' चरित्र प्रमाण-पत्र' : कहानी (सीमा शर्मा )

कथा-कहानी कहानी

सीमा शर्मा 5119 7/7/2020 12:00:00 AM

बच्चे को दूध न पिला सकने के कारण उसकी छातियां तन गईं। लग रहा था, सीने में दो गरम–गरम अंगारे रख लिए हों। अगर उन्हें बच्चे के मुंह से न लगाया तो वह लावा बन कर बह जायेंगे। छातियां अंदर से जला रही थीं और धूप बाहर से।

 चरित्र प्रमाण-पत्र

नागफनी के काटों-सी चुभती धूप ने उसके माथे और गले को घमौरियों से भर दिया था।  धूप उसकी तांबई कनपटी को भी जला रही थी। लाडो ने एक बार आगे देखा। लम्बी कतार थी। पलट कर देखा तो कतार की पूंछ काफी दूर तक चली गई थी।

   भीड़ बीच में घुसना चाहती थी। लेकिन लाइन में खड़े लोग थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें बंदर की तरह घुड़क देते थे। लाडो भी चाहती थी कि उसका नंबर जल्दी आ जाये। कतार में होकर भी एक-दो बार उसने हौले से धक्का मारा था। लाइन थोड़ा बिगड़ी भी, लेकिन पुलिस वालों के डंडे ने फिर से सब को सीधा कर दिया। उसे खड़े-खड़े डेढ़ घंटा हो गया था। अभी जाने और कितनी देर तक ऐसे ही लगे रहना होगा। ऊपर से गोद में आठ महीने का झलरिया बच्चा, जो बार-बार ब्लाऊज के अंदर हाथ डाल रहा था। जब कुछ पा नहीं सका तो ब्लाऊज के ऊपर से मुँह लगा कर उसे गीला कर दिया। लाडो बार-बार उसका मुँह हटा कर आँचल ठीक कर रही थी। लेकिन अब तक उसकी लार और दूध की लिसलिसाहट का निशान बना चुका था। भूखे बच्चे की तकलीफ देखी नहीं जा रही थी। लेकिन करती क्या? अगर उसे दूध पिलाने लगती तो लाइन आगे खिसक जाती और उसका काम अधूरा रह जाता। 

   जैसे–जैसे धूप तेज हो रही थी भूख के मारे बच्चे की बिलबिलाहट बढ़ती जा रही थी। लगभग ढाई–तीन घंटे हो चुके थे। बच्चे को दूध न पिला सकने के कारण उसकी छातियां तन गईं। लग रहा था, सीने में दो गरम–गरम अंगारे रख लिए हों। अगर उन्हें बच्चे के मुंह से न लगाया तो वह लावा बन कर बह जायेंगे। छातियां अंदर से जला रही थीं और धूप बाहर से। लाडो परेशान थी।

  दूर खड़ा बड़ी–बड़ी मूछों वाला कांस्टेबल बहुत देर से उसे ताड़ रहा था। उसको लाडो की विवशता थोड़ा विचलित कर रही थी। लेकिन उसे सहूलियत देने का मतलब था लाइन का लहरा जाना। फिर लाठी भांजने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। लाडो को चरित्र प्रमाण-पत्र बनवाना था। लेकिन उस अनपढ़ को पता नहीं कि चरित्र प्रमाण-पत्र होता क्या है और बनेगा कैसे ? सबकी देखा-सीखी वह भी लाइन में लग गई थी। उसके अंदर अजीब-सी हलचल मची थी। खिड़की पर बैठा आदमी इसे बनाएगा कैसे ?  अचानक उसे याद आया कि एक एक्सरा मशीन भी तो होती है। जिसमें पूरे शरीर का फोटू आ जाता है। ससुरी चमड़ा के अंदर घुस कर फोटू निकाल लेती है। शायद उसी से हमारे चरित्र का भी फोटू खींच ले खिड़की वाला साहब। उसे अच्छी तरह याद था जब एक बार उसका चचेरा भाई रामऔतार पेड़ से गिरा था, तब भी तो उसके हाथ का फोटू हुआ था।  

   एक्स-रे मशीन के बारे में सोचते हुए लाडो की परेशानी कुछ कम हो रही थी। एक बार चरित्र का फोटू हो जाए, झंझट छूटेगा। जल्दी काम मिल जायेगा, तो बनवारी का इलाज शुरू करा सकेगी। अभी तो दवा-दारू के नाम पर वही लाल दवा और भूरा मलहम, जो सरकारी अस्पताल से मिला था। यहां आने से पहले दर्द से कराहते बनवारी के अंगूठे पर उसने लाल दवा लगा कर दर्द की गोली खिला दी थी। पर जाने क्यों आराम नहीं था। चार ही दिन में कैसा बीही (अमरूद) जैसा मुंह रह गया है।

*

   उस दिन सुबह से हल्की बूंदा–बांदी हो रही थी। तेज़ शीतलहरी भी चल रही थी। देर से ही सही, बाज़ार में दूकानें सज गई थीं। लेकिन चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। मानो सजी बारात से दूल्हा बिदक कर चला गया हो। चारों तरफ केवल बूंदों का शोर था। बीच–बीच में एकाध ऑटो भर्र-से निकल जाता तो बूंदों और सन्नाटे की जुगलबंदी टूटती। आज स्कूली बच्चे ऑटो से बाहर नहीं झूल रहे थे, बल्कि ऑटो भी ठीक से पूरी सीट भरा नहीं था। शिफ्ट बसें भी अधभरी थीं। सड़क किनारे लालू भाई की दूकान की भट्टी धुआँ फेंक रही थी। मतलब अभी चाय नहीं चढ़ी थी।

   बनवारी को बोहनी की चिंता थी। उसने जेब टटोली। मगर हाफ कट चाय के लिए दो रुपए नहीं निकले। तलब जोर मार रही थी। उधर लाडो की बातें याद आ रही थीं, कि आते समय आलू लेते आना, कई दिनों से तरकारी नहीं खाई। बनवारी अपने ही गुड़नतान में था। तभी एक ऑटो ठीक उसकी फट्टी के सामने आकर रुका। ऑटो में सवार स्कूली बच्चे बड़े जोश में दिख रहे थे। अचानक चार बच्चों ने उसकी दुकान को घेर लिया और एक ने जूता सामने रखते हुए कहा, “अंकल, जल्दी से कील ठोक दो।”

   बनवारी ने जूता हाथ में लिया और उलट-पलट कर पारखी नज़रों से देखता हुआ बोला, “केवल एक कील नहीं लगेगी बेटा, पूरा सोल निकला पड़ा है। पांच रुपये लगेंगे, बोलो तो ठोकूं ?”

      स्कूली बच्चे हड़बड़ी में तो पहले ही थे, चारों ने एक साथ कहा, “हां-हां, देंगे पांच रुपये, जल्दी लगाओ।”

   उधर से ऑटो वाला पों–पों हॉर्न बजा रहा था। तिपाई में जूता फंसा कर बनवारी ने कील मारी तो सीधी उसके अंगूठे से आर-पार हो गयी। खून का एक पतला फव्वारा छींटों के साथ जूते को रंगता हुआ जमीन पर फैल गया। चारों लड़के डर के मारे एक साथ चीख पड़े—खूSSSन। जैसे उन्होंने सचमुच किसी का क़त्ल होते देख लिया हो। वह खुद भी हैरान था। ऐसा कैसे हुआ। इतना अनाड़ी तो वह नहीं था। बच्चों के गरम खून की रफ़्तार मंद पड़ गयी थी। बड़ी कोशिशों के बाद बनवारी के अंगूठे से कील बाहर निकाली गयी। वह लकड़ी के बक्से में रखा गंदा कपड़ा फाड़ कर अंगूठे को बांध रहा था कि एक लड़का दौड़ कर पान की गोमती से चूना मांग लाया और घाव में लपेट दिया। बनवारी ने बड़ी मुश्किल से जूते में कील ठोंकी। इस बीच किसी भी बच्चे ने फिर से ‘जल्दी करो’ नहीं कहा। उन्हें सांप सूंघ गया था। जूता पहनने के बाद पांच का सिक्का सामने रखते हुए बच्चे ने सलाह दी, “अंकल टिटनेस का इंजेक्शन लगवा लेना।” 

   बदले में बनवारी मुस्कराया। ये भी कोई इंजेक्शन लगवाने वाली चोट है। नाजुक जमाने के बच्चे। उसने मन ही मन सोचा। बात आई-गई हो गई। उसने अगूंठे में बंधी पट्टी को भी निकाल फेंका। चोट लगी है, इसकी याद तभी आती जब वह दुकान की साफ-सफाई करता या कचरा और बहेतू जानवरों की लीद-लेंड़ी उठा कर फेंकता। क्योंकि ऐसे में अक्सर ठेस लग जाती या गंदगी घाव में भर जाती। कुछ दिनों से उसे हल्का बुखार रहने लगा था। बीच-बीच में गर्दन भी ऐंठ जाती। गर्दन ऐंठते ही उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगता। एक दिन अचानक दूकान जाते समय बनवारी को चक्कर आ गया। जबड़े आपस में जुड़ गए। लाडो ने चम्मच डाल कर जबड़ों को अलग करने की कोशिश की थी। मगर जब वह नाकाम रही तो दौड़ कर पड़ोसियों को बुला लाई। पड़ोसी कैसो-मैसो लाद-फांद कर सरकारी अस्पताल ले गए। डॉक्टर ने बुखार की दवा देकर घर भेज दिया। लेकिन जब दूसरी बार जबड़े जुड़ने की बात डॉक्टर को बताई गई तब जाकर उसने ठीक से जांच-पड़ताल के बाद टिटनेस  की आशंका जताई। लाडो को पता था कि सरकारी अस्पताल में कुछ होना-जाना नहीं है। वह बनवारी को घर ले आई। 

   पूरे पांच दिन हो चुके। बनवारी ने दूकान नहीं खोली थी। जो कुछ भी राशन घर में था, फुर्र हो गया था। ऐसे में फांका मारने की नौबत आ गयी थी।। भाइयों-पट्टीदारों की असमर्थता भी सामने आ चुकी थी। तब लाडो को लगा कि घेटी में बंधा चार आने भर का मंगलसूत्र किस काम आएगा। अच्छा तो यह है कि इसे बेच कर दवा और राशन ले आये। लेकिन बनवारी ने ऐसा नहीं करने दिया। 

   इसी दौरान किसी ने बताया कि एक बड़ी थर्मल पावर कम्पनी में निर्माण कार्य जोरों पर है। वहां काम आसानी से मिल जायेगा। काम लंबा चलेगा और मजदूरी भी अच्छी मिलेगी। उसे रोटी के साथ-साथ पति के इलाज की भी चिंता सता रही थी। इस सूचना से बड़ी तसल्ली मिली।

  बनवारी जबसे लाडो को ब्याह कर लाया था, खुद ही घर की सारी जिम्मेदारी उठाता रहा। लाडो घर देखती। वह गुल्लक की तरह गदराये बदन और नाटे कद की साँवली औरत थी। बहुत मुँहफट। लेकिन सिर का ऊपरी माला काफी हद तक खाली था। कारण कि उसने कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा। मजदूर माँ-बाप की इकलौती बेटी। गरीबी का दुलार भी अजीब होता है। शानो-शौक़त भले ही पूरी न हो लेकिन मां-बाप पगड़ी की तरह सिर पर धरे घूमते हैं। माँ ने कई पत्थर पूजे तब जाकर सूखे में एक बिरवा जामा था। बड़वी बिटिया। दुलारे-दुलार मिला तो दिमाग चलाने की नौबत ही नहीं आई। अब जब अपने घर में मुसीबत टूटी, तो लाडो को परिवार की ढाल बनना ही था।

   पड़ोसी कल्लू राम और सुखवरिया उसी थर्मल पावर कंपनी के निर्माण कार्य में लगे थे। उन्होंने आसानी से काम मिल जाने का भरोसा दिलाया। उसे और क्या चाहिए था। बच्चे को गोद में लिया और कल्लू व सुखवरिया के पीछे-पीछे यह सोच कर चल दी कि अगर आज ही काम मिल गया तो शाम को लौटते समय आलू और आटा खरीद लायेगी। साथ ही बनवारी की दवा भी। 

   कल्लूराम ने जिस जीन्स और टी-शर्ट पहने व्यक्ति की ओर इशारा किया, वह युवा था और काफी जोर-जोर से फ़ोन पर बातें कर रहा था। 

   “जा मिल ले, यही ठेकेदार है। ”–-कल्लूराम ने बडे विश्वास से कहा। लाडो संकुचाते हुए उसके करीब पहुंची। ‘क्या बोलूं ...कैसे बोलूं’ वह सोच ही रही थी कि ठेकेदार की नज़र उस पर पड़ गई। उसने अनदेखा किया और फ़ोन पर लगा रहा। कुछ देर तो लाडो ने इंतज़ार किया, लेकिन जब उससे रहा नही गया, तो बोल पड़ी, “साहब काम मिलेगा ?” ठेकेदार का जबाब सुने बगैर वह सारी बात एक साँस में कह गई, “बहुत परेशान हूँ, दो दिन से कुछ खाया नहीं है, घर का सारा राशन ख़तम हो गया है, पति बीमार है।”  

   फोन पर बात कर रहे ठेकेदार की नज़र मिक्चर बना रहे मिस्त्री पर टिकी हुई थी, ताकि सीमेंट- बालू का अनुपात देख सके। लाडो ने फिर कहा, “साहब....।” 

   ठेकेदार झल्लाया, “क्या है ? ” मगर अगले ही क्षण सहज हो गया, “काम चाहिए ?” 

      लाडो ने सिर हिला कर हामी भरी।

   “अपना परिचय-पत्र और चरित्र प्रमाण-पत्र दिखा।” 

   लाडो आश्चर्य से ठेकेदार के चेहरे को देखती रही। 

   “परिचय और चरित्र-प्रमाण पत्र चाहिए। वरना कैसे पता चलेगा तू कौन है, कहां से आई है। यहां का नियम है। इसके बिना तो गेट पास भी नहीं बनेगा।” 

   पूरी बात लाडो की समझ में नहीं आई। फिर भी उसने ठेकेदार की बात पर सहमति जताई,     “आप ठीक कह रहे हैं।” 

   ठेकेदार दूसरी तरफ़ निकल गया। लाडो ने कल्लू को बताया कि ठेकेदार ने कोई कागज मांगा है। कहता है, उसके बिना काम नहीं मिलेगा। यह सब बताते हुए वह रुआंसी हो गयी। कल्लू ने समझाया कि परिचय-पत्र और चरित्र प्रमाण के बिना यहां काम नहीं मिलता। ठेकेदार ग़लत नहीं कह रहा। वह तो देना ही पड़ेगा। लाडो उदास हो गई। कल्लू ने बताया कि चरित्र प्रमाण-पत्र थाने से बन जायेगा। रही बात परिचय-पत्र की तो आधारकार्ड या वोटरकार्ड से काम चलेगा। ग़नीमत थी कि पहचान-पत्र उसके पास था। पर चरित्र प्रमाण-पत्र के बारे में सोच कर मन भारी होने लगा।   

*

   लाइन में लगी लाडो को करीब दो घंटे से लगातार निहारता सिकुड़ा दलाल उसकी एक-एक हरकत पर बड़ी बारीकी से नज़र रखे हुये था। लाडो की बेबसी और लाचारी उस सिकुड़े की आँखों में धीरे-धीरे चमक पैदा कर रही थी। लाडो का बच्चा भूख से बिलबिला रहा था। वह पत्थर की तरह ठोस होती अपनी छातियों को नरम करना चाहती थी। लाइन में आगे लगी एक बुजुर्ग महिला बारी आने के बाद ऑफिस के अंदर से रोतली सूरत बना लौट रही थी। उसे देख कर लाइन में खुसफुस हुई। जब वह लाडो के पास से गुजरी तो उसने पूछ लिया, “का भईल काकी?”

      महिला ने निचोडे हुए नींबू की तरह मुँह बना कर थाना प्रभारी से लेकर सरकार तक की दाई- महतारी कर दी। लाडो समझ गयी कि इसका चरित्र नहीं बन पाया होगा। एक्सरा मशीन की पकड़ में आया ही नहीं होगा। बुढ़ापे में ऐसी मुश्किल आती होगी। यह सोच कर उसे बुढ़िया पर तरस आने लगा। फिर कनखियों से उसने खुद को देखा। उसे तसल्ली हुई। अभी सब कुछ सही सलामत है। वह बेसब्री से अपनी बारी का इंतजार करने लगी।

   शाम ढलने को थी। लौटते पक्षियों की चियू-चियू उसे बनवारी की याद दिला रही थी। वह भी तो उसकी बाट जोह रहा होगा। हर चिलकन को यह सोच कर बर्दाश्त करता होगा कि लाडो आयेगी तो दर्द की दवा लायेगी। देखते ही देखते ऑफिस का गेट बंद हो गया। लाडो की बारी नहीं आ पाई। लाइन भीड़ में तब्दील हो चुकी थी। चारों ओर अफरा-तफरी मच गई। ऐसे में किसी को धक्का मारना बेहद आसान था। लेकिन खुद को धक्के से बचा लेना उतना ही मुश्किल। वह बच-बचा कर निकल रही थी। तभी ऐसा लगा कि कोई उसका बायां हाथ खींच रहा है। वह खिंचती चली जा रही थी। जब तक उस चेहरे को देख पाती, उसने खुद को भीड़ से हट कर एक डग्गा के पास खड़ा पाया।

  यह सिकुड़ा दलाल था, जो सारा दिन लाइन में लगे लोगों को एक-एक कर कोने में ले जा कर खुसफुसाता था। उसी ने भीड़ से खींच कर उसे यहाँ किनारे ला खड़ा किया था और खुद डग्गे से ओढ़का हुआ था। 

   “ऐ बाई, सुबह से देख रहा हूँ रगड़ाई जा रही है भीड़ में ?” 

      लाडो अटपटिया गयी कि सिकुड़ा काहे इतनी पूछताछ कर रहा है और काहे इतना मेहरबान हुआ जाता है। चरित्र मेरा और तकलीफ इसको। हालाँकि वह कुछ बोली नहीं। सिकुड़े ने फिर कहा, “बहुत परेशान लग रही है ? मैं तेरी मदद कर सकता हूँ।” 

  उसका सारा ध्यान लाडो के छोटे से मंगलसूत्र पर था। सिकुड़े की सहानुभूति पाते ही लाडो रो पड़ी। कुछ ही देर में उसने अपना सारा हाल कह सुनाया। 

  “साहब कैसे बनता है चरित्र ?... हमें नहीं पता।”

    बकचोद औरत। सोच कर सिकुड़ा हँसने लगा। लाडो को बड़ा गुस्सा आया कि उसके हाल पर वह  हँस रहा है। अगर वह सिकुड़ा ना होता तो अभी इसे तनेन देती।

  “अगर तू चाहती है कि तेरा चरित्र प्रमाण-पत्र जल्दी बन जाये तो कुछ देना-दिलाना पड़ेगा।” उसका ध्यान फिर से मंगल-सूत्र पर टिक गया।  

  लाडो थोड़ी देर चुप रही। फिर जैसे कुछ याद आ गया, “क्या देना होगा  ?” उसने बच्चे को सीने से चिपकाते हुये पूछा। उसी वक्त सिकुड़े का फोन आ गया। वह लाडो से ‘जरा रुक’ कह कर किनारे हो गया। सिकुड़ा क्या देने-दिलाने की बात कह रहा है, यह लाडो समझ नहीं पा रही थी। उसे घबराहट भी हो रही थी। मन में यह ख्याल भी आ रहा था कि वहाँ रुकना ठीक नहीं, घर चली जाये। पर बनवारी का जब्त हुआ जबड़ा उसकी आँखों के सामने घूम जाता था। सिकुड़े को फोन में व्यस्त देख लाडो वहीं जमीन पर निढाल होकर बैठ गयी। अपनी छातियों से आँचल हटाया तो ब्लाऊज चिपचिपाया था। सीने से ब्लाऊज हटाते ही बच्चा उसकी छाती से चिपक गया। लाडो की चीख निकल आयी। बच्चा जब चूसने लगा तो थोड़ा आराम मिला। वह बच्चे के झलरी बालों को सहलाने लगी।

  ठीक दस मिनट बाद सिकुड़ा प्रकट हुआ। लाडो ने तड़प कर कहा, “साहब बहुत देर हो गई। मेरा मनसेरू बीमार है, दर्द से कराह रहा होगा। अगर आज भी मेरा चरित्र नहीं बना तो...।” लाडो पहले गिड़गिड़ाई, फिर फफक पड़ी।

 “चल।” उसने डग्गे के पीछे की ओर इशारा करते हुए कहा। बच्चा सो चुका था। लाडो ने आँचल ठीक किया और बच्चे को समेटती हुई उसके पीछे चल पड़ी। आगे लम्बे-लम्बे डग भरता सिकुड़ा, उसी के जूते के निशान पर पैर रखती लाडो। सिकुड़ा चालीस-पैंतालीस के बीच का रहा होगा। छह फुट से कम नहीं था। लेकिन कंधे से आगे की ओर झुक गया था और पेट से चिगुड़ कर गठरी बन गया था।  

  अँधेरा घिर आया था। भीड़ के रौंदे मैदान अब सुस्ता रहे थे। चारों ओर सांय-सांय की आवाज़ आने लगी थी। वैसे भी थाना परिसर में दिनदहाड़े ही सन्नाटा पसरा रहता है। जब भी आवाज़ होती है, वह  मनहूसियत से भरी कोई कराह ही होती है।

  कुछ दूर चलने के बाद सिकुड़ा एक कोने में खड़ा हो गया। लाडो ने भी कदम रोक लिए। जिस कोने में वह लाडो को ले गया वहाँ सन्नाटा था और अंधेरा कुछ अधिक गहरा। उसका डरना वाजिब था। लेकिन वह खुद को दिलासा देती रही कि अभी तो वह थाना परिसर में है। कुछ बुरा नहीं होगा। उसे क्या पता कि दुष्कर्म पवित्र और सुरक्षित समझी जाने वाली जगहों पर भी होते हैं। दुष्कर्मी तो हर जगह टोह में रहते हैं। 

   “साहब, कहाँ ले आए हो ?”

     “इतना घबराती क्यों है ? मुँह बंद रख। किसी ने सुन लिया तो तेरा क्या, मेरा भी चरित्र खटाई में पड़ जाएगा।” सिकुड़ा दलाल झल्ला कर बोला। लाडो चुप हो गयी। उसे लगा की अगर सिकुड़ा तिनग गया तो हाथ आता चरित्र छटक सकता है। सिकुड़ा उसके एकदम करीब आकर बोला, “चरित्र बनवाने में लाइन लगा कर दो सौ रुपए लगते हैं। लेकिन कोई गारंटी नहीं होती कि कब तक बनेगा।”

   वह उसका चेहरा देख कर उसकी दहशत का अंदाजा लगाना चाहता था, लेकिन धुँधलका इसमें उसकी ज्यादा मदद नहीं कर रहा था।  

   “अगर तू मुझे पांच सौ रुपये दे तो सुबह ही तेरा चरित्र मिल जाएगा।” 

   “पांच सौ ?” लाडो ने पंजा दिखाते हुए पूछा। सिकुड़े ने उसके आश्चर्य में उसकी दहशत देख ली। 

   “मेरे पास पांच सौ रूपये नहीं हैं। इतने पैसे कहाँ से लाऊँ ?” 

       “पहनने को तो सोने का मंगलसूत्र पहना है  और पाँच सौ रुपए नहीं हैं  ? चल तू चार सौ दे दे।”  

   मंगल सूत्र का नाम सुन कर लाडो घबरा गई। उसे अनहोनी का अंदेशा होने लगा था। वह दो कदम पीछे हटना चाहती थी कि तभी सिकुड़े ने उसका मंगल-सूत्र पकड़ लिया। लाडो ने जाने कैसी-कैसी मुसीबत के दिनों में भी इस मंगलसूत्र पर कोई आंच नहीं आने दी थी। इन दिनों बार-बार यह ख्याल भी आता है कि इसे बेच कर बनवारी की दवाई करा ले। लेकिन इस ख्याल को वह झटकती रही। उसी मंगल सूत्र को सिकुड़ा पकड़े हुए था। लाडो ने उसे एक जोर का धक्का मारा और भाग खड़ी हुई। सिकुड़े की कराह से उसने अनुमान लगाया कि वह वहाँ बिखरे पड़े कबाड़ में गिरा होगा। पर उसने पलट कर नहीं देखा। इस छीना-झपटी में उसका बच्चा रोने लगा। वह बदहवासी में गेट की तरफ भागती रही। 

   पता नहीं सिकुड़े को संभलने में वक़्त लगा या गेट पर खड़े पुलिस वालों से वह डर गया। उसने लाडो का पीछा नहीं किया। वह हांफती हुई मेन गेट पर पहुँच गई थी। उस वक़्त दिमाग एकदम सुन्न था। उसने कस कर बच्चे को सीने से जकड़ रखा था। गेट पर दो सिपाही खड़े थे। उनमें से एक सुरती मल रहा था। उसने बदहवास लाडो को देखा तो डपट कर रोक लिया।

  “ऐ बाई, क्या चुरा कर भाग रही है ?”

  दूसरे सिपाही ने पूछा, “भीड़ को गए कितना समय हो गया, तू अंदर क्या कर रही थी?”

   लाडो के होंठो में बुड़बुड़ी मचली। बताना तो चाहती थी लेकिन आवाज़ की जगह थूक के दो चार बुलबुले ही फूट सके। उसने सामने खड़े डग्गे की तरफ इशारा किया।  

   “वहाँ क्या कर रही थी? और ये बच्चा किसका है ?”

      “मेरा ही है साहब।” 

   “पकड़े जाने पर सब ऐसा ही बोलते हैं। बच्चा चुरा कर लाई है ना ?”

    “नहीं साहब, कसम खाती हूं, मेरा ही है।” वह जोर-जोर से रोने लगी। 

  “चल अंदर, सब पता चल जाएगा जब बड़े साहब के सामने पेशी होगी।” पुलिसवाले ने आँखे तरेरीं।  

  लाडो ने ‘गोरेलाल-गोरेलाल’ कहकर बच्चे को हिलाया तो उसने सामने की दतुली दिखा दी। 

  “देखा ना साहब ?” लाडो ने कहा, “है न मेरा ही बच्चा? …बस रंग अपने बाप का पाया है, एकदम सफ़ेद पिसान के नाईं।” 

    वह सिपाही के पैरों से लिपट गयी। उसने मुश्किल से लाडो को अपने पैरों से अलग किया और घसीटता हुआ थाने के अंदर की ओर ले जाने लगा। तब तक कई वर्दीधारी आ चुके थे, जो उसे देख कर अलग-अलग राय देने लगे। किसी ने उसे बच्चा चोर, तो किसी ने धंधे वाली कहा। लाडो ने खुद को एक बेबस औरत बताया जिसका चरित्र (प्रमाण-पत्र) नहीं मिल रहा। यहाँ वह चरित्र बनवाने आई थी। उसका नंबर नहीं आया।

  अब तक बड़ी-बड़ी मूछों वाला मुंशी भी आ गया था, जिसकी आँखे सुबह से लाडो की विवशता की गवाह बनी थीं। उसने पूछा, “तेरा भतार कहाँ है ? क्या नाम है उसका ? उसी को बुला। सच-झूठ का फैसला हो जायेगा।” 

   बड़ी मूछों वाले की बात सुन उसकी हिचकी बंद हो गयी। उसने झट से अपने भतार का नाम बता दिया। लेकिन यह भी बताया कि वह शख्त बीमार है। आने की हालत में नहीं है। आखिर काफी पूछताछ और चुहलबाजी के बाद ही उसका पिंड छूटा।

*

    लाडो की आहट पाते ही दर्द से कराहते बनवारी ने दवाई के बारे में पूछा। 

         “दुकान बंद हो गई थी।” उसने इतना ही कहा और चूल्हा जलाने लगी। सरसों के तेल में हल्दी गरम कर उसने बनवारी के घाव पर लगा दिया तो दर्द में थोड़ा आराम मिला। उसकी आँख लग गई। यह भी नहीं पूछा कि काम हुआ या नहीं। लाडो की आँखें नींद से बोझिल हो रही थीं। पलकें मोटी हो कर झूल गई थीं। भूख से पेट खपच्ची हो चुका था। खाने को कुछ था ही नहीं। बस पानी पीकर कथरी में निढाल हो गयी। लेकिन डर अभी तक दबोचे हुए था। उसने गले में पड़े मंगलसूत्र को कस कर पकड़ लिया। 

    सुबह उठी तो सबसे पहले पड़ोसी कल्लूराम और सुखवरिया के पास गयी। वापस लौटाने का वादा करते हुए थोड़ा पिसान माँग लाई थी। पिसान माँगते हुए उसने सुखवरिया से पूछा था, “बहिनी, ई चरित्र कहीं और से बन सकता है क्या?”

      “नहीं, बनेगा तो वहीं से,” कह कर सुखवरिया ने सुझाव दिया, “आज जल्दी चली जाना, लाइन में लग जायेगी तो दोपहर तक बन जायेगा।”

      लाडो थाने में लगी कतार में खड़ी अपनी बारी का इंतजार करने लगी। वह जल्दी लाइन में लग गई थी इसलिए शाम होने तक खिड़की के पास पहुंच पाई। अधपके बालों वाले वर्दीधारी ने, जो सबके नाम रजिस्टर में लिख रहा था, नाक पर चश्मा चढ़ाते हुए उससे नाम पूछा। 

   “लाडो।”  

   “पति का नाम ?”

   “बनवारी,” कह कर उसने गोदी के बच्चे को दिखाते हुए बताया, “अभी इसका नाम नहीं धराया है। वैसे, गोरेलाल...गोरेलाल कहते है।”  

   “ठीक है...ठीक है। ला दिखा तेरा शपथ पत्र।”—उसने खिड़की से हाथ आगे बढ़ाया। 

   “शपथ ?” लाडो बुदबुदाई,   “साहब ई कहां से आएगा ?”

      “रै मूर्ख औरत, शपथ पत्र नोटरी के पास बनेगा। तहसील चली जा और आगे से हट, दूसरों को आने दे।”

    लाइन में उसके ठीक पीछे लगे एक बुढऊ ने उसे ठेलने के लिए धक्का मारा। वह गिरते-गिरते बची। 

   “अरे रुको बुढऊ, जाती हूँ। धक्का मती मारो। वैसे भी अब तुम्हारे पास कौन सा चरित्र बचा होगा जो इतनी जल्दी मचा रहे हो।”

   लाइन में लगे कई लोग हँसने लगे। एक ने कहा कि बुढऊ सठिया गये हैं। पर लाडो को हँसी नहीं आई। आज तीसरा दिन था। अभी भी वह चरित्र प्रमाण-पत्र से बहुत दूर थी और हताश भी। उसकी आँखों के सामने बनवारी और आलू दोनों एक साथ घूम जाते। कतार से हटते हुए उसने एक नौजवान से पूछा, “बाबू ये लोटरी कहाँ मिलेगा ? सपथ बनवाना है।”

  वह रुआंसी हो गई थी। पहली बार उसे अपने अनपढ़ होने पर गुस्सा आ रहा था। काहे नहीं पढ़ी। अगर पढ़ी-लिखी होती तो आज यह दिन न देखना पड़ता। मन ही मन उसने कसम खाई कि चाहे कुछ भी हो जाये लेकिन वह गोरेलाल को स्कूल जरूर भेजेगी। 

  नौजवान को उसकी हालत पर तरस आ गया था। उसने लाडो को समझाया कि किस तरह वह तहसील जाये और किस तरह शपथ पत्र बनेगा। अगले दिन दस बजते-बजते लाडो तहसील पहुँच गयी। उसने देखा कि एक मेज के इर्द-गिर्द कई लोग झुंड लगाए हुए हैं। थोड़ा सकपकाती-सी लाडो एक ऐसी टेबल के पास रुक गयी जहाँ भीड़ कम थी। लेकिन उसे याद ही नहीं आ रहा था कि  बनवाना क्या है।  

  तभी कुर्सी पर बैठे काले कोट वाले ने किसी से कहा, “जाओ शपथ-पत्र के लिए स्टाम्प लेकर आओ।”

     लाडो को याद आ गया कि उसे भी तो शपथ ही बनवाना है। उसने झट-से काले कोट वाले से कहा, “साहब, मेरा भी शपथ बना दो।”

   टाइपिंग मशीन पर झुके काले कोट वाले ने सिर उठा कर देखा, “तो जा, जाके स्टाम्प ले आ।”

   “सटाम कहाँ से लाना है ?”  

       “वो वहाँ, एक टेबल पर पेटी लेकर जो आदमी दिख रहा है ना, उसी के पास चली जा।” 

   वह पेटी वाले के पास जाकर खड़ी हो गई। डरते-मरते कहा, “साहब शपथ बनवाना है।”

   पेटी वाले ने उसका नाम, पति का नाम और पता पूछा। कुछ ही देर में स्टाम्प पेपर उसकी ओर बढ़ाता हुआ बोला, “ये लो, बीस रुपये निकालो।”

   “बीस रुपये ?” लाडो ने होंठों को गोल किया तो पेटी वाले ने झिड़की लगाई , “ऐसे बिदक क्यों गई ? जल्दी कर।” उसने एक हाथ आगे बढ़ा रखा था। लाडो ने बीस रुपए उसके हाथ पर रख दिए। स्टाम्प लेकर वह नोटरी के पास गई। उसने पहले ही बता दिया कि सौ रुपए लगेंगे। कल उस नौजवान ने बताया था कि पचास रूपये लगेंगे। उसने नोटरी के चेहरे की तरफ़ देखा। उसका चेहरा गोल और भव्य था। लाडो की हिम्मत जवाब दे गई। उसने खुद को समझाया कि बहस करके बेइज्जत होने से क्या फायदा। ये पसीजने वाला चेहरा नहीं है। वह पैसों का इंतजाम पहले ही कर चुकी थी। घर में रखी दो  जोड़ा पैरों की मुदरी बेच डाली थीं। 

   वह रात भर करवट बदलती रही। बनवारी की हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी। काम मिलने में रोज कोई अड़ंगा लग रहा था। चिंता और उधेड़बुन में जाने कब नींद आ गई। सवेरे उठते ही सोच लिया था कि आज ‘चरित्र’ लेकर ही आएगी। उसके थाना पहुंचते-पहुंचते लाइन लग चुकी थी। कुछ दलाल इधर-उधर चक्कर काट रहे थे और बिना लाइन लगाये चरित्र प्रमाण-पत्र बनवाने की गारंटी दे रहे थे। लेकिन सिकुड़ा आज नदारद था। 

   आखिरकार लाडो की बारी आ गयी। अधपके बालों वाले वर्दीधारी ने देखते ही उसे पहचान लिया। “लाई है शपथ पत्र ?”  उसने चश्मे को नाक पर सरकाते हुए पूछा।

    “हाँ।” लाडो ने शपथ-पत्र खिड़की से अंदर सरका दिया।

    “ठीक है,” कहते हुए उस वर्दीधारी ने अपना मुंह खिड़की के पास लाकर पूछा, “फीस लाई है ना ?”

         “फीस ?” लाडो की आँखें बाहर निकल आईं। उसके पीछे खड़े आदमी ने फौरन जेब में हाथ डाल कर पैसे निकाले और एक बार उन्हें देख कर फिर से जेब में रख लिया। वर्दीधारी ने नाक पर सरक आये चश्मे को उतार कर सामने रख दिया और पेन को कान के पीछे खोंसते हुए लाडो को इशारे से अपने और करीब बुलाया, “पैसे-वैसे तो लाई है?” 

      “पैसे ? कितने ?” लाडो का कलेजा धक्क से रह गया। वर्दीधारी ने दो उंगली उठा कर दो सौ का इशारा किया। जब लाडो ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की तो उसने स्पष्ट किया।     

   “दो सौ रुपये ?” लाडो का मुँह खुला रह गया, “मेरे पास नहीं हैं साहब।”

   वर्दीधारी का क्रोध उसकी आँखों में उतर आया, “जब इंतजाम हो जाए तो आ जाना।” 

       “साहब मेरे पास  जहर खाने के लिए भी पैसे नहीं हैं। दो सौ रुपये कहां से लाऊँ ?” 

       “तो फिर  किनारे हो जा और हवा आने दे।” 

   लाडो के पीछे लाइन में लगा व्यक्ति सारी बातें सुन रहा था और बार-बार अपनी जेब में हाथ डाल कर सौ-सौ के दोनों नोटों को देख लेता। शायद उसका इशारा था कि वर्दीधारी उसे आगे बुलाए और उसका काम करे। 

   “साहब आपके हाथ जोड़ती हूं।” 

        “ऐसा नहीं होता भई। इन पैसों का भी हिसाब देना पड़ता है। फटाफट किनारे हो।” 

    ‘साहब’ कह कर उसने खिड़की के सामने हाथ जोड़ दिए और रो पड़ी। 

    “ऐसा है, अभी तू किनारे हो और जाकर उस डग्गा के पास बैठ जा। एक घंटा बचा है खिड़की बंद होने में। उसके बाद देखता हूँ।... कुछ करता हूं।” 

        लाडो को हटना नहीं पड़ा। पीछे वाले ने उसे ठेल दिया और वह लाइन से बाहर हो गई। समझ में नहीं आ रहा था कि रुके या चली जाए। उसे फिर बनवारी का जब्त हुआ जबड़ा याद आ गया। वो धीरे-धीरे डग्गा की तरफ बढ़ चली। वहां पहुंच कर पसर कर बैठ गयी। उसने ब्लाउज के हुक खोल दिए। बच्चा चुहुकने लगा तो उसकी पत्थर हुई छाती नरम होने लगी। आज वह मंगल सूत्र उतार कर आई थी। उसे बड़ी तसल्ली हुई। मन ही मन सोचा, वर्दीवाला और क्या ले लेगा ? 

- पेंटिंग साभार google 

सीमा शर्मा द्वारा लिखित

सीमा शर्मा बायोग्राफी !

नाम : सीमा शर्मा
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जन्म- 22 अक्तूबर को देवसर (मध्य प्रदेश) में।  

शिक्षा- एम.ए. (राजनीति विज्ञान, हिंदी और शिक्षा शास्त्र)।

लेखन- जनसत्ता, कथादेश, परिकथा,  इंद्रप्रस्थ भारती, कथाक्रम, नया साहित्य निवंध, दुनिया इन दिनों और वेब मैग्जीन्स सहित कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित। 

संप्रति- अध्यापन।

पता- टी.टी.एस. 1/186, एन.टी.पी.सी. कालोनी, विन्ध्यनगर,

जिला –सिंगरौली (म.प्र.)। 

पिन- 486885

मो-9479825453

ई-मेलः seemasharmat1@gmail.com


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पोस्ट की गई टिप्पणी -

ग़रीबी और बेबसी को उजागर करती इस कहानी को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है।

11/Jul/2020
ग़रीबी और बेबसी को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है

Ashish Kumar Singh

07/Jul/2020
Nice story

Vijith Mohanraj

07/Jul/2020
सीमा जी, आपकी पहले की कहानियों के रूप में ...... सरल लेकिन मजबूत लेखन ....... चलते रहें।

मानसी

07/Jul/2020
हकीकत को उजागर करती कहानी। बहुत बेहतरीन लेखनी।

हाल ही में प्रकाशित

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