आजादी के सत्तर सालों बाद भी विकास की दर, सरकारी दफ्तरों में काम काज की स्थिति और आर्थिक गैर बराबरी के प्रश्न को अपनी कविताओं में बखूबी व्यक्त किया है 'सुशील कुमार शैली' ने |
हवा में कौंधती चीख
और अब
जब हम सब, अपनी-अपनी
प्राथमिकताओं के आधार पर जी रहे हैं
नाप रहे हैं
अपने-अपने कद को
अपनी निगाहों से
और सोचते हैं कि
सामने वाले पर झपट कर
उसके चेहरे को छीन लें
और फैलते हुए चेहरों में
उपस्थिति दर्ज करा दें अपनी
ऐसे में कविता पर दोषारोपण करना
कवि को विक्षिप्त कह देना
स्वाभाविक है,
हवा को चीर कर
फैलती हुई चीख
ऊँचे-ऊँचे भवनों से टकरा कर
ज़मीन पर पड़ी
छ: फुट आदमी की आकृति
में गुम हो गई
आठ मंजिला ईमारत से
भूमि पर गिर रक़्त का धब्बा
आस-पास की चहल-पहल के लिए
दो मिनट का कुतूहल है,
लय, संगीत की बात करना
कविता में, अब
लगभग बेमानी हैं
इतिहास को प्रेयसी की दोनों आँखों से देखना
कामुकता,
छोटी छोटी ईटों से बनी
मोटी-मोटी दीवारों के रहस्य को
रेही ने खोल दिया है
भव्य महलों के उजालों में, अब
प्रेत पन्नों की कथा है, बस
जो न तो मेरे बड़े बेटे को
न ही छोटे बेटे को
न ही मेरी पत्नि को
न ही प्रेयसी को
न ही माता को
न ही पिता को
न ही साथी को
न कविता को
न ही भाषा को
संतुष्टि देती है|
यथास्थिति
साठ वर्ष से अधिक गुजर जाने पर भी
मुझमें और उसमें कुछ अंतर नहीं पड़ा
मैं आज भी उसे देखने की उत्सुकता में
सड़क पर खड़ा
सलाम ठोकता रहता हूँ
न चाहते हुए भी, अनमनी से
दस्तावेजों से गुजरता हुआ
वर्तमान की पगड़ंडी पर
हाज़िर हो जाता हूँ,
तमाम प्रावधानों और आम चुनावों के
ताम-झाम से होता हुआ
तीसरी आँख के संदर्भों में
खो जाता हूँ
दुविधा की तो कोई बात ही नहीं हुई
आज तक, सभी विकल्पों को
एकाग्रता से, एक आँख से
देखता हूँ,
लिंग निर्धारन की सम्पूर्ण प्रक्रिया
सुविधाओं के कक्ष में
उस समय तैय होती हैं
जब पास से गुजरते हुए शख्स एक दूसरे के चेहरे पर,
थूकते हैं,
क्योंकि एक बड़ा वर्ग
पैदा होने के निश्चित शुभ समय पर
विश्वास कर
संभोग की प्रक्रिया में लगा है
इसी लिए आशा को बहुत आशा है कि
पैदा होने वाला शिशु
गुणों से सम्पन्न
भाग्य वाला होगा,
यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया का ही
नतीजा है कि........
घर से निकलते हुए चप्पल पहनना
जरूरी है, मार्ग में
सूंघकर
गले मिलना परम्परा
जहाँ से जन्म लेती हैं वो पीढ़ी
जिसका नामकरण करना
लाचारी भी है, मजबूरी भी|
व्यवस्था के आधार
जहाँ
दो की बात में
तीसरे की सहमति
व्यवस्था का सहचर
लोकतन्त्र की आँख है
वहाँ भाषा में हाशिये पर धकेले
चौथे के लिए कविता
देखने की तमीज है
जनगनना के अनुसार
प्रगति का आधार
अस्तबल में की घोड़ा शक्ति है
तो खुले में चरने बिल्कुल भी न मनाही है
और आदमी की तर्क शक्ति के पीछे
उसकी समझ नहीं
चतुराई है|
पेंटिंग - साभार google