हैदराबाद, उन्नाव, बक्सर, समस्तीपुर और मुजफ्फरपुर में बेटियों को जिंदा जलाने का मामला अभी थमा भी नहीं था कि पश्चिम चंपारण के शिकारपुर थाना क्षेत्र के एक गांव में ऐसा ही मामला सामने आया है । निश्चित ही यह भारतीय न्याय व्यवस्था, सामाजिकता और लोकतंत्र के लिए अत्यंत शर्मनाक है। किंतु इसके बरअक्स त्वरित न्याय प्रक्रिया में हैदराबाद का पुलिसिया कृत्य भी ऐसी घटनाओं के ख़िलाफ़ कोई आदर्श नहीं माना जा सकता। बल्कि बिना किसी अपराध के साबित होने से पूर्व ही महज़ आरोपित व्यक्ति या व्यक्तियों की भीड़ द्वारा हत्या कर देना या हैदराबाद में पुलिस का ख़ुद मुंसिफ़ बन जाना यक़ीनी तौर पर माननीय भारतीय न्यायालयों और न्याय प्रक्रिया को मुँह चिढ़ाने जैसा है, जो अपराधी और आपराधिक घटना की जाँच, विश्लेषण और अन्वेषण के रास्ते भी एक झटके से बंद कर देता है, फलस्वरूप न्याय व्यवस्था के प्रति सामाजिक भरोसे की जगह सहमा सा संदेह खड़ा होने लगता है ।
इस सम्पूर्ण घटनाक्रम को सामाजिक और क़ानूनी रोशनी में देखने का प्रयास है, कथाकार और माननीय सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता ‘ज्योति कुमारी शर्मा’ का यह आलेख॰॰॰॰॰
इंसाफ़ के तक़ाज़े पर इंसाफ़ की बलि
हैदराबाद पुलिस संविधान और कानून को ताक पर रखकर बलात्कार के चार आरोपियों का एनकाउंटर करती है। जिस तरह से यह एनकाउंटर किया जाता है, निश्चित रूप से वह संदेह पैदा करता है। 10 पुलिस वाले क्राइम सीन क्रिएट करने के लिए चार आरोपियों को रात के अंधेरे में लेकर घटनास्थल पर जाते है। वहां आरोपी पुलिस से हथियार छीन लेते हैं और भागने की कोशिश करते हैं। इसके बाद पुलिस उन्हें मार गिराती है। इस क्रम में दो पुलिस वाले के जख्मी होने की खबर भी आती है। कमाल तो यह है कि पुलिस जिन-जिन चारों आरोपियों को भागने से रोकने के लिए गोली मारती है, वह सब मर जाते हैं। जख्मी कोई नहीं होता। पहले तो यह पूरा घटनाक्रम ही संदेह पैदा करने के लिए काफी है। उसके बाद भी जो हुआ, वह कम आश्चर्यजनक नहीं है।
मीडिया इसे ऐसे महिमामंडित करती है कि लगता है कि पुलिस की इस ‘अति’ शर्मनाक गैर-कानूनी कार्यवाही का पूरे देश में स्वागत हो रहा है। मीडिया और सोशल मीडिया की रपट पर भरोसा करें तो दिन-ब-दिन यकीन पुख्ता होता जा रहा है जो हमारे उदारपंथी स्वतंत्रता सेनानियों ने आजादी के बाद के लिए कही थी, ‘‘हम भारतीय आजादी को सही मायने में समझने के लिए आवश्यक मानसिक योग्यता अभी प्राप्त नहीं कर पाए हैं। देश चलाने की काबिलियत और कानून-व्यवस्था के अंतर्गत जीने की सलाहियत पाने में अभी वर्षों लगेंगे।’’ वर्षों बीत गए लेकिन लगता है कि वह काबिलियत अब तक हम अपने अंदर विकसित नहीं कर पाए हैं और निश्चित रूप से इसी ‘‘अविकास’’ का परिणाम है आज सुबह की यह बर्बर घटना। हैदराबाद दिशा बलात्कार तथा हत्याकांड के आरोपियों का हैदराबाद पुलिस द्वारा किया गया एनकाउंटर। एक सभ्य समाज पर यह भी उतना ही बड़ा सवाल है, जितना बड़ा दिशा हत्याकांड और बलात्कार की घटना। और उससे भी शर्मनाक है मीडिया में आ रही रपट की इस पर देशभर में जमकर तालियां बजाई जा रही हैं।
एक वाकया याद आ रहा है, जो लगभग हर दिन की कहानी है और हम सब इससे रू-ब-रू कभी न कभी होते हैं। छोटा बच्चा जो पूरी तरह से अपने रखवालों पर निर्भर होता है, अपनी मासूम चंचलता जो उसका प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक गुण होता है, और जिसे आसानी से तो बदला नहीं जा सकता,अपने रखवालों की लापरवाही के कारण गिर जाता है और दर्द से बिलबिला उठता है। उसका रखवाला उसे गोद में उठाकर पुचकारता है, बच्चा चुप नहीं होता, रोता ही जाता है, रखवाला एक चॉकलेट देता है और बच्चा अपना दर्द भूलकर चॉकलेट में मगन हो जाता है। उसका रोना बिलबिलाना एकदम से थम जाता है और अपने रखवाले के लिए वह तालियां बजाने लगता है। ये बेहिसाब तालियां भारतीय जनता के उसी मानसिक स्तर का परिचायक है।
हैदराबाद की एक युवती, नाम मैं नहीं लूंगी क्योंकि भारतीय कानून इसकी इजाजत नहीं देता, रात में घर लौट रही होती है। उसका बलात्कार होता है। गैंगरेप कथित तौर पर इसमें चार लोग शामिल थे। हालांकि संख्या बताना लगभग नामुमकिन है, क्योंकि पीड़िता अब कुछ भी बताने की हालत में नहीं है। और कानून के हिसाब से अनुसंधानकर्ताओं ने अब तक इसका पुख्ता साक्ष्य अदालत में पेश नहीं किया है कि वही चार लोग इस बलात्कार और हत्याकांड में शामिल थे या फिर वही चार लोग इसमें शामिल थे।
खैर, संख्या महत्वपूर्ण है भी नहीं। असल त्रासदी यह है कि स्त्री अस्मिता की धज्जियां उड़ाई गई। इंसानियत शर्मसार हुई और कानून के चिथड़े-चिथड़े उड़े। और यह सबकुछ बहुत इत्मीनान से हुआ। बलात्कारियों को किसी भी तरह के विघ्न-बाधा का सामना नहीं करना पड़ा। यह सिर्फ भावनात्मक बातें नहीं हैं। इसके पुख्ता सबूत सबके सामने हैं। एक के बाद एक इंसानी मुखौटे में छिपे दरिंदों ने उस युवती के साथ बलात्कार किया और उस दौरान हैदराबाद पुलिस की एक भी पेट्रोलिंग टीम उधर से नहीं गुजरी। यहां एक तर्क दिया जा सकता है कि बलात्कारियों ने युवती के मुंह में कपड़ा ठूंस दिया होगा या किसी अन्य उपाय से उसका मुंह बंद कर दिया होगा, ताकि उसकी चीख किसी को सुनाई न पड़े।
चलिए मान लेते हैं कि ऐसा ही हुआ होगा। लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि एक व्यस्क मानव शरीर को जलने में सेकेंड या मिनट नहीं लगते, घंटों लगते हैं। मानव शरीर जब जलता है तो उसके कई अंग बहुत तेज आवाज के साथ फटते हैं, जो लगभग विस्फोट जैसा ही होता है। आग की लपटें छिपाने से भी नहीं छिप सकती हैं। पेट्रोल डालने से आग की लपटें कई गुणा तेज हो जाती हैं। शर्मनाक है कि उन घंटों में भी पुलिस की एक भी पेट्रोलिंग टीम उधर से नहीं गुजरी। कितनी दूरी थी पेट्रोलिंग टीम की कि आरोपियों को जलती हुई युवती की चीखें सुनाई पड़ी और उन्हें भान हुआ कि जिस स्त्री को वे मरा हुआ समझ रहे थे, दरअसल वह जिंदा थी, लेकिन पुलिस की पेट्रोलिंग टीम को सुनाई नहीं पड़ा। अब यह कहने की आवश्यकता तो कतई नहीं है कि जिंदा जलती हुई युवती अपनी पूरी ताकत से चीख रही होगी न कि मधुर स्वर में या धीमी आवाज में कि किसी को सुनाई न पड़े,वह भी रात के सन्नाटे में, सुनसान स्थान पर या उसके इर्द-गिर्द। रात के सन्नाटे में आवाज का आलम तो यह होता है कि पति-पत्नी भी जब आपस में बात करते हैं तो इसका ख्याल रखते हैं कि आवाज बेहद धीमी हो ताकि बगल के फ्लैट में न जाए।
लेकिन समाचार में पुलिस सूत्रों द्वारा दी गई इस जानकारी को पढ़ने और सुनने के बावजूद पुलिस प्रशासन से यह सवाल पूछना किसी ने भी लाजिमी नहीं समझा। मानव अंगों के वे विस्फोट जो श्मशान को थर्रा देते हैं और ताज्जुब यह है कि उस क्षेत्र में रात में गश्ती के लिए तैनात पुलिस बल के कानों तक यह चीख की आवाज नहीं पहुंची। यह भी नहीं पूछा गया कि आग की लपटें उन्हें क्यों नहीं दिखी। कहां सो रहे थे कानून के रखवाले… आज सुबह अचानक उनकी नींद खुली और उन्होंने चार आरोपियों को, अब तक जिनका जुर्म साबित तक नहीं हुआ था और भारतीय संविधान जो देश की सर्वोच्च सत्ता है, के अनुसार जिन्हें अपराधी कहने तक की कानूनी इजाजत अभी नहीं थी, पुलिस ने उनका एनकाउंटर कर दिया। कहीं ऐसा तो नहीं कि पुलिस किसी को बचाने की कोशिश कर रही है। या फिर खुद को। हो सकता है कि उसे इस बात का डर रहा हो कि अदालत में जब मामला जाए तो यह स्पष्ट हो जाए कि पुलिस ने अपने ऊपर से दबाव हटाने के लिए ऐसे ही चार बेगुनाहों को पकड़ लिया है। हाल ही में उत्तर प्रदेश पुलिस ऐसा कर चुकी है। इसका जिक्र अभी बाद में करेंगे। इसके अलावा यह भी एक संभावना है कि इन चारों के अलावा कोई बड़ा रसूखदार व्यक्ति भी इस बलात्कार और हत्याकांड में शामिल हो, जिसे बचाने के लिए पुलिस ने उन चारों को खत्म कर दिया हो।
यह बातें इसलिए भी गौरतलब है क्योंकि जब तक भारतीय अदालत में किसी आरोपी पर लगा आरोप साबित नहीं हो जाता है और अदालत उसे दोषी करार नहीं देती है, तब तक वह सिर्फ आरोपी है, अपराधी नहीं। उसे अपराधी कहना गैरकानूनी है। क्योंकि सिर्फ आरोप लगा देने से कोई अपराधी नहीं हो जाता है। हैदराबाद केस में पीड़िता की मौत ने इस केस को बेहद पेचीदा बना दिया था। क्योंकि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की पीड़िता अपराध के बारे में कुछ भी बताने के लिए इस दुनिया में नहीं है। उसका एक बयान तक रिकॉर्ड नहीं है। अपराधियों की शिनाख्त करने के लिए घटनास्थल पर किसी और की मौजूदगी का अभी तक कोई पता नहीं चला है। यानी दुर्भाग्य की पराकाष्ठा यह है कि इस अपराध का न तो कोई चश्मदीद गवाह है और न ही कोई अन्य गवाह। ऐसे में सिर्फ परिस्थितिजन्य साक्ष्यों का ही सहारा होता है। अतएवं कानूनी प्रक्रिया के तहत हर परिस्थितिजन्य साक्ष्य को अभिलेख यानी रिकॉर्ड पर लेना और उसका सूक्ष्म एवं गहन विश्लेषण करना अतिआवश्यक था।
फोरेंसिक टीम और अन्वेषण अधिकारी की धैर्यपूर्वक पूरी ईमानदारी से सूक्ष्म व गहन विश्लेषण ही इस मुकदमे में पीड़िता व पूरे समाज को न्याय दिलवाने का एकमात्र जरिया था। गौरतलब है कि भारतीय कानून इस तरह के आपराधिक मामले को सिर्फ पीड़िता के साथ अपराध कारित होना नहीं मानता है, बल्कि पूरे राज्य के साथ अपराध कारित होना मानता है, यहां राज्य का अर्थ राजनीतिशास्त्र के अनुसार, राज्य की परिभाषा के तहत आता है। इसके तहत भारतीय संविधान का क्षेत्राधिकार आता है, भारत की सार्वभौम सत्ता का क्षेत्राधिकार आता है, न कि बोलचाल की भाषा या आम तौर पर प्रयुक्त अर्थ के अंतर्गत आने वाला राज्य या प्रांत।
इस अर्थ में देखें तो इस अपराधिक घटना की गंभीरता स्वतः स्पष्ट है। किसी भी अपराध को साबित करने की कानूनी प्रक्रिया में सबसे अहम और सबसे पहली प्रक्रिया है अन्वेषण। अन्वेषण अधिकारी जिसे आम तौर पर आई. ओ. कहते हैं की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि उसके द्वारा जुटाये गए साक्ष्यों और उन साक्ष्यों के विश्लेषण और समर्थन में जुटाये गए साक्ष्यों और गवाहों के आधार पर ही आरोप पत्र व अंतिम रिपोर्ट अदालत में सौंपा जाता है और इसी के आधार पर सार्वजनिक अभियोक्ता यानी पब्लिक प्रोसीक्यूटर अदालत में ‘राज्य’ की तरफ से मुकदमा लड़ते हैं। मुख्य रूप से अदालत इन्हीं साक्ष्यों और गवाहों की विश्वसनीयता की जांच करती है और इस जांच में साक्ष्य और गवाह कितने खरे उतरते हैं, यह तय करता है कि आरोप महज आरोप हैं या कारित अपराध। और यह भी कि आरोपी महज आरोपी हैं या अपराधी।
अब एक नजर इस कानूनी प्रक्रिया के आलोक में हैदराबाद केस पर डालते हैं। हैदराबाद में बलात्कार और बलात्कार के बाद हत्या का अपराध कारित हुआ, इसमें कोई संदेह नहीं। अपराधी रात के अंधेरे और सन्नाटे का फायदा न उठा पायें, इसकी जिम्मेदारी पुलिस पर है और इसीलिए रात में पुलिस गश्ती दल की व्यवस्था की गई है। पुलिस अपनी यह जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रही, यह स्पष्ट है। अब अगला पड़ाव था, प्राथमिकी दर्ज करने का, वह पुलिस ने किया और आनन-फानन में चार लोगों को आरोपी बताकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। यहां गंभीर सवाल यह है कि क्या इन चारों आरोपियों ने सचमुच इस घटना को अंजाम दिया था या पुलिस ने बढ़ रहे दबाव के कारण किसी को भी आरोपी बना कर खानापूर्ति कर दी, ताकि पुलिस प्रशासन पर उठ रहे सवाल और बन रहे दबाव खत्म हो जाएं या कम से कम, कम हो जाएं। बताने की जरूरत नहीं है कि हमारे देश भारत में ऐसा होता रहा है और इसके अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं।
यहां उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश की हाल के एक बलात्कार कांड पर नजर दौड़ाई जा सकती है। आपको याद होग बुलंदशहर में एनएच-91 पर 29 जुलाई-2016 को नोएडा की कार सवार मां-बेटी के साथ गैंगरेप हुआ था। देशभर में इसकी गूंज हुई तो पुलिस पर आरोपियों को पकड़ने का दवाब बना। आनन-फानन में 9 अगस्त को बुलंदशहर पुलिस ने सलीम, परवेज और जुबैर नाम के तीन युवकों को इस बलात्कार का आरोपी बनाकर गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इस केस की जांच सीबीआई को दी। सीबीआई ने भी इन्हीं तीनों को आरोपी बनाकर चार्जशीट कोर्ट में दाखिल कर दिया। इस बीच 13 सितंबर 2017 को हरियाणा की क्राइम ब्रांच ने एक्सल गैंग के 7 लोगों को गिरफ्तार किया तो खुलासा हुआ कि इस गैंगरेप में वे शामिल थे और ये तीनों लड़के निर्दोष थे। पुलिस ने सिर्फ यह साबित करने के लिए उन्हें पकड़ लिया था कि हमने त्वरित कार्रवाई करते हुए आरोपियों को पकड़ लिया है।
एक्सल गैंग के इन लड़कों का हरियाणा पुलिस ने जब पीड़िता के शरीर से मिले स्पर्म से मिलान कराया तो वह मैच हो गया। तब यह तय पता चला कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने वाहवाही लूटने के लिए तीन निर्दोषों को जेल भेज दिया था। मतलब यह कि अगर उत्तर प्रदेश पुलिस त्वरित न्याय के नाम पर उन तीनों का एनकाउंटर कर देती तो तीन बेगुनाह इस त्वरित न्याय की बलिवेदी पर चढ़ चुके होते।
इसलिए ये चारों आरोपी सचमुच अपराधी थे या नहीं इस कसौटी पर उन्हें परखने की बारी अब अन्वेषण अधिकारी की थी और उसके बाद अदालत की। अन्वेषण अधिकारी का फर्ज था कि वह अधिक से अधिक साक्ष्य, परिस्थितिजन्य ही सही जुटाये और दूध का दूध और पानी का पानी करे। अगर ऐसा होता तो पूरे देश में बहुत ही महत्वपूर्ण संदेश जाता कि अपराधी पीड़ित को मिटा ही क्यों न दे, हमारे कानून और कानून के संरक्षक उसे उसकी कानूनी नियति तक पहुंचाकर ही दम लेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गैरकानूनी कृत्य के जवाब में एक और गैरकानूनी कृत्य को अंजाम दिया गया, वह भी अपराध साबित हुए बिना। इसे कबीलाई संस्कृति भी नहीं कह सकते, क्योंकि कबीलाओं में भी सुनवाई की जाती थी और अपराध साबित होने के बाद ही आंख के बदले आंख या मौत के बदले मौत की सजा सुनाया जाता था। इसकी तुलना सिर्फ जंगलराज से हो सकती है, जहां बड़ा जानवर छोटे जानवर का शिकार करता है। यानी परिस्थितियां चाहे जो भी हों, शिकार शेर ही हमेशा हिरण का शिकार करेगा। हिरण कभी शेर का शिकार नहीं कर सकती। जिसकी लाठी उसकी भैंस कि तर्ज पर मजबूत कमजोर के साथ जब चाहे जो चाहे करे, जब चाहे मार डाले। पीड़िता उन बलात्कारियों के सामने कमजोर थी, तो उन्होंने जो चाहा, किया और मार डाला। न इंसानियत के तकाजे का ध्यान में रखा और न ही न्याय का। पुलिस गिरफ्त में वे चारों आरोपी कमजोर थे और पुलिस मजबूत तो पुलिस ने जो चाहा वही किया और जब चाहा मार डाला।
कानून की पढ़ाई के दौरान बार-बार यह पढ़ाया जाता है कि कोई कानून उचित है या अनुचित इसकी कसौटी ‘‘लॉ ऑफ नेचर’’ यानी प्राकृतिक कानून है। कानून राष्ट्र का हो या अंतरराष्ट्रीय, उसे प्रकृति के कानून की कसौटी पर खरा उतरना ही होगा, तभी वह न्यायहित में होगा। जाहिर है कानून के संरक्षक या उनके कृत्य न्याय हित से बड़े नहीं हो सकते। और गैरकानूनी कृत्य चाहे किसी का भी हो, वह न्याय के इतिहास में काले अक्षरों से ही लिखा जाना चाहिए। इस मामले में उन आरोपियों को अपना पक्ष रखने का मौका न मिलना और बिना अपराध साबित हुए उनके लिए गैरकानूनी तरीके से पुलिस या पब्लिक द्वारा फैसला सुना देना न्यायहित में तो नहीं ही है, भारत के संविधान के बुनियादी ढांचे के भी खिलाफ है। इसके लिए माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी केशवानंद भारती केस तथा अन्य कई मौकों पर स्पष्ट कहा है कि संसद पूरे संविधान को बदल सकती है, लेकिन उसके बुनियादी ढांचे को रत्ती भर भी नहीं। यह मानवाधिकार, मौलिक अधिकार और लॉ ऑफ नेचर के भी खिलाफ है। और यही वे पहलू हैं, जो जंगलराज और न्याय के शासन में अंतर स्पष्ट करते हैं।
इसलिए इसका जश्न मनाना भी घृणित है। क्योंकि जब जनता ऐसे कृत्यों का विरोध नहीं करती तो वह दबे पांव आ रहे फासिज्म की आहट को सुन नहीं पाती। पुलिस के इस कृत्य का विरोध के बदले स्वागत होना तो कम से कम यही बताता है। दबे पांव आ रहे फासीवाद के इस आहट को सुनकर हमें चौकन्ना हो जाना चाहिए। और उन पुलिसियों के खिलाफ सख्त कार्यवाई की मांग करनी चाहिए। इसकी एक वजह यह भी है कि अगर पुलिस की हिरासत से वह थोड़ी देर के लिए भी भाग निकलने में कामयाब हुए थे तो वह भी पुलिस की ही लापरवाही है।
यहां यह भी सच है कि रेप पीड़िताओं को या अन्य पीड़ित व्यक्तियों को इंसाफ मिलना चाहिए, लेकिन पूरी कानूनी प्रक्रिया का पालन कर अदालती इंसाफ के जरिये ऐसा होना चाहिए। हां, त्वरित न्याय के लिए हत्या-बलात्कार जैसे संगीन अपराधों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में हो ऐसी व्यवस्था के बारे में बात की जा सकती है, लेकिन पुलिस मुंसिफ बन जाए यह कहीं से उचित नहीं।
-प्रतीकात्मक चित्र google से साभार