दरअसल हम उम्मीदों के मुरीद हैं। यही आशाएँ हमारा साहस और सम्बल हैं । भिन्न-भिन्न आशाएँ भिन्न-भिन्न जश्न और उसके अवसर। जैसे नए साल का जश्न, जिसका हमेशा ही एक सार्थक और बेहतर मानवीय बदलाव की उम्मीद के साथ स्वागत किया जाता रहा है किंतु कलेंडर बदलने से ज़्यादा कितना कुछ, क्या और कैसा, दृष्टिगोचर होता रहा इसे भी देखा और समझा जाता है । बावजूद इसके एक बार फिर उम्मीद है उन्नीस से बीस के बदलाव के साथ कुछ उन्नीस-बीस के बदलाव की ।
उन्नीस-बीस के बदलाव की उम्मीद का जश्न॰॰॰
हम उत्सव धर्मी देश भारतियों को बस कोई बहाना चाहिए उत्सव के लिए। बहाना कोई ख़ुद आ जाए नहीं तो हम अवसर खोज लेने में भी कम माहिर नहीं हैं। कोई राष्ट्रीय या सामाजिक पर्व या त्यौहार हो नहीं तो जन्म से लेकर मृत्यु तक॰॰॰॰, भाई कई दफ़ा तो मृत्यु का भी जश्न हो जाता है जब कोई लम्बी आयु पा जाने के बाद मरता है।
हमें जश्न के लिए जीवन में बदलाव ला देने वाले किसी ख़ास कारण या कारक की आवश्यकता नहीं होती बल्कि कई बार तो अनायास ही चार दोस्तों के इकट्ठा मिल जाने पर भी जश्न हो जाता है। राजनैतिक घटनाक्रमों और बयानों पर भी खूब जश्न होते हैं फिर चाहे वह किसी ऐसे नेता का ही बयान क्यों न हो जिसका हमारी संसद या विधायिका में कोई वजूद ही न हो। अच्छा इस बात को हमारे राजनेता भी बखूबी समझते हैं इसीलिए वे भी कुछ और करें न करें वक़्त-बेवक्त, चाहे-अनचाहे बयान ज़रूर देते रहते हैं। ख़ासकर तब, जब सरकारें कुछ सार्थक रूप से ज़मीनी काम नहीं करतीं उसके नेता बयानबाज़ी खूब करते हैं । वे हमारी फ़ितरत अच्छे से जानते हैं कि हमें ग़रीबी, बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थय एवं अन्य मूलभूत सुविधाओं की पूर्ति से ज़्यादा जश्न के अवसर चाहिए ।
हमारी जश्नफ़रोसी का आलम तो यह है कि बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दबाव में छोटा व्यापारी मुहाल है और वह इस ग़म को जश्न में गर्त कर रहा है। जवान पढ़े-लिखे बच्चों को नौकरी नहीं मिल रही, तो हम अपने दोस्तों के साथ इस दुखड़े को सुनाते सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुए जश्न में हैं । ज़िंदगी का कोई सुख या दुःख हमारे जश्न मनाने की आदत को प्रभावित नहीं कर पाता बल्कि हम एक दूसरे को कोरा साहस देते और लेते हुए ज़िंदगी का साथ निभाए जा रहे हैं । साहिर लुधियानवी ने अपने एक गीत में भी तो यही कहा था –
“मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया,
हर फ़िक्र को धुएँ में उढ़ाता चला गया
बरवादियों का सोग मनाना फ़जूल था
बरवादियों का जश्न मनाता चला गया।
अक्सर हम कहते और सुनते हैं कि जश्न मनाने के लिए किसी ऐसे अवसर की ज़रूरत नहीं होती जिससे हमें कुछ प्राप्त ही हो । हम ऐसा कहते और सुनते ही नहीं हैं करते भी हैं बिना यह सोचे समझे कि जिस बात या घटना पर हम जश्न मना रहे हैं उसका हमारे जीवन पर कुछ अच्छा या बुरा फ़र्क़ भी पड़ा है ? मसलन जब हमारी पिछली पीढ़ियों से अब तक कोई कश्मीर जाने का किराया तो जुगाड़ नहीं पाया, तब हम वहाँ क्या ख़ाक ज़मीन ख़रीदेंगे ? लेकिन ३७० हटने पर जश्न मनाएँगे । अयोध्या में श्री राम का विशाल मंदिर बने न बने, फ़ैसला आ गया तो जश्न, ‘बनेगा विशाल मंदिर’ बयान आ गया तो जश्न, और तो और जिसने पड़ोस की मस्जिद में कभी झांक कर नहीं देखा वह भी जश्न में डूबा है इस बात पर कि अयोध्या में पाँच एकड़ ज़मीन मस्जिद बनाने को दी गई।
विविधताओं से भरपूर हमारे देश की तरह ही हमारे जश्नों में भी खूब विविधता होती है । भिन्न-भिन्न समय और घटनाओं पर हमारे जश्न का स्वरूप भी भिन्न होता है । एक दूसरे के लिए प्रयुक्त विषैली भाषा-भाषणों के समय में भी, हम अजीव गर्वीले जश्न में होते हैं तो कभी-कभी साम्प्रदायिक घटनाओं के वक़्त एक दूसरे का खून बहाते हुए भी हम जश्न से नहीं चूकते । इंतिहा तो यह है कि खाप के नाम पर अपनों का ही क़त्ल करके हम जश्न का अनुभव करते हैं। असम में एन आर सी हुई लाखों लोग घर से बेघर हैं हम जश्न में हैं, पूरे देश में एन आर सी लाने की बात करके । सी ए ए के नाम पर अलग-अलग हितसाधन का जश्न, कहीं किसी के दुःख का जश्न है, तो कहीं ख़ुद की ख़ुशी का जश्न॰॰॰॰
दरअसल हम उम्मीदों के मुरीद हैं। यही आशाएँ हमारा साहस और सम्बल हैं । भिन्न-भिन्न आशाएँ भिन्न-भिन्न जश्न और उसके अवसर। जैसे नए साल का जश्न, जिसका हमेशा ही एक सार्थक और बेहतर मानवीय बदलाव की उम्मीद के साथ स्वागत किया जाता रहा है किंतु कलेंडर बदलने से ज़्यादा कितना कुछ, क्या और कैसा, दृष्टिगोचर होता रहा इसे भी देखा और समझा जाता है । बावजूद इसके एक बार फिर उम्मीद है उन्नीस से बीस के बदलाव के साथ कुछ उन्नीस-बीस के बदलाव की । इसी आशा में एक बार फिर प्रेम और मोहब्बत के साथ शुभकामनाएँ देते हैं॰॰॰॰॰॰ और आइए २०१९ को विदा कर २०२० का जश्न मनाते हैं ।
- प्रदर्शित चित्र google से साभार