"वर्तमान का यह राजनीतिक, सामाजिक परिदृश्य आज साहित्य लेखन के सामने चुनौती के रूप में उपस्थित है। जाति-धर्म आधारित भेदभाव के प्रश्न हमारे स्वाधीनता आंदोलन के दौरान पहचाने गये थे और आज़ादी की लड़ाई की सफलता के लिये तथा राष्ट्रीय एकता के लिये उन्हें संबोधित कर दूर करने के प्रयास किये गये थे। आज वैश्विक पूंजीवाद और सत्ता के गठजोड़ ने आम जनता की मानवीय गरिमा का क्षरण कर उसके जीने के अधिकार को छीनने का जो प्रयास किया जा रहा है उसकी पहचान करना ज़रूरी है। साहित्य के सामाजिक सरोकारों के रूप में यह एक बड़ी चुनौती है। कुछ युवा लेखक इस रूप में सफल हैं और अपनी कलम को इस बदलते यथार्थ के साथ मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति का साधन बना रहे हैं।
हनीफ़ मदार की कहानियाँ इस रूप में लेखकीय दायित्व का निर्वहन करने में सफल हैं। उन्होंने अपनी कहानियों की आधार भूमि का विस्तार किया है। सांप्रदायिकता के आधार पर विभाजन के लिये उद्यत सामाजिक प्रक्रिया और मानसिकता की वे पहचान करते हैं और बेबाकी से उसको अंकित करते हैं। उनके सोच में दुविधा नहीं है। बावजूद अंतर्विरोधों के, वे समाज की मिली जुली संस्कृति और सहजीवन के गवाह भी बनते हैं और उनकी कहानियां ज्यादातर पॉजिटिव नोट के साथ समाप्त होती हैं।" संग्रह की भूमिका से ॰॰॰॰ नमिता सिंह
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"रसीद नम्बर ग्यारह" संग्रह की भूमिका
हनीफ़
मदार का नाम हिंदी के पाठकों के लिये नया नहीं है। पिछले पंद्रह-सोलह साल से वे
लगातार साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं। उन्होंने सिर्फ कहानियाँ ही नहीं लिखीं
बल्कि अनेक साहित्यिक-सांस्कृतिक मंचों पर वे सक्रिय रहे हैं। समाज और शिक्षा के
क्षेत्र में भी वे लंबे समय से काम कर रहे हैं और इन विविध माध्यमों से उन्होंने
लगातार अपना अनुभव क्षेत्र विस्तारित किया है। उनकी ये अनुभव-जन्य वैचारिकता उनकी
कहानियों में स्पष्ट दिखाई देती है, जो उन्हें एक परिपक्व कथाकार के रूप में
स्थापित करती है।
पिछले कुछ वर्षों से युवा लेखन चर्चा के केन्द्र में है। अनेक
प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ने युवा लेखन पर केंद्रित लगातार विशेषांक निकाले हैं और
परिचर्चाएँ आयोजित की हैं। विशेष रूप से कथा-साहित्य में अनेक नये नाम उभरकर आये
और जिन्होंने अपने लेखन से भविष्य के लिये आश्वस्त किया। हिंदी कथा-साहित्य ने
पिछले लगभग सत्तर सालों में कई ऐसे पड़ाव देखे जब रचनात्मक साहित्य ने अपने समय के
बदलते यथार्थ को आत्मसात किया और साहित्य को नयी दिशा दी। समाजोन्मुखी यथार्थ की
नयी चेतना से संपन्न प्रेमचंद युगीन कथा साहित्य और उस के बाद उसमें परिवर्तन की
धारा दिखाई दी। विशेष रूप से स्वतंत्रता के बाद तेजी से बदल रहे भारतीय समाज के
सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में नयी कहानी ने
लेखन को एक अलग ऊँचाई दी और साहित्य में यह कालखंड ‘नयी कहानी’ के
रूप में ही जाना गया। किसी भी कालखंड की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ निश्चित रूप
से राजनीतिक परिदृश्य से प्रभावित होती हैं और सामाजिक संरचना को बदलने के कारक के
रूप में पहचानी जाती हैं। पिछले लगभग दो-तीन दशकों में यह सामाजिक रूपांतरण अधिक
जटिल हुआ है क्योंकि स्थानिकता के अलावा वैश्विक संस्कृति भी आज इस परिवर्तन में
बराबर की साझीदार है। आज़ादी के बाद ‘समाजवादी समाज के सपने’ के
साथ राष्ट्र-निर्माण का सफ़र शुरू हुआ था जिसकी विरासत में स्वतंत्रता आंदोलन से
उपजे मानवीय मूल्य थे, त्याग और बलिदान की परंपरा थी तथा नवजागरण
कालीन समाज-सुधार आंदोलनों से प्राप्त प्रगतिशील जीवन-दृष्टि थी जिसने
अंधविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों और मानव विरोधी अंध-धार्मिकता से निर्मित कुहासे
को दूर करने में मदद की थी और भविष्य के लिये ‘सर्वजन हिताय’ आधारित समाज के लिये पथ-प्रशस्त किया
था।
पिछली सदी के अंतिम दशक से देश की आर्थिक नीतियों ने वैश्विक पूंजीवाद
की गिरफ्त में आकर विकास की दिशा ही मोड़ दी और पूंजीवादी विकास का नया अध्याय शुरू
हो गया जिसका दर्शन अंततोगत्वा पूरी आर्थिक व्यवस्था का निजीकरण करना ही होता है।
यह पूंजीवाद का अनंतिम स्वरूप होता है। आज सभी क्षेत्र बड़े पूंजीपति घरानों द्वारा
संचालित हो रहे हैं और जो कुछ सार्वजनिक सेवा संस्थाएँ रह गयी हैं वे भी जल्दी ही
निजी क्षेत्र में फिसलने को तैयार की जा रही हैं। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था निजी
स्वामित्व के मुनाफे पर आधारित व्यवस्था है। जिस संस्थान का जितना अधिक मुनाफ़ा, वह
उतना ही सफल पूंजीपति। पिछले दशकों से बेरोजगारी का जो आंकड़ा लगातार बढ़ रहा था आज
अपने चरम पर है। बहुसंख्यक ग्रामीण समाज की अर्थव्यवस्था आज न्यूनतम स्थिति में है
और किसान बेदखल हो रहे हैं तथा आत्महत्या कर रहे हैं हताश बेराजगारों की बढ़ती फौज
समाज में अपराधों के नये आयाम स्थापित कर रही है।
निजी क्षेत्र पर आधारित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था लगातार बढ़ते सामाजिक
असंतोष और संकट का सामना अपने बूते पर या केवल शासन-सत्ता के बलबूते नहीं कर सकती।
उसे सहायक के रूप में एक समानान्तर सामाजिक व्यवस्था की जरूरत होती है ताकि जनता
का ध्यान संकट के वास्तविक कारणों से हटाकर दूसरी ओर मोड़कर उलझाया जा सके। जर्मनी
में इसी पूंजीवादी अर्थवाद से उपजे आर्थिक संकट के लिये यहूदी समुदाय को जिम्मेदार
ठहरा कर नौजवानों में उनके प्रति भीषण घृणा का वातावरण पैदा किया गया जिसकी परिणति
साठ लाख यहूदियों के नरसंहार में हुई तथा पूरा विश्व युद्ध की आग में झोंक दिया
गया। आज भारत में हम उसी कालखंड की पुनरावृत्ति देख रहे हैं। एक ओर जातीय विभाजन
लगातार बढ़ रहा है तो दूसरी ओर घोर सांप्रदायिक वातावरण निर्मित हो रहा है। एक भारत
भूमि पर रहते हुये भी जाति और धर्म के आधार पर अलग-अलग द्वीप निर्मित हो रहे हैं
और विडंबना यह है कि यह विभाजन भी राष्ट्रवाद के नाम पर हो रहा है।
वर्तमान का यह राजनीतिक, सामाजिक परिदृश्य आज साहित्य लेखन के सामने
चुनौती के रूप में उपस्थित है। जाति-धर्म आधारित भेदभाव के प्रश्न हमारे स्वाधीनता
आंदोलन के दौरान पहचाने गये थे और आज़ादी की लड़ाई की सफलता के लिये तथा राष्ट्रीय
एकता के लिये उन्हें संबोधित कर दूर करने के प्रयास किये गये थे। आज वैश्विक
पूंजीवाद और सत्ता के गठजोड़ ने आम जनता की मानवीय गरिमा का क्षरण कर उसके जीने के
अधिकार को छीनने का जो प्रयास किया जा रहा है उसकी पहचान करना ज़रूरी है। साहित्य
के सामाजिक सरोकारों के रूप में यह एक बड़ी चुनौती है। कुछ युवा लेखक इस रूप में
सफल हैं और अपनी कलम को इस बदलते यथार्थ के साथ मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति का
साधन बना रहे हैं।
हनीफ़ मदार की कहानियाँ इस रूप में लेखकीय दायित्व का निर्वहन करने
में सफल हैं। उन्होंने अपनी कहानियों की आधार भूमि का विस्तार किया है।
सांप्रदायिकता के आधार पर विभाजन के लिये उद्यत सामाजिक प्रक्रिया और मानसिकता की
वे पहचान करते हैं और बेबाकी से उसको अंकित करते हैं। उनके सोच में दुविधा नहीं
है। बावजूद अंतर्विरोधों के, वे समाज की मिली जुली संस्कृति और सहजीवन के
गवाह भी बनते हैं और उनकी कहानियां ज्यादातर पॉजिटिव नोट के साथ समाप्त होती हैं।
चाहे वो ‘ईदा’ हो या ‘गाँठ’ कहानी का रफ़ीक, दोनों नायक के रूप में प्रस्तुत होते हैं। आज
समाज की वर्तमान परिस्थितियों में ‘चुटकी-चुटकी प्रेम’ का
इशरत अंकिता के साथ अपनी मित्रता के प्रति आघात महसूस करता है तो यह सामाजिक
विडंबना ही है जिसके लिये यह व्यवस्था जनित वातावरण जिम्मेदार है।
गाँव का छोटा और मध्यवर्गीय किसान आज वर्तमान मंहगाई और आर्थिक संकट
के दौर में सबसे ज्यादा परेशान और त्रस्त हैं। बड़े किसान और व्यापारी का गठजोड़
उसकी हताशा को चरम सीमा तक पहुँचा देता है और ठगा सा वह हरिया के रूप में ‘मैं
भी आती हूँ’ का पात्र विद्रोह को उतारू हो जाता है जिसे उसकी पत्नी सुनीता का भी
साथ मिलता है।
मुस्लिम समाज आज राजनीति जनित अलगाव के वातावरण में लगातार चर्चा में
है। हनीफ़ मदार एक ओर रफ़ीक और इशरत जैसे पात्र की अनकही व्यथा अंकित करते हैं तो
दूसरी ओर आलोचना की प्रक्रिया से भी गुजरते हैं और समाज में व्याप्त अंतर्विरोधों
को पर्त-दर-पर्त उजागर करते हैं। ‘रसीद नं0 ग्यारह’
तथा ‘कछुए के खोल में’ इस
रूप में महत्वपूर्ण कहानियां हैं जो पूरे सामाजिक चिंतन और परंपरा के पुनर्निर्माण
की जरूरत को दिखाती हैं। यह कहानियाँ उनकी बेबाकी और साहस की भी परिचायक हैं। ‘कुहासे
में घर’ कहानी अपने विषय और बेबाक प्रस्तुति के कारण उल्लेखनीय है।
कथ्य के रूप में हनीफ़ मदार की कहानियाँ महत्वपूर्ण हैं जो अपने समय
की सच्चाइयों को पहचानने में सक्षम हैं। हनीफ़ मदार जैसे परिवक्व वैचारिक और
सामाजिक रूप से सजग और संवेदनशील लेखक आज कथा-साहित्य को नयी दृष्टि देने में
सक्षम है, मैं यह पूरे विश्वास के साथ कहना चाहती हूँ