प्रेमचंद, एक पुनर्पाठ की ज़रूरत: आलेख (हनीफ़ मदार)

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हनीफ मदार 1933 7/30/2019 12:00:00 AM

वर्तमान औपनिवेशिक पूंजीवादी खतरों से जूझते समय के साथ साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतों से रूबरू होते समय में, लगता है कि हमारा कल आधुनिकता के जाल में उलझा, हमारे आज में मौजूद है तब निश्चित ही प्रेमचंद के पुनर्पाठ की आवश्यकता है |

प्रेमचंद, एक पुनर्पाठ की ज़रूरत 

प्रेमचंद की साहित्य धारा को जिस तरह यशपालरांगेय राघव’ और राहुल सांकृत्यायन आदि ने जिस मुकाम तक पहुंचाने में अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल किया वह साहित्यिक दृष्टि और ऊर्जा, बाद की पीढी के साहित्य में कम ही नज़र आती है वर्तमान तक आते-आते प्रेमचंद महज़ एक साहित्य संदर्भ बन कर रह गये हैं इधर साहित्य की गंभीर चर्चाओं में इस प्रश्न का उठना भी अकारण नहीं लगता कि आज हिंदी साहित्य से भारतीय गाँव नदारद हैं |’ अब इसके वर-अक्स पर इस बात को लाख कहा जाय कि वर्तमान समय भी तो मुंशी प्रेमचंद से भिन्न हैतो ऐसे में तात्कालिक साहित्य धारा आज के साहित्यिक सामाजिक सरोकारों की आवश्यकता पूर्ती में सक्षम होगीया यह कह देना कि आज की कहानियों में भी गाँव या किसान मौजूद है लेकिन वर्तमान परिस्थितियों के साथक्योंकि गाँव भी आज प्रेमचंद वाले गाँव नहीं रह गए हैं |’

 

इस बहसा-बहसी के साहित्यिक अखाड़े में एक नई चर्चा के लिए कुछ सवाल खड़े होने लगते हैं मसलन स्वतन्त्रता के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद से जारी संघर्ष के समय में भी प्रेमचंद आज़ादी के बाद के जिन आंतरिक अंतर्विरोधों एवं उत्पन्न जनविरोधी नीतियों और राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को देख रहे थे कहा जाय कि वे अपने वर्तमान में, भविष्य (आज के वर्तमान) का प्रतिनिधित्व करते हुए जिस अगुआ की भूमिका में नजर आते हैंक्या आज उस साहित्यिक अगुआई की जरूरतें खत्म हो गईं हैं..? क्या औपनिवेशिक लूट अब नहीं रही, या ब्रिटिश साम्राज्यवादी चारित्रिक प्रभुसत्ता अब नहीं रही हैया फिर जातीयतास्त्री मुक्तिसाम्प्रदायकता और आर्थिक असमानता के अनसुलझे सवाल सुलझ गए हैं.? क्या अब बदले समय का किसान भूख से या कर्ज़ के बोझ से दबकर आत्महत्या नहीं कर रहाऔर यदि मान लिया जाय कि प्रेमचंद के साम्राज्यवाद और आज के साम्राज्यवाद में तकनीकी रूप से अंतर हैंतब क्या समाज के आगे मशाल लेकर चलने वाले साहित्यिक खेमे के पास वर्तमान औपनिवेशिक साम्राज्यवादी चरित्र के रचनात्मक विरोध के लिए कोई तौर-तरीका नहीं बचा हैया फिर हम इन सवालों को ही अनदेखा कर सत्ता से सामंजस्य बिठाने में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं |

 

ऐसे में प्रेमचंद के साहित्यिक पुनर्पाठ की आवश्यकता सहज ही महसूस होने लगती है जहां हम मौजूदा चुनौतियों के साथ ख़ुद को तात्कालिक समय में मुठभेड़ करते पाते हैं जो बदले समय में भी हमारे आज का मूल्यांकन है |

 

 अंग्रेजी राज्य में गरीबोंमजदूरों और किसानों की दशा बद से बदतर होती जा रही थी |क्या इस टिपण्णी को तात्कालिक राजनैतिक परिदृश्य के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए जब कि वर्तमान आधुनिक स्वतंत्र भारत की सत्तर प्रतिशत आबादी मानो जीवन के बोझ से ही कराह रही है ऐसे में प्रेमचंद की कहानीआहूति” में रुक्मिणी का यह कहना किमि0जौन की जगह सेठ गोविंदी आ जायेंगे तो वह स्वराज मुझे नहीं भाएगा यह स्वराज का असली मतलब नहीं होगा |स्वतंत्र भारत की यही संभावित त्रासदी मंगलसूत्र” की आधार भूमि बनता है |

 

प्रेमचंद पर टिपण्णी करते हुए एक बात और है जिसे अक्सर ही उठाया जाता रहा है कि प्रेमचंद को स्त्री-पुरुष संबंधों या स्त्री के मनोभावों या मनोविज्ञान की समझ कम थी यहाँ भी प्रेमचंद के पुनर्पाठ की आवश्यकता महसूस होती है क्योंकि  प्रेमचंद के पास तो प्रेम का जनतांत्रिक नजरिया हैस्त्री-पुरुष सम्बन्धों का जनतांत्रिक विकास, और इस विकास के आधारभूत गुण भी किसानों और ग्राम्य जीवन से ही विकसित हो रहे हैं आज भी हमारे सामाजिक विधान में स्त्री-पुरुष संबंधों में चाहे जो सम्बन्ध हों स्वीकार हैं मसलन पत्नीप्रेमिकाबेटीबहू आदि किन्तु स्त्री-पुरुष मित्र या दोस्त भी हो सकते हैं यह स्वीकार्य नहीं है प्रेमचंद इन सामाजिक उलझनों को भी उन्ही मेहनतकश और कामकाजी स्त्रियों या पुरुषों के बीच ही सुलझाते दिखते हैं प्रसंगवश प्रेमचंद की कुछ रचनाओं से लिए गए सन्दर्भ यहाँ मौजूं होंगे 

 

गोदान” का एक संवाद है – ‘मेहतामालती को देवी कहते हुए पैर पकड़ लेते हैं मालती- वरदान मिलने पर शायद देवी को मंदिर से बाहर निकाल फैको मेहता- नहीं मेरी अलग सत्ता न रहेगी उपासक उपास्य में लीन हो जाएगा|मालती- नहीं मेहतामैंने महीनों से इस प्रश्न पर विचार किया है और अंत में मैंने तय किया है कि स्त्री-पुरुष बनकर रहने से मित्र बनकर रहना कहीं ज्यादा सुखकर है |’वहीँ रंगभूमि” में घायल सूरदास कहता है एक स्त्री का एक पुरुष के साथ अकेले में रहनावह भी रात में …. समाज के लोगों को कैसा लगेगा ?’ इस पर सुभागी कहती है इसकी मुझे चिंता नहीं मुझे ऐसा पति अच्छा नहीं लगता जो औरत के चरित्र के पीछे डंडा लेकर पड़ा रहे |’

 

फिर चाहे गोदान” में मातादीन और सिलिया का प्रेम प्रसंग हो या साम्राज्यवाद के देशी आधार के खिलाफ दलितकिसान की प्रतिरोधी चेतना के विकास की रूपरेखा होप्रेमचंद की साहित्य संस्कृति की संघर्षधर्मी चेतना भारतीय समाज के विश्लेष्ण से ही निकलती है |

 

वर्तमान औपनिवेशिक पूंजीवादी खतरों से जूझते समय के साथ साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतों से रूबरू होते समय में, लगता है कि हमारा कल आधुनिकता के जाल में उलझा, हमारे आज में मौजूद है तब निश्चित ही प्रेमचंद के पुनर्पाठ की आवश्यकता है |


प्रतीकात्मक चित्र google से साभार 

हनीफ मदार द्वारा लिखित

हनीफ मदार बायोग्राफी !

नाम : हनीफ मदार
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ऑथर के बारे में :

जन्म -  1 मार्च १९७२ को उत्तर प्रदेश के 'एटा' जिले के एक छोटे गावं 'डोर्रा' में 

- 'सहारा समय' के लिए निरंतर तीन वर्ष विश्लेष्णात्मक आलेख | नाट्य समीक्षाएं, व्यंग्य, साक्षात्कार एवं अन्य आलेख मथुरा, आगरा से प्रकाशित अमर उजाला, दैनिक जागरण, आज, डी एल ए आदि में |

कहानियां, समीक्षाएं, कविता, व्यंग्य- हंस, परिकथा, वर्तमान साहित्य, उद्भावना, समर लोक, वागर्थ, अभिव्यक्ति, वांग्मय के अलावा देश भर  की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित 

कहानी संग्रह -  "बंद कमरे की रोशनी", "रसीद नम्बर ग्यारह"

सम्पादन- प्रस्फुरण पत्रिका, 

 'बारह क़िस्से टन्न'  भाग १, 

 'बारह क़िस्से टन्न'  भाग ३,

 'बारह क़िस्से टन्न'  भाग ४
फिल्म - जन सिनेमा की फिल्म 'कैद' के लिए पटकथा, संवाद लेखन 

अवार्ड - सविता भार्गव स्मृति सम्मान २०१३, विशम्भर नाथ चतुर्वेदी स्मृति सम्मान २०१४ 

- पूर्व सचिव - संकेत रंग टोली 

सह सचिव - जनवादी लेखक संघ,  मथुरा 

कार्यकारिणी सदस्य - जनवादी लेखक संघ राज्य कमेटी (उत्तर प्रदेश)

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