देश में स्टिंग आपरेशनों की धूम है, पत्रकार आम जनता के दीवानखानों से लेकर गुसलखानों तक कैमरे लगा चुके हैं, नेता से लेकर अभिनेता तक, लेता से लेकर देता तक, रेल से लेकर जेल तक, पहाड़गंज से लेकर परेल तक, सभी की नंगी तस्वीरे फोकट में आम जनता को सुलभ हैं। पत्रकारों के इस सत्साहस से प्रभावित होकर एक आम आदमी, एक पत्रकार के स्टिंग आपरेशन का असफल प्रयास करता है, जो कुछ इस तरह है -
- देश में स्टिंग आपरेशनों की धूम है,
पत्रकार आम जनता के दीवानखानों से लेकर गुसलखानों तक कैमरे लगा चुके हैं, नेता से लेकर अभिनेता तक,
लेता से लेकर देता तक, रेल से लेकर जेल तक, पहाड़गंज से लेकर परेल तक, सभी की नंगी तस्वीरे फोकट में आम जनता को सुलभ हैं। पत्रकारों के इस सत्साहस से प्रभावित होकर एक आम आदमी, एक पत्रकार के स्टिंग आपरेशन का असफल प्रयास करता है, जो कुछ इस तरह है -
- आम आदमी : नमस्कार महोदय, मैं शक्ति..
पत्रकार : शक्ति? कपूर तो नहीं हैं ना? हैं हैं हैं ....बैठिये बैठिये, वो तो ऐसे भी पत्रकारों के सामने नहीं आ सकता
(पिच्च..) पर आपने रेफरेन्स नहीं बताया?
आम आदमी
: जी वो बबलू भाई....
पत्रकार : श्रीवास्तव ?
बहुत तगड़ा रेफरेन्स लाये हैं भाई।
आम आदमी
: जी वो बबलू भाई बिल्डर सैक्टर ग्यारह वाले|
पत्रकार : तो ऐसे कहिये ना,
कैसा है अपना बबलुआ?
आम आदमी
: जी अच्छे हैं, पर लगता है बहुत अंतरंगता है आपकी?
पत्रकार : क्या रंगता? हमने कभी रंगाई पुताई का धंधा नहीं किया|
आम आदमी
: जी वो नजदीकी बबलू भाई से|
पत्रकार : ओह! नजदीकी, भइया नजदीकी तो बहुत पुरानी है,
साथई साथ शुरूआत की थी हम दोनों ने,
दस साल पहले यहीं रामबाग चौराहे पर अपनी अंडे की ठेल थी, वहीं अपना बबलुआ तहबाजारी के ठेकेदार के पास नौकरी करता था।
आम आदमी
: कमाल है इतनी जल्दी इतनी तरक्की ?
पत्रकार : कड़ी मेहनत, पक्का इरादा, दूर दष्टि और अनुशासन, ठेकेदार का ठेका खतम हो गया, सरकार ने दोबारा ठेका उठाया नहीं, ठेकेदार चला गया पर अपने बबलुआ ने न संघर्ष छोड़ा न चौराहा, हाकी डंडा और चार बेरोजगार लौंडों को लेकर लगा रहा। ट्रक वालों, डग्गेमारों और फड़ वालों से वसूली करता रहा, साल भर में एक जीप बन गई,
उसे डग्गेमारी पर चलाया कुछ ऊपर वाले ने बाँह पकड़ी कुछ नीचे वालों ने धक्का लगाया, एक की चार बन गईं, ट्रेवल ऐजेन्सी खोल ली, भाई गिरी पहले से चल ही रही थी,
आज भी है । ये थी कड़ी मेहनत, पक्का इरादा। रही दूर दष्टि उसका इस्तेमाल किया जमीन के धंधे में, झगड़े फसाद की जमीनें कौड़ियों में खरीदीं, सोने के भाव बेचीं; फिर धीरे से बिल्डर भी हो गया।
आम आदमी
: लेकिन अनुशासन?
पत्रकार : अजीब कूड़ मगज हो भाई, पोखर और तालाब बिना अनुशासन के खरीदे बेचे जाते हैं क्या? प्लाट और मकान बिना अनुशासन के खाली कराये जाते हैं क्या? आक्यूपेन्ट को अनुशासन में रखना होता है, पुलिस को अनुशासन में रखना होता है, पत्रकारों को अनुशासन में रखना होता है, नेताओं को अनुशासन में रखना होता है, अफसरों को अनुशासन में रखना होता है। - आम आदमी
: ओह.... पर आपकी भी तो अंडे की ठेल थी?
पत्रकार : वही कड़ी मेहनत, पक्का इरादा, दूर दष्टि और अनुशासन। अब क्या है अंडा तो ससुरा बीस साल से दो रूपये का बिक रहा है,
अब अंडे तो मुर्गी ही देती है,
हम तो देने से रहे। सो अंडे में क्या घंटा कमा लेते हम ?
ठेल पर दारू पिलाते थे,
पाँच रूपये क्वाटर ज्यादा लेते थे, हमें भी फोकट की दारू मिल जाती थी,
खाली क्वाटर भी पचास पैसे का बिक जाता था। पर पुलिस परेशान करती थी। हम चार दिन में कमाते वे एक दिन में ले जाते, धौल थप्पड़ तो राह चलते ही कर जाते थे,
एक बार हमारी खातिर अपने बबलुआ की भी जमकर सुँताई हो गई थी,
हमें याद है।
आम आदमी
: फिर ये पत्रकारिता?
पत्रकार : हाँ, हमारे चचा इलाके के सभासद थे,
वही हमें पुलिस से छुड़ाकर भी लाते थे। तंग आकर एक दिन उन्होंने राय दी –
“देखो संतराम पुलिस या तो नेता से डरती है या पत्रकार से, अब तुम्हें नेता बना दिया तो हम क्या ककड़ी छीलेंगे, इस लिये तुम दूसरी लाइन पकड़ लो।“ बस हमने चचा की बात मान कर ठेल पर बीस रूपये रोज का लौंडा बिठाया और एक अधपन्ने अखबार का रजिस्ट्रेशन करा लिया। एकाध बार लौंडा उठा। हमने अखबारबाजी कर दी, पुलिस डर गई। तब हमें पता चली अखबार की असल ताकत और असल फायदा तो कोटे के कागज को ब्लैक में बेचने में मिला ।
आम आदमी : फिर तो आपने अंडे की ठेल बंद कर दी होगी?
पत्रकार : बंद ? क्यों भला ? हमने तो फिर हर चौराहे पर एक ठेल लगवा दी। उनकी यूनियन भी बनवा दी, अब कुल बाईस अलग अलग प्रकार की ठेलें हैं हमारी, नगर हथठेला संघ के अध्यक्ष भी हैं हम।
आम आदमी : खैर आपने वाकई कड़ी मेहनत की है,
पर ये आपके पीछे तस्वीर किसकी लगी है?
पत्रकार : (
बिना पीछे देखे ) बड़े चुगद आदमी हो भाई, गाँधी जी हैं।
आम आदमी : नहीं वो चश्मे वाले..
पत्रकार : गाँधी जी चश्मा लगाते थे भाई!
(पिच्च......)
आम आदमी : अरे नहीं गाँधी जी तो गंजे थे,
मैं उनकी कह रहा हूँ जो गंजे नहीं हैं।
पत्रकार : (
फिर बिना पीछे देखे ) अच्छा नेताजी सुभाष बोस हैं।
आम आदमी : अरे नहीं नेताजी तो टोपी लगाते थे, मैं उनकी पूछ रहा हूँ जो गंजे नहीं थे पर चश्मा लगाते थे। लेकिन टोपी भी नहीं पहनते थे।
पत्रकार : क्या पहेली बुझा रहे हो यार? (पीछे देखकर ) ओह..... ये विद्यार्थी जी हैं।
आम आदमी : किस कक्षा के?
पत्रकार : अरे भाई कक्षा उक्षा नहीं ये पत्रकार थे, विद्यार्थी इनका तकल्लुफ था।
आम आदमी : अच्छा तखल्लुस था, पूरा नाम क्या था?
पत्रकार : अब हमें क्या पता? कौन हमारी अम्मा के ससुर थे।
आम आदमी : फिर तस्वीर क्यों लगाई है?
पत्रकार : लो जी लो,
चौराहे पर चार पान वालों ने ऐश्वर्या की तस्वीर लगा रखी है, अब वो अभिषेक को तलाक देकर उन चारों की लुगाई बन जायेगी क्या? विद्यार्थी जी की तस्वीर पत्रकार लगाते हैं, हमने भी लगा ली।
आम आदमी : अच्छा इनका स्वर्गवास कैसे हुआ?
पत्रकार : अंग्रेजों के टाइम में हत्या हुई थी|
आम आदमी : कैसे?
पत्रकार : स्टिंग उस्टिंग किये होंगे, अब अंग्रेज तो पत्रकारों से नहीं डरते थे ना, सो टपका दिया।
आम आदमी : मैंने सुना है दंगों में हत्या हुई थी इनकी?
पत्रकार : अरे हाँ, खोजी पत्रकार थे, जान पर खेल कर दंगों की तस्वीर खींचने गये थे, पर इसके पीछे अंगरेज ही थे।
आम आदमी : पर मैंने सुना है,
ये दंगा शान्त कराने गये थे?
पत्रकार : जब सब कुछ सुन ही रखा था तो यहाँ क्या मटर भूँजने आये थे? ज्यादा जनरल नालेज मत झाड़िये। आप जैसे जनरल नालेज वाले ही गुलामी या नौकरी करते हैं, हम स्वतंत्र पत्रकार हैं। उतना ही जानते हैं जितना हमारी स्वतंत्रता ऐलाऊ करती है।
आम आदमी : खैर छोड़िये, आपने स्टिंग की चर्चा की, आप सी.डी.
वाली पत्रकारिता में क्यों नहीं गये?
पत्रकार : देखिये हमारी अंगरेजी थोड़ी सारी, थैंक्यू वाली है, उसके लिये गिट पिट वाली अंगरेजी चाहिये, फिर हमारी पान चबाने की आदत भी है,
स्टूडियो में पिच पाच वाला मामला नहीं जमता ना।
आम आदमी : खैर छोड़िये, स्टिंग दरअसल होता क्या है?
पत्रकार : सब वही होता है,
रामलाल करे तो नौटंकी, अर्जुन रामपाल करे तो सिनेमा। जैसे हम समाचार छापकर सरकारी अफसरों से, प्राइवेट कम्पनियों से उगाही करते हैं, वैसे ही हमारे सी.डी.
वाले भाई फिल्म बनाकर भ्रष्ट और नान भ्रष्ट लोगों की रसीद काटते हैं।
आम आदमी : मतलब?
पत्रकार : मतलब की बात तो तुम पढ़े लिखों की समझ में कभी आई ही नहीं। अब देखिये चालीस नेताओं की फिल्म बनाई, तीस ने रसीद कटा ली,
दस या तो खुद भुक्खड़ थे या फर्मे में नहीं थे, नहीं कटाई सो टी.वी.
पर दिखा दिया।
आम आदमी : ऐसा? आपको कैसे पता?
पत्रकार : कैसे पता मतलब? भाई हैं हमारे, पत्रकार सम्मेलनों में मिलते हैं, सारी चर्चा होती हैं।
आम आदमी : पत्रकार सम्मेलन? सुना है वहाँ बहुत धूमधाम होती है, कवि सम्मेलन वगैरा कराते हैं।
पत्रकार : हाँ, धूमधाम तो होती है। अच्छा लगता है जब चार भाई साथ बैठकर गला तर करते हैं, रसीद काटने के नये तरीके डिसकस होते हैं,पर कवि सम्मेलन वगैरा तो सब ढोंग ढपाँग है, भई देश की समस्याओं को देखने के लिये हम हैं, नेता हैं, पुलिस है तो इन कवियों की काँव काँव की क्या जरूरत? पर सेठ लोग खुद को साहित्यक घोषित करना चाहते है। हमने तो कहा था वो हाफ पेन्ट वाली नचनिया क्या नाम है..........पाखी सामंत उसे बुला लो, पर सेठ लोग नहीं माने।
आम आदमी : सेठ लोग ?
पत्रकार : भइया हम तो बहुत छोटी मछली हैं, टोटल मीडिया पर तो सेठ लोगों का कब्जा है।
आम आदमी : फिर भी कवियों को पैसे नहीं देते? मेरा मित्र आपके कवि सम्मेलन में आया था, बता रहा था कि पेमेन्ट के वक्त आपका कोषाध्यक्ष भाग गया?
पत्रकार : सैा जूते ससुर कहने वाले में और हिमायती में। हम पत्रकार हैं, भगवान से नहीं डरते तो कवियों से क्या डरेंगे? जब कोष ही नहीं था तो कोषाध्यक्ष क्यों भागता? झूठ बोल रहा था आपका दोस्त, पैसे तो हमने दिये ही नहीं थे। पैसे जब टैन्ट वाले को नहीं दिये, कैटरिंग वाले को नहीं दिये, होटल वाले को नहीं दिये, धरमशाला को नहीं दिये तो कवियों को कैसे दे देते? वो तो तुम्हारे कवियों को ही फोकट का भोजन हजम नहीं हुआ था, कार्यक्रम के बाद ही हाय पैसे हाय पैसे चिल्लाने लगे, कोषाध्यक्ष ने कहा सुबह देंगे। रात में सभी कवि कवयित्रियों के कमरों के कैमरे चालू कर दिये, अब रात तो बड़ी कुत्ती चीज है भाई साब ( बाँई आँख दबाते हुए) बस...., सुबह जिसने भी पैसे माँगे, सी.डी.
पकड़ा दी।
आम आदमी : क्या उनकी भी रसीद काट दी थी?
पत्रकार : अमाँ छोड़ो; नंगा नहायेगा क्या निचोड़ेगा क्या, ये चडढी बनियान धारी क्या देते? हाँ एकदम आरिजनल फिल्म जरूर दे गये ,
वैसे भी रसीद तो कविताई करके ही कटा गये।
आम आदमी : ऐसा ? मेरे मित्र का नाम ‘कुमार अभिलाष’ है, उसकी सी.डी.
मिलेगी?
पत्रकार : नहीं, केवल दो लोग ऐसे थे जो वक्त की नजाकत समझ कर फूट लिये थे, उनमें वो अभिलाष भी था। हम पत्रकार हैं, रसीद काटकर पी.पी.एल.
नहीं करते।
आम आदमी : पी.पी.एल.?
पत्रकार : हाँ, पिछवाड़े पर लात! पर यार तुमने चकल्लस तो खूब कर ली लेकिन अपना मकसद नहीं बताया?
आम आदमी : वो क्या है सर मुझे लिखने का शौक है, कविता, व्यंग्य, गीत, गजल, कथा, उपन्यास आदि, पर छापता कोई नहीं, पहले तो खेद सहित लौट भी आते थे पर अब तो वापस भी नहीं आते। हाँ एकाध बार किन्हीं कुमारी, किन्ही श्रीमती के नाम से मेरे गीत जरूर छपे हैं।
पत्रकार : ठीक है,
हम छाप देंगे तुम्हारे नाम से।
आम आदमी : जी धन्यवाद सर, पर आपके अखबार का नाम क्या है?
पत्रकार : आखिरी जंग।
आम आदमी : ये तो मैंने कहीं देखा भी नहीं?
पत्रकार : (
गुस्से में ) मेरे ख्याल से देखा तो तुमने होनूलूलू भी नहीं, पर होनूलूलू है।
आम आदमी : जी बात वो नहीं दरअसल मैं सोच रहा हूँ, आखिरी जंग में छपकर मैं आखिरी व्यंग न बन जाऊँ, किसी बड़े अखबार या पत्रिका की जुगाड़ .....
पत्रकार : जैसे? ( पिच्च ....)
आम आदमी : आउटलुक, इंडिया टुडे, अहा जिन्दगी,अमर उजाला, भास्कर, जागरण, हिन्दुस्तान और वो नया चला है पी.एल.ए…
पत्रकार : पी.एल.ए.
में ’ए‘
का मतलब पता है?
आम आदमी : जी नहीं।
पत्रकार : ’ए‘
फार एप्पल नहीं अग्रवाल होता है, तू अग्रवाल है?
आम आदमी : जी हूँ तो नहीं पर मैं सरनेम नहीं लगाता। आप कहेंगे तो अग्रवाल ही लगा लूँगा।
पत्रकार : बहुत अच्छे, अच्छे जा रहे हो बेटा, सफल साहित्यकार के यही लक्षण हैं। मतलब के लिये गधे को बाप बनाना अच्छी चीज है पर माँ को बहुत कष्ट होता है बेटा, अफोर्ड कर सकता है? और मान लिया वो तुझे छाप देंगे पर चार दिन बाद युवक युवती परिचय सम्मेलन में तुझे बाप सहित बुलायेंगे। फिर अपने बाप के पीछे क्या सरनेम लगायेगा? इस लिये ये बाप-बदल नेताओं के लिये छोड़ दे, छपना है तो अपनी बिरादरी का अखबार ढूँढ या दूसरी बिरादरी का गौड फादर।
आम आदमी : मतलब जातिवाद यहाँ भी है?
पत्रकार : इसमें बुराई क्या है?
अगर कोई तुझे छाप दे तो उसे शाहजहाँ की बगल में कब्र मिलेगी क्या? अपनी बिरादरी को, अपने चमचों को बढ़ायेगा तो वो हर दम उसके काम आयेंगे।
आम आदमी : मतलब और कोई रास्ता नहीं?
पत्रकार : है,
अपना सारा साहित्य मुझे दे जा, मेरे नाम से छप जायेगा, तुझे तो तेरे विचार ही जनता तक पहुँचाने हैं? पहुँच जायेंगे।
आम आदमी : मेरे नाम से नहीं छपेगा?
पत्रकार : छप जायेगा।
आम आदमी : बड़े अखबार में?
पत्रकार : हओ,
एक व्यंग्य के हजार रूपये लगेंगे।
आम आदमी : पैसे देकर ?
पत्रकार : अब ये तो खुजाल पर डिपेन्ड करता है, हमने पाँच हजार भी लिये हैं, पर तू अपने बबलुआ का आदमी है सो रियायती दर पर करवा देंगे । वैसे भी पाँच सौ का चैक अखबार तुझे देगा ही, तुझे तो पाँच सौ ही पड़े ।
आम आदमी : पर इतने बड़े पत्रकार होकर इतनी छोटी रकम?
पत्रकार : रकम? पहले तो रसीद बोल, बाकायदा रसीद मिलेगी।
आम आदमी : लेकिन आप इतनी छोटी रसीद?
पत्रकार : अबे छोटी है तो अंटी क्यों नहीं खोलता?
आम आदमी : मेरी नैतिकता अनुमति नहीं देती।
पत्रकार : बड़ा चुगद साहित्यकार है भाई! जा पहले मनोहर श्याम जोशी का ’हमजाद‘ पढ़, फिर नैतिकता की बात करना। साहित्य की नैतिकता तो प्रेमचंद अपने साथ ले गये, छपना है तो कुछ भी करना पड़ेगा।
आम आदमी : कमाल है आपने जोशी जी को पढ़ा है ?
पत्रकार : अरे नहीं, वो हमें रात को सोने से पहले मस्तराम के किस्से पढ़ने की आदत है, उस रात कुछ था नहीं। हमारे एक मित्र हैं, उन्होंने ये कहकर दे दिया कि