्रदान करता है। यह रेडियो का जमाना था। रेडियो में देश की उथल-पुथल की खबरें है, रेडियो की आवाज नायिका के जीवन की उथल-पुथल को और सघन बनाती हैं। इसी तरह नगाड़ों की ध्वनि का प्रयोग फ़िल्म को अर्थवत्ता प्रदान करता है। गागर में सागर है यह फ़िल्म।
उषा बहुत संवेदनशील स्त्री है। जीवन के कटु अनुभवों ने उसे कुटिल नहीं बनाया है। अपनी बेटी को ले कर वह शुरु से बहुत चिंतित और परेशान है। उषा के हृदय की तरलता-सरलता विनायक काले की शारीरिक रूप से लाचार पत्नी के प्रति किए गए व्यवहार से व्यक्त होती है। वह अपनी सपत्नी के साथ बहुत कोमल व्यवहार करती है, दोनों में बहनापा पनप जाता है। जब एक स्त्री दूसरी स्त्री के बाल संवारती है तो उनका सबसे अधिक निकट संबंध स्थापित होता है, उषा अपनी सपत्नी के बाल संवारती है। बचपन से वह अपनी माँ की अपेक्षा अपनी नानी के अधिक निकट थी। नानी से वह अपने अंतरंग विचार साझा करती है, नानी से मिल कर वह बहुत खुश रहती है और इसी नानी के अंत समय वह उसके पास नहीं होती है। उषा की कचोट दर्शक की कचोट बन जाती है। बच्चों से उसे लगाव है इसीलिए वह काले के बेटे को खुले मन से अपनाती है। उसका हृदय निष्कपट है अत: बच्चा भी उससे घुल-मिल जाता है। वह काले की माँ को सास का मान देती है, उसकी सेवा करती है। उषा को यहाँ घर-परिवार का सुख-आराम है। वह इस परिवार में रम जाती है, पूरी तरह समर्पित हो कर एक गृहस्थन बन जाती है। काले कहीं से खलनायक नहीं है, वह उषा से कुछ छिपाता नहीं है। घर की कुंजी और अपनी लकवाग्रस्त दूसरी पत्नी (पहली मर चुकी है) की देखभाल का भार उषा को सौंप देता है।
लेकिन काले अपने सामंती मूल्यों में पूरी तरह से कैद है। वह उषा को बंबई वाली आजादी नहीं दे सकता है। जल्द ही उषा को पता चल जाता है कि वह इस कोठी की चारदीवारी के बाहर कदम नहीं रख सकती है तो उसका स्वप्न भंग हो जाता है। वह घर-परिवार, प्रेम-प्यार चाहती है मगर अपनी शर्तों पर, अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं। यहाँ भी फ़िल्म की भाषा का प्रयोग हुआ है। कम-से-कम संवादों में सारी बातें कही गई हैं। सारा कुछ चेहरे के हाव-भाव, कोठी के बंद कमरों, प्रकाश और छाया की सहायता से व्यक्त किया गया है, बैकग्राउंड म्युजिक तो है ही कथानक को सघनता देने के लिए। शुरुआत में उषा काले के होटल के कमरे में स्वयं आती है काले उसका मनपसंद रिकॉर्ड (उसकी नानी का गीत) बजाता है। कैमरा कट हो कर उषा को स्टूडियों में मस्त नाचते हुए दिखाता है, कैमरा चलती हुई कार से बाहर का दृश्य दिखाता है। जब कार एक एकाकी कोठी के करीब पहुँचती है तो काले उषा को कहता है वह रहा मेरा बेटा। उषा के चेहरे पर अचरज उभरता है। काले का सधा हुआ चेहरा। काले का उषा को लौट जाने का प्रस्ताव देना और लेकिन उषा का घर-परिवार चुनना। सब फ़िर से कार के भीतर बंद वातावरण में होता है। बाहर खुला वातावरण है मगर ये बंद लोकेशन उषा की घुटन को सटीक तरीके से व्यक्त करते हैं। यहीं सिनेमा की एक और तकनीक पर ध्यान जाता है। कई बार सिनेमा दृश्यों की आवृति करता है मगर थोड़े से बदलाव के साथ उसका उद्देश्य भिन्न होता है। उषा जब काले के घर आती है और जब वापस जाती है दोनों समय बच्चा गाड़ी के पीछे दौड़ रहा है, माली और कुत्ता फ़्रेम में हैं मगर दूसरी बार पूरा मनोभाव बदल चुका है। इसी तरह होटल के कमरे और ‘अग्नि परीक्षा’ वाले पोस्टर की भी आवृति होती है मगर निहितार्थ भिन्न हैं।
फ़िल्म निर्देशक का माध्यम है मगर कैमरे की आँख से। अत: फ़िल्म की भाषा में कैमरे के कोण और कैमरे को साधने वाले सिनेमाटोग्राफ़र की अहम भूमिका होती है। फ़िल्म ‘भूमिका’ की सधी हुई फ़ोटोग्राफ़ी गोविंद निहलाणी ने की है। उन्होंने एक कुशल और सफ़ल सिनेमाटोग्राफ़र की हैसियत से एक लंबी पारी खेल कर निर्देशन की दुनिया में कदम रखा और इसमें भी उन्होंने झंडे गाढ़े। इस १४२ मिनट की फ़िल्म का एक-एक फ़्रेम निहलाणी की छाप लिए हुए है हालाँकि फ़िल्म में जब उषा का बचपन श्वेत-श्याम रंग में दिखाया गया है तो वहाँ लगता है कि हम सत्यजित राय की फ़िल्म देख रहे हैं। बच्ची उषा (बेबी रुखसाना) का मुर्गी बचाने के लिए उसे लेकर भागना, माँ से छिपना और माँ का उसे खोज कर मुर्गी छीनना। माँ को खाना बनाने के लिए मुर्गी चाहिए और बच्ची उषा मुर्गी की जान बचाना चाहती है। यहाँ भी प्रकाश-छाया, पार्श्व संगीत, बच्ची और माँ का चेहरा सारा कुछ मुखर करता है। गोविंद निहलाणी के साथ-साथ एडीटर भानुदास दिवाकार और रमणीक पटेल का योगदान भी महत्वपूर्ण है।
इस फ़िल्म में स्मिता पाटिल उषा के रूप में कई जिंदगी जीती है। जब जरूरत थी उषा काम करके घर को आर्थिक सहायता देती है मगर शादी के बाद वह घर-परिवार-बच्चों की दुनिया में मगन रहना चाहती है। लेकिन केशव बहुत मतलबी है उसे उषा की कमाई पर जीने की लत लग गई है वह नहीं चाहता है कि उषा अभिनय करना छोड़े। इसके लिए वह कोई भी क्रूरता कर सकता है। खुद कुछ काम नहीं करता है मगर उषा की कमाई पर पूरा हक जमाता है। उषा सब बरदाश्त करती है। पर उषा का दिल केशव से पूरी तरह से फ़ट जाता है जब वह जबरदस्ती दूसरे बच्चे के समय उसका गर्भपात करवा देता है। उषा का न तो अपनी कमाई पर हक है और न ही उसे अपने शरीर, अपने होने वाले बच्चे पर कोई अधिकार है। आज भी सामाजिक-पारीवारिक स्थितियाँ बहुत नहीं बदली हैं। स्त्री संतान उत्पन्न करे अथवा नहीं, करे तो कितनी, पुत्र पैदा करे, पुत्री नहीं आदि बातें दूसरे ही तय करते हैं, यही कारण है कि आज भी श्याम बेनेगल की यह फ़िल्म कथानक की दृष्टि से रेलेवेंट है।
मगर बात हो रही है सिनेमा की भाषा की। फ़िल्म में उषा को दो बार होटल के कमरे में दिखाया गया है। पहली बार वह गुस्से-अपमान से भर कर खुद घर छोड़ कर होटल में रहने आई थी और मानसिक रूप से बहुत अस्थिर थी। बंद कमरे में बेचैनी से चक्कर लगाती है। वह अभिमानिनी है, उसे अपने लिए स्वतंत्रता और स्पेस की आवश्यकता है। वृत पूरा होता है, दूसरी बार फ़िल्म के अंत में वह होटल के कमरे में अकेली है। वह निपट अकेली है और यह उसका अपना निर्णय है। इस बार वह बहुत शांत है, सोच-समझ कर उसने बेटी को वापस भेज दिया है, राजन के फ़ोन को वह अधूरा छोड़ देती है। अब उसने अपनी नियति पहचान ली है, उसे उसने स्वीकार कर लिया है। उसके मन में खुद को और दूसरों को ले कर कोई द्विविधा नहीं है। खुद पर उसका पहले से अधिक नियंत्रण है। शादीशुदा बेटी को ले कर वह निश्चिंत है, पुरुषों को ले कर उसके मन में कोई खामख्याली नहीं है। बैकग्राउंड में बजता उसकी नानी का गीत उसे सकून पहुँचाता है। फ़िल्म के अंतिम फ़्रेम में वह निपट अकेली खड़ी है। वह जानती है कि अपने अकेलेपन से उसे खुद ही निपटना होगा और इसके लिए वह तैयार है। मितव्ययता और सिनेमा की ऐसी सजीव-बोलती भाषा श्याम बेनेगल के यहाँ देखने को मिलती है अन्यथा अधिकाँश हिन्दी फ़िल्में तो चीखते-चिल्लाते निरर्थक संवादों तथा झूठमूठ की लाउड भावुकता के अलावा क्या होती हैं? जीवन और समाज के यथार्थ को मिनिमम में मैक्सिमम को व्यक्त करना कोई इस फ़िल्म ‘भूमिका’ से सीखे। शब्दों में फ़िल्म की भाषा नहीं दिखाई जा सकती है। इसे देखने-समझने के लिए यह फ़िल्म देखनी होगी।