उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले के एक गाँव ब्रह्मपुर में पैदा हुए लेखक बालेंदु द्विवेदी ने एक सीधी सरल रचना मदारीपुर जंक्शन के जरिए साहित्यकारों के बीच अपनी पहचान बनाई है। उनके लिखे उपन्यास मदारीपुर जंक्शन में गांव की सौंधी मिट्टी की महक के साथ ही जीवन की कटु सच्चाई भी सामने आती है। प्रसिद्ध कवि एवं आलोचक अशोक चक्रधर ने इस उपन्यास की प्रशंसा में यह लिखा है कि 'मदारीपुर गांव उत्तर प्रदेश के नक्शे में ढूंढें तो शायद ही कहीं आपको नजर आ जाए, लेकिन निश्चित रूप से यह गोरखपुर जिले के ब्रह्मपुर गांव के आस-पास के हजारों-लाखों गांवों से ली गई विश्वसनीय छवियों से बना एक बड़ा गांव है। जो अब भूगोल से गायब होकर उपपन्यास में समा गया है।
हाल ही में अपने कलम कार्यक्रम के लंदन सीरीज़ में,फाउंडेशन ने 'मदारीपुर जंक्शन' उपन्यास से प्रसिद्ध हुए कथाकार बालेन्दु द्विवेदी को आमंत्रित किया। दिनांक 11 नवम्बर,2018 को लंदन के सेंट जेम्स पैलेस में कलम कार्यक्रम आयोजित हुआ जिसमें प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा सहित हिंदी के अनेकों विद्वान उपस्थित रहे।कार्यक्रम का संचालन युवा साहित्यकार शिखा वाष्र्णेय ने किया।
प्रस्तुत है 'मदारीपुर जंक्शन' उपन्यास के लेखक और युवा साहित्यकार बालेंदु द्विवेदी से विशेष बात-चीत एक साक्षात्कार के रूप में -
भूगोल से गायब होकर उपन्यास में समा गया है, "मदारीपुर जंक्शन"
प्रभा खेतान फाउंडेशन देश भर के 25 शहरों तथा विदेशों में लंदन,बर्किंघम आदि शहरों में हिंदी के कलमकारों को प्रोत्साहित करने के
लिए निरंतर कार्यक्रम आयोजित कर रहा है।
उल्लेखनीय है कि प्रभा खेतान फाउन्डेशन की संस्थापक अध्यक्षा
हिंदी भाषा की लब्ध
प्रतिष्ठित उपन्यासकार और कवियत्री डॉ॰ प्रभा खेतान (१ नवंबर १९४२ - २० सितंबर
२००८) थीं।वे नारीवादी चिंतक तथा समाजसेविका थीं।उनकी नारी विषयक कार्यों में
सक्रिय रूप से भागीदारी होती थी।
हाल ही में अपने कलम कार्यक्रम के लंदन सीरीज़ में,फाउंडेशन ने 'मदारीपुर जंक्शन' उपन्यास से प्रसिद्ध हुए कथाकार बालेन्दु द्विवेदी को आमंत्रित
किया। दिनांक 11 नवम्बर,2018 को लंदन के सेंट जेम्स पैलेस में कलम कार्यक्रम
आयोजित हुआ जिसमें प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा सहित हिंदी के
अनेकों विद्वान उपस्थित रहे।कार्यक्रम का संचालन युवा साहित्यकार शिखा वाष्र्णेय
ने किया।
बताते चलें कि उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले के एक गाँव ब्रह्मपुर
में पैदा हुए लेखक बालेंदु द्विवेदी ने एक सीधी सरल रचना मदारीपुर जंक्शन के जरिए
साहित्यकारों के बीच अपनी पहचान बनाई है। उनके लिखे उपन्यास मदारीपुर जंक्शन में
गांव की सौंधी मिट्टी की महक के साथ ही जीवन की कटु सच्चाई भी सामने आती है। साहित्यकार
के रूप में स्थापित बालेन्दु को इस क्षेत्र में आने की प्रेरणा प्रेमचंद,हरिशंकर परसाई,श्रीलाल शुक्ल,काशीनाथ सिंह आदि बड़े लेखकों की रचनाओं के निरंतर अध्ययन से मिली। वे
साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद से भी खासे प्रभावित रहे है। प्रेमचंद की तरह बालेंदु
ने भी आम जनजीवन और इसमें आने वाले लोगों को किरदार के रूप में अपने उपन्यास में
पेश किया है। हाल में ही उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से वर्ष 2017 का अमृतलाल नागर पुरस्कार दिया गया है।
प्रसिद्ध कवि एवं आलोचक अशोक चक्रधर ने इस उपन्यास की प्रशंसा में
यह लिखा है कि 'मदारीपुर गांव उत्तर प्रदेश
के नक्शे में ढूंढें तो शायद ही कहीं आपको नजर आ जाए, लेकिन निश्चित
रूप से यह गोरखपुर जिले के ब्रह्मपुर गांव के आस-पास के हजारों-लाखों गांवों से ली
गई विश्वसनीय छवियों से बना एक बड़ा गांव है। जो अब भूगोल से गायब होकर उपपन्यास
में समा गया है। बात उपन्यास की करें तो मदारीपुर के लोग अपने गांव को पूरी दुनिया
मानते हैं। गांव में ऊंची और निचली जातियों की एक पट्टी है।जहां संभ्रांत लोग
लबादे ओढ़कर झूठ, फरेब, लिप्सा और मक्कारी के वशीभूत होकर आपस में लड़ते
रहे, लड़ाते रहे और झूठी शान के
लिए नैतिक पतन के किसी भी बिंदु तक गिरने के लिए तैयार थे।फिर धीरे-धीर निचली कही
जाने वाली बिरादरियों के लोग अपने अधिकारों के लिए जागरूक होते गए और 'पट्टी की चालपट्टी' भी समझने लगे थे।इस उपन्यास में करुणा की आधारशिला पर व्यंग्य से
ओतप्रोत और सहज हास्य से लबालब पठनीय कलेवर है।'
प्रस्तुत है 'मदारीपुर जंक्शन' उपन्यास के लेखक और युवा साहित्यकार बालेंदु द्विवेदी से विशेष बात-चीत एक साक्षात्कार के रूप में -
*सवाल-व्यंग्य साहित्य की ओर रुझान कैसे पैदा हुआ ? वो पहली
रचना जिसने आपको रेखांकित किया और आप इस राह चल पड़े?*
जवाब-रुझान पैदा नहीं किया जा सकता, इसे बढ़ाया जा सकता है। पिताजी कलाकार थे। तो कला मेरी रगों मे थी।
बस कूंची का स्थान क़लम ने ले लिया। हां.. !मेरी इस प्रतिभा को तराशा इलाहाबाद
विश्वविद्यालय में मेरे गुरुवर डॉ राजेन्द्र कुमार ने..! बात तब की है जब साल 2005 में छिटपुट व्यंग्य कविताएं लिखना शुरू किया था। वर्ष
2010 में
नौकरी छोड़ने का ख़याल आया और मैं कुछ दोस्तों के साथ मुंबई पहुंचा कि अब फिल्मों
के लिए स्क्रिप्ट लिखूंगा।। एक साल में लगभग एक दर्जन स्क्रिप्ट्स लिख डालीं। लेकिन
इस काम में भी कुछ खास मज़ा नहीं आया।फिर खयाल आया कि क्यों न कुछ स्थाई काम किया
जाए..! फिर साल 2011 में सबसे
पहले उपन्यास का आत्मकथ्य लिखकर अपने भीतर के साहित्यकार को चेक करना चाहा। गाड़ी
आगे चल पड़ी और फिर मैंने मदारीपुर-जंक्शन को लिखने की ग़ुस्ताख़ी कर डाली।
*सवाल-तसलीमा नसरीन से कैसे संपर्क हुआ ? और
उन्हीं से अपनी किताब का विमोचन कोई विशेष कारण..?*
जवाब- तस्लीमा जी की विद्रोहात्मकता जगज़ाहिर है। हालांकि यह छोटे
मुँह बड़ी बात होगी लेकिन मैं भी कुछ मायनों में जन्मजात विद्रोही हूं। सामाजिक
विद्रूपताओं और संकीर्णताओं को किंचित भी स्वीकार नहीं कर सकता-चाहें वे निजी जीवन
में हों या लेखकीय जीवन में। शायद इसीलिए यह किताब मेरे प्रकाशन के सीईओ श्री अरूण
माहेश्वरी जी के माध्यम से तस्लीमा जी तक पहुंची और उन्होंने इंदौर लिटरेचर
फेस्टिवल में इसके विमोचन का प्रस्ताव स्वीकार किया।
*सवाल: यह एक तरीके से प्रधानी के चुनावी संग्राम के बहाने बदलते
गांवों की कहानी भी है पर दूसरे अर्थो मे गांव देहात के राजनीतिक माहौल का आंखों
देखा हाल भी है। इस अर्थ में आप इसे हिंदी के मौजूदा उपन्यासों में किसके बगल
रखना चाहेंगे?*
जवाब: देखिए..! मैंने अपने उपन्यास के आत्मकथ्य में ही कहा है कि
मैं साहित्यकारों में दलित हूँ। तो फिलहाल मैं स्वयं को किसी के बग़ल बैठाने की
हैसियत में नहीं हूँ। यह इसका पाठक वर्ग तय करेगा कि मदारीपुर जंक्शन को किसके
बग़ल बैठाया जाय या फिर इसके बग़ल बैठने वालों की तलाश की जाय। अथवा इसे अस्पृश्य
बनाकर अलग श्रेणी में डाल दिया जाय।
*सवाल: इस
उपन्यास का सबसे विवादास्पद पात्र कौन है ? और क्यों ?*
जवाब: मेरे लिए यह कहना बहुत मुश्किल होगा कि इस उपन्यास का कौन सा
पात्र विवादास्पद है और कौन नहीं। दरअसल चरित्रों को नायक,खल और विदूषक में तो
बांटा जा सकता है, पर विवादास्पद और
गैर-विवादास्पद में तो कत्तई नहीं। फिर एक उपन्यासकार के तौर मैं सभी चरित्रों का
सर्जक रहा हूँ। इसके कई खल पात्र, खल प्रवृत्ति के होने के बावजूद अत्यंत आकर्षक हैं। उदाहरण के लिए
छेदी बाबू को आप उपन्यास में देखेंगे तो पायेंगे कि अरे यह तो यह तो बहुत
नकारात्मक चरित्र है, लेकिन मुझे यह चरित्र बहुत
आकर्षक लगता है। कई पात्र जैसे बैरागी बाबू आदि नायक की तरह दिखने के बावजुद नायक
नहीं हैं। चइता उपन्यास का नायक होते-होते रह जाता है। भिखारीलाल हीरो बनते-बनते
विलेन से दिखने लगते हैं. इसलिए विवादास्पदता के लिहाज़ से मेरी ओर से इस सवाल का
जवाब होगा-‘कोई नहीं’।
*सवाल: ‘मदारीपुर जंक्शन’ का तीसरा संस्करण छप चुका है, आपकी इस घटना पर क्या प्रतिक्रिया है?*
जवाब: मदारीपुर जंक्शन मेरा पहला उपन्यास है। मैं बार बार कहता आया
हूँ और आज भी दुहराना चाहूंगा की उपन्यास एक श्रमसाध्य और समयसाध्य का है। यह एक
दीर्घकालीन साधना है। यह आपकी रगों से सारा रक्त निचोड़ लेता है। मैं आपको बताएं
चाहूंगा कि इसे लिखने में मुझे लगभग चार साल लगे। आज जब मैं देखता हूँ कि कल के लेखक केवल छह महीने में उपन्यास लिख
डालते हैं, तो हतप्रभ रह जाता हूँ। वे
लिखने और छपने तथा प्रसिद्धि की बहुत जल्दी में हैं। मैं इस रेस में कतई नहीं हूँ।
मेरी क्षमता शायद उनसे कम है। मैं आपको बताएं चाहूँगा कि लेखन के
पूर्व मैं बहुत इत्मीनान से कथानक का चयन करता हूँ, बहुत मज़बूती से अपने पात्रों का गठन करता हूँ और एक लुहार और एक
बढ़ई की तरह एक-एक वाक्य को ठोंक-पीट कर आगे बढ़ता हूँ। जब तक मैं इन चीज़ों से पूरी
तरीके से संतुष्ट नहीं हो जाता, मैं आगे नहीं बढ़ सकता। इस लिहाज़ से मैं आज के नए लेखकों से कोसों
पीछे हूँ। पर मुझे इसका तनिक भी गुरेज़ नहीं रहता। बल्कि नए लेखकों की इस तेज़ी पर
खुशी ज़रूर होती है।
हाँ..! यह मेरे अपने उपन्यास मदारीपुर जंक्शन के बारे में बस इतना
ही कहना चाहूँगा कि दिसंबर २०१७ में इसका पहला संस्करण आना और पहले चार महीने में
इसका तीसरा संस्करण आना एक सुखद एहसास है, और यह मेरे जैसे नवजात लेखक के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि भी है।
साहित्यकारों की ज़मात में, इस उपन्यास को पाठकों का
ढेर सारा सम्मान और ढेर सारा प्यार मिल रहा है. पुरानी पीढ़ी के पाठक हों चाहें
युवा पीढ़ी के-सभी ने इसे हाथों-हाथ लिया है। सोच कर यही लगता है कि हिंदी उपन्यास
के माथे पर यह जो ‘अब कम पढ़ी जाती है’ की बिंदी चस्पा कर दी गई है, वो सरासर गलत है.इस बात का भी संकेत है कि हिंदी
का पाठक वर्ग बेहतर रचनाओं की क़द्र करना जानता है-चाहें युग और समय कोई भी क्यों
न हो..!
*सवाल- आपकी कोई रचना जिस पर फिल्म बन सकती हो?*
जवाब-‘मदारीपुर जंक्शन’ मेरी पहली और एकमात्र प्रकाशित रचना है और पाठकों
ने इसे सिर आंखों पर बिठाया है। इलाहाबाद,लखनऊ,बाराबंकी, उन्नाव आदि जनपदों में इसका मंचन होना इसकी सफलता
का प्रमाण है। अभी जिओमामी फ़िल्म फेस्टिवल में इसे शार्लिस्ट किया गया था और
आयोजकों की ओर से मुझे इसका नरेशन करने के लिए भी बुलाया गया था। फिलहाल फ़िल्म
इंडस्ट्री के नौ बड़े प्रोडक्शन
हाउसेज के पास इसकी स्क्रिप्ट भेजी गई है। बाकी चीज़ें भविष्य के गर्त में हैं।
*सवाल-साहित्यिक दृष्टिकोण की बात करें तो पिछली पीढ़ी और अब में
क्या अंतर महसूस करते हैं?*
जवाब- पिछली पीढ़ी का साहित्य अपेक्षाकृत अधिक व्यापक फलक पर
आधारित हुआ करता था और उसमें यथार्थपरता का पुट था। अनुभव में गहराई थी सो
अलग..!आज की पीढ़ी के लेखकों में इन चीज़ों का ख़ासा अभाव दीखता है।ज़्यादातर कम
समय और छितरे हुए और अधकचरे अनुभव के साथ मैदान में कूद पड़े हैं और पाठक के सामने
पुस्तकों का ऐसा अंबार खड़ा हो गया है कि उसे बेहतर साहित्य तलाशना मुश्किल हो गया
है।बिक्री को बेहतरी का पर्याय मान लिया गया है।गूगलजनित लेखकों ने साहित्य का
बेड़ा गर्क कर रखा है। गूगल ज्ञान तो दे सकता है लेकिन अनुभव नहीं पैदा कर सकता।
*सवाल-साहित्य में जो इस दौरान पाठकों को खालीपन महसूस होता है,उस बारे में आपकी क्या राय है?*
जवाब-पाठकों का ख़ालीपन दरअसल गुणवत्तापरक साहित्य के अभाव की उपज
है।
*सवाल-साहित्य आपकी नजर में क्या मायने रखता है?*
जवाब-साहित्य मेरे लिए प्राणवायु की तरह है। बिना इसके मैं जीवन की
कल्पना नहीं कर सकता। हर एक कला मनुष्य के भीतर की मनुष्यता को तराशती है। साहित्य
भी उनमें से एक है। साहित्य हमारी संवेदनाओं का परिष्कार करता है और हमारी चेतना
को एक ऊंचाई पर ले जाकर खड़ा करता है। हमारी सोच और दृष्टि में व्यापकता लाता है
तथा हम निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर सम्पूर्ण मानवता के बारे में सोचने लगते हैं।
*सवाल-अभी आप क्या नया लिख रहे या किसी रचना पर काम कर रहे हैं?*
जवाब-मैं इस समय इलाहाबाद की पृष्ठभूमि पर केंद्रित ‘वाया फुरसतगंज’ पर काम कर रहा हूं। इलाहाबाद में मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण समय
गुज़रा है। मैंने वहां रहकर न केवल जीवन का बल्कि साहित्य का भी ककहरा सीखा है। साहित्य
के लिहाज से यहां की ज़मीन अत्यंत उर्वर रही है। फिर भी मैन देखा है कि यहां का
परिवेश,यहां का वैभव और यहाँ का
सुख-दुख और जीवनानुभव साहित्य से लगभग नदारद है।मुझे यह बात बहुत कचोटती आई है।मैं
यहां की ज़मीन की वैविध्यता को व्यंग्यात्मक तरीके से उकेरने की कोशिश में हूँ। कोशिश
कर रहा हूँ कि वर्ष 2019 में यह
उपन्यास पाठकों के सामने हो।
*सवाल-युवाओं का रुझान साहित्य की ओर कैसे बांधा जा सकता है?*
जवाब-यह सवाल कई मायनों में महत्वपूर्ण है। अधिकतर लोगों को यह
भ्रम है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया ने साहित्य के स्थानापन्न का स्थान ग्रहण कर लिया है। मेरी दृष्टि
में इससे बेतुकी बात हो ही नहीं सकती। मेरा मानना है कि कोई भी एक विधा,दूसरी विधा को रिप्लेस नहीं कर सकती। गिरावट
साहित्य में है और दोष दूसरे पर मढ़ा जा रहा है। बेहतर साहित्य का रसास्वादन हर
युग में होता आया है,चुनौतियां चाहें जिस रूप
में हों-चाहें जैसी हों..! रुझान तभी पैदा होगा जब बेहतर साहित्य लिखा जाय।
*सवाल-आप एक प्रशासनिक अधिकारी हैं। अपनी प्रशासनिक व्यस्तताओं के
बीच लेखन से कैसे तालमेल बिठाते हैं?*
जवाब-बहुत कठिन काम है। दिल में कहानी चलती रहती है और दिमाग़ में
फ़ाइलें और मीटिग्स। कभी दिल, दिमाग़ को समझाता है तो कभी दिमाग़ दिल को मनाता है। इस आपसी
लुकाछिपी के बीच दिनभर सामग्री संचयन होता रहता है और फिर देर रात में या
सुबह-सुबह लेखक की क़लम ग़ुस्ताख़ी करने के लिए मचलने लगती है।