राजा की बारात : कहानी (रमेश शर्मा )

कथा-कहानी कहानी

रमेश शर्मा 1493 7/27/2020 12:00:00 AM

उनकी इन बैठकियों में उनके जीवन की कहानियाँ दर्ज होती गईं थीं ! इन कहानियों में कहीं कच्ची उम्र का अनकहा प्रेम था तो कहीं अनगढ़ रास्तों पर चल पड़ने के उनके निजी अनुभव थे |

राजा की बारात

जिस दिन राजा की बारात आने को थी उसी दिन अकस्मात उसके सारे काम आन पड़े थे  | उसके काम का समय और राजा की बारात का समय भी वही था | शहर में कई दिनों से राजा की बारात को लेकर तरह-तरह के चर्चे थे | पूरा सरकारी अमला तैयारी में लगा हुआ था | कार्यालयों में खाली कुर्सियां देखकर लोग काम हुए बिना मायूस होकर अपने घरों को लौटने को मजबूर थे | बेनर-पोस्टर, टेंट लगाने के चक्कर में शहर में कई-कई दिनों से बिजली चली जा रही थी| कई दिनों से वह सोच ही रही थी कि जिस दिन राजा की बारात आये उसे घर से बाहर निकलना ही न पड़े | यूं भी राजा की अगुवानी में शहर की सडकों पर निखट्टे पुलिस वाले हर जगह रास्ता रोके ही खड़े मिलेंगे | यहाँ खड़े रहो , वहां खड़े रहो , इधर से नहीं जाना , उधर से नहीं जाना, बस लोगों को टोंकते रहना ही उनका काम होगा | बंदिश पर बंदिश | कोई मरीज हस्पताल न पहुंचे और दम तोड़ दे, कोई बच्चा समय पर न पहुँच पाए और किसी परीक्षा से वंचित हो जाए कोई बात नहीं पर राजा की बारात में कोई व्यवधान उन्हें पसंद न होगा | राजा की नाराजगी भला कौन झेल सका है आज तक जो वे झेल पाएंगे  | राजा की बारात को लेकर उसके पिता ने जो दंश झेला और परिवार को जिन मुसीबतों का सामना करना पड़ा उसकी हमेशा वह प्रत्यक्षदर्शी रही | आज वर्षों बाद वह कहानी फिर से जेहन में उभर आयी , समय की दीवारों पर जगह-जगह घाव फूट पड़े , लहू की धार बहने लगी और उस धार में उसे एकबारगी बहना पड़ा |

पिता भी पुलिस में थे | उन्होंने ही एक बार गुस्से में कहा था ये सूबे के मुख्य-मंत्री अपने को राजा और जनता को अपना गुलाम ही समझते हैं , चुनाव आते ही शहर-शहर लाव-लश्कर के साथ लोगों से लूटे हुए धन के बहुत छोटे हिस्से को उन्हें ही खैरात में बांटने निकलते हैं ,जैसे राजा की बारात प्रजा को भीख देने को निकली हो | वे यह भी कहते कि अरे राजा भीख देने नहीं बल्कि वोट की भीख के जुगाड़ में आया है |स्वभाव के मुताबिक़ उन्हें किसी स्कूल ,कॉलेज ,या मदरसे में जाना था पर उन्हें आजीविका के लिए पुलिस की नौकरी में आना पड़ा गोया कोई सही आदमी सही जगह पर पहुँचने से हमेशा के लिए वंचित रह गया हो | सही जगह पर न पहुंच पाने के बावजूद उनका स्वभाव वही रहा , उसे नहीं बदलना था सो नहीं बदला | ऐसे में अपने स्वभाव में वह कठोरता आखिर वे कहाँ से ला पाते जिसे कि आम जनता या किसी मजलूम के साथ उन्हें बरतनी होती थी | स्वभाव की मुलामियत जीवन भर उन्हें उस कठोरता तक पहुँचने में दीवार बनकर खड़ी रही | 

कई बार उनके सहकर्मी उनका मजाक उड़ाते " अरे आपको तो मास्टर जी होना था , इस महकमे में ऎसी मुलामियत नहीं चला करती | हर जगह रहम करना कहाँ की बात है , आप हैं कि एक हल्की थप्पड़ मारने से भी गुरेज करते हैं | आप क्या ख़ाक पुलिसिया की भूमिका निभा पाएंगे  | "

वे पलट कर जवाब देते " अगर मारपीट से ही अपराध खत्म हो जाते तो अब तक बहुत कुछ सुधर चुका होता | पहले इस महकमे के लोग तो सुधरें , रक्षक को भक्षक समझने की धारणा यूं ही विकसित नहीं हो गई है | आखिर हम सब उसी स्कूल से निकले हुए लोग हैं जिसने स्वभाव में मुलामियत और जीवन जीने की कला को कभी हमारे भीतर बीजारोपित किया था , आखिर यहाँ आने के बाद ऐसा क्या बदल गया कि स्कूल की विरासत को हम कूड़े दान में फेंक दें और उसका मजाक उडाएं !

"तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता" साथियों के ताने उन्हें हर बार सुनने को मिलते | इन तानों ने कभी उन्हें विचलित नहीं किया | वे आजीवन अपनी ही राह चले और चलते रहे |

उस दिन भी मुख्य मंत्री की विकास यात्रा आ रही थी जिसे वे राजा की बारात कहते रहे थे | उनकी तैनाती सदर हस्पताल रोड पर ट्रेफिक को कंट्रोल करने की थी | एस.पी. और डी.एम. का सख्त निर्देश था कि जब काफिला गुजरे तो एक परिंदा भी सड़क के ऊपर न गुजरने पाए | वे इसी कोशिश में लगे थे पर यह सड़क ही ऎसी थी जिसे जरूरतमंद और लाचार लोगों को अपनी पीठ पर लादकर हस्पताल तक ले जाने की आदत सी थी , लोगों को भी इस सड़क पर बेरोकटोक चलने का अभ्यास था  , किसी ने कभी इस तरह नहीं टोका था उन्हें जैसा कि आज उन्हें टोका जा रहा था | वे मजबूर थे , उन्हें हर हाल में लोगों को रोके रखने का आदेश था , इसलिए वे कोशिश में लगे रहे | जिस कठोरता और जुबान में बेरूखी की जरूरत उन्हें इस काम में थी उनके पास तो वह थी ही नहीं , इसलिए एक बीमार और शरीर से जर्जर हो चुके अकेले बूढ़े को अपने भीतर उठे दया और करूणा के आवेग के कारण हस्पताल तक उन्होंने जाने की ढील आखिर दे ही दी | बूढ़ा दो सौ मीटर ही चला था कि उसी समय मुख्य मंत्री का काफिला इस सड़क पर आ धमका | सड़क यूं भी उस दिन खाली थी और बेचारा बूढ़ा आदमी सड़क के बीचों-बीच आराम से धीरे-धीरे चल रहा था |

 चिलचिलाती धूप में उसकी साँसें फूल जा रहीं थीं | अचानक सायरन की आवाज आने से वह सहम गया | किधर भागे ,किधर सरके उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था | अचानक दो पुलिस वाले कहीं से दौडकर आए थे और बूढ़े को लगभग घसीटते हुए सड़क से दूर धकेल दिया था | इस कृत्य से बूढ़े की साँसें और तेजी से ऊपर नीचे होने लगीं थीं | घसीटने और धकेल कर गिराने की वजह से उसे बहुत चोंट भी आयी थी | इस घटना की जानकारी पिता जी को तब हुई जब दूसरे दिन गंभीर लापरवाही के आरोप में एस.पी. ने उन्हें निलंबित कर दिया था | कुछ दिनों बाद राजधानी से गृह विभाग का एक पत्र भी उन्हें मिला जिसमें उनकी बर्खास्तगी का आदेश था | इस घटना से उन्हें ऐसा आघात लगा कि फिर वे संभल ही नहीं पाए | मनुष्यता के पक्ष में खड़े होने का यह पुरस्कार जो उन्हें समय और सत्ता के गलियारों से मिला , उसने उनकी जान ही ले ली | पिता के साथ घटित यह कहानी उसके जीवन में सूख चुके घावों को आज फिर से कुरेदने लगी थी |       

    

"राजा नाराज होता है तो सबसे पहले पेट पर लात मारता है ! ये सोचकर ही पुलिस वाले सहमे होते हैं और प्रजा की पेट और समूचे अस्तित्व पर ही वे लात मारते रहते हैं और ऐसा करने में वे पूरी तरह सुरक्षित भी महसूस करते हैं | धीरे-धीरे यह उनका खेल हो जाता है | इस खेल में उन्हें आनंद आने लगता है | यह आनंद धीरे-धीरे उनके स्वभाव को कठोर बना देता है, इतना कठोर कि जैसे कोई रास्ते में पड़ा हुआ पत्थर जो हर आने-जाने वाले को चोट पहुंचा कर लहुलुहान करते रहता है !" 

उसके पिता कभी इस खेल में शरीक नहीं हो सके | ऐसा खेल न कभी उन्हें मंजूर था न वे इसे अपनी सुरक्षा का कवच बनाना चाहते थे |  

आज घर से उसे निकलना ही पड़ेगा यह सोचकर ही उसकी रूह काँप गई | मन की चिंता दिल से निकल चेहरे पर ऐसे पसर गई कि उसके उजले चेहरे का रंग थोड़ा धूसर दिखाई देने लगा | उसे डॉक्टर निशांत से मिलना बेहद जरूरी था जो इस शहर के डिसूजा नर्सिंग होम के विशेष आमंत्रण पर स्पेशल विजिट में आ रहे थे  | वे आज ही आ रहे हैं उसे इसकी खबर थी | उनसे मिलना वह जरूरी समझ रही थी | उसके जाँघों की हड्डियों का दर्द बढ़ता ही जा रहा था और इस सिलसिले में डॉक्टर निशांत उसके लिए उम्मीद की किरण की तरह थे |

डॉक्टर निशांत से मिलना इसलिए भी वह जरूरी समझ रही थी क्योंकि वह उनसे लगभग सात-आठ वर्षों के बाद मिल रही थी | इंटर तक तो वे साथ ही पढ़े थे | फिर आगे जाकर दोनों के रास्ते जुदा हो गए | 

"इस परिचय का कोई सिरा निशांत के पास बचा भी होगा या नहीं अक्सर वह सोचती और उदास हो जाती  | न भी बचा हो तो क्या हुआ ,एक पेशेंट की हैसियत से उनसे मिलना कितना सुखकर हो सकता है | दो पात्र अजनबियों की तरह किसी नई कहानी को जन्म देते हैं तो उनके बीच बुनी हुई पुरानी कहानियाँ के सिरे खुदबखुद चल कर आने लगते हैं !" -- एक आशा और उम्मीद से भरी पोटली आज भी कहीं भीतर उसके टंगी हुई थी | 

"पिता अक्सर उसे कहते कि विरासत में तुम्हें मैं क्या दे पाउँगा ? धन-दौलत जैसी कोई चीज तो पास है नहीं, होती भी तो विरासत में देने लायक मैं उसे नहीं समझता , हाँ पढ़-लिख लो , अपने पैरों में मजबूती से खड़े हो लो और अपने स्वभाव में थोड़ी मुलामियत रखो | तुमसे किसी का दिल कभी न दुखे, जीवन में यही आगे जाने का रास्ता है जो दूर तक हमें ले जाता है !" वे विरासत में आशा और उम्मीद से भरी एक पोटली ही उसे सौंप गए थे जो आज भी उसका सहारा बनी हुई थी |

उसे अच्छा लग रहा था कि बोन स्पेशलिष्ट डॉक्टर निशांत से इतने दिनों बाद वह मिल सकेगी | मिलने की एक उत्सुकता उसके भीतर हिलोरें मार रही थी | एक मरीज से ज्यादा एक मित्र की तरह मिलने को लेकर उसके भीतर जन्मी यह उत्सुकता बार-बार उसे पिछले दिनों में खींच कर ले जाने लगी थी | 

यही कोई सत्रह-अठारह की उम्र | उन दिनों वह ग्यारहवीं कक्षा पास करी थी | जून का महीना चल रहा था | चुनावी वर्ष होने से तहसील से जिले के पश्चिमी थाने में अचानक उसके पिताजी का तबादला हो गया था | यूं भी पुलिस वालों का तबादला आम बात थी पर लगभग चार सालों के बाद उनकी जगह बदल रही थी, सो उन्हें जाना ही पड़ा | सबसे बड़ी समस्या उसके एडमिशन की थी | उसे बारहवीं की कक्षा में जाना था | सीधे बोर्ड की कक्षा में एडमिशन को लेकर कई स्कूल ना-नुकुर कर रहे थे | विभागीय तबादला आदेश और एस. पी. के सिफारिशी पत्र के बाद एक विद्यालय में उसे आखिर दाखिला मिल ही गया  | वह कला बिषय की छात्रा थी जिसमें सिर्फ पांच लडकियों ने एडमिशन लिया था | हिन्दी और अंग्रेजी भाषा की कक्षाओं में सारे बिषय के छात्र  एक साथ बैठते | इसी  बैठकी में उसकी दोस्ती निशांत से हुई थी | जीव शास्त्र और कला के बिषयों में यूं तो कोई मेल नहीं था पर भाषा उनके लिए सेतु की तरह काम करने लगी थी  | दीर्घ अवकाश में दोनों के बीच कक्षा में पढ़ाई गई कहानियों पर बातचीत होती | चर्चा में वह हमेशा निशांत पर भारी पड़ती | निशांत उसे गौर से सुनता और कह उठता -- " आगे चलकर तुम एक अच्छी लेखिका बनोगी !"

"और तुम डॉक्टर!" तपाक से वह उसे जवाब देती 

उनकी इन बैठकियों में उनके जीवन की कहानियाँ दर्ज होती गईं थीं  ! इन कहानियों में कहीं कच्ची उम्र का अनकहा प्रेम था तो कहीं अनगढ़ रास्तों पर चल पड़ने के उनके निजी अनुभव थे | ये अनुभव साझे कभी नहीं हो सके ! प्रेम भी अनकहा ही रह गया ! इंटर के बाद उनके रास्ते अलग हो गए | कहानी इन्हीं अलग हुए रास्तों के बोझ को साथ लिए चलती रही और आगे न बढ़ सकी | लेखिका बनने से पहले ही वह एक कहानी का पात्र बनकर रह गई | एक ऐसा पात्र जो कहानी में अपनी मुक्ति के रास्ते तलाशता फिरता है |

आज जांघ की हड्डियों में दर्द का अनुभव कुछ ज्यादा ही होने लगा था | कालेज में छुट्टियों के दिन चल रहे थे और अध्यापन अवकाश होने की वजह से उसे थोड़ी राहत मिली हुई थी | घर में इनदिनों वह लेखन में ही व्यस्त थी | 

"तो क्या सचमुच वह एक लेखिका बन गई है" निशांत का कहा उसे फिर से याद हो आया 

हाँ सिर्फ लेखिका ही तो बन सकी वह जीवन में , कालेज की प्रोफेसरी तो आजीविका का एक साधन भर रह गई थी | वहां पहले जैसी स्थितियां भी नहीं रहीं | कालेज अब राजनीति के अखाड़े बन गए थे | ज्यादातर लड़के-लडकियां राजनीति के टूल्स की तरह उपयोग हो रहे थे | जो बचे-खुचे थे वे प्रेम-प्रसंगों के दलदल में धंसे जा रहे थे , इसी चक्कर में उनके जीवन की सारी रचनात्मकता खोती जा रही थी  | उनके प्रेम का रास्ता भी ऐसा नहीं था जो सीधी राह चलकर किसी मुकाम तक पहुंचे , चलते-चलते उनके रास्ते अचानक बदल जाते और कोई नया रास्ता उन्हें किसी बीहड़ की तरफ ले जाता | वे प्रेम क्या करते, शर्तों के बोझ तले उनका प्रेम अधबीच साँसे छोड़ देता | प्रेम कहानियों के ऐसे हश्र देखते-देखते उसकी प्रोफेसरी के दिन बीत रहे थे  | उसे कोई भी ऐसा विद्यार्थी न मिला जिससे वह कभी किसी बिषय पर विमर्श कर पाती | यह खालीपन उसे जीवन में कभी रास न आया | इस खालीपन की दीवारों में निशांत के साथ स्कूल के दिनों की उस संगति की स्मृतियाँ ही चस्पा रहीं , पर स्मृतियाँ किसी खालीपन को भर कहाँ पाती हैं ! बल्कि वे तो उस खालीपन के भूगोल को और बढ़ाती हुई चलती हैं ! उस खालीपन की जमीन पर खड़े-खड़े जो ऊब उसके भीतर बर्फ की तरह जम गई थी , डॉक्टर निशांत से मिल पाने की इच्छा मात्र से थोड़ी थोड़ी पिघलने लगी थी |

कस्बे के मशहूर डिसूजा नर्सिंग होम में उन्हें बुलाया गया था | अखबार पर उनके आने का विज्ञापन देखकर सप्ताह भर पहले ही अपना रजिस्ट्रेशन वह करवा आई थी | आज उनके दोपहर एक बजे आने का समय तय था | वे सड़क मार्ग से दो सौ किलोमीटर दूर से यहाँ आ रहे थे |

सुबह ग्यारह बजे उसने नर्सिंग होम में काल कर उनके आने की जानकारी ली तो कहा गया कि वे निकल चुके हैं और लगभग एक बजे तक उनके पहुँचने की संभावना है | 

दोपहर के बारह बज चुके थे | वह सज-धज कर तैयार हो गई | पता नहीं क्यों उसके भीतर आज सजने की इच्छा पैदा हो गई थी  | त्वचा के सुनहरे-उजले दुधिया रंग को गुलाबी जार्जेट की साड़ी और उभार रही थी | उसके चेहरे पर जेसमीन के फूलों की तरह खिली रौनक गुलाबी लिपस्टिक के साथ थोड़ी और बढ़ गई थी | उसे  देखकर किसी को भी एकबारगी ऐसा लग सकता था , पर निशांत से मिलने की उत्कंठा असल कारण थी जो दिखाई तो नहीं दे रही थी पर जिसे वह खुद महसूस कर रही थी | 

वह सड़क पर आ गई  

"भैया मुझे डिसूजा नर्सिंग होम तक छोड़ देंगे ?" उसने बगल से गुजर रहे एक खाली ऑटो वाले को आवाज देते हुए कहा 

"डिसूजा नर्सिंग होम ? आपको पता है मेडम आज मुख्य मंत्री का काफिला उधर से ही गुजरने वाला है , उधर तीन बजे तक दो पहिया ,चार पहिया की नो एंट्री है !" ऑटो वाला नाक भौं सिकोड़ते हुए फुर्र...अअ से उड़ता बना !

सुनकर वह थोड़ा परेशान हुई |

उसने एक दूसरे ऑटो वाले से कहा " भैया मुझे डिसूजा नर्सिंग होम जाना है , आसपास जहां तक तुम ले जा सको, तुम मुझे वहीं तक छोड़ देना !"

सुनकर ऑटो वाला  ना-नुकुर करने लगा , पर किसी तरह गंज थाने तक छोड़ने के लिए वह तैयार हो गया |

गंज थाने तक पहुँचने में भी कई पुलिस वालों ने उसे टोका | ऑटो वाला भला आदमी था ,रास्ते बदल बदल कर वह किसी तरह गंज थाने तक लाकर उसे उतार दिया |

"मेडम यहाँ से डिसूजा नर्सिंग होम एक किलीमीटर दूर है , आप तकलीफ करिये , किनारे-किनारे लुक-छिप कर पैदल चलेंगे तो वहां तक पहुँच जाएंगे | चिलचिलाती धूप थी | उसने छाता निकाल लिया | कुछ दूर तक वह यूं ही चलती रही | कहीं छाता देखकर कोई पुलिस वाला टोकना शुरू न कर दे यह सोचकर उसने आधे रस्ते के बाद छाता बंद कर समेट लिया | 

वह अब डिसूजा नर्सिंग होम के सामने पहुँच गई थी |

मरीजों के लिए बने वेटिंग हाल में बीस से पच्चीस लोग बैठे हुए थे | एक कोने में खाली कुर्सी देख वह आराम से बैठ गई  | चलकर आने से चेहरे पर पसीने की बूँदें उभर आईं थी जिसे उसने इत्मीनान से पोंछ लिया  | उसके चेहरे की रौनक अब भी बरकरार थी | आज इतने सालों बाद डॉक्टर निशांत से वह मिलेगी यह सोचकर ही वह भीतर ही भीतर प्रसन्नता से लहालोट हुई जा रही थी | जैसे-जैसे समय पास आ रहा था उसके भीतर की बेचैनी बढ़ने लगी थी | वहां बैठे अधिकाँश लोगों को डॉक्टर निशांत के आने की ही प्रतीक्षा थी | दोपहर के डेढ़ बज गए , फिर देखते-देखते दो बज गए | बाहर सड़क पर मुख्य मंत्री जिंदाबाद के नारे गूँजने लगे थे , उसे आभाष हो गया कि मुख्य मंत्री का काफिला आ रहा  है | वह इसी बात को लेकर परेशान हो उठी कि डॉक्टर निशांत अब तक क्यों नहीं आये ? उसने उनके आने के बारे में जानकारी जुटानी चाही पर हर कोई मुख्य मंत्री के काफिले को तल्लीनता से देखने में मगन था ! अंत में वह पूछ-ताछ काउंटर में जाकर पूछी तो वहां बैठी एक महिला ने बेरूखी से जवाब दिया " मेडम उनके पहुँचने के बारे में फिलहाल मेरे पास कोई अपडेट नहीं है , अपडेट मिलेगी तो एनाउंस कर दिया जाएगा !" 

अब तक ढाई बज चुके थे | उनके आने की कोई सूचना न पाकर मरीज अब नाउम्मीदी से भर उठे थे | अचानक पूछ-ताछ काउंटर से माइक पर वहां बैठी महिला की पतली सी आवाज हाल में गूँज उठी -- "अटेन्सन प्लीज , हमें खेद है कि मुख्य मंत्री जी की विकास यात्रा में नो एंट्री होने के कारण डॉक्टर निशांत को लम्बी  प्रतीक्षा के बाद रास्ते से ही वापस अपने शहर लौटना पड़ा ! उनके आने की अगली तिथि से आप सबको काल के माध्यम से सूचित कर दिया जाएगा !"

उसके कानों में महिला की पतली आवाज चुभने लगी थी ! एक गहरी निराशा में अचानक वह डूबने लगी ! राजा की बारात अब सामने की सड़क से गुजर चुकी थी ! पर उसके काफिले का शोर स्थायी रूप से उसके भीतर रह-रह कर बजने लगा था ! निराश-हताश होकर वह नर्सिंग होम के बाहर आई तो एक ऑटो वाला झट से उसके पास आकर पूछ बैठा  " मेडम कहाँ जाना है आपको ?

" बयानवे , मनोहर चौक, गुलमोहर कालोनी " कहते-कहते वह थककर ऑटो की सीट पर पसर गई 

राजा की बारात जा चुकी थी | पुलिस वाले भी सुरक्षित अपने घरों को लौट चुके थे | बेनर-पोस्टर सड़क पर बेतरतीब पड़े हुए हवा के साथ इधर-उधर उड़ने लगे थे | उसने महसूस किया कि वह पसीने से पूरी तरह भीग उठी है | गुलाबी जार्जेट की साड़ी में जगह-जगह पसीने के दाग उभर आये हैं | होंठों पर गुलाबी लिपस्टिक का रंग फीका पड़ने लगा है | त्वचा का दुधिया-सुनहरा रंग धूप से धूसर हो उठा है | सजने-संवरने की इच्छा उसके भीतर अब स्थायी रूप से दम तोड़ने लगी है | 

"मेडम उतरिये , आपका घर आ गया !" ऑटो वाले की आवाज से अचानक वह सहम उठी ! ऑटो से उतरते हुए लगा उसे कि उसके जाँघों की हड्डियों का दर्द बढकर स्थायी हो गया है जिसका इस दुनियां में अब कोई इलाज नहीं है !

- पेंटिंग साभार google 

रमेश शर्मा द्वारा लिखित

रमेश शर्मा बायोग्राफी !

नाम : रमेश शर्मा
निक नाम :
ईमेल आईडी : rameshbaba.2010@gmail.com
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ऑथर के बारे में :

जन्म- 06 जून 1966 

सम्प्रति - ब्याख्याता 

प्रकाशित किताबें 

कहानी संग्रह-  1. मुक्ति 2 . एक मरती हुई आवाज 

कविता संग्रह-  "वे खोज रहे थे अपने हिस्से का प्रेम"  

 परिकथा, हंस, अक्षर पर्व, समावर्तन, इन्द्रप्रस्थ भारती, माटी,पाठ ,साहित्य अमृत, गंभीर समाचार   सहित अन्य पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित .

हंस, बया ,परिकथा, कथन, ,अक्षर पर्व ,सर्वनाम,समावर्तन,आकंठ  सहित अन्य पत्रिकाओं में कवितायेँ प्रकाशित 

 संपर्क . 92 श्रीकुंज , बोईरदादर , रायगढ़ (छत्तीसगढ़) मो. 9752685148 

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