वैश्विक पटल पर तेजी से बढती तकनीकी व्यवस्था के बीच टूटते मानवीय रिश्ते, बिगड़ते आर्थिक पहलू और लस्त-पस्त होती लोकतान्त्रिक सरकारों के ढुल-मुल रवैये ने जैसे सबकी सांसों को रोक दिया हैं ऐसे ही कुछ पहलुओं को अपनी कविताओं में कहने की कोशिश की है 'ज़हीर अली सिद्दीक़ी' ने |
किसान
गाय-बैल सी बात कहाँ है?
मूँछ कहाँ वह ताव कहाँ है?
बैल नहीं, हल से वंचित हूँ,
मनोदशा से मैं कुंठित हूँ।।
गोबर खाद अमृत बोता था,
उपज स्वस्थ, संतुष्ट सोता था।
खाद नहीं, उर्वरक राज है,
उपज बढ़ा, अवसाद ब्याज है।।
खाद रसायन ज्ञान नही है,
मानो जीवन का मान नही है।
उगा अन्न सन्तुष्ट नही हूँ,
पेट भरा पर स्वस्थ्य नही हूँ।।
जला रहा अवशेष खेत में,
बना रहा शमसान खेत में।
तकनीकी का काल जुड़ा है
जीवन का महाकाल खड़ा है।।
केंचुए का परित्याग एक है,
निःस्वार्थ भाव और राग एक है।
उसकी हत्या ज़ुर्म बड़ी है,
धरती माँ मायूस खड़ी है।।
वृष्टि, सूखा, शीत और ओला
आपदा से लड़ रहा अकेला,
मैं किसान ज्ञान कृषि का,
बीज नही ज़हर बो रहा।।
आत्महत्या
आत्महत्या?
ख़ुद की हत्या तो है
पर सर्वप्रथम हत्या है
स्नेह के अंकुरण की,
स्वछंद विचरण की ।
निर्धारित दिशाओं की,
बदलते फिज़ाओं की..
बुज़ुर्गों के परामर्शकी,
विजय के निष्कर्ष की।
श्रम के मापदण्ड की,
उन्माद के प्रचंड की..
उकेरे हुए चित्र की,
चित्र के चरित्र की।
गायक के गीत की,
गीत के हर प्रीत की...
डूबते के आस की,
साहिल के प्रयास की।
संघर्ष के हुंकार की,
हार के हर जीत की...
उत्पन्न यदि मतभेद है
मतभेद से क्यों खेद है?
विद्रोह से विच्छेद मन
लीन क्या विलीन क्या?
यदि भूख के मशीन की...
दूध की उधारी से
मानव को लाचारी से
मुक्ति मिल जाती,
यदि भूख के मशीन की
ईजाद हो जाती
गरीबों को बेगारी से
समाज को बेरोज़गारी से
मुक्ति मिल जाती,
यदि भूख के मशीन की…
मंदिर को भिखारी से
भक्त को पुजारी से
मुक्ति मिल जाती,
यदि भूख के मशीन की….
अज्ञानी को ज्ञानी से
समाज को बेईमानी से
मुक्ति मिल जाती,
यदि भूख के मशीन की….
राजनीति में हवाई से
नेताओं की बेहयाई से
मुक्ति मिल जाती,
यदि भूख के मशीन की…
श्वान को शिकारी से
रात के पहरेदारी से
मुक्ति मिल जाती,
यदि भूख के मशीन की…
क़ुदरती तूफ़ान है...
अंधेरे के साये में,
झूठ पर परदा डाला।
क़ुदरती तूफ़ान है,
परदा उड़ा डाला।।
कागज़ के फूलों सा,
खिलते तुझको देखा।
खुशबू न आने पर,
झुकते तुझको देखा।।
थोड़े से शोहरत से,
ख़ुद को ख़ुदा समझा।
महज़ एक नसीहत से,
ख़ुद को बदल डाला।।
ताकत के ग़ुरूर में,
ज़ुर्म में मशगूल है।
बेबशी के आलम में,
आँसू में तब्दील है।।
राजनीति को मोड़ दूँ,
चाहता हूँ राजनीति को मोड़ दूँ,
मानवीय विचारों से जोड़ दूँ।
राष्ट्रहित का ऐसा कवच गढ़ दूँ,
शत्रुओं से दूर महफूज़ कर दूँ।।
राजधर्म निभाने में एकजुट पाऊँ,
संविधान का जाप सांसों मे पाऊँ।
सदन की पवित्रता ध्येय हो हमारा,
पार्टी कोई हो लोकतंत्र का नारा।।
पद की गरिमा से अवगत करा दूँ,
शब्दों का चयन कर बोलना सिखा दूँ।
एकता का मसला एक साथ पाऊँ,
कथनी और करनी में अंतर न पाऊँ।।
मूलभूत जरूरतों से अवगत करा दूँ,
ग़रीब, बेसहारों का तकलीफ़ कह दूं।
बेबसी के चंगुल से आज़ाद कर दूँ,
भूखा न कोई ऐसा तकनीक गढ़ दूँ।।
स्वार्थ के बदले परमार्थ भर दूँ,
बसुधैव कुटुम्बकम का राग भर दूँ।।
विभाजक विचारों का सर्वनाश कर दूँ,
मन की अमीरी से लबरेज़ कर दूँ।।