इधर कविता की एक ताज़ी दुनिया बन रही है। कुछ समकालीन कवि पूरी तैयारी के साथ आ रहे हैं। 'कविता शब्दों का खेल है'- इस धारणा में बहुत खेला कूदा गया और यह खेल अभी भी जारी है। यह ताज़्ज़ुब करता है कि भाषा कला और साहित्य की ओर से अपनी आँख बंद किए हुए समाज में जहाँ पाठकों की संख्या हाशिये पर जा रही है वहीं लेखकों की संख्या में थोकिया इजाफा हुआ है, खासतौर से कवियों की संख्या में। लिख सब रहे हैं - पढ़ कोई नहीं रहा। पाठकीय क्षेत्र में वस्तु-विनियम का सिद्धांत लगा हुआ है। आप मेरी पढ़ें और मैं आपकी। आत्म चर्चा की ऐसी बीमारी पकड़ी है कि पूछिये मत। इस बिलबिलाई हुई कवियों की भीड़ ने अच्छे कवियों को ढँक लिया है। वैश्विक स्तर पर हिंदी कविता की क्या स्थिति है, इससे हम अनभिज्ञ नहीं हैं। ऐसे में आलोचना की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह इस भीड़ से अच्छे कवियों को बाहर निकालकर समाज के सामने प्रस्तुत करे।
इधर कविता की एक ताज़ी दुनिया बन रही है। कुछ समकालीन कवि पूरी तैयारी के साथ आ रहे हैं। 'कविता शब्दों का खेल है'- इस धारणा में बहुत खेला कूदा गया और यह खेल अभी भी जारी है। यह ताज़्ज़ुब करता है कि भाषा कला और साहित्य की ओर से अपनी आँख बंद किए हुए समाज में जहाँ पाठकों की संख्या हाशिये पर जा रही है वहीं लेखकों की संख्या में थोकिया इजाफा हुआ है, खासतौर से कवियों की संख्या में। लिख सब रहे हैं - पढ़ कोई नहीं रहा। पाठकीय क्षेत्र में वस्तु-विनियम का सिद्धांत लगा हुआ है। आप मेरी पढ़ें और मैं आपकी। आत्म चर्चा की ऐसी बीमारी पकड़ी है कि पूछिये मत। इस बिलबिलाई हुई कवियों की भीड़ ने अच्छे कवियों को ढँक लिया है। वैश्विक स्तर पर हिंदी कविता की क्या स्थिति है, इससे हम अनभिज्ञ नहीं हैं। ऐसे में आलोचना की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह इस भीड़ से अच्छे कवियों को बाहर निकालकर समाज के सामने प्रस्तुत करे। 'कविता-आजकल' इसी तरह का एक प्रयास है। इस कड़ी में हम इस बार दो समकालीन कवि सोमप्रभ और विनोद विट्ठल की कविताओं पर चर्चा करेंगे। इन दोनों ही कवियों से मेरा साबका हमारे समय की चर्चित पत्रिका 'बनास जन' के माध्यम से हुआ।
बनास जन के 32वें अंक में सोमप्रभ की चार कविताएं छपी हैं जिनमें से दो कविताओं ('महाउजाड़ है पृथ्वी' और 'कमीना पड़ोसी') की चर्चा यहाँ कर रहा हूँ।
सोमप्रभ की कविता 'महाउजाड़ है पृथ्वी' के आखिरी अंश पर जरा ध्यान दें -
तोप को सितार की तरह बजाना/ बंदूक की नली को बांसुरी में बदलना-
ओह! ये है एक कवि। आप फूलों को रौंद सकते हैं, वसंत को आने से रोक नहीं सकते। जिस खतरनाक वस्तु से दुनिया के तानाशाहों ने मानवता को कई बार खत्म करने का प्रयास किया है और अभी भी कर रहे हैं, जिसकी बदौलत मानवता को विश्वयुद्ध की विभीषिका झेलनी पड़ी, जिसकी वजह से आज भी हमारी दुनिया खौफ के साए में सहमी सी रहती है - यह कवि उन्हीं हथियारों को संगीत के साज़ों में तब्दील कर देना चाहता है।
दूसरे, इसमें एक अंश है-
'जब रात के दूसरे पहर में टूटकर नींद फिर नहीं आती है
तब बसंत गाने का मन करता है
कंठ से आवाज नहीं निकलती'
- अब ध्यान देने वाली बात यह है कि अगर आपको संगीत की थोड़ी-सी जानकारी हो तो आपको पता होगा कि राग बसंत में तार सप्तक का षड्ज वादी होता है और पूरा राग ऊपरी सप्तक पर ही तान कर गाया जाता है। अपनी भीतरी टीस को कवि राग बसंत में गाना चाहता है- राग यमन में नहीं, खम्माज में नहीं, और न ही काफी में। कवि ने चुना तो राग बसंत। उत्सव, मुक्ति, स्वतंत्रता का राग- राग बसंत। इस खूबसूरत कल्पना की जितनी तारीफ की जाए, कम होगी।
कवि की दूसरी कविता 'कमीना पड़ोसी' में अपनी परिस्थितियों से चिढ़ा हुआ, अपनी स्त्री को पीटता एक हिंसक मर्द है, एक औरत है जो रोज नौ बजे पिटने के बावजूद 'सारा दिन गंदे कपड़ों के पहाड़ में घुसी रहती है' और बच्चे हैं जो माँ को पिटते हुए देखकर रोते हैं। उफ़! ऐसा लगता है जैसे कवि ने उस पूरे सिस्टम को कविता में रख दिया है जिससे हमारा साबका रोज़ होता है-
8 बजते- बजते रसोई की आवाजें बंद हो जाएँगी
9 बजे वह वापस लौटेगा और पत्नी को पीटेगा
बच्चे जोर-जोर से चीखेंगे
फिर टीवी चलेगी और वह सो जायेगा
सब शांत हो जायेगा
और तब उसके रोने की आवाज़ रह-रहकर आती रहेगी
- जहाँ तक मैं समझ पा रहा हूँ, कवि हमें उस भयानक आदत की ओर इशारा कर रहा है जो हमारे समाज को लग चुकी है और इस आदत को छोड़ने के लिए कोई गम्भीर सामाजिक प्रयास भी नहीं है।
दरअसल घरेलू हिंसा के पीछे देश के अर्थतंत्र की बड़ी भागीदारी होती है। आप आंकड़े उठा कर देख सकते हैं कि जब भी कोई देश आर्थिक मंदी के दौर से गुजरता है तब वहाँ स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार बढ़ जाते हैं। और हमारे देश की अर्थव्यवस्था की हालत 'सड़क पर पड़ी हुई कुतिया' की तरह है जिसपर किसी का ध्यान नहीं। हम जैसे उसकी तरफ से विमुख हैं वैसे ही घरेलू हिंसाओं की तरफ से। इन दोनों ही मामलों में हम बिल्कुल सहज हैं, इतने आदी हैं कि हमें फर्क ही नहीं पड़ता है।
विनोद विट्ठल जी हिंदी कविता की नई उपलब्धि हैं। वर्ष 2018 में बनास जन की ही एक कविता पुस्तिका (पृथ्वी पर दिखी पाती) द्वारा विनोद जी की कविताओं से मेरी भेंट हुई।
न सूँघ कर खुशबू को
न देख कर दृश्यों को बचाया
जैसे न बोल कर सन्नाटे को
एकांत को किसी से न मिल कर
- वाह! विनोद जी बहुत शानदार लिख रहे हैं। क्या लिख रहे हैं? धरती, पानी, हवा, खुशबू, जंगल, बसंत, पहाड़, संगीत, प्रेम और हमें लिख रहे हैं। वो यहीं नहीं रुकते, उन असंभव सम्भावनाओं को भी लिख रहे हैं जो केवल एक भाषा पारखी ही से सम्भव है। अब इस कविता को ही लें। मेरी जगह शमशेर होते तो कहते कि 'कवि घंघोल देता है'- कवि ने घंघोल दिया है दरअसल। उसने कई दर्पणों के जल हिला मिला दिए हैं और हमें गंभीर कर दिया है।
'न सूँघ कर खुशबू को बचाना' इस प्रयास को लिखित रूप में तो मैंने पहली बार यहीं पाया है लेकिन इस भाव से आप और हम बिल्कुल परिचित होंगे। याद करिये। मैं भी करता हूँ। बचपन याद आता है। गांव वाले घर के बाहर अड़हुल का पेड़ था। पिता भोर में उठ जाते और पूजा आदि के लिए अड़हुल का फूल तोड़ लाते लेकिन इतनी सावधानी से छुपा कर रखते थे कि कहीं कोई सूँघ न ले वर्ना फूल देवता की अर्चना योग्य नहीं रह जाते। यह जो 'सब-कुछ को बचाने के लिए' कवि का प्रयास है वह पोलिश कवि चेस्लाव मीलोष के- संसार का अस्तर देखूँगा- जैसा प्रयास लगता है।
इसके अलग भी, देखिए ज़रा कवि की परिपक्व मासूमियत। प्रेम के लिए वह खुशबू, दृश्य, सन्नाटे और एकांत को बचाना चाहता है ताकि इस बचाए हुए को अपने प्रेम के साथ ही शेयर कर सके। पिताजी को कभी कोई मिठाई बाहर अकेले खाते हुए नहीं देखा-सुना। वो अक्सर तनख्वाह मिलते ही जलेबी बाजार से खरीद कर घर लाते और हम बच्चों के साथ बच्चों की तरह खाते। संवेदनशील व्यक्ति अक्सर अपनी छोटी छोटी ख़ुशी को बचा लेता है जिसे वो अपने प्रेम, अपने परिवार आदि के साथ बाँट सके। कवि के यहाँ इस तरह के छोटे-छोटे सुखों का सामंजस्य बहुत है।
विनोद जी भाषा के मंझे हुए साधक हैं। उनकी कविता 'इसी तरह' से दो उदहारण आपके सामने हैं-
(1)
वे होते हैं सभ्यता के सबसे भारी दिन
जब दिन कम हवा की पुरानी साइकिल की तरह
थका देते हैं सवार को
रास्ता अपनी लंबाई के हार्मोन कहीं से चुरा लाता है।
(2)
एक पुराना प्रेमी समय की सन्दूक से निकालता है कुछ क्षण
और उन्हें अकेले कमरे में पहनता है
कोई कविता लिखता है।
- इसके अलावा, विनोद जी की कविताएं 21वीं सदी के नए आदमी के भीतरी मनोवृत्तियों की पड़ताल करती हुई कविताएं भी हैं। सोशल मीडिया और बाजार में गुम हो गए इस आदमी के सुराख़ विनोद जी की कविताओं में बखूबी दिखलाई पड़ते हैं-
(1)
'पुरानी फिल्मों में प्रेमपत्रों का किया जाता था इस्तेमाल जैसे
आज के जमाने में स्क्रीन शॉट कह लो'
(स्टिकी नोट)
(2)
जिंदगी के एटीएम पर अपने पासवर्ड खो चुके दिमाग के साथ खड़ा होगा वह
उसका अपना ही मोबाइल फोन इनकार कर देगा उसके अंगूठे के निशान को पहचानने से।
(अड़तालीस साल का आदमी)
(3)
दर्ज करो इसे
कि अलीबाबा को बचा लेंगे जैकमा और माइक्रोसॉफ्ट को बिल गेट्स
राम को अमित शाह और बाबर को असदुद्दीन ओवैसी
किलों को राजपूत और खेतों को जाट
टीम कुक बचा लेंगे एप्पल को जैसे जुकरबर्ग फेसबुक को
तुम खुद उगो जंगली घास की तरह इटेलियन टाइलें तोड़ कर
और लहराओ जेठ की लू में लहराती है लाल ओढ़नी जैसे!
(लैटरबॉक्स)
- इन कविताओं को पढ़कर लगता है जैसे कविता में अभिव्यक्ति के इस नयेपन के साथ खड़े विनोद जी भविष्य में हिंदी साहित्य के इनसाइक्लोपीडिया में एक महत्वपूर्ण अध्याय होंगे।