हमरंग के संपादक कथाकार हनीफ़ मदार, फ़िल्मकार एम० गनी एवं शिक्षक, रंगकर्मी एम० सनीफ इन तीनों भाइयों के सामूहिक परिवार ने देश दुनिया के हालातों के मद्देनज़र ख़ुशी और उल्लास के पर्व ईद को न मनाने का फ़ैसला किया है । इस संदर्भ की जानकारी देती हनीफ़ मदार की यह टिप्पणी ........ - अनीता चौधरी
खूब कोशिश कर रहा हूँ कि झटक दूँ सब कुछ और मनाऊँ ख़ुशी से ईद । लेकिन यक़ीन मानिए मन से, हर बार हार जा रहा हूँ और एक ही फ़ैसले पर जाकर ठहर जा रहा हूँ कि ईद नहीं मना सकता । क्यों.....? तो जवाब है ‘सर्वेस्वरदयाल सक्सेना’ की यह लाइनें —
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
महज़ देश ही नहीं दुनिया का इंसान बड़ी महामारी से घिरा है, ऊपर से नाकाफ़ी सरकारी प्रयासों को हम सब देख रहे हैं । अलग बात है, बाहरी तौर पर कुछ बोलें न बोलें किंतु हमारा ‘मैं’ सब देख, जान और समझ रहा है । लाख कोशिशों के बाद भी अपनी जान की परवाह किए बिना अभावों में भी इस महामारी से लोगों को बचाने में जुटे डॉक्टर उनके सहयोगी, नर्सें, सफ़ाई कर्मी एवं अन्य सरकारी ग़ैर सरकारी साथी दिन-रात जुटे हैं जो अपने परिवारों से मिल भी नहीं पा रहे..... ऐसे वक्त में यदि हमारी संवेदना जीवित है तब हम कैसे और किस उल्लास में ईद मनाएँ ?
इस कोरोना महामारी के साथ-साथ मज़दूरों का पलायन उनके दुःख-दर्द, बेवशी-लाचारी और अंत में जैसे निरंतरता लिए हुए उनकी मौतें..... उफ़्फ़ ।
माफ़ करें ऐसे वक्त में, जब, न केवल जागने से लेकर सोने तक ही बल्कि नींद में भी हृदय विदारक खबरें और मंजर सामने आ रहे हों तब ......... हमसे खुश न हुआ जाएगा ।
कुछ दोस्त लोग यह कह सकते हैं कि, ‘तुम न नमाज़ पढ़ो न रोज़े रखो तो तुम्हारे लिए यूँ भी ईद का क्या मतलब है ?’
तो, हाँ ! मैं नमाज़ नहीं पढ़ता । मैं रोज़े भी नहीं रखता किंतु वर्तमान वक्त में मेरा यह स्वीकरण मेरी क़ायरता भी नहीं है बल्कि यह मेरी वैज्ञानिक समझ और स्वेच्छा है । क्योंकि मैं जानता हूँ कि कहाँ कोई ख़ुदा इस भीषण बुरे वक्त में साथ आके खड़ा हुआ..? बावज़ूद इसके मैं अपनी इस समझ और स्वेच्छा को किसी पर थोपने या मंज़ूर करने, कराने का बिल्कुल भी हिमायती नहीं हूँ ।
मैं पूजा नहीं करता लेकिन होली खूब खेलता हूँ । मेरा, पूजा से कहीं ज़्यादा दिवाली की रोशनी और मिठाइयाँ खाते-खिलाते चेहरों पर उभरती ख़ुशियों में भरोसा है । ईद भी तो इन्हीं ख़ुशियों को अपनों, दोस्तों, पड़ोसियों, देश और दुनिया के साथ बाँटने का नाम है । फिर प्रेमी दोस्तों के बिना ईद कहाँ ? महज़ पेट भरना भर ही तो होगा फिर चाहे सिवइयों से या दाल रोटी से ।
जब भूखे चेहरे लगातार मोबाइल पर उभर रहे हों...... तब देश और दुनिया में उभरे इन हालातों में कैसे किसी उत्सव या उल्लास में डूबा जा सकता है फिर चाहे वह ईद ही क्यों न हो ।
निराश नहीं हूँ पूरी आशा है ‘वो सुबह कभी तो आएगी......!’ तब फिर से ईद भी होगी और दिवाली भी ।