गिरीश कर्नाड नाटक की भारतीय व पश्चिमी परंपरा से सुपरिचित थे। वे एक साथ लोक व शास्त्रीय परंपरा, साहित्य व संगीत, सभी में एक साथ पारंगत थे। आधुनिकता का एक दौर ऐसा था कि परंपरा को नजरअंदाज करते थे लेकिन गिरीश कनार्ड ने आधुनिकता का परंपरा से रंग संवाद खड़ा किया। परंपरा में मिथक और जो इतिहास की अंर्तध्वनियों का आधुनिकता के लिए पुनराविष्कार किया। उनके पहले नाटक ‘ययाति’ से लेकर उनके आखिरी नाटक तक।
गिरीश कर्नाड को खोजता नाटक
गिरीश कर्नाड की मौत को
एक वर्ष बीत चुके हैं। गिरीश कर्नाड नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, फिल्मकार होने से भी बढ़कर ऐसे पब्लिक इंटेलेक्चुअल
थे जिन्होंने ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर हमले के विरूद्ध सड़क पर भी उतरने से
कभी गुरेज नहीं किया। ज्ञानपीठ सम्मान, कालिदास सम्मान के साथ-साथ देश का सर्वोच्च नागरिक
सम्मान पद्मश्री और पद्मविभूषण से विभूषित होने के बावजूद दक्षिणपंथी तत्वों ने
उन्हें गालियां दी, कलंकित किया यहां तक कि उन्हें जान से मारने तक की भी धमकी थी। लेकिन इन
सबसे डरे बिना उन्होंने उनका विरोध किया। जब कन्नड़ पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या
हुई उस वक्त गिरीश कनार्ड को, गले में ‘मी टू अर्बन नक्सल’ की तख्ती बांधे,
नाक में श्वास लेने
वाली पाइप लपेटे, ऑक्सीजन का सिलेंडर साथ में लिए, प्रतिरोध जुलूस में आगे चलते पूरे देश ने देखा। गौरी
लंकेश के हत्या के अनुसंधान के दौरान ये बात सामने आयी कि हत्यारों की हिटलिस्ट
में सबसे पहला नाम गिरीश कर्नाड का ही था।
गिरीश कनार्ड को ‘ययाति’, ‘तुगलक’, ‘हयवदन’ जैसे नाटकों ने उन्हें अखिल भारतीय पहचान
दिलाई। ये नाटक लिखे भले कन्नड़ में गए लेकिन मंचित हर भाषा में हुए। संविधान की
आठवीं अनुसूची की शायद ही कोई भाषा रही हो जिसमें गिरीश कर्नाड के नाटक मंचित नहीं
हुए। जैसे ‘हयवदन’ लिखा भले कन्नड़ में गया पर पहली बार प्रकाशित हुआ हिंदी में।
गीता हरिहरण ने गिरीश कर्नाड को श्रद्धांजलि देते हुए ठीक ही कहा था- ‘‘गिरीश
कनार्ड इस बात के उदाहरण थे कि भारत जैसे बहुभाषाई देश में कई भाषाएं जानना बाधा
नहीं बल्कि वरदान है। गिरीश कनार्ड की भाषा कोंकणी थी लेकिन वे तेलुगू,
कन्नड़,
मराठी,
मलयालम,
हिंदी और अंग्रेजी सभी
भाषाओं में पारंगत थे। अंग्रेजी भाषा में दक्ष होने के बावजूद उन्होंने अपने लिए
लिखने की भाषा कन्नड़ चुना। ये भाषाएं उनके लिए स्रोतों से प्रेरणा ग्रहण किया।
भारतीय संस्कृति में खुद का इस तरह लोकेट किया….। वे अतीत व इतिहास के किसी ठहरे
हुए समझ में कैद नहीं थे।’’
खुद पटना शहर उनके कई कालजयी नाटकों, जिसमें ‘तुगलक’, ‘नागमंडल’ ‘अग्नि और वर्षा’ ‘हयवदन’ आदि प्रमुख हैं,
के पप्रदर्शन का गवाह
रहा है। ‘तुगलक’ को देश के बड़े रंगनिर्देशकों मुंबई में अलेक पद्मसी,
दिल्ली में अब्राहिम
अल्का जी तथा बंगाल में शंभू मित्र ने खेला। बिहार में इसे सतीष आनंद के निर्देशन
में मंचित किया गया। ये एक ऐसे पागल राजा की कहानी है जो अपने राज्य में प्रार्थना
पर प्रतिबंध लगा देता है।
हिंदी में मोहन राकेश, बंग्ला में बादल सरकार,
मराठी में विजय
तेंदुलकर की तरह कन्नड में गिरीश कर्नाड आधुनिकता की परियोजना को आगे बढ़ाने वाले
नाटककार थे। समकालीन मुद्दों को उठाने के लिए उन्होंने मिथक व इतिहास का सहारा लिया।
कई लोग विजय तेंदुलकर के बाद उन्हें सबसे बड़ा नाटककार मानते हैं। उनके हर नाटक से
कई सवाल उभरते, बहस-मुबाहिसा और विवाद पैदा होता। वे कहा भी करते,
‘‘आज,
जो नाटक विवाद पैदा
नहीं करता, वो अपना कफन खुद तैयार कर रहा है।’’
गिरीश कर्नाड नाटक की भारतीय व पश्चिमी परंपरा से सुपरिचित थे। वे एक साथ
लोक व शास्त्रीय परंपरा, साहित्य व संगीत, सभी में एक साथ पारंगत थे। आधुनिकता का एक दौर ऐसा था कि परंपरा को
नजरअंदाज करते थे लेकिन गिरीश कनार्ड ने आधुनिकता का परंपरा से रंग संवाद खड़ा
किया। परंपरा में मिथक और जो इतिहास की अंर्तध्वनियों का आधुनिकता के लिए
पुनराविष्कार किया। उनके पहले नाटक ‘ययाति’ से लेकर उनके आखिरी नाटक तक। जातीय
स्मृति के जितने भी संसाधन हो सकते हैं उन्होंने सबों का उपयोग किया। चर्चित
साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने गिरीश कनार्ड के विषय में कहा था- ‘‘गिरीश कनार्ड जब
भारत के रंगमंच पर आए जब रंगमंच में प्रश्न पूछना बंद हो गया था और कुछ-कुछ
उत्सवधर्मी-सा रंगमंच था। एक ऐसा रंगमंच जो आपको प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करे।
गिरीश कनार्ड ने ऐसा रंगमंच बनाया जो प्रसन्न कम करता था बेचैन अधिक करता था।’’
उन्होंने नाटककार द्वारा नाटक लिखने की प्रक्रिया तुलना वास्तुशिल्पी
द्वारा घर बनाने से की। जैसे एक घर को जिस प्रकार धीरे-धीरे एक-एक इंट को जोड़ते
हुए डिजाइन करता है ठीक उसी प्रकार एक-एक ढ़ांचे खड़ा करते हुए नाटक भी रचा जाता है।
गिरीश कनार्ड ने ‘डॉयलॉग’ की महत्ता को चिन्हित किया कि ये महज ‘कन्र्वेसेशन’ नहीं
है। डॉयलॉग ही हमें चरित्र के भूत व भविष्य का पता बताती है,
कि वो कहां से आया है,
क्या करना चाहता है।
गिरीश कर्नाड कोई प्रशिक्षित नाटककार नहीं थे बल्कि वे मूलत गणित के छात्र थे तथा
ऑक्सफोर्ड का ‘रोड्स स्कॉलरशिप’ उन्हें मिला था। लोगों में साइंटिफिक टेंपर विकसित
करने लिए दूरदर्शन पर ‘टर्निंग प्वांयट’ शुरू किया। चर्चित वैज्ञानिक यशपाल के साथ
विज्ञान व तकनीक के जठिल और दुरूह विषयों को बोधगम्य भाषा में प्रस्तुत करते।
वे सांस्कृतिक नीतियों को प्रभावित करने तथा कला-संस्कृति से सबंधित
संस्थाओं को खड़ा करने वाले प्रशासक के रूप में भी जाने जाते हैं। वे फिल्म एंड
टेलीविजल इंस्टीटयूट, पुणे के 1974-75 में निदेशक थे लेकिन जब आपातकाल थोपा गया तो वहां से इस्तीफा दे दिया। अपने
निदेशक रहने के दौरान उन्होंने नसीरूद्दीन शाह, ओमपुरी, टॉम अल्टर जैसे उच्च कोटि के अभिनेताओं को
प्रोत्साहित किया। संगीत नाटक अकादमी के चेयरमैन रहे एवं लंदन स्थित नेहरू सेंटर
के भी निदेशक रहे। संगीत नाटक अकादमी के दौरान उन्होंने एक अलोकप्रिय किंतु
निर्भीक वक्तव्य दिया कि शास्त्रीय नृत्य ब्राह्रणवाद की जकड़बंदी में है। समकालीन
नृत्य के लिए एक पुरस्कार भी स्थापित किया।
1970 व 1980 में फिल्म व टेलीविजन संस्थान के दौरान
उन्होंने न्यू सिनेमा आंदोलन को आगे बढ़ने में मदद पहुंचाई। समानान्तर सिनेमा के 1970
के दशक के नेतृत्वकारी
शख्सियत थे। ‘निशांत’ में एक ऐसे असहाय व बेबस शिक्षक की भूमिका निभाई थी जिसकी
पत्नी गुंडे उठा ले गए थे। गिरीश कनार्ड को निर्देशित चौथी शताब्दी के मशहूर नाटक
‘मृच्छिकटिकम’ पर आधारित हिंदी फिल्म ‘उत्सव’ को काफी सराहना मिली जिसमें बिहार के
शेखर सुमन ने भी काम किया था। कन्नड़ के ही ज्ञानपीठ सम्मान प्राप्त यू.आर.
अनंतमूर्ति के मशहूर उपन्यास पर आधारित ‘संस्कार’ उनकी फिल्म थी। 1970
में बनी इस फिल्म का
उन्होंने स्क्रनीप्ले लिखा था। खुद यू.आर. अनंतमूर्ति भी फिरकापरस्त ताकतों के कटु
आलोचक। क्या संयोग है कि अनंतमूर्ति और कनार्ड की मौत 2014
में नयी लोकसभा गठन के
बाद ठीक हुई एक की 2014 में दूसरे तथा 2019 में।
गिरीश कनार्ड ने देश के दौ सौ लेखकों के साथ देश
में बढ़ रही ‘घृणा की राजनीति’ पर चिंता व्यक्त की थी। सत्ता के समक्ष कभी नहीं
झुके। सांप्रदायिक शक्तियों के विरूद्ध बोलने का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। उनके
नाटक जब कनार्टक में ही प्रदर्शित करने से रोके गए थे। अतीत को समझने के साथ-साथ
ये समकालीन भारत ही था जिसके साथ उन्होंने निरंतर मुठभेंड़ की ताकि भारत का
धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और विविधताओं से भरा स्वरूप अक्षुण्ण रह सके।