आज़ादी कई सपने को पूरा करने का एक माध्यम बनती है और सिनेमा सपनों और आशाओं को सतह पर लाने का |
बाइसिकल थीव्स बनाम दो बीघा ज़मीन
ब्रूनो अपने पिता की हैट जमीन से उठाता है और उस भीड़ के पीछे दौड़ता है जिसने इसके पिता को मारने के लिए घेर रखा है !
इधर कन्हैया अपने पिता के कर्ज को चुकाने के लिए अपने पॉकेटमार दोस्त के साथ मिलकर पचास रुपए उड़ा लेता है और अपने पिता को ले आकर देता है, तो पिता द्वारा ही कसकर मार खाता है।
ब्रूनो और कन्हैया के उम्र में वैसे भी कोई खास फर्क नही है।एक पेट्रोल पंप पर तो दूसरा बूट पोलिश करने का काम करता है। फर्क बस इतना है कि पम्प रोम में है और बूट पोलिश करने का चौराहा कलकत्ता में है!
खैर रोम से तब तक मुसोलिनी जा चुके हैं और हिंदुस्तान में जवाहर लाल आ चुके हैं। हां लेकिन जो दोनों जगह से नही गया है वह है गरीबी और बेरोजगारी !
रोम में जहां युद्ध की विभीषिका से जूझता समाज है जिसने युद्ध को लेकर उतावलेपन को झेला है तो वही दूसरी ओर युद्ध और शांति के द्वंद में जीने वाला ठेठ हिंदुस्तानी समाज है!
ब्रूनो के पिता शहरी कॉलोनियों में जीने वाला एक मध्यवर्गीय इंसान है, जो नौकरी की तलाश में इधर उधर भटक रहा है। उसे पोस्टर चिपकाने का काम इस शर्त पर मिलता है कि उसे अपने पास एक साइकिल रखनी होगी। ब्रूनो के पिता के पास अब कोई चारा नही है सिवाय साइकिल के जुगाड़ करने के। वह घर जाता है और फिर पत्नी के सहयोग से वह अपने घर के पुराने बेडशीट वगैरह को बेचकर कुछ पैसों का प्रबंध कर एक नयी साइकिल खरीदता है और फिर उसकी ज़िन्दगी में एक नई सुबह होती है। वह आज अपने पूरे आत्मविश्वास से उठता है और निकल पड़ता है काम पर। खैर मध्यवर्ग की खुशी कब काफूर हो जाए कुछ कहा नही जा सकता ! ठीक उसी तरह उसके सामने से ही इसकी साइकिल चोरी हो जाती है और फिर मध्यवर्ग का वह प्राणी अपने पुराने अवस्था में चला जाता है।अब शुरू होती है उसके संघर्ष की कहानी, जिसमें उसके साथ उसका बेटा ब्रूनो भी शामिल हो जाता हैं ! अंत में साइकिल में ज़िन्दगी का आसरा ढूंढते दोनों पिता-पुत्र के संघर्ष को, बेजोड़ तरीके से दिखाया गया है , जिसमें तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक यथार्थ के पर्दे में नैतिकता-अनैतिकता के द्वंद से जूझते आदमी की कहानी को फिल्म के द्वारा पर्दे पर इतनी खूबसूरती से उतार दिया गया है कि इस फ़िल्म के बिना सिनेमा का इतिहास ही अधूरा जान पड़ता है!
इधर बाइसिकल थीव्स को फ़िल्म फेस्टिवल में देख कर विमल रॉय काफी प्रभावित होते हैं।गरीबी,बेरोजगारी की समस्या को तो देश झेल ही रहा होता है।ऐसे में आज़ादी कई सपने को पूरा करने का एक माध्यम बनती है और सिनेमा सपनों और आशाओं को सतह पर लाने का !
भारत मे उस समय बहुसंख्य आबादी प्रत्यक्षतः खेती किसानी पर निर्भर है । देश के विकास के लिए मशीन और मिल भी जरूरी है | जगह जगह कारखाने, बांध बनाने के लिए निजी के साथ सरकारी उपक्रम भी आगे आते हैं और फिर शुरू होता है जमीनों का अधिग्रहण । इसी क्रम में शम्भू की ज़मीन की जरूरत भी गांव के एक जमींदार को पड़ती है वह शम्भू से ज़मीन बेचने को कहता है लेकिन वह इनकार कर देता है | फिर क्या वह ज़मीदार उसको दिए अपने पैसे लौटाने को कहता है। किसान और कर्ज की नियति उसे शहर की तरफ धकेल देती है। फिर वह उस दशक के सपनों के शहर कलकत्ता पहुंचता है और वहां से शुरू होता है एक आम आदमी के जीवन संघर्ष का महाकाव्य !
जीवन सुख-दुःख के महाकाव्य ही तो हैं। हर आदमी सुख-दुःख कि चौपाइयां ही तो जीवन मे गाता फिरता है।
बाइसिकल थीव्स में नायक अंत मे दूसरे की साइकिल चुराता है वही दो बीघा जमीन में वह छोटा लड़का बेईमानी का पैसा घर लेकर आता है लेकिन दो बीघा जमीन का नायक अपने आदर्शों और मूल्यों से नही टिकता । फ़िल्म के कथ्य पर अपने-अपने समाज के तत्कालीन नायकों और परिस्थितियों का पूरा दबाव है । हां फ़िल्म अपने यथार्थपूर्ण अंत के करीब पहुंचकर सिनेमा में एक नई परम्परा की शुरुआत करते है ।
इटली के समाज औद्योगिक इकाइयों पर और भारतीय समाज कृषि पर निर्भर है । जमीन के वितरण, उसके अधिग्रहण ,मानव और मशीन के बीच का संघर्ष, सूदखोरी, गरीबी का दुष्चक्र, को विमल रॉय ने क्या गज़ब पर्दे पर उतारा है।
(क्रमशः)