मगर मैं लिखना नहीं छोड़ सकता। 'अरविंद जैन' : साक्षात्कार

बहुरंग साक्षात्कार

संकल्पना 2013 12/7/2018 12:00:00 AM

"अरविंद जैन" के जन्मदिन पर विशेष 'औरत होने की सज़ा' जैसी बहुचर्चित किताब के लेखक, स्त्रिवादी प्रवक्ता, साहित्य समीक्षक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता "अरविंद जैन" से उनकी क़ानूनी कार्य व्यस्तताओं के बीच उनके स्त्रिवादी समीक्षात्मक लेखन पर बातचीत की मुंबई विश्वविद्यालय की शोधार्थी "संकल्पना" ने ॰॰॰॰ ।

संकल्पना-  आपने महिला कानूनों पर 'औरत होने की सज़ा' के बाद महिला उपन्यासों का समाजशास्त्रीय अध्ययन 'औरत: अस्तित्व और अस्मिता' लिखी- समझ नहीं आया कानून से साहित्य (आलोचना)! 

अरविंद जैन- 'औरत होने की सज़ा' (1994) छपने के बाद, महीनों गहरे अवसाद में रहा। लगता था आधी-अधूरी किताब है। शायद इससे उबरने के लिए, कुछ बेहद महत्वपूर्ण उपन्यासों (विशेषकर महिला मुद्दों पर) पढ़ने-समझने की कोशिश में, सबसे पहले हाथ लगा कृष्णा सोबती का उपन्यास 'सूरजमुखी अंधेरे के'। लिखा और बहुत दिन तक पड़ा रहा।एक दिन अभय दुबे आये थे, जो उन दिनों एक पत्रिका निकाल रहे थे। शायद 'समय चेतना'। वो रफ़ ड्राफ़्ट ले गए।बाद में लम्बा लेख, दो किश्तों में छपा।खुद कृष्णा जी ने फोन कर कहा 'आपका यह कहना कि उपन्यास 'बचपन से बलात्कार' पर केंद्रित है, इस दृष्टिकोण से तो खुद मैंने भी कभी नहीं देखा था'..... 
फिर ममता कालिया के उपन्यास 'बेघर' पर लिखा और 'समय चेतना' में ही छपा।बाद में जब यह सजिल्द वाणी प्रकाशन से आया, तो ममता जी ने इस लेख को भूमिका के रूप में प्रयोग किया। मुझ जैसे अनाम पाठक के लिए यह बहुत-बहुत सम्मान की बात है।
इसी कड़ी में ही अन्य उपन्यासों पर लिखा गया। कुछ आलेख 'हंस' में भी प्रकाशित हुए। फिर एक दिन 'सारांश प्रकाशन' से भाई मोहन गुप्त ने यह किताब, पहली बार छापने का जोख़िम उठाया। प्रभा खेतान ने एक लंबा पत्र लिखा था, जो इस पुस्तक की भूमिका बना। राजकमल संस्करण में चित्रा मुदग्गल के 'आंवा' और शानी के 'कालाजल' पर लिखी, अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया भी शामिल कर दी। 'कालाजल' वाला लेख, स्वीकृति के बावजूद 'पहल' और 'वसुधा' ने अज्ञात कारणों से छापना उचित नहीं समझा। 

संकल्पना-  आपने 'औरत: अस्तित्व और अस्मिता' (2000) में महिला लेखन का समाजशास्त्रीय अध्ययन करते हुए शायद पहली बार 'सूरजमुखी अंधेरे के' 'दिलो दानिश'  'आपका बंटी', 'बेघर', 'कठगुलाब', 'पचपन खंबे लाल दीवारें', 'पीली आँधी', 'छिन्नमस्ता', 'आँवा', 'माई' से लेकर 'इदन्नमम' और कुछ अन्य उपन्यासों, आत्मकथाओं और विचार पुस्तकों पर विस्तार से लिखा था। इसके बाद अब तक महिलाओं के किसी भी उपन्यास पर आपका कोई लेख/समीक्षा/आलोचना नहीं। सीधा सवाल है कि आपने महिलाओं के उपन्यास पढ़ना-लिखना बंद क्यों कर दिया?

अरविंद जैन- पढ़ना बंद नहीं किया।इस बीच 'कलि-कथा वाया बाई पास', 'जानकीदास तेज पाल मैनशन', 'एक सच्ची-झूठी गाथा', 'दस द्वारे का पिंजरा', 'ऑब्जेक्शन मीलॉर्ड', 'हमारा शहर उस वर्ष', 'खाली जगह', 'रेत-समाधि', 'पत्ताखोर', 'सेज पर संस्कृत', 'सूखते चिनार', 'खुले गगन के लाल सितारे' 'सलाम आखरी' से लेकर 'एक कस्बे के नोट्स' और 'तक़सीम' तक और बहुत से अन्य उपन्यास पढ़े हैं..समय-समय पर पढ़ता रहता हूँ। खैर....इस बीच ना जाने क्यों, पढ़ता रहा हूँ, मगर लिखने का समय या साहस नहीं ही जुटा सका। कुछ पर लिखा मगर पूरा नहीं कर पाया। आधे-अधूरे लेख  फाइलों में पड़े हैं। समय ने साथ दिया, तो 'इधर-उधर' हुए स्त्री-दलित विमर्श पर लिखने की कोशिश जरूर करूँगा। 

संकल्पना-  आपने 'स्त्री विमर्श' पर प्रकाशित किसी विचार पुस्तक पर भी नहीं लिखा। क्यों?

अरविंद जैन- ऐसा नहीं है। 'परिधि पर स्त्री', 'दुर्ग द्वार पर दस्तक', 'नारी प्रश्न' और कुछ अन्य पुस्तकों पर लिखा है, मगर बहुत पहले। यह सही है कि इधर स्त्री-दलित विमर्श पर आई विचार पुस्तकें पढ़ता रहा, सोचता रहा लेकिन किसी के भी बारे में, कुछ लिख नहीं पाया।' जहाँ औरतें गढ़ी जाती हैं', ' सभ्य औरतें', 'स्त्री विमर्श की उत्तर-गाथा', 'त्रिया चरित्रम: उत्तर कांड', 'यौनिकता बनाम आध्यात्मिकता', 'आम औरत: ज़िंदा सवाल', 'आज़ाद औरत: कितनी आज़ाद', ' सपनों की मंडी' से लेकर 'अपने होने का अर्थ', 'भविष्य का स्त्री विमर्श' और अन्य अनेक किताबें खरीदी-पढ़ी, परन्तु लिखना संभव नहीं हुआ। 

संकल्पना-  ना लिखने का कारण व्यवसायिक व्यस्तता रही या कानून-संविधान सम्बन्धी लेखन में अधिक रुचि?

अरविंद जैन- शायद दोनों ही। आप कह सकती हैं कि इस बीच, कोई कहानी भी नहीं लिखी। स्त्री-दलित कानूनों पर लिखता-बोलता रहा, मगर पिछले पन्द्रह सालों में कोई नई किताब छपने के लिए नहीं भेजी। मेरे लिए नियमित लिखना मुश्किल है। बहुत दबाव-तनाव में ही  कुछ लिखा जाता है। यह भी है कि अमूमन बिना कहे नहीं लिखता और अब लिखने को कोई कहता ही नहीं। कानून का विद्यार्थी हूँ, सो कॉलेज प्राध्यापकों, पत्रकारों और अफसरों की तरह कविता-कहानी नहीं लिख सकता। हिंदी साहित्य के अलावा भी किताबें पढ़नी होती हैं। कुल मिला कर बहुत से घाल-मेल है...अदालत और साहित्य के आपस में दोस्ताना सम्बंध भी नहीं।

संकल्पना-  अच्छा यह बताएं कि हिंदी साहित्य के अलावा किस तरह की किताबें पढ़ना पसन्द हैं?  

अरविंद जैन- पंजाबी-हिंदी-अंग्रेज़ी या दूसरी भाषाओं से अनुवाद सभी तरह की किताबें हैं पढ़ने को। साहित्य (कविता-कहानी-उपन्न्यास) के साथ-साथ दलित-अश्वेत स्त्री विचार, समाजशास्त्रदर्शनशास्त्र, इतिहास, राजनीति, न्यायशास्त्र, उत्तर आधुनिक विचार, आत्मकथाएँ, संस्मरण, यात्रा वृतांत आदि पढ़ना अच्छा लगता है। 

संकल्पना-  इन दिनों समाज, राजनीति पर क्या पढ़ा?

अरविंद जैन- काफी किताबें हैं। भारत विभाजन पर प्रशिद्ध कानूनविद एच. एम. सीरवई की पुस्तक 'ट्रांसफर ऑफ पावर एंड पार्टीशन ऑफ इंडिया' पढ़ने के बाद गाँधी और नेहरू की आत्मकथा फिर से पढ़ी। स्टैनले वोलपर्ट की 'जिन्ना ऑफ पाकिस्तान' बेहतरीन जीवनी है। इससे पहले वीरेंद्र कुमार बरनवाल की पुस्तक 'जिन्ना एक पुनर्दृष्टि' में उनकी बेटी दीना और पत्नी रत्ती के  बारे में  विशेष सामग्री पढ़ने को मिली। मौलाना अबुल कलाम आजाद की सम्पूर्ण पुस्तक 'इंडिया विनज फ्रीडम' पढ़ कर कुछ नई जानकारियाँ मिली। उन्होंने डर के मारे तीस पेज, तीस साल तक  अप्रकाशित रखे और लंबे कानूनी विवाद के बाद ही छप पाए। राजमोहन गांधी की 'अंडरस्टैंडिंग द मुस्लिम माइंड' अपने ढंग की अलग ही रचना है। इनके अलावा भीमराव अंबेडकर के बारे में अरुण शौरी की 'वर्शिपिंग फाल्स गॉड्स' भी उलटी-पलटी। इसी दौरान मंगलमूर्ति द्वारा लिखित बाबू जगजीवन राम की जीवनी पढ़ने के लिए आ गई। जगजीवन राम कितने असहमत हैं अम्बेडकर और गाँधी से! 'झूठा-सच', 'तमस', 'कितने पाकिस्तान' और 'ए ट्रेन टू पाकिस्तान' से बिल्कुल अलग ऐतिहासिक तथ्यात्मक सोच-समझ बनी ये किताबें पढ़ कर।

संकल्पना-  इंदिरा गाँधी और उसके बाद की राजनीति पर रोशनी डालती हुई किताबें के बारे में क्या कहेंगे?

अरविंद जैन- इधर कुछ समय पहले कैथरीन फ्रैंक और पुपुल जयकर द्वारा रची इंदिरा गाँधी की जीवनी पढ़ने का समय मिला- सिक्किम यात्रा के दौरान। इंदिरा गाँधी पर एक और किताब पढ़ी 'ऑटम ऑफ द मैट्रीयॉर्क', जिसमें अंतिम वर्षो को विशेष रूप से यह रेखांकित किया गया है-'खतरनाक साम्प्रदायिक शक्तियों को बढ़ावा देना ही उनके लिए घातक सिद्ध हुआ'। प्रणब मुकुर्जी की किताब 'द टरबुलेंट इयर्स 1980-1996' और 'द ड्रामेटिक डिकेड: द इंदिरा गाँधी इयर्स' पढ़ कर समझ आया कि महत्वाकांक्षएँ कैसे दर-दर भटकती हैं। इन्हें समझने के लिए नटवर सिंह की 'वन लाइफ इज नॉट इनफ' और मक्खन लाल फोतेदार की 'द चिनार लीव्स' पढ़ना भी रोचक रहा। वैसे संजय बारू की पुस्तक 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' और विनोद राय की 'नॉट जस्ट एन अकाउंटेंट' ने नौकरशाहों के बारे में काफी कुछ बताया-समझाया। इन तमाम राजनीतिक किताबों के बीच जो सबसे उल्लेखनीय है, वो है अमर्त्य सेन की रचना 'द आईडिया ऑफ जस्टिस', जिसे पढ़ कर कोई भी अभिभूत हो सकता है। किताबें और भी हैं, लेकिन उन के विषय में फिर कभी।

संकल्पना-  अगर आपकी राजनीति में इतनी गंभीर रुचि है, तो फिर सक्रिय राजनीति से इतनी दूरी क्यों?

अरविंद जैन- धर्म, पूँजी, अपराध और राजनीति के आपसी रिश्तों को करीब से देखने,जानने और समझने के बाद, बहुत सोच-समझ कर ही यह फैसला किया था कि सक्रिय राजनीति में नहीं जाना। बहुत से सहपाठी-मित्र राजनीति में गए, सफल-असफल रहे, पर आज तक उनसे कभी आमना-सामना नहीं हुआ। 

संकल्पना-  आपके लेखों में कानून और न्याय व्यवस्था पर काफी आलोचनात्मक असहमतियाँ नज़र आती हैं। नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद से लेकर न्यायिक विवेक और पितृसत्तात्मक भेदभाव तक। ऐसे माहौल में कैसा अनुभव करते हैं?

अरविंद जैन- न्यायपालिका की तार्किक आलोचना और संयमित आलोचना करना उसी के हित में है। स्त्री और दलित के बारे में न्यायपालिका के पारदर्शी मानसिक पूर्वाग्रह-दुराग्रह आम समाज से छुपे नहीं हैं। न्याय मंदिरों के विशाल प्रांगण में भी, भृष्टाचार के विषवृक्ष लगातार फलते-फूलते रहे हैं। करोड़ों मुकदमें विचाराधीन पड़े हैं, तभी तो समय-समय पर सत्ता के उच्चतम शिखरों से आवाज़ आती है-"तारीख पर तारीख ठीक नहीं"। संसद और सुप्रीम कोर्ट के बीच वर्चस्व की लड़ाई और उसके आत्मघाती परिणाम सामने दीवार पर लिखे हैं-बशर्ते हम पढ़ना चाहें! 'औरत होने की सज़ा', 'उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार', 'बचपन से बलात्कार', 'न्यायक्षेत्रे अन्यायक्षेत्रे' और 'यौन हिंसा और न्याय की भाषा' में मैंने अपनी आलोचनात्मक असहमतियाँ दर्ज़ की हैं...और करता रहूँगा। मेरे लिए भी न्याय की आखिरी उम्मीद न्यायपालिका ही है। मैं एक वकील के रूप में आपकी पीड़ा को विवेकवान शब्दों में अकाट्य तर्क ही देता या दे सकता हूँ-शेष फैसला न्यायमूर्तियों के हाथ में हैं। मुझे बहस करने की आज़ादी है। बेशक़! निर्णय कानून सम्मत और न्याय संगत होना चाहिए।

संकल्पना-  आखिरी सवाल अगर वकालत या लेखन के बीच चुनाव करना हो तो आप किसे चुनेंगे?
अरविंद जैन- बहुत टेढ़ा सवाल है! मगर मैं लिखना नहीं छोड़ सकता।

संकल्पना द्वारा लिखित

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