वर्तमान समय में चारों तरफ उपजे आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व लैंगिक असमानता से उपजी अपनी तड़प को रचनाओं में बखूबी बयाँ किया है दिनेश सागर ने |
देह के भूगोल से परे
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स्त्री की देह के भूगोल से परे
सोचा है कभी
उसके जहन में पलते तमाम सपनों
और उठते हुए तूफ़ानों के बारे में
महसूस किया है कभी
हृदय में सदियों से प्रवाहित
दुख की कई नदियों को
जिनका सुख से कभी संगम नहीं हुआ
तुम्हारे स्पर्श में
क्यों महसूसती है छल की दुर्गंध
आखिर संदेह क्यों करती है स्त्री
तुम्हारे अगाध प्रेम पर
क्या कभी माना है तुमने
महज़ एक उपभोग की वस्तु से परे
एक साथी एक दोस्त की तरह
जो तुम्हारे साथ चलने पर भयभीत न हो
क्या महसूस किया है कभी
उसके दुख को अपने दुख की तरह
उसके अवसाद ग्रस्त मौन को
समझ सके हो तुम अपनी पीडा की तरह
तुम्हारी नज़रें हमेशा गिद्ध की मानिंद
टकटकी लगाए रहती मांस नोचने को
सही अर्थो में जानना ही नहीं चाहा
उसके अनतर्मन की वेदना या भावों को
तो फ़िर तुम कैसे कह सकते हो कि
स्त्री तुम्हारी सहचर और सहधर्मी है
हाँ, सहधर्मी तब हो सकती है
जब तुम उसे उसकी देह के भूगोल से परे
मुक्त एक इंसान समझोगे
वफ़ादार पत्नी से अधिक एक सच्ची दोस्त
तुम कुछ नहीं कर सकते
सिवाय उसका दमन और शोषण के
उसके हक की ज़मीन छीनने के
उसकी उड़ानों पर बंदिश लगाने के
तुम कभी नहीं निकल सकते
अपनी संकुचित मानसिकता से बाहर
उन्हें खुद रचना होगा अपना संसार
उन्हें स्वयं ही इज़ाद करने होंगे रास्ते
जो अब तक बंद पड़े थे सदियों से
उन्हें कायम करना होगा अपना स्वतंत्र अस्तित्व
तमाम वर्ज़नाओं के बंद पड़े दरवाजों पर
देनी होगी दस्तक और दर्ज करनी होगी उपस्थिति
तोड़ने होंगे जंग खाए लटके हुए तालों को
और ढहाने होंगे जाति धर्म आदि के नाम पर बने दुर्ग
स्त्री अब नहीं आने वाली
तुम्हारे कुत्सित प्रलोभनों में
वह समझने लगी है
तुम्हारे स्वार्थ में छिपे घिनौने षडयंत्रों को
निकलने लगी हैं तुम्हारे द्वारा निर्मित
कैदखानों से बाहर अपने हक के लिए
सदियों की चुप्पी अब दहाड़ में तब्दील हो गई
स्त्री के यहाँ 'मैं' और 'तुम' जैसे शब्दों के लिए
कोई जगह नहीं बल्कि
वे 'हम' का प्रयोग करना जानती हैं
क्योंकि वे प्रेम करना जानती हैं l
स्त्री एक नदी है
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नदी जब किसी बात से
बहुत दुखी होती है
तब वह अपने उद्गम स्थल या
गंदे घाटों से शिकायत नहीं करती
न उसमें घुले अशिष्ट पदार्थ या जीव जंतुओं से
चुपचाप सो जाती है समंदर की गोद में
स्त्री एक नदी है
किसी अपनों से आहत होने पर
मौन में समंदर किनारे जाकर रो लेती है
जहाँ उसके क्रंदन को सुनने वाला कोई न हो
वह रेत पर बार-बार अपना दुख लिखती है
आँखों में उमड़ते आँसुओं की शान्त लहरों से मिटा देती है l
मैंने तमाम आवाजें दी
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मैंने तमाम आवाजें दी
किसी ने कुछ नहीं कहा
आँगन में मुरझाई हुई तुलसी ने
मुंडेर पर नीरव एकालाप करती चिड़िया ने
पेड़ की किसी शाख पर फ़ल कुतरती गिलहरी ने
पिंजरे में कैद तोते और न बाँक दे रहे मुर्गे ने
ओसारे में खूँट पर बंधे हुए दुधमुंहे बछड़े ने
उगते हुए सूरज और न अस्त होते रवि ने
ज्येठमास की धूप और न रात्रि की शीतल चाँदनी ने
नदियों ने और न चुपचाप बह रहे झरनों ने
दूधवाले ने, न अखबार वाले और न डाकिये ने
बाजारों में कानफ़ोड आवाजों की भीड़ ने
रोज आँगन बुहारने आते सफ़ाई वाले ने
ताजा सब्जी घर पहुँचाने वाले किसान ने
नुक्कड की चाय पान और समोसे वाले ने
फ़ुटपाथ पर छाते के नीचे रोजी चलाने वाले मोची ने
आसमान छूती बहुमंजिला इमारत का निर्माण करते मिस्त्री ने
स्कूल कॉलेज यूनिवर्सिटी के किसी चौकीदार ने
रिक्से-टेक्सी और बस ट्रेन के अचानक थमे हुए पहियों ने
मंदिर मस्जिद गिरिजाघर में प्रार्थना कर रहे अनुयायियों ने
मैंने तमाम आवाजें दी किसी ने कुछ नहीं कहा
चुप्पियों और भयावह अंधेरों के बरक्स रौशनी की उम्मीद में
सब के सब चेहरे पर उदासी लिए मौन खड़े थे हो निरुपाय l
ये मुल्क गरीब मजदूरों का नहीं है
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आज उन्हें बेदखल नहीं किया
किसी कम्पनी या कारखानों के मालिकों ने
बल्कि महामारी के प्रकोप से
आहत और भूख से मजबूर होकर
जान बचाने लौट रहे हैं अपने घर
वापिस आये जब वहाँ
जहाँ से जो गया था
तब उन्होंने पाया कि
उनके गाँवों को कोषों लम्बे बाँधों और
धूल भरी अवैधानिक खदानों ने निगल लिया है
और घर में उनके महज़ भूख का बसेरा है
घर के आसपास खड़े हुए विशालकाय
सागौन और महुआ के अब ठूंठ बचे हैं
सरकारी स्कूल खंडहरों में तब्दील हो गए हैं
और अब उनमें आवारा जानवरों का रैनबसेरा है
कुआँ बाबड़ियाँ नलकूपों में रिसते जल को धरती गटक गई है
नदियों में अब सिर्फ रेत बिक रही
पानी को समुद्र ने लील लिया है
खेत बंजर और शुष्क पड़े हैं
जंगलों में जहाँ स्वच्छ जल के झरनों की
कलकल ध्वनियाँ गूंजती थी चहुँ ओर
आज बम ब्लास्टिंग और बंदूकों की धड़ धड़
जंगलों में बहेलियों को जाने की इज़ाज़त नहीं है
हथियारबंद छापामार भर दिए गए हैं
जो शहरों की भीड़ भरी सडकों और
जो फुटपाथों पर आसमान के नीचे सो जाया करते थे
अब वे गर्द-गुबार भरी झुग्गियों में बस गए हैं
जब यह कहा जाता है कि
ये मुल्क इन गरीब मज़दूरों का है
तब मुझे अक्सर भ्रम होता है
कि यह उनका तो नहीं हो सकता
जो लगा देते हैं अपना सारा जीवन
और जिंदगी भर रहते हैं मोहताज़
दो वक्त की रोटी और सिर ढकने छत के लिए |