एक स्त्री मन की पीड़ा व अन्य कवितायें (कुमारी मंजू आर्य)

कविता कविता

कुमारी मंजू आर्य 1890 8/14/2020 12:00:00 AM

हजारों वर्षों से आज तक महिलाओं के साथ होने वाले भेद्- भाव और सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक गैर बराबरी के दर्द को अपनी कविताओं में बयाँ करती' कुमारी मंजू आर्य' |

एक स्त्री मन की पीड़ा 

स्त्री की पीड़ा तुम क्यों जानोंगे

तुम जान के भी क्या करोगें

तूने बनायी ऐसी व्यवस्था 

जिससे लड़ते-लड़ते

 सदियां बीत गई, 

फिर भी हारा हुआ महसूस करती हूँ हर वक्त

स्त्री मन की पीड़ा जानना बहुत कठिन है

इसके लिए करना होगा 

अपने ही पुरखों से जबाब तलब

और लेना होगा लोहा अपने ही सगे- संबंधियों से

आज भी तुम्हारे इस बनाये हुए कायदें कानून में कैद स्त्रियां तड़पती हैं 

जैसे एक पिंजरे में कैद पंछी 

जिसमें जाने के कई रास्ते हो सकते हैं

लेकिन बाहर आने के लिए एक ही रास्ता हो सकता है

तुम्हारी यह व्यवस्था स्त्रियों को अमानवीय बनाता है

और इसे बनाने वाले कितने कायर रहे होंगे

जो अपने ही बहु बेटी के ख़िलाफ़त हो गए

कितना मुश्किल है इस व्यवस्था में रहकर जीना

एक स्त्री मन की पीड़ा तुम नहीं जान पाओगे 

सोचो जरा कितना मुश्किल है, इच्छा के विरुद्ध कैद होकर रहना

उनकी ख्वाबें, उनकी सपनें, उनकी उम्मीदें, उनकी यातनाये, उनकी भावनाएँ, उनकी जज़्बातें, उनकी चीखती चिल्लाती आवाजें तुमने कभी नहीं सुनी होगी! 

वो क्या चाहती हैं 

इस पर तुमने कभी सोचा तक नही 

सोचोगें भी तो कैसे तुमने ही तो ये

व्यवस्थाये बनाये हो जिसमें वो सदियों से अपने आप को ढाल ली हैं  और ये उनके लिए कैदखाना ही जहान हो गया है 

आज भी 21वी सदी की दुनिया में भी आपने आप को नही छुड़ा पा रही हैं।

एक स्त्री मन की पीड़ा कभी नहीं जान पाओगे।

जानने का मतलब है तुम्हारा बागी होना

और तुम्हारी ये मर्दवादी मानसिकता तम्हे ऐसा कभी होने नहीं देगी


पितृसत्ता और स्त्री


पितृसत्ता स्त्री शोषण का 

एक मज़बूत हथियार है,

यह हथियार दिखाई तो नहीं देता

पर बड़ा हथियार है

धार्मिक पोथियों और मनु की स्मृति ने

बड़ी चतुराई से रातो -रात डाल दी थी बेड़ियाँ।

बहुत मजबूत और कठोर बेड़ियाँ सदियों के लिए 

दिलो-दिमाग में भर दी नफ़रत स्त्री के खिलाफ धर्म का वास्ता देकर 

पाखण्डों का संसार रचकर 

अपने ही पिता की नज़रों में 

गिरती चली गयी बेटियां

कुल्टा और रखैल बनती चली गयी पत्नियाँ

आज भी बहुत असहाय होती है 

 पुरुष की नज़रों के सामने

शाम ढलते तुम घर को आना

बिना अनुमति तुम कुछ न करना

शर्म से अपनी आँखें झुकाए रखना

दादी ने अपनी दादी से और फिर

 दादी ने अपनी पोतियों को यहीं सिखायी

पितृसत्ता सिर्फ हथियार नहीं है

बल्कि वहुत धारदार हथियार है

घर पर  खाना बनाना बच्चों का ख्याल रखना

कमर तोड़ मेहनत करने के बाद भी अपने हिस्से का प्यार पाने से वंचित रहती

पितृसत्ता में पत्नी बेटी नहीं बल्कि गुलाम चाहिए होता है

पितृसत्ता बहुत आदिम जमाने का हथियार है

प्रथा, परंपरा और संस्कृति के नाम पर 

इस हथियार का खूब प्रयोग किया यह समाज ने

पति को ईश्वर बताना, सती हो जाना

उनके किए को माँफ कर देना ये सब स्त्री के गुण माने गए है ऐसा  पितृसत्ता मानता है

यह किसी शातिर दिमाग की 

उपज रही होगी।

अपने मन की बात मनवाते

पितृसत्ता क्या गजब हथियार है

बेटा हो तो बाहुबली

नारी हो तो सती सावित्री

इनको ऐसा परिवार चाहिए

जब मन करे तो लूट लो इज्जत

जब मन करे तो कर दो हत्या

अब आवाज उठ रही है 

स्त्रियों को बोध हो रहा है अपने अस्तित्व का

तोड़ देना चाहती है उन बनी बनाई यातनागृहों को

निकल जाना चाहती है कही भी कभी भी

वे अब अपने ऊपर हुए जुर्म का हिसाब करना चाहती है

तमाम मुसीबतों के बावज़ूद स्त्रियाँ

आज़ाद होना चाहती है

तोड़ देना चाहती है पितृसत्ता के इस महान साम्राज्य को |

- पंटिंग साभार google 


कुमारी मंजू आर्य द्वारा लिखित

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कुमारी मंजू आर्य

पी.एच.डी. शोधार्थी, महिला अध्ययन विभाग

इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय

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