कविताओं को पढ़ने पर पहली बार में तो एक आश्चर्यजनक चमत्कार जैसा महसूस होगा लेकिन धीरे - धीरे इसकी मुग्धता खत्म होती जाती है, और तब हमें अहसास होता है कि ये सिवाय शब्दों के उलट पलट और कुछ नहीं। चूँकि इन कविताओं का सब टेक्स्ट एकदम गायब है।
कविता आजकल 2
बालकाण्ड में एक प्रसंग आता है जब शिवधनुष तोड़ने पर परशुराम आग बबूला हो चुके होते हैं और लक्ष्मण अपनी ढिठाई से अड़े होते हैं, तब तुलसीदास ने राम के मुंह से जो कहलवाया वह यहाँ मेरे बड़े काम आने वाला है जिसे मैं पहले ही अपनी सुरक्षा कवच के तौर पर आप लोगों के सामने रख देता हूँ। राम लक्ष्मण के बचाव में कहते हैं:
नाथ करहु बालक पर छोहू
सूध दूधमुख करिअ न कोहू।।
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना।
तौ कि बराबरि करत अयाना।।
--इस के साथ ही मैं सीधे कविता और उसमें कवि जसवीर की उपस्थिति पर आ जाता हूँ।
कविता अव्याप्ति के दौर से अतिव्याप्ति के दौर में आ चुकी है। उसने अपने सभी दरवाज़ों को खोल दिया है और लगभग आह्वाहन की मुद्रा में आकर खड़ी हो चुकी है। तब शास्त्र की राजसत्ता जरूर थी लेकिन अब यहाँ विषय के चुनाव के लिए पूरी तरह से लोकतंत्र है। अगर कोई शास्त्र है भी तो वह केवल अनुभूति के स्तर पर, अदृश्य है।
कभी नदी होने वाली कविता आज विस्तृत समुद्र है जिसके ओर-छोर पर कुछ कह पाना असंभव-सा लगता है और मैं उसके सामने इस कवि के द्वारा खोदे गए पोखर को रखने की कोशिश कर रहा हूँ। दरअसल अपने वर्तमान का कितना हिस्सा उस समृद्धि में शामिल है- उसकी पड़ताल करने की एक बहुत छोटी कोशिश इन कविताओं के ज़रिये कर रहा हूँ।
कई तरह की 'काव्य प्रवृत्तियों' की उपस्थिति हिंदी कविता में बनती बिगड़ती रही है। लेकिन जो परमानेंट प्रवृत्ति अबतक डंटी हुई है- वह श्रृंगार और विरोध- है। आप सोचेंगे कि मैंने 'भक्ति' को क्यों अलग कर दिया। तो मैं जोखिम उठाते हुए यह कह देना चाहता हूँ कि वैचारिकता में भक्ति का कभी परमानेंट स्वर नहीं रह पाता। इतिहास हमारे सामने है और इसपर बहस होनी भी नहीं चाहिए। इसलिए कविता में 'भक्ति' बीते समय की बात हो गयी है। आज कोई भक्त कविता लिखे तो वह निस्संदेह व्यर्थ का प्रयास होगा यदि उसमें किसी तरह का नया सामाजिक मूल्य न हो तो। वाल्मीकि के रामायण से लेकर भारतेंदु के युग तक भक्ति के तत्व कहीं न कहीं कविता में आते रहे और उसके कुछ आगे भी। लेकिन अब एकदम ताज़ी कविताओं में देखेंगे तो भक्ति का स्वर गायब मिलेगा। वो बात अलग है कि किसी भोले-भाले कवि की आँखों में भक्ति का पर्दा अभी भी न हटा हो और वो आज भी 'भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी' टाइप कुछ कीर्तन रचने का प्रयास कर रहा हो। खैर, ध्यान देने की बात यह है कि जिन दो तत्वों को हिंदी कविता ने कभी नहीं नकारा उनमें से एक भक्ति कभी नहीं रही। वह या तो शृंगार था या फिर विद्रोह। यानी कविता के आदिम उदाहरणों से चलकर अबतक शृंगार और विरोध को पाठक किसी न किसी रूप में देखता आया है। एक ओर उसे-
अपने अंग के जानी के जौवन नृपत प्रवीण
स्तन मन नैन नितम्ब को बड़ो इजाफा कीन
- जैसी इरियोटिक कविताएं पढ़ने को मिलीं, तो दूसरी ओर:
एकन को मेवा मिले एक चना भी नाहीं
या
ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार
जैसी प्रगतिशील कविताएं भी पढ़ने को मिलीं।
और यही दोनों प्रवृति मोटे तौर पर हिंदी कविता की जातीय प्रवृत्ति हैं जो आज भी कलावाद और जनवाद या प्रगतिवाद के रूप में मौजूद हैं। इसी कड़ी में मुझे अक्सर इन दो पक्षों के बीच एक और रेखा खिंचती हुई दिखाई पड़ती है: वह है सॉफ्ट कलावाद और सॉफ्ट जनवाद का मिला जुला रूप। यानी इसमें जन पक्षधरता भी होगी और श्रृंगारिक सौंदय, प्रेमानुभूति का कलावादी संस्करण भी होगा। भूख की व्याकुलता भी होगी और पाक रस का वर्णन भी होगा। इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ने वाली मजदूर स्त्री भी होगी और लज्जा और कामना से अरुणाभ स्त्री का मुख भी होगा। यानी की न पूरी कला और न पूरी जनपक्षधरता। बल्कि दोनों स्थितियों के बीच कहीं। और आज की समकालीन कविता में इस प्रवृत्ति को खूब अच्छे से पढ़ा लिखा जा रहा है। इक़बाल का एक शेर है;
गुलजारे हस्तो बूद न बेगानावार देख
है देखने की चीज़ इसे बार बार देख
खैर, कहने का तात्पर्य केवल इतना ही कि जसवीर जी इसी तीसरी प्रवृत्ति के कवि हैं। वे पूर्णतः कलावादी नहीं हैं लेकिन शिल्प की चिंता उनकी कविता में दिखाई देती है, वह पूरे प्रगतिवादी भी नहीं हैं लेकिन समाज की एक तस्वीर वो अपनी कविता के माध्यम से हमारे सामने रखने का प्रयास भी बराबर करते हैं।
आइये सबसे पहले इन कविताओं( जसवीर त्यागी की कविताओं) के समाज पर बात करते हैं।
समाज जिन आर्थिक बंटवारे के आधार पर उच्च वर्ग मध्य वर्ग और निम्न वर्ग में बंटा है, जसवीर जी की कविता इन तीनों ही की कविता नहीं है। बल्कि मध्यवर्ग में भी जो निम्न मध्यवर्ग है- उसकी कविता है। जैसे ठीक भगवत रावत, जैसे कुछ कुछ केदार नाथ सिंह
इन कविताओं में बेरोज़गार युवक हैं, अखबार बेचता एक बच्चा है, ढाबे का छोटू है, आग से रिश्ता साधे एक माँ है और एक पिता हैं जो बारिश और लू से लड़ने की छमता रखते हैं। यानी खड़ी बोली समाज के ग्रामीण- कस्बाई रंग की अनेकों तस्वीरें। और इन कविताओं को समझने के लिए, खुद कवि की ही भाषा में-
इन्हें समझने के लिए चाहिए था
आदमी के भीतर एक और आदमी।
मुझे इनकी जो कविताएं हासिल हुई हैं उनमें मां और बच्चों पर लिखी गयी कविताओं का कोई जवाब नहीं है। वे इतनी मार्मिक हैं, इतनी जीवित हैं कि किसी भी भावुक व्यक्ति को उदास कर सकती हैं। मुझे लगता है कि मां और बच्चे पर लिखी गयी इनकी कविताओं की उम्र बहुत ज्यादा है। ये दीर्घायु हैं।
छोटू का हिसाब कविता का यह अंश देखें;
एक एक चीज़ का हिसाब रखने वाले
लाला के बहीखाते में
कोई हिसाब नहीं है छोटू का
यह बात नहीं है हल्की
गरमागरम रोटी के स्वाद में भूल जाने की
और न ही चाय की भांप समझकर
फूँक मारकर उड़ा देने की।
अथवा माँ पर लिखी 'माँ और आग' कविता का यह अंश भी देख सकते हैं;
मैं नहीं जानता मां
तेरा आग से रिश्ता कितना पुराना है?
पर हाँ! इतना ज़रूर जानता हूँ
कि तूने अपनी जिंदगी के दमकते दिन
इसी आग में झोंक दिए हैं।
-जसवीर जी की कविताओं की एक ख़ास बात यह भी मुझे समझ में आती है कि ये कविताएं आदमी को समझने और उसके अंदर झाँकने की बहुत सार्थक कोशिश करती हैं। जैसे कवि द्वारा डॉ रामविलास शर्मा पर लिखी गयी कविता के इस अंश को देखें;
सबसे अच्छी कविता
आदमी की आँखों में होती है
अगर आदमी उसे पढ़ना जानता है तो...
इनकी कुछ लाजवाब कविताओं में से 'तुम्हारी ओर', वे ताकतवर, तस्वीर, गन्ने के रस की दुकान पर, छोटू का हिसाब, मां और आग, हाथ, दड़बे की मुर्गियां, तेल और बाती, उसका प्रेम, छोटी बच्ची और बुआ, याद आए सुल्तान अहमद, पिताजी मुझे और उम्मीद करता हूँ कि आपको भी पसंद आएँगी। इसका कारण यह है कि इसके अर्थ प्राप्ति के लिए आपको किसी कविता संस्कार से गुजरना नहीं पड़ेगा, बल्कि आप इन कविताओं को अपने इतना करीब पाएंगे कि सहज की अर्थानुभूति को प्राप्त कर सकेंगे।
एक और बात कि जसवीर जी की कविता में कुछ- कुछ प्रयोग इतने ताज़े और टटके हैं कि पाठक तुरंत मुग्ध हो जाता है। जैसे 'जाते हुए को देखकर' कविता के इस अंश को ही देखें;-
न जाने ऐसी क्या
और कौन सी बात थी?
कि आँसू
अपने अपने घर छोड़कर भागे जा रहे थे।
-अब आंसुओं का अपने घरों से भागना कवि की अपनी खोजी परखी गयी चीज़ है। कवि के यहाँ इस तरह के प्रयोग खूब दिखाई पड़ेंगे जो इनकी बारीक पकड़ और अभ्यास को दिखाने का काम करती है। जिसके लिए ये बधाई के पात्र हैं।
ये इनकी कविता के कुछ शुक्ल पक्ष थे, अब इनकी कृष्ण पक्ष पर भी नज़र मार लेते हैं।
अगर इनकी कविता की टेकनीक को आप देखेंगे तो आपको क्राफ्ट की असंतुष्टि दिखाई पड़ेगी। कई कविताओं में आप पाएंगे कि उनका गल्प बहुत मजबूत है लेकिन उसका रूप बेहद कमज़ोर। कई बार रूप मज़बूत है लेकिन गल्प के नाम पर पाठकीय ठगी है।
तुम कौन से पाठ पढ़े हो लला
मन लैहुँ पे दैहूँ छंटाक नहीं।
- इसी तरह कई बार आपको संपूर्ण कविता का केवल एक हिस्सा बहुत आकर्षक लगेगा, जिसे हटा देने पर कविता की ईमारत भुरभुरा कर ढहती हुई मालूम पड़ेगी।
दूसरे, इस कवि की कविताओं एक बड़ा हिस्सा छोटी कविताएं हैं। कविता क्या हैं बिहारी की मुकरियों की तरह हैं। 'देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर।'
- चुभन, दादी की सीख, दरार से आती धूप, एक शब्द की कविता, वज़न, राजा और प्रजा, आधे- अधूरे- आदि इनकी ऐसी ही कविताएं हैं। इन कविताओं को पढ़ने पर पहली बार में तो एक आश्चर्यजनक चमत्कार जैसा महसूस होगा लेकिन धीरे - धीरे इसकी मुग्धता खत्म होती जाती है, और तब हमें अहसास होता है कि ये सिवाय शब्दों के उलट पलट और कुछ नहीं। चूँकि इन कविताओं का सब टेक्स्ट एकदम गायब है। पाठक के हाथ में एक खाली- निरुद्देश्य रहस्य मिलता है, मानो कुछ है लेकिन क्या-- पता नहीं, कम से कम मैं तो इन कविताओं के सब टेक्स्ट को टच नहीं कर पाया। लेकिन हो सकता है कि कवि ने तुलसी दास के -
नानापुराण निगमागंसम्मत यद्
रामायणें निगदितं क्वचिदन्यतोअपि
स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा
भाषानिबंधमतिमंजुलमातनोति
- वाले सिद्धान्त का सहारा लिया हो, और आत्म संतुष्टि के लिए इन कविताओं को रचा हो- पता नहीं।
यहाँ संक्षिप्त में चलते चलते आपको इस कवि के रचनात्मक ग्राफ के बारे में भी बताता चलूँ।
चूँकि यह कवि निरंतर लिखने वाला कवि है। अपनी रचनात्मकता पर अड़ा हुआ। और समाज के भिखरे हुए हर उस तत्व को पकड़ने की कोशिश में डटा हुआ जिसके प्रयोग से किसी कविता का जन्म हो सके। यह निःसदेह क़ाबिलेगौर है। कविता के प्रति उनकी इसी छटपटाहट का ही यह परिणाम है कि इनका रचनात्मक ग्राफ बहुत आड़ा - तिरक्षा है। कभी एकदम शीर्षस्थ बिंदु पर तो कभी सपाट निचली रेखा के आस पास।
अब आइए इन कविताओं को संदर्भ में रखते हुए कविता और उसकी सामाजिक उपयोगिता पर भी बात कर लें।
हमारे उपनिषदों में, और दार्शनिक ग्रंथों में जैसे ब्रह्म को लेकर बड़ा ही अस्पष्ट रवैया दार्शनिकों ने अपनाया है उसी तरह कविता में कविता के जानकारों ने भी। मुझे याद नहीं आ रहा है लेकिन शायद केनोपनिषद में ही ब्रह्म की अवधारणा को लेकर यह श्लोक पढ़ा था जो इस तरह है;
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः।
अविज्ञातं विजनतां विज्ञातमविजानताम।।
इसी तरह शून्य को लेकर आचार्य नागार्जुन की अवधारणा थी;
शून्यमिति न वक्तव्यंशून्यमिति वा भवेत्।
उभयं नोभयं चेति, प्रज्ञस्यर्थ तु कथ्यते।।
माने जिसके आप साधक हैं उसी को लेकर कंफ्यूजन। और यही कंफ्यूजन लगभग कविता को लेकर है। वो किसी ऐसी रहस्य की चीज़ बना दी गई है मानों मानवीय- सामाजिक मुद्दों के टच में आने पर वह दूषित हो जायेगी। बहरहाल इस मामले में मैं अपनी राय एकदम स्पष्ट कर दूँ कि मुझे कविता के रहस्यमयी या चमत्कारी रवैये से कुछ भी लेना देना नहीं है। मेरा मानना है कि कविता बेहद सामाजिक विधा है, और समाज को बेहतरी की ओर प्रेषित करने का काम ही अच्छी कविता करती है।
यहाँ इस बाते के आगे ही 'साहित्य की प्रासंगिकता' वाले मसले को सुलझा लेना चाहिए। कलावादियों और कुछ साहित्यकारों का मानना है कि साहित्य में प्रासंगिकता का सवाल नहीं उठना चाहिए। मुझे यह धारणा बहुत टिकाऊ नहीं जान पड़ती है। मैं भी मानता हूँ साहित्य और कुछ होने से पूर्व वह एक कला है- आत्म अभिवयक्ति की खरी खरी कला। किन्तु हमें ध्यान देना चाहिए कि 'साहित्य- कला' अन्य कलाओं में सबसे अधिक सामाजिक कला है। हो सकता है कि एक संगीतकार ताउम्र बंद कमरे में रियाज़ करके अपनी स्वर सिद्धि प्राप्त कर ले, लेकिन साहित्यकार के लिए इस तरह का नितांत एकान्तवासी योगी बनना मुश्किल होता है। उसकी जड़ें तो समाज में गहरे जुड़ी होंगी।
इमा गोल्डमैन का कहा याद रखें;
If I can't dance I don't want to be part of your revolution.
' कवि का काम'- नामक कविता में राजेश जोशी ने बड़ी अच्छी बात कही है-
'बेजुबान लोगों के दुःख और गुस्से के लिए ढूंढने पड़ते हैं
कवि को सही-सही और उतने ही ताप से भरे शब्द।'
- इसके साथ ही एक बात और रख दूँ कि 'विज़न' ही किसी कविता के मुकम्मल होने या न होने को तय करता है। उदहारण के लिए हिंदी के कई बड़े कवियों को ले सकते हैं जिनके रचनात्मक विज़न ने समाज के सामने एक समाजवादी/ प्रगतिवादी मॉडल दिया है। मुक्तिबोध, धूमिल, निराला, नागार्जुन, केदारनाथ सिंह, शमशेर, रघुवीर सहाय- ऐसे ही आधुनिक कवि हैं।
भक्तिकाल को ही ले सकते हैं। क्यों भक्तिकाल एक विराट आंदोलन बन पाया था, इसका कारण ही यही है कि सभी भक्त कवियों का विज़न साफ था।
एक अय्याश शायर को ही लीजिये। जिगर मुरादाबादी। 'न गरज किसी से न वास्ता' कहने वाला मोहब्बतों का शायर जब 1946-47 दंगो से परेशान होता है तब वह लिखता है-
है जख्में कायनात जो हिन्दू है इन दिनों।
है दागे ज़िन्दगी जो मुसलमां है आजकल।।
शाइस्तगी के भेस में है रूहे ज़िन्दगी।
इंसान के लिबास में शैतां हैं आजकल।।
- क्यों क्योंकि उसका विज़न साफ हो गया है। कहने का मतलब यह कि 'कविता क्यों'- इस सवाल का जवाब एकदम स्पष्ट होना चाहिए। और वो भी आज के दौर में ख़ास तौर पर। जबकि पूरा जनतंत्र परेशान हो, उदास हो तब- हमारा विज़न एकदम साफ होना ही चाहिए कि हम कहाँ हैं। शायद दाग साहब का ही शेर है;
'अपनी नज़र में हेच है सारे जहाँ की सैर
दिल खुश न हो, तो किसका तमाशा कहाँ की सैर।'
यहीं आकर हमारे जसवीर जी थोड़ा कमज़ोर दिखाई पड़ते हैं। उनकी कविता में आपको समाज तो मिलेगा लेकिन जनवादी विज़न नहीं मिलेगा। अवाम है लेकिन अव्वाम की चिंता नहीं है। बहुत तटस्थ होकर परखने पर मालूम होगा कि इनकी कविताएं किन्हीं क्षणों की खींची गई तस्वीरे हैं , अतः कविता के रस तक तो पहुँचा देती हैं लेकिन कोई महत्वपूर्ण विज़न न हो पाने के कारण कविता के पूरे दायित्व को निभाने में सफल नहीं हो पाती हैं।
कारण जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ कि वो कविता के फॉर्म को लेकर ज्यादा जागरूक रहते हैं। यहाँ अंशर्ट फिशर की बात रख दूँ-
Form is conservative, content is revolutionary.
इसके साथ ही हिंदी के बहुत से प्रगतिवादियों का मानना है कि रूप वस्तु से अलग कोई चीज़ नहीं है, वह उसी की निर्मिति के साथ बनता है। उदाहरण के लिए नागार्जुन और धूमिल की कई कविताओं को ले सकते हैं जो जितनी जनवादी हैं उतना ही अपने रूप के प्रति सचेत। अच्छी कविता का यही एक गुण होता भी है।
दूसरे, जसवीर जी की कविता की एक सीमा यह भी है कि इनकी कविताओं में एक अज़ीब तरह का व्यक्तिवादी टेस्ट कभी-कभी आने लगता है। जैसे इनकी एक कविता 'तुम्हारी ओर' देख सकते हैं। दरअसल व्यक्तिवाद किसी भी जनवादी लेखक के लिए एक बड़ी कमज़ोरी बन जाता है क्योंकि फिर धीरे धीरे उसकी आँखें बंद होने लगती हैं, वह बाहर की विसंगतियों- समस्याओं से लड़ने की बजाय अपने भीतर आकर छुपने लगता है। इस अर्थ में हो ची मिन्ह ने बड़ा ही ठीक कहा है-
'व्यक्तिवाद बड़ा ही मक्कार और धोखेबाज है, यह आदमी को चुपके से उसके रास्ते से हटा देता है।और या सभी जानते हैं कि रास्ते पर आगे बढ़ने के मुकाबले पीछे हटना कहीं आसान होता है। यही वजह है कि व्यक्तिवाद बहुत ही खतरनाक है।'
साथियों ये कुछ कच्चे पक्के बिंदु थे जिन्हें मैं अपने प्यारे कवि जसवीर जी पर कह पाया। अंत में मैं-
जौं लरिका कछु अचगरि करहीं।
गुर पितु मातु मोद मन भरहीं।।
करिअ कृपा सिसु सेवक जानी।
तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी।।
--कहकर अपनी वाणी को विराम देता हूँ।
इति श्री।
- प्रयुक्त चित्र google से साभार