मन की कुटिया खाली सी है,
हृदय पर भी लाली सी है,
तरु हैं, तट है, नदिया भी है,
बस सघन छांह विस्तार नहीं,
कलुषित सा जीवन लगता है,
मन स्मृति के पीछे भगता है,
मैं नहीं आज ये प्राण बोझ ढो पाऊंगा,
तुम मुझको करना माफ प्रिये!
मैं आज नहीं रो पाऊंगा।
इतना गाढ़ा था प्रेम मेरा,
तन मन सब कुछ वार दिए,
तुम नहीं योग्य थीं उन सबके,
इतने तुमको विस्तार दिए,
अब तो मैं खुद ही सिमट गया,
जीवन सरिता से लिपट गया,
तुमको सोना है सो जाओ,
मैं एकाकी हूं, आज , नहीं सो पाऊंगा,
तुम मुझको करना माफ प्रिये!
मैं आज नहीं रो पाऊंगा।
मैं भी था कितना निरा मूर्ख,
उन बातों को सत्य मान बैठा,
था रहा बड़ा निश्चिंत सदा,
तुम में अपना प्राण पैठा,
तुम एक कुटिल छली निकली,
बिल्कुल भी ना भली निकली,
मैं भी अब, तिमिर हटा करके
तम में ही खो जाऊंगा,
तुम मुझको करना माफ प्रिये!
मैं आज नहीं रो पाऊंगा।