हिंदी साहित्य में ऐसे धूर्त साहित्यकार भतेरे हैं जो स्त्री विमर्श की आंच पर अपनी साहित्यिक रोटियां तो सेकते हैं, जो महिलाओं पर केंद्रित कविताएँ तो लिखते हैं, जो महिला विशेषांक भी निकालते हैं और सम्मेलनों में जाकर भाषण झाड़ते हैं कि उनसे बड़ा औरतों का संरक्षक कोई और है ही नहीं, परन्तु असलियत कुछ और ही होती है और वो यह कि उनके विचार इन सबसे एकदम उलट होते हैं। इनकी मानसिकता तब और भी उजागर हो जाती है जब ये दारूबाज पार्टियों में अपनी घिनौनी सोच को जगज़ाहिर करते हैं। दरअसल हमारे समाज में अब भी स्त्रियों को वो सम्मान और हक अभी नहीं मिले हैं, जिनकी वे वास्तव में हकदार हैं। आज भी अधिकतर चालाक पुरुष उसे अपनी सम्पति से अधिक कुछ नहीं समझते। कवयित्री भावना मिश्रा की अधिकतर कविताएँ ऐसी मानसिकता पर गज़ब की चोट करती हैं। भावना मिश्रा ने पुरुष मानसिकता की कलई शानदार तरीके से खोली है-
स्त्री अधिकारों का 'मौन अनुबंध'
हिंदी साहित्य में ऐसे धूर्त साहित्यकार भतेरे हैं जो स्त्री विमर्श की आंच पर अपनी साहित्यिक रोटियां तो सेकते हैं, जो महिलाओं पर केंद्रित कविताएँ तो लिखते हैं, जो महिला विशेषांक भी निकालते हैं और सम्मेलनों में जाकर भाषण झाड़ते हैं कि उनसे बड़ा औरतों का संरक्षक कोई और है ही नहीं, परन्तु असलियत कुछ और ही होती है और वो यह कि उनके विचार इन सबसे एकदम उलट होते हैं। इनकी मानसिकता तब और भी उजागर हो जाती है जब ये दारूबाज पार्टियों में अपनी घिनौनी सोच को जगज़ाहिर करते हैं। दरअसल हमारे समाज में अब भी स्त्रियों को वो सम्मान और हक अभी नहीं मिले हैं, जिनकी वे वास्तव में हकदार हैं। आज भी अधिकतर चालाक पुरुष उसे अपनी सम्पति से अधिक कुछ नहीं समझते। कवयित्री भावना मिश्रा की अधिकतर कविताएँ ऐसी मानसिकता पर गज़ब की चोट करती हैं। भावना मिश्रा ने पुरुष मानसिकता की कलई शानदार तरीके से खोली है-
तुम कहते हो
तुम मुझे स्वर्ग दोगे
इस कहने के पीछे
एक अनकहा अनुबंध है
कि मैं स्वीकार कर लूँ तुम्हें
इस स्वर्ग का निर्विवाद ईश्वर
तुम मुझे सुरक्षा देने की बात करते हो
और फिर से थमा देते हो मेरे हाथों में
एक मौन अनुबंध का लिफ़ाफ़ा
जो इस सुरक्षा के बदले मांगता है
पूर्ण समर्पण
आज तुम हर मंच पर चढ़कर
चीख रहे हो मेरी स्वतंत्रता के हक में
और तुम्हारी इस चीख के पृष्ठ में
मैं सुन रही हूँ एक और अनुबंध की अनुगूंज
कि मुझे आजीवन रहना होगा
शतरंज का इक मोहरा
तुम्हारी अदम्य इच्छा है कि
तुम मुझे अपने बराबर का दर्जा दो
आखिर तुम आज के पुरुष हो
खुले विचारों वाले प्रगतिशील
और मैं सदैव प्रत्यक्ष के परे विचरने वाली
अंतिम किवाड़ की टेक लिए खड़ी
सूंघ रही हूँ फिर एक घातक अनुबंध
तुम्हारे बराबर आने के लिए
मुझे छोड़नी होगी
अपनी तिर्यक रेखा की प्रवृत्ति
जो काटती है तुम्हारे रास्ते
और अस्वीकार करती है तुम्हारे
समान्तर चलना
अपनी उदारता की कैंची से
मेरे पंख कतरने वाले तुम्हारे इन अनुबंधों
को नकारती हूँ मैं
मेरे पंख सलामत रहे तो
मैं खुद तलाश लूंगी अपना आकाश।
यह भी एक बड़ी विडम्बना ही कही जा सकती है कि स्त्री ने जब भी अपने हकों की बात की होगी, उसकी आवाज़ दबा दी गई। कइयों ने खुलकर विद्रोह भी किया होगा मगर पुरुषों ने कुचलने में देरी नहीं की। कवयित्री भावना मिश्रा ने ठीक ही कहा अपने व्यंग्यात्मक अंदाज़ में कि स्त्री तो एक पराधीन इकाई ही है-
लो डाल दिए हैं मैंने हथियार
और स्वीकार कर ली है हार
इस युद्ध में
और साथ ही
भविष्य में संभावित सभी युद्धों में
मैं पराजित ही हूँ
क्योंकि, मैंने जन्म लिया है
बेटी, बहन, पत्नी और माँ बनने के लिए
मैं हूँ
इस सृष्टि की पराधीन इकाई।
एक स्त्री का मनोबल अधिक ऊँचा होता है और सहनशक्ति पुरुष के मुकाबले कहीं अधिक। एक स्त्री यदि ठान ले तो कुछ भी कर सकती है।
एक बड़ी अनूठी कहानी है। कहते हैं कि अशोक के जीवन में एक अद्भुत घटना घटी। कहना मुश्किल है कि कहां तक सच है। लेकिन बात बड़ी गहरी है। वर्षा के दिन हैं और एक शाम पाटलीपुत्र में अशोक गंगा के किनारे खड़ा है। भयंकर बाढ़ आई है गंगा में। सीमाएं तोड़कर गंगा बह रही है। बड़ा विराट उसका रूप है। भयंकर तबाही मचा रखी है। अशोक खड़ा है अपने अमात्यों और मंत्रियों के साथ। उसने कहा, क्या यह संभव है? क्या कोई ऐसा उपाय है कि गंगा उलटी दिशा बह सके यानी स्रोत की ओर!
अमात्यों ने कहा- असंभव और अगर चेष्टा भी की जाए तो अति कठिन है।
एक वेश्या भी अशोक के साथ गंगा के किनारे आ गई है।
वह नगर की सब से बड़ी वेश्या है। उन दिनों में वेश्याएं भी बड़ी सम्मानित होती थीं। वह नगरवधू है। उस वेश्या का नाम है, बिंदुमति। वह हंसने लगी और उसने कहा, अगर आप आज्ञा दें तो मैं इसे उलटा बहा सकती हूं।
अशोक चौंका। उसने कहा, क्या ढंग है? क्या मार्ग है इसको उलटा बहाने का? तेरे पास ऐसी कौन-सी कला है?
उसने कहा, मेरी निजता का सत्य! मेरे जीवन का सत्य मेरा सामर्थ्य है। मैंने उसका कभी उपयोग नहीं किया। बड़ी ऊर्जा मेरेजीवन के सत्य की मेरे भीतर पड़ी है।
अगर आप कहें, तो यह गंगा उलटी बहेगी, मेरे कहने से।इसका मुझे पक्का भरोसा है क्योंकि मैं अपने सत्य से कभी भी नहीं डिगी।
सम्राट को भरोसा न आया। वेश्या ने अपनी आंखें बंद कीं और गंगा उलटी बहने लगी। सम्राट तो चरणों पर गिर पड़ा वेश्या के। और उसने कहा-
बिंदुमति! हमें तो कभी पता ही न चला कि तू वेश्या के अतिरिक्त भी कुछ और है। यह राज, यह रहस्य तूने कहां सीखा? यह तो बड़े सिद्ध पुरुष भी नहीं कर सकते हैं।
वेश्या ने कहा, मुझे सिद्ध पुरुषों का कोई पता नहीं। मैं तो सिर्फ एक सिद्ध वेश्या हूं और यही मेरे जीवन का सत्य है।
अशोक ने पूछा, क्या है तेरे जीवन का सत्य!
उसने कहा, मेरे जीवन का सत्य इतना है कि मैं जानती हूं कि वेश्या होना ही मेरे जीवन की शैली है। यही मेरी नियति है। अन्यथा मैंने कभी कुछ और होना नहीं चाहा। अन्यथा की चाह ही मैंने कभी अपने भीतर नहीं आने दी। मैं समग्र सिर से लेकर पैर तक वेश्या हूं। मैंने वेश्या के धर्म से कभी मुख नहीं मोड़ा।
अशोक ने पूछा, क्या है वेश्या का धर्म? पागल, मैंने कभी सुना नहीं कि वेश्या का भी कोई धर्म होता है। हम तो वेश्या को अधार्मिक समझते हैं और यही मैं मानता था कि तू भले ही कितनी भी सुंदर है लेकिन तेरे भीतर एक गहरी कुरूपता है। तू शरीर को बेच रही है, सौंदर्य को बेच रही है। इससे घटिया तो कोई व्यवसाय नहीं!
वेश्या ने कहा, व्यवसाय छोटे और बड़े नहीं होते। यह व्यवसायी पर सब निर्भर करता है। मेरे जीवन का सत्य यह है कि मेरे गुरु जिसने मुझे वेश्या होने की शिक्षा और दीक्षा दी, उसने मुझे कहा-
केवल एक सूत्र सम्हाले रखना, तो तेरा मोक्ष कभी तुझसे छिन नहीं सकता। और वह सूत्र यह है कि चाहे धनी आए, चाहे गरीब आए, चाहे शूद्र आए, चाहे ब्राह्मण आए, चाहे सुंदर पुरुष आए, चाहे कुरूप पुरुष आए, चाहे जवान आए, चाहे कोढ़ी आए, रुग्ण आए, जो भी तुझे पैसे दे, तू पैसे पर ध्यान रखना और व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करना। तू तटस्थ रहना। तेरा काम है पैसा लेना। बस, बात खतम हो गई। बाकी कोई भी आए, तू समभाव रखना।
और मैंने उसी सूत्र को सम्हाला है। मैंने न तो कभी किसी के प्रति प्रेम किया, न लगाव दिखाया, न आसक्ति बनाई, न मोह किया। न मैंने कभी किसी से घृणा की। मैं दूर तटस्थ खड़ी रही हूं।
एक स्त्री अपना जीवन दूसरों को पूरी तरह से समर्पित कर देती है। इनमें अद्भुत सहनशीलता होती है। एक नारी में असीमित शक्ति होती है फिर भी उसे समाज में अबला ही समझा जाता है। पुरुषों ने हमेशा महिलाओं को बन्धन में डाल रखा, उन्हें केवल वस्तु समझा और कभी आज़ादी नहीं दी। पुरुष घर से बाहर बिना बताए जा सकता है, रात को न भी लौटे तो कोई फर्क नहीं पड़ता, एक दिन के लिए घर से कहीं जाता है तो उसे इतनी आज़ादी है कि एक से अधिक दिनों तक भी बाहर रह सकता है। जबकि एक महिला को आज भी इतनी आज़ादी है क्या? तो फिर बराबरी का ढोंग क्यों? पुरुषों ने हमेशा से महिलाओं पर सन्देह किया है। वह तो प्रेम भी शर्तों पर करता है। जबकि प्रेम बन्धन नहीं मुक्ति है। कवयित्री ने ऐसी पीड़ाओं और अत्याचारों को अभिव्यक्त किया है-
छील डालना उसे आख़िरी परत तक
रोजाना अपने
छोटे छोटे अनवरत प्रहारों से,
जो एक बार में तोड़ न सको
किसी स्वाभिमानी स्त्री की
रीढ़ की हड्डी
समाज ने तुम्हें किया है पारंगत इस कला में
कि रिश्तों की छेनी के आलम्ब पर
बेदर्दी से चलाये जाओ अपने अधिकारों की हथौड़ी.
हाँ, तुम रत रहो अपने इस महान उद्देश्य में..
ये मूर्ख औरतें कभी न समझ सकेंगीं
कि इस दुनिया का हर पुरुष एक महान कलाकार है
जो निरंतर गढ़ रहा है
अपने संबंधों की परिधि में
आने वाली प्रत्येक स्त्री को।
यदि औरतें अपने अधिकार मांगे या बराबरी का व्यवहार चाहे तो ऐसी औरतें बुरी औरतें कहलायी जाने लगती हैं। भावना की कविताएँ अलग और सच्चा स्त्री विमर्श खड़ा करने में समर्थ हैं-
उन्हें बुरी लगती हैं आलसी औरतें
मिट्टी के लोंदे सी पड़ी
उन्हें बुरी लगती हैं
कैंची की तरह जबान चलाती औरतें
जिनके बोलने से घुलने लगता है कानों में पिघला शीशा
उन्हें बुरी लगती हैं
प्रतिरोध करने वाली औरतें
जैसे खो चुकी हों
सारे स्त्रियोचित गुण
छोटे कपड़े पहनने वाली औरतें
भी उन्हें बुरी लगती हैं
कि जिस्म उघाड़ती फिरती हैं
दुनिया भर में
लेकिन..
उन्हें सबसे ज्यादा बुरी लगती हैं वे औरतें
जो उघाड़ कर रख देती हैं अपनी आत्मा को
न सिर्फ घर में
बल्कि घर से बाहर,
देश, समाज और दुनिया के मुंह पर
खोल के रख देती हैं दोमुँही रवायतों की कलई।
- प्रतीकात्मक चित्र गूगल से साभार