वर्तमान समय और समाज को शब्दों में तराशतीं दीप्ती सिंह की कविताएँ
१-
उसने कहा मुड़ो
और मैं निर्वस्त्र उसकी तरफ पीठ कर खड़ी हो गई
ठीक तभी महसूस किया मैंने
अपनी टांगों का कंपन
जैसे असमर्थ हो
वे मेरा भार संभाल पाने में
जैसे भारी बोझ से दब रहा हो
सारा शरीर
महसूस ये भी किया
कि मेरी देह पर उभरे मौन विरोध के शब्द
सामने से भले धुँधले दिखते हो
पीठ पर बहुत साफ-साफ स्पष्ट थे
जैसे कह रहे हो चीख-चीख कर
कि तुम किसी को जीवन नहीं
मृत्यु की ओर धकेल रहे हो
मृत्यु जीवन की सबसे हसीन और कोमल भावनाओं की
कि तुम्हारी आसक्ति का रास्ता
किसी की विरक्ति से होकर ही क्यों जाना चाहिए
हे पुरुष तुम क्यों नहीं पढ़ सकते कभी मौन की भाषा
और हे स्त्री तुम क्यों नहीं कर सकती
किसी ऐसी चीज से स्पष्ट इनकार
जिसे तब नहीं स्वीकारता तुम्हारा ह्रदय
उन क्षणों में लगा
अगर मैं और एक मिनट ऐसे खड़ी रही
तो वह जान लेगा मेरा सच
और मैं किसी कमजोर दीवार की तरह
भरभराकर ढह जाऊँगी
जान ये भले न पाये
कि कैसे सारी पीड़ा ,सारा संकोच , सारी लज्जा,सारी उदासी, सारी असहमति
कई बार पीठ पर उतर आती है इकट्ठे
जान ये जरूर लेगा
कि कितनी नादान कितनी कच्ची हूँ
मैं उस ताने वाने में
जिसमें वह मुझसे सम्पूर्णता की आशा करता है
हर बार
कि मैं स्वांग रचाती हूँ उसे उसकी तरह चाहने का
और ये भी कि जिन्हें जंगलों से रही होती है
बेपनाह मुहब्बत
जरूरी नहीं कि उनमें जंगलीपन भी
उतना ही कूट-कूट कर भरा हो
२-
अपनी देह से उठती
कितनी बार महसूस की है
मैंने तुम्हारी गंध
जबकि कभी तो तुम्हें छुआ नहीं
हाथ भी कब लगाया था
तुम्हारे पास से भी कब गुजरे थे
ठीक-ठीक ये भी नहीं याद
शायद कभी नहीं
तुम कभी मिलते तो किसी बच्चे सा
दोनों हाथों से थाम लेते तुम्हारा चेहरा
और ढूंढते उस ताले की चाबी
जहाँ मैं कैद रही हूँ बरसों तक
रिहाई मांगना तो मेरा हक था
है न
और देना तुम्हारी जिम्मेदारी
कितनी बार अपनी आँखें
हाथ-पैर, शक्ल-सूरत
सब लगते है तुम्हारे से
कितनी बार मैं सोचती हूँ
मुझमें
कितने गहरे तक गढ़ी हुई है
तुम्हारी स्मृतियाँ
कितने भीतर तक उतर आये हो तुम
३-
मैंने सुना हैं
छोटे बालों वाली स्त्रियों का
चरित्र कुछ ठीक नहीं होता
और न ही होता है
कमर तक लम्बे,
खुले बाल रखने वाली स्त्रियों का
कि लम्बे बालों वाली स्त्रियां करती हैं
काला जादू
और छोटे बालों वाली स्त्रियां
उतार के फेंक देती है
कदम-कदम पर अपना चरित्र।
चरित्रवान होती है केवल वे स्त्रियां,
जो बालों को
लम्बी चोटियों में गूंथकर रखती हैं
या उम्र भर बांध कर के रखती है जूड़ा
जिसमें कसे रहते हैं
उनके तमाम दुख,
चिंताएं,
उदासियां,
मुसीबतें,
कुठाएं,
मर्यादा अकेलापन
और,
और उनकी आजादी भी....
४-
एक डोर रही हमारे तुम्हारे बीच
जिसका एक छोर बरसों तक थामे रहे तुम
और दूसरा मैं
लोगों के पैर उलझ जाते थे उसमें
मां उन दिनों बेहद परेशान थी
मैं किसी की सुनती ही कहाँ थी
सिवाय तुम्हारे
मां इन दिनों खुश रहती है
और मैं उतनी ही शांत
वो सिरा जो छूटा गया एक रोज
उसके बीच से अब एक दुनिया गुजरती है
जिसमें सब होते है
सिवाय हमारे