सब अपने प्रसिद्धि की कब्र मरने की सीमा तक चाहते हैं लेकिन धरतीलोक व पाताललोक का वासी ज्यादातर जीने की सीमा तक अंतिम रूप से जीना चाहता है। हां महिला चाहे किसी लोक की हो वह अभी भी कम षड्यन्त्रकारी दिखती है अभी भी मातृत्व का भाव उसकी सुकोमलता व उसकी दया उसके जीवन का सबसे बड़ा स्पेस घेरती है।
स्वर्ग लोग में रहने वाले ही केवल स्वर्ग नही बनाते बल्कि उनके लिए पाताल लोक व धरती लोक के लोगों की जरूरत पड़ती ही है ! ठीक वैसे ही जैसे समूचे विश्व में महानगरों को स्वर्ग बनाने के लिए धरती व पाताल लोक के गरीब,मजदूर और कमजोर लोगों की जरूरत पड़ती है।
पाताल लोक नाम की यह वेब सीरिज स्वर्ग से पाताल लोक तक "सब मिले हुए हैं जी" की कहानी कहती है। एपिसोड दर एपिसोड अपने सस्पेंस और थ्रिलर को इसने ऐसे बरकरार रखा हुए है जैसे यमराज का भैंसा मरने वाले का नाम पता रखता हैं !
सत्ता,शक्ति और संपत्ति से सम्पन्न जो स्वर्गलोक बनेगा उसमें भी अंततः पाताललोक का ही 'जीन' काम करता है, यह सीरीज़ बखूबी उसको चित्रित करती है!
स्वर्ग की सीढ़ियां चढ़ने के लिए षड्यंत्र का चक्रव्यूह रचा जाना कोई नई बात नही रही! वैसे भी इंद्र का सिंहासन धरती या पाताललोक के साधारण मानव के तपस्या से हिल उठता है!
फिर क्या उस धरतीलोक के साधारण से इंसान की तपस्या भंग करने के लिए स्वयं स्वर्ग के राजा इंद्र भी एक षड्यंत्र रचने लगते थे, फिर लुटियन की क्या ही बिसात !
पत्रकार संजीव मेहरा हो या फिर मंत्री वाजपेई, बिल्डर हो या पुलिस के अधिकारी सभी स्वर्ग में रहने के लिए पाताल लोक व धरती लोक के लोगों को अपना मोहरा बनाते हैं और उसमें हाथीराम चौधरी जैसे पुलिसकर्मी की तपस्या इनके सिंहासन को हिला देती है!
कहानीकार ने यह बेहतर तरीके से बताया है कि इस 'लोक' की परिकल्पना को आकार देने में मुख्यतः प्रेम, करुणा, दया,घृणा, हिंसा-अहिंसा,डर,लालच जैसे भाव ही हैं, जो किसी को स्वर्ग-नरक में घुमाते रहते हैं।और यह भी कि हर स्वर्ग में रहने वाला इंसान उसके काबिल हो यह जरूरी भी नही!
हथौड़ा त्यागी का एक कुत्ते से प्रेम करना या फिर चिनी का अपने व अपने प्रेम के पाने की अभिलाषा में लिंग परिवर्तन की चाहत , या संजीव मेहरा की पत्नी के अंदर का मातृत्व सब कुछ थोड़े में ही लेकिन हमारे सोच को ठंडे से झकझोर देती है।
जाति और धर्म के माध्यम से हमारे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक चेतना पर छोटे छोटे दृश्यों से निर्देशक ने गहरा चोट किया है।हालांकि हिंसा के कुछ दृश्य विचलित करने वाले हैं और जातिगत हिंसा के विकृत प्रतिरूप को बलात्कार के माध्यम से ऐसा दिखाया गया है जो सीरीज देखने के कई दिन बाद तक आपके चेतना का हिस्सा बनी रहती है।
निर्देशन वाकई कमाल का है। एक क्राइम सीरीज़ के रूप में यह कई मायनों में अपने समय की अन्य सीरीजों से बेहतर है।इसका सबसे पहला श्रेय इसको लिखने वाले सुदीप शर्मा, सागर हवेली, हार्दिक मेहता,गुंजित चोपड़ा को जाता है।
पुलिस की भूमिका में जयदीप अहलावत (हाथीराम चौधरी) ने दर्शकों का दिल जीत लिया है और इसमें सबसे बड़ा योगदान निर्देशक अवनीश अरुण और प्रोसित रॉय और लेखकगण को भी जाता है।अमूमन पुलिस की भूमिका को या तो ओवर या अंडर रेट कर दिखाया जाता रहा है।निर्देशक और कहानीकार ने इस बात का बखूबी ध्यान रखा है कि पुलिस वाला कोई सुपरमैन नही है।सबकी अपनी सीमाएं है।
स्वर्ग का आदमी भी कैमरे में बने रहने को लेकर कितना उत्साहित है इसको बखूबी दिखाया गया है, कि संजीव मेहरा (नीरज कबी) जैसे पत्रकार को जब यह पता चलता है कि आईएसआई का उसको मारने की कोई योजना नही है, तब उसके भाव भंगिमा में जो अपने को कमतर समझने या होने की अकुलाहट दिखती है, वह स्वर्ग लोक के प्राणियों में होना अब आम है।
सब अपने प्रसिद्धि की कब्र मरने की सीमा तक चाहते हैं लेकिन धरतीलोक व पाताललोक का वासी ज्यादातर जीने की सीमा तक अंतिम रूप से जीना चाहता है। हां महिला चाहे किसी लोक की हो वह अभी भी कम षड्यन्त्रकारी दिखती है अभी भी मातृत्व का भाव उसकी सुकोमलता व उसकी दया उसके जीवन का सबसे बड़ा स्पेस घेरती है।
हथौड़ा त्यागी या ग्वाला गुर्जर या या फिर डीसीपी भगत सिस्टम में स्वर्गलोक के मोहरे की भूमिका में है जो स्वर्गलोक में अपने नाम का प्लाट खरीदने के चक्कर मे हमेशा नरक लोक के भावों के साथ ही जीते जाते हैं।
अमूमन सेक्स,हिंसा का चरम दिखाकर सीरीज़ को हिट बनाने की परंपरा से अलग यह बेहतर कहानी,मजबूत निर्देशन,उम्दा अभिनय एवं बेहतर तकनीकी, एडिटिंग एवं अच्छा बैकग्राउंड संगीत व कैमरे के कमाल से फ्रेम दर फ्रेम अपने को दर्शकों के मन-मस्तिष्क में उतार लेती है।
खैर पात्रों के ज्यादा होने और सिनेमा के बीच-बीच मे फ़्लैश बैक में चलने के कारण अच्छे नेट की स्पीड से ही इसे देखने की जरूरत है।