“हमरंग बारह क़िस्से टन्न” लाइव क़िस्सा कहन के लम्बे चले आयोजन के हासिल के रूप में बहुत से साहित्यिक मित्रों से परिचय हुआ और उनमें से कुछ अच्छे दोस्त भी बने हैं। उन्हीं में से एक नाम है कथाकार “शैलेंद्र शर्मा” का । मथुरा से बहुत क़रीब आगरा रहते हुए भी अपरचित रहने का कारण भी उनकी कहानियों से गुजरते हुए समझ में आता है कि आप अपने समय और समाज को इंसानी जज़्बातों के साथ पढ़ते तो हैं किंतु पढ़ाने की क़थित उग्रता में आपका यक़ीन नहीं है । आपकी कहानी पाठक के भीतर ठीक वैसे ही जगह बनाकर आ बैठती है जैसे वे खुद अपने व्यवहार और बात-चीत की सहजता से किसी के भी दिल में जगह बना लेते हैं । आपकी कहानी के पात्र मिलकर जो समाज गढ़ते हैं उसका ताना-बाना इतनी महीन और सघन बुनाबट के साथ इतनी सहज और सरलता से उतरता है जहां किसी अकल्पनीय बितान का धागा मात्र भी खोज पाना भी मुश्किल होता है । यही कारण है कि आपकी कहानियों में लेखकीय कल्पनाशीलता का ऐसा यथार्थपरक सामंजस्य का सामर्थ्य महज़ किताबी ज्ञान नहीं जान पड़ता बल्कि सामज के गहन विश्लेषण का नतीज़ा है । आज यहाँ प्रस्तुत कहानी ‘अपने भीतर की यात्रा’ आपकी कथा यात्रा से निकली एक ऐसी ही कहानी है जो न महज़ खुद को पढ़वा लेती है बल्कि पाठक को गहरे आत्म चेतन में उतार ले जाकर संवेदना के इंसानी संवेग के साथ जैविक ऊर्जा की ज़मीन के रूप में उपस्थित होती है जो इस कहानी और कहानीकार को ख़ास बनाती है ॰॰॰॰॰॰॰। - संपादक
अपने भीतर की यात्रा
पहला दिन
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एयरपोर्ट के बड़े दरवाज़े से निकलते ही ठंडा वातावरण छूट गया, और उमस और गर्मी का एक भभका आया, मगर सामने ही प्रणय मुझको दिख गया… शीतल पवन के झोंके जैसा! वही गोरा रंग, वही स्निग्ध हंसी, वही शरारती आँखें… इस इंसान को तो मैं अँधेरे में भी पहचान लूं! साथ में खड़ी थी अनुभा… उसकी गोरी, गुलथुल पत्नी… हाथों में गुलाब का एक छोटा सा गुलदस्ता लिए!लगभग दौड़ती हुई-सी, अपने सामान की ट्रॉली छोड़कर मैं उन दोनों से जा लिपटीI
“दोस्त….!”
हम दोनों एक साथ ही चिल्लाते हुए खिलखिलाने लगेI ’दोस्त' ही तो वह संबोधन था जिससे हमारे ‘चार यार' समूह के लोग एक दूसरे को बुलाते थे Iजब कुछ क्षणों में हम तीनों के आलिंगन की पकड़ थोड़ी ढीली पड़ी तो मैंने प्रणय से कहा,
“कैसा है तू प्रणय ?”
“मरा नहीं हूँ तेरी याद में.. देख ले अभी तक”,उसने कहकहा लगायाI
अनुभा ने मुझे गुलाब का गुलदस्ता देते हुए स्वागत कियाI गुलाब मेरी कमजोरी थेI सारे दोस्तों को पता थाI मैंने गुलदस्ता नाक पर लगा कर जोर से सांस खींचीI तन-मन सुवासित हो उठा… थकान एक मिनट में जाने कहाँ काफूर हो गयी!
”तू गुलाब अभी तक नहीं भूला मजनू ?”अनुभा को धन्यवाद देकर मैंने प्रणय से कहा!
“तेरे दिए गुलाब तो मैंने किताबों में छुपा कर रखे हैं”,प्रणय ने कहा,फिर वाक्य को गाने की-सी स्वरलहरी देते हुए बोला,“वो जो ख़त... तूने मुहब्बत में लिखे थे मुझको…!”
“प्रणय के बच्चे….उन्हीं खतों को लेकर हर की पैड़ी से कूद जा गंगा में”, और प्रणय फिर खिलखिलाया! उसे हंसने के सिवा दूसरा काम कब आता था!
सामान गाड़ी में पीछे रख कर हम लोग प्रणय के घर की तरफ चल दिएI वे दोनों आगे बैठे थेI मैं पीछे वाली सीट पर गुलाबों को सीने से लगाये बैठी थीI बाहर मेरे पुराने शहर बैंगलूरू की सडकें तेज़ी से उल्टी दिशा में जागी जा रहीं थींI मेरा शहर… मेरा अन्तरंग परिवेश! कितने वर्ष बीते थे यहाँ… मोजाम्बिक का वह मशीनी, नीरस, अपरिचित,और अकेलेपन से भरा माहौल याद हो आयाI
“कहाँ खो गयीं दोस्त?”प्रणय ने सामने सड़क पर नज़रें गड़ाए हुए पूछा I
“यार बहुत याद आती है इस शहर कीI यहाँ के वीक-एंड...यहाँ की मस्ती...शोर-शराबा… हल्ला-गुल्ला, कितने किस्मत वाले हो तुम लोग!”
“अरे हम सबसे ज्यादा किस्मतवाली हो सकती है तू! वहाँ अफ्रीका में बियाबान में पड़ी हुई है। अभी भी रिजाइन करके वापस भारत आ जाI”
“हाँ यार,ये वाला प्रोजेक्ट पूरा हो जाए, तो अब कोई नया काम नहीं लूंगी। कंपनी से कहूँगी, मुझे वापस भेज दे, बंगलूरू!”
“दोस्त, तब तो तू यहीं आ जायेगी… इसी शहर में, मेरे पास!”,प्रणय चहकते हुए बोला। मैं तुरंत उसका मज़ाक समझ गयी।
“आ जाऊँगी… तो भी तेरा कोई स्कोप नहीं है लाइन मारने का!”
“अरे जब तक तू सिंगल है, तब तक तो हम तेरे दरवाज़े पर खड़े हैं। उम्मीद पे दुनिया कायम है”,उसने जोर से कहकहा लगाया। ऐसे ही हँसता था वह... पागलों की तरह!
“शर्म कर, तेरे बगल में तेरे बच्चे की मां बैठी हुई है। कुछ तो लिहाज़ कर”, मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
“अपना तो बस वही सिद्धांत है… वन सेवेन टू टू”, यह उसका प्रिय डायलॉग था।
और उसके इस हँसते-मुस्कुराते व्यक्तित्व पर अचानक बहुत प्यार उमड़ने लगा। मन किया,अभी गले लगा लूं उसे। तभी उसके खिलंदड़ेपन के ठीक विपरीत एक धीर-गंभीर व्यक्तित्व और याद हो आया। चश्मे के पीछे से झांकती पारिजात की आश्वस्त करती आँखें, मानो कह रहीं हों… मेरी बलिष्ठ भुजाओं पर माथा टिका कर तुम सारी दुश्वारियां भूल सकती हो। पारिजात को इतनी जोर से ठहाका लगाते हुए कभी देखा हो, याद नहीं। जिन चुटकुलों पर बाकी लोग हँस-हँस कर दोहरे हो रहे हों, उन पर भी वह चमकती आँखों से केवल मुस्कुराता रहता था।
एक अजब सी सुगंध आती थी पारिजात से… चित्त को अन्दर तक सुवासित करने वाली। अभी भी आँखें बंद करके उसे अनुभव कर सकती हूँ मैं। अपनत्व से लबरेज़ उसकी आवाज़… उसका बात करने का लहजा याद हो आया। फिर उसकी बातें मुझ पर नशे की तरह छाने लगीं तो निर्ममता से उसके ख्यालों को हथेली से बुहार कर मैंने मन-मस्तिष्क से हटा दिया। नहीं, मुझे तुम्हारे विषय में नहीं सोचना है पारिजात, मैंने जो पगडंडी अपने लिए चुनी है,उसमें तुम कहीं भी, कभी भी नहीं होI
गाड़ी के रुकने पर जैसे मैं नींद से जगीI दरवाज़ा खोले प्रणय खड़ा था,
“आओ, मेरी मल्लिका!”
“वाह रे मेरे शोफ़र!”,मैं मुस्कुरायीI
अंदर खाने की मेज़ पर मेरा मनपसंद नाश्ता था…. खांडवी, रवा इडली और फ़िल्टर कॉफ़ी! मन प्रसन्न हो गया। प्रणय से कहा, “तुझे अभी तक याद है प्रणय ?”
“और कुछ चाहिए मलिका-ए-आलिया, तो बताइए, बंदा हाज़िर है!”,उसने झुकने का नाटक-सा किया।
“अरे छोटू से तो मिलवाओ।”,मैंने अनुभा से आग्रह किया। वह उसे अपने कमरे से गोदी में उठा कर ले आई। मैंने लपक कर उसे गोदी में लिया और चेहरे से सटा लिया… बेबी-पाउडर और बेबी-सोप की मिली-जुली गंध और शिशु की देह से उठती एक नैसर्गिक सुगंध का मिश्रण अन्दर तक उतर गया।
शिशु की दुनिया से निकलने में शायद मुझे एक-दो मिनट लगे होंगे। तभी मेरी नज़रें प्रणय पर पड़ीं। वह कुटिल शरारत से मुस्कुरा रहा था। बोला,“तेरी गोद में बच्चे बहुत अच्छे लगते हैं दोस्त! न जाने कितने मासूम तरस रहे होंगे तेरी गोद में आने के लिए… लेकिन नहीं.... तुझे तो वह बंजर धरती बने रहना है, जहाँ घास का एक कतरा भी नहीं उगता!”
फिर अपनी बांह फुलाता हुआ बोला, “शाबाश प्रणय खत्री! अब तो तुम सॉफ्टवेयर डेवलपर के साथ कवि भी होते जा रहे हो!’
“मगर तेरी कविता बहुत ही फूहड़ है। कूड़ेदान में फेंकने लायक”, मैंने मुंह बिचका दिया I
यात्रा में मैंने कुछ भी नहीं खाया था, शायद इसीलिए कॉफ़ी का पहला घूँट पीते ही लगा कि मुझे बहुत भूख लग आई है। प्रणय और अनुभा ने जबरदस्ती मुझे बहुत कुछ खिला दिया। यात्रा की थकान और मनपसंद भोजन ने शरीर में एक अजीब सी खुमारी भर दी थी और निद्रा देवी मस्तिष्क के दरवाज़ों पर दस्तक देने लगीं थीं।
अनुभा बोली-”आप बहुत थक गयीं होंगी। अब सो जाइये। सुबह बात करेंगे”,
और उसने मुझे मेरा कमरा दिखा दिया। कपडे बदल आकर क्लांत देह से मैं बिस्टर पर लेट गयी। प्रणय और अनुभा की दुनिया कितनी सम्मोहक और आकर्षक है-- ख़याल आया। फिर सोचा--क्या मैं ख़ुश नहीं हूँ? आखिर अपने चुने हुए रास्ते पर चल रही हूँ...अकेली और मस्त रहती हूँ, किसी का आदेश नहीं सुनना पड़ता। ऑफिस में लगभग हम सब एक ही स्तर के थे, बावजूद इसके कि टीम लीडर मैं ही थी।
मैं खुशकिस्मत थी कि जो काम मेरे दिल के करीब रहा था, वही मेरी जीविका का साधन था। शोध मेरा प्रिय विषय थाI तपेदिक जैसी जानलेवा बीमारी पर फील्ड वर्क करना और फिर आंकड़ों पर विषद अनुसंधान करना मेरा पसंदीदा शगल था। पा [मेरे पिता] हमेशा कहते थे अभी बहुत कुछ करने को है, ख़ास तौर से टी.बी. के क्षेत्र में। बहुत से रोगियों में दवाओं का निष्प्रभावी हो जाना एक महती समस्या थी, जिस पर काम किया जा रहा था।
मुझे ख़ुशी थी कि मेरे पा ने मुझे एक ऐसा विषय दिया जो मेरे लिए बहुत रुचिकर था। वह स्वयं माइक्रोबायोलॉजी के प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हुए थे। पसंद होने की वजह से ही जब बायोटेक्नोलॉजी की इस बहुराष्ट्रीय कंपनी ने मुझे अफ्रीका के मोजाम्बिक देश में रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए भेजने का प्रस्ताव दिया था,तो मैंने तुरंत हामी भर दी थी।
केवल एक ही दुःख था--मेरा देश मुझसे छूट जायेगा… और बैंगलोर भी, जहां पिछले आठ सालों से थी मैं। यह भी दुःख था कि मेरे ‘चार यार’ मुझसे छूट जायेंगे… हालाँकि सब की राहें अलग-अलग हो गयीं थीं।
मैगी शादी करके लखनऊ चली गयी थी और फिरोज गुडगाँव। प्रणय तो बैंगलोर में था ही मगर अब भी हम चारों दोस्त भावनात्मक रूप से एक दूसरे से बहुत जुड़े हुए थे। फ़ोन पर हम एक दूसरे से बहुत बतियाते और तस्वीरें भेजते। मोजाम्बिक में मेरा एक ही काम था… दिन भर प्रोजेक्ट में हाड़-मांस गला कर काम करना और रात को प्रणय, फ़िरोज़ या मैगी से फ़ोन पर बात करना या संगीत सुनना I
ऐसे में एक बड़ी दुर्घटना घटी थी। पा का असमय चले जाना। पागलों की तरह रोती-बिलखती मैं भारत पंहुची थी,अपने शहर! मेरे तीनों दोस्त वहां मौजूद थे--मेरा दुःख कम करने के लिए। मैगी तो पूरे तेरह दिन रुकी थी।
पा मेरी दुनिया थे--दोस्त, दार्शनिक, मार्गदर्शक,सब एक में समाहित! शुरू से माँ की कमी को वे दूर करते आये थे। वे अक्सर कहते थे--मृत्यु तो ऐसी होनी चाहिए कि पल भर में हैं,और पल भर में नहींI प्रकृति ने ‘तथास्तु ‘कह कर उन्हें पल भर में ग़ायब कर दिया था,मगर अभी तो उनकी कोई उम्र भी नहीं थी जाने की I विवाह तो मुझे खैर,करना नहीं था …..मगर मेरे पा,मेरा संबल, मेरा आत्मविश्वास, मेरी ज़मीन से जुड़ी हुई जड़ थे।
विवाह का ख़याल आते ही पारिजात की वह बात याद आ गयी-- ‘जितना मैं समझ पाया हूँ,
दरअसल तुम हर पुरुष में अपने पिता को देखती हो, उनसे उसकी तुलना करती हो, और उसे कमतर पाते ही फ्यूज हो जाती हो।”
फिर मुस्कुराकर बोला था,“तुम्हारे बापूजी ने तो सारे छोकरों के स्कोप पे बुलडोज़र ही चला दिया।”
“बकवास मत कर”, मैं वाकई गुस्सा हो जाती। और सच, मुझे कभी नहीं लगा कि मेरे संभावित जीवन साथियों की खोज में मेरे पा बीच में आ जाते हों। मगर एक दूसरा सत्य यह भी था कि उनके जैसा कोई था भी नहीं।
अक्सर मेरे सामने यह प्रश्न एक दैत्य बन कर खड़ा हो जाता कि मुझे कोई लड़का पसंद क्यों नहीं आता? घूमने-फिरने, लफंगई करने, देर रात तक कानफोडू संगीत पर पागलों की तरह नाचने के लिए सही है, लेकिन जहां उस लड़के को जीवन साथी बनाने का प्रश्न आता है तो मुझे क्यों सांप सूंघ जाता है? एकदम से ज़िन्दगी साथ बिताने की कल्पना में वह व्यक्ति एक अझेल, ज़बरदस्ती का सौदा, या बोझ लगने लगता है।
पारिजात,एक साल की फ़ेलोशिप पर अफ्रीका आया था और उसने मेरे मन की चूलों को काफी हद तक दुरुस्त कर दिया था। लेकिन क्या करती, मेरी विवाह रेखा के अनुसंधान में वह क्या, कोई भी खरा नहीं उतरता था।
मोजाम्बिक में उसकी शामें अक्सर मेरे घर पर गुज़रतीं थीं। हम लोग साथ मिलकर कुछ खाने को बना लेते, फिर बतकही करते, या संगीत सुनते, या टी.वी. पर कुछ देखते। मुझे अक्सर यह ताज्जुब होता कि वह मेरे बारे में मुझसे भी अधिक कैसे जान गया है। कई बार मेरे स्वभाव की, या काम करने के ‘बकवास कम,काम ज्यादा’ वाले तरीके, या मेरी त्वचा, मेरी आँखें, मेरी वेणी या जूड़े की ऐसी विशद व्याख्या करता कि मैं हैरत में पड़ जाती। इस आदमी को और कोई काम नहीं है क्या ,मैं सोचती रहतीI एक बार तो मैं बहुत हतप्रभ हो आई थी जब उसने मेरे होंठों के रंग के बारे में कुछ कहाI मैंने महसूस किया कि उसके अन्दर की स्त्री, मेरे अन्दर के पुरुष पर हावी होना चाह रही थीI
जब उसके जाने में कुछ महीने शेष थे,एक अव्यक्त सी बेचैनी आ गयी थी उसके स्वभाव मेंI बातें ज्यादा बढ़ गयी थीं-- जैसे समय कम हो और कहना बहुत सारा बचा होI वह तरह-तरह के दृश्य मेरे सामने पेश करता, जो लौट-फिर कर एक ही सन्देश देते कि हालाँकि वह जोर नहीं डाल रहा है, लेकिन हम दोनों ज़िन्दगी भर एक दूसरे के साथ बहुत अच्छे लगेंगेI बार-बार मुझे यह भी दिलासा देता कि वह प्रतीक्षारत है… किसी हड़बड़ी में नहीं है, और यह भी कि वह अन्यथा ज़िन्दगी भर अकेला ही रहेगाI
मैं दृढप्रतिज्ञ थी मगर वह हर बार इस बात को एक नए और नामालूम से तरीके से प्रस्तुत
करताI मगर पत्थर की शिला पर रेशम की रस्सी से भला क्या निशान पड़ता?
उसका कार्यकाल अफ्रीका में ख़त्म होने पर पूरी यूनिट उसे अलविदा कहने एयरपोर्ट गयी थीI अपनी उसी चिरपरिचित मुस्कराहट और आँखों में नमी लिए सबको विदा कहता हुआ वह मुख्य द्वार के अन्दर गया थाI सब उसके व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हुए लौटे थेI एक पल को मुझे भी लगा कि मेरे अन्दर से कुछ हिस्सा टूट कर कहीं खो गया हैI
कुछ शामों तक उसकी कमी खलती रहीI फिर धीरे-धीरे मैंने खुद को मज़बूत कियाI उसके सारे ख्यालों को झाड़-बुहार कर घर से बाहर फ़ेंक दियाI जब भी उसका फ़ोन आता, या सन्देश आता,मैं उत्तर नहीं देतीI उसके फ़ोन, सन्देश, फोटोग्राफ्स आते रहते मगर मेरा दरवाज़ा बंद रहताI उसकी दस्तकें जारी रहतीं, मगर मैं सांकल और अधिक मजबूती से बंद कर लेती,और करती रहती… डर था कि दरवाज़ा थोड़ा सा खुला और मेरी कमजोरियां मुझ पर हावी हो जायेंगी, शायदI
कमाल की प्रतिबद्धता का नमूना था वह भी! आपके सन्देश,फ़ोन कॉल्स ,चित्र और इन सब के आवरण में लिपटे एक मूक निवेदन को कोई पत्थर मार-मार कर वापस कर दे ,और फिर भी आप रोज़
होने वाली दिनचर्या का हिस्सा जैसा बना कर अपनी गुहारें लगातार भेजते रहें, किसी और की तरफ से प्रतिक्रिया आये न आये,आपको कोई फर्क न पड़े--ऐसा कहीं होता है भला?
पारिजात और पा के ख्यालों में डूबते उतराते कब नींद ने मुझे अपने आगोश में ले लिया, पता ही नहीं चलाI
दूसरा दिन
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दूसरा दिन बहुत व्यस्त गुज़राI भारत के ऑफिस के सारे कार्य निपटाए, फिर भी कल के लिए बहुत सा काम बाकी रह गया थाI
रात को सब लोगों ने घर पर ही खाना खायाI प्रणय भी बहुत थका हुआ था,कंपनी वाले दिन भर तेल निकाल लेते हैंI इसीलिए तो बहुत से लोग कहते हैं कि हम जैसे कार्य वाले लोग जल्दी ही ‘बर्न-आउट’ हो जाते हैंI फिर भी,देर रात तक मैं,और प्रणय लैपटॉप पर फिल्म देखते रहेI अनुभा, छोटू के साथ अपने कमरे में सो गयी थी I
सोने से पहले तय हुआ कि कल-परसों सारा काम निबटा कर परसों शाम से पूरी मस्ती की जायेगी I
तीसरा दिन[क़यामत की रात]
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मेज़-कुर्सी पर काम करते करते काफी रात हो गयी थीI डिनर के लिए अनुभा और आया को मना कर दिया था, मगर अब अन्दर से सन्देश आ रहा था कि गरम पेय जैसा कुछ चाहिएI तभी पीछे से किसी हाथ ने मेज़ पर एक बड़ा सा मग रखाI
“हॉट चॉकलेट !”,प्रणय की आवाज़ थीIमेरा रोम-रोम आलोकित हो उठा I
”तुझे अभी तक याद है?”,मैं बुदबुदाईI
“क्यूँ नहीं भला? कंप्यूटर जैसा चलता है दिमाग मेरा! एक बार जो डाटा पंहुच जाता है, हमेशा के लिए स्टोर हो जाता है”,वह इतराते हुए बोलाI
“सबके लिए रात को चाय-कॉफ़ी बनती थी लेकिन तुझे तो हॉट चॉकलेट चाहिए होती थीI सपने में तभी तो मेरे जैसे हॉट लड़के आते थे तेरे”,और उसने पूरे बत्तीस दांत दिखा दिएI
“अपने को हॉट समझता था, तभी मुझसे और मैगी से ट्रेनिंग लेता था कि लड़कियों से कैसे बात करनी चाहिए”,मैंने बोलाI
“दोस्त... सच्ची यार …कितने हाथ पाँव मारे लेकिन कहीं बात नहीं बनीI वो तो अगर मम्मी -पापा ने अरेंज्ड मैरिज नहीं कर दी होती तो आज भी सड़कों पर सिगरेट फूँक रहे होते I”
“अनुभा बहुत अच्छी लड़की है, और छोटू तो बहुत ही प्यारा खिलौना है”,मेरी आवाज़ में जैसे चिड़ियों का सा संगीत घुल रहा था और मैं जैसे सपनों में छोटू को बेतहाशा चूमे जा रही थीI
“अब दोस्त,अगर तू एक मुफ्त की सलाह माने तो… वह गंभीर हो आया थाI”
मैं समझ गयी कि बात किस और मुड़ रही हैI मैंने कृत्रिम क्रोध जताते हुए कहा, “तूने अगर अब फिर से ये बात छेड़ी तो मैं अभी मोजाम्बिक भाग जाऊंगी I”
उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहेI तभी मुझे अपना काम याद आ गया और मैंने कहा
“दोस्त.ज़रा देखना, मेरी कैलकुलेशंस में कुछ गड़बड़ हो रही हैI तीन बार फार्मूला लगाया, मगर हर बार उत्तर अलग आ रहा हैI”
“उठ,ला मैं देखता हूँI समझ में कैसे आएगा तेरे, ऊपरी मंजिल तो खाली हैI पता नहीं तुझे विदेश कैसे भेज दिया कंपनी वालों ने”, वह मुस्कुराते हुए बोलाI
“अच्छा ,ज्यादा नौटंकी मत कर”,मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा,“पता है कितनी बड़ी यूनिट चलाती हूँ मैं, कितने पेपर छप चुके हैं मेरे,और वह भी अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स में, तेरे बाप को गिनती भी नहीं आती होगी”,मैं आत्माभिमान के अतिरेक से फूली जा रही थीI
“अच्छा चुप कर मेरी अम्मा, देखने दे अपनी कैल्कुलेशंस कोI”
मैं जैसे ही पलंग पर बैठने को मुड़ी, लगा कि दरवाज़े पर पर्दा कुछ हिला,जैसे कोई खड़ा हो वहाँI मैं चेहरे पर प्रश्नवाचक भाव लेकर दरवाज़े तक पंहुची, तो देखा, अनुभा जैसे खिड़की की संध में से कुछ झाँकने का प्रयत्न कर रही थीI अचानक मुझसे नज़रें मिलीं,और वह सकपका सी गयी Iफिर एक झेंपी सी मुस्कान लिए,तेज़ क़दमों से वापस चली गयीI
मैं आकाश की ऊंचाइयों से… धड़ाम से पाताल में गिरीI क्या मुझ पर और प्रणय पर निगाह रखी जा रही थी? क्या अनुभा को लग रहा था कि इतनी रात को अकेले कमरे में मैं और प्रणय, कुछ ऐसा कर रहे थे, जो वर्जित है? अपमान, क्षोभ और कुंठा से मेरा चेहरा तमतमा आयाI प्रणय, मेरा दोस्त, मेरा साथी, मेरा बच्चा… क्या हम सब एक दूसरे को जितना समझते थे, कोई और नहीं समझ सकता था? कितनी बार हम चारों एक साथ, एक कमरे में रातों को सोये हैं, एक दूसरे को उतनी ही इज्ज़त, उतनी ही स्पेस देते हुए, जितना परिवार के सदस्य एक दूसरे को देते हैंI
हमारा ‘चार यार’‘ समूह लोगों की ईर्ष्या का केंद्र थाI एक बार जब बंगलुरु की सड़कों पर प्रदर्शन और तोड़-फोड़ चल रही थी,और सारे ऑफिस बंद हो गए थे, तो हम चारों, इन लड़कों के फ्लैट में,चार दिन बंद रहे थे… कर्फ्यू की-सी स्थिति मेंI हम चारों ने उस विषम परिस्थिति में भी कितने मज़े किये थे! खाना खुद बनाते, खाते, दिन भर लैपटॉप पर फिल्में देखते और रात को बड़े वाले कमरे में सो जातेI उन दिनों में डूबते-उतराते! पर, आज अनुभा का थप्पड़-सा खाकर मेरे चेहरे पर मानो पाँचों उंगलियाँ उभर आयी थींI आँखों में एक जोर का झंझावात घिर-घिर आने लगाI अशक्त सी मैं, जाने कितने लम्हे पलंग पर पड़ी रही, निस्तेज, निष्प्राण!
“अरे भाई,यह तो समझ में नहीं आ रहा हैI तेरे डाटा इनपुट में कुछ कुछ गड़बड़ है”, प्रणय जमुहाई लेते हुए बोला,“चल,कल सुबह देखते हैं”,और वह उठ खड़ा हुआI
तभी उसकी नज़रें मेरे उस चेहरे पर पड़ीं, जिस पर हज़ार अमावस की रातें दहाड़ मार रही थींI
“अबे,तुझे क्या हुआ दोस्त?”,वह बोलाI बमुश्किल मेरे चेहरे पर एक उदास, फीकी सी हंसी आईI
“बिरादर,तू रो रहा है?”,उसका लहज़ा तरल हो आयाI गंभीर मौकों पर वह कई बार मुझसे पुल्लिंग में बात करता था I
“अरे,जमुहाई आती है, तो आँखों में पानी नहीं आ जाता क्या? जा,भाग जा”, मैंने कहा I उसने मेरे सिर पर एक हलकी सी चपत लगायी, और कमरे के बाहर चला गयाI
दरवाज़ा बंद करके मैं निर्जीव सी पलंग पर जा गिरीI जाने कितने बांधों को तोड़ कर पानी कमरे में भर गया था और मेरी हिचकियाँ थीं कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थींI कोई मुझ पर प्रणय को लेकर शक कर सकता था, और वह भी प्रणय की अनुभा… यह बात मुझे बर्दाश्त नहीं हो रही थीI
और यह प्रणय, आकाश की कितनी ऊँचाइयों तक उठा हुआ है, यह अभी भी अनुभा नहीं समझ पायी थीI मुझे अचानक कुलकर्णी याद आ गया,जिसकी नज़रों में छिपकलियाँ-सी रेंगती थीं I
कई साल पहले की बात थीI कई लड़के-लडकियां अपने अपने गृह प्रदेशों को चले गये थे,और कौन किसे अपने फ्लैट का पार्टनर बनाएगा, यह समीकरण बैठाये जा रहे थेI मैं और मैगी तो साथ रह ही रहे थेI फ़िरोज़ अपने लोकल गार्जियन के साथ रह रहा था, बस प्रणय को ही कोई साथ रहने को नहीं मिला थाI और बैंगलोर में अकेले कमरा लेकर रहना बहुत महंगा था, उन दिनों भीI तभी कुलकर्णी की बात चलीI पढ़ा तो चार साल हम सबके साथ ही था, लेकिन हम लड़कियों को बड़े गंदे तरीके से घूरता थाI एक आध बार कुछ लड़कियों ने उसकी लाइन भी लगा दी थी, मगर उसका केंचुए जैसा लिजलिजापन ख़त्म नहीं हुआ थाI उसके बारे में मेरी और मैगी की धारणा एक-सी थीI उसी कुलकर्णी को प्रणय को मजबूरी में अपना रूम पार्टनर बनाना पड़ा थाIहमने प्रणय को कुलकर्णी के विषय में बताया था कि हम उसके साथ सहज नहीं हैंI प्रणय ने घोषणा कर दी थी,
”मेरी तो मजबूरी है, मगर तुम लोग मेरे घर नहीं आओगे, जब कुलकर्णी वहां होगाI फ़िरोज़ के घर मिल लेंगे,तुम्हारे घर आ जायेंगे, लेकिन कोई लड़की मेरे फ्लैट पर नहीं आएगीI”
और हुआ भी यहीI जब तक कुलकर्णी उसके साथ रहा, हम कभी उसके फ्लैट पर नहीं गयेI मैगी तो कभी-कभी प्रणय से चुहल भी करती,
”तूने हमारे प्रोटेक्शन का ठेका ले रखा है?”
मगर प्रणय इस विषय पर दृढप्रतिज्ञ थाI कभी कुलकर्णी के साथ बाज़ार में होता तो हम दोनों के लिए रुकता भी नहींI
और ऐसे प्रणय को और मुझे लेकर अनुभा का यह व्यवहार मुझे बहुत अन्दर तक आहत कर गया थाI पूरी रात नींद और जगार के बीच की स्थिति में डूबती-इतराती रही मैंI कभी देखा… कुर्ग के शांत, रम्य वातावरण में हम चारों सप्ताहांत मनाने गए हुए हैंI रात को तीन पत्ती खेलते-खेलते हम चारों उसी कमरे में सो गए हैं-- मैं और मैगी पलंग पर, फ़िरोज़ सोफे पर,और प्रणय फर्श परI इतने में अनुभा कमरे में आती है,तूफ़ान सा लिए-- ‘तुम्हें शर्म नहीं आती लड़कियों !लड़कों के साथ सो रही हो !उनको तुरंत बोलो अपने कमरे में जाने के लिए!’
कभी देखा-- बंगलुरु में सुनसान हाईवे पर फ़िरोज़ और हम दोनों लड़कियां बाइक पर जा रहे हैंI हम दोनों लड़कियां उससे चिपक कर बैठी हैंI पागलों की तरह हँसते हुए चीख रहीं हैं हम दोनोंI उससे गाड़ी धीरे करवाने के लिए उसे गुदगुदी मचा रहीं हैंI कभी देखा-- दरवाज़े का पर्दा हटा कर अनुभा कमरे में आती है और प्रणय से कहती है--’आज मैंने तुम दोनों को रंगे हाथों पकड़ लियाI’
आसमान के सितारों और नरक की नालियों में धक्के खाती मैं कब सो गयी, होश नहीं! सुबह आँख खुली तो ग्यारह बज रहे थेI सिर भन्ना रहा थाI मेरे जाने में चार दिन शेष थे, लेकिन मैंने पहला काम यह किया कि फ़ोन उठा कर वापसी की उसी रात की फ्लाइट बुक कर लीI कल रात के अनुभव के बाद मैं प्रणय के घर से जल्दी से जल्दी भाग जाना चाहती थीI शावर के नीचे बहुत देर खड़े रहने पर भी सिर का दर्द कम नहीं हुआ थाI तैयार होने के बाद कमरे से बाहर निकली तो देखा अनुभा नाश्ता लगा रही हैI
मुझे देख कर औपचारिकता की ठंडी मुस्कान लाकर बोली,“प्रणय तो आठ बजे ही निकल गया थाI आपका दरवाज़ा भी खटखटाया, लेकिन आप गहरी नींद में थींI नाश्ता लगा रही हूँI बैठियेI”
“नहीं अनुभा… सिर्फ चाय पियूंगी मैं! और सुनो, रात को मोजाम्बिक से कंपनी से अर्जेंट कॉल आई थीI मुझे शाम को ही निकलना होगाI मैंने फ्लाइट बुक करा ली हैI अभी कंपनी के ऑफिस जा रही हूँI वहीँ से प्रणय से बात कर लूंगीI दिन भर तो ऑफिस में ही हो जायेगाI शाम को सामान उठाने आऊँगीI
“अरे ? आप तो चार दिन बाद जा रही थींI रुकतीं आप", प्रत्यक्ष रूप से उसने कहा, मगर मैंने वह नहीं सुना जो उसने कहा था, बल्कि वह सुना, जो उसने नहीं कहा था-- ‘चलो अच्छा हुआI अब फूटो यहाँ सेI“
यंत्रचालित सी मैं ऑफिस पहुँच गयी थीIबहाना बनाया था,कोई काम तो था नहींI ऑफिस की बड़ी सी लॉबी में पूरा दिन काटना था मुझेI प्रणय, फ़िरोज़, मैगी, पा, पारिजात…..कितनी यादें थीं जो मुझे सागर की लहरों की तरह कभी ऊपर, कभी नीचे ले जा रही थींI
पारिजात की एक बात बहुत याद आ रही थी, ‘देखो सिंगल लोगों की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि उनके शादीशुदा दोस्त, और दोस्तों के परिवार कभी उन्हें सामान्य मान कर स्वीकार नहीं करतेI हमेशा एक दूरी बनाकर और शक के दायरे में रखते हैं उन्हेंI तुम लड़कियों की तो मैं नहीं जानता, लेकिन हम जैसे कुंवारे लड़कों को भूखा भेड़िया या प्रीडेटर समझा जाता है,जो जाने कब नोच ले!’
आज पता चला कि शायद पारिजात सही कह रहा थाI उसकी एक बात और याद आ गयी--
‘देखो ज़्यादातर लोगों के तईं आदमी और औरत का रिश्ता आदम और हव्वा वाला होता हैI इसके आगे उनकी सोच नहीं जातीI’
क्या पारिजात का विश्लेषण सही था? मेरे पा ने जिन तंतुओं से मुझे गढ़ा था और ‘चार यार ‘ने उसे जिस खाद-पानी से सींचा था, वे सब उसके इस विश्लेषण पर नकारात्मक मोहर लगा रहे थेI मगर कल रात मेरे दोस्त, मेरे प्रणय को कोई मुझे थप्पड़ मारकर मुझसे छीन ले गया था, और मैं रह गयी थी सन्न, हताश,हतप्रभ और निःशब्द! और गली गली फैली किरचों को समेत कर तस्वीर बनाने की जुगत करती रही मैंI प्रणय के कई बार कॉल आये लेकिन मैंने उठाये नहींI बिलकुल मन नहीं हो रहा था उससे बात करने का! जैसे मैंने पिछले दो सालों से पारिजात का एक भी फ़ोन नहीं उठाया है, न उसके मेसेज का उत्तर दिया है, ठीक उसी तरह!
पारिजात का कभी न चुकने वाला धैर्य मुझे चकित कर देता थाI वह नियमित अंतराल पर मेरे फ़ोन की घंटी बजाता, नियमित मैसेज करके मुझे अपने बारे में सूचनाएं देता रहताI सबकी आवाजें पहाड़ पर चिल्लाने जैसी प्रतिध्वनित होकर वापस आती, लेकिन मैं ऐसा पहाड़ बनी थी जिससे टकराकर उसकी आवाजें वापस नहीं आती थींI मगर जैसे मंदिर में रोज़ ढोक लगाने जाता हो, ऐसे मुझे बताता रहता-- कौन सी किताब पढ़ी है, कंपनी उसे क्या नया काम दे रही है, कौन सा शोधपत्र छप रहा है… और यह भी कि वह प्रतीक्षा कर रहा है कि ग्लेशियर कभी तो पिघलेगा!
कभी-कभी मुझे सपना आता कि पारिजात जैसे छोटा-सा बच्चा हो, और मेरे पा उसे गोदी में उठा कर मेरी तरफ ला रहे हों… और मैं निर्ममता से इस सपने को परे झटक देतीI आज जागती आँखों से वही दृश्य दिख रहा था,और मैं जितना बेरहम बनती,व ह सपना उतना ही ढीठ, उतना ही उद्दंड बनकर चोट खाकर फिर से खड़ा हो रहा थाI
समय देखा, प्रणय के घर से सामान उठा कर एयरपोर्ट तक पहुँचने के बाद लगभग तीन ही घंटे बचेंगेI मैं उठ खड़ी हुईI टैक्सी को मैंने प्रणय के घर पर ही खड़ा रखाI छोटू को प्यार किया, रास्ते से ख़रीदा हुआ एक खिलौना उसके नन्हे-नन्हे हाथों पर रखा, और अनुभा से विदा लीI शायद मैंने गलत देखा हो, लेकिन उसके चेहरे पर निर्विकार-सा भाव थाI
एयरपोर्ट पर जैसे ही मैं गेट के बाहर पंक्ति में खड़ी हुई, दूर से किसी ने आवाज़ दीI देखा, प्रणय लगभग दौड़ता हुआ चला आ रहा है, हांफता हुआI उसके हाथ में गुलाब का एक फूल थाI
“यार सुबह से दिमाग का दही हुआ जा रहा है, तुझे फ़ोन कर कर के, और तू तो मरी पड़ी है! अनुभा ने फ़ोन करके बताया नहीं होता तो तू तो निकल ही लेती!”
“दोस्त, मैं बहुत व्यस्त थी दिन भरI फ़ोन साइलेंट पर पड़ा थाI अभी-अभी देखाI सोच रही थी सिक्योरिटी चेक के बाद तुझे मिलाऊँगीI”
“और यह अचानक भागी क्यों जा रही है तू? तेरी फर्म की छत नहीं गिर पड़ेगी अगर तू हाथ नहीं लगाएगीI इतने सालों बाद तो भारत आई है!”
“नहीं दोस्त,बहुत ही ज़रूरी काम हैI उन लोगों ने सारा रायता फैला दिया है, और सिर्फ मैं ही जाकर समेट सकती हूँI”
मैंने महसूस किया कि अभिनय में मुझे पुरस्कार मिल सकता है!
“अनुभा ने भी कहा कि मुझे भी ले लो, लेकिन मैं घर जाता तो तू मिलती नहीं",
मैंने प्रणय की आँखों में देखा... शायद वह सच बोल रहा थाI अचानक उसने खींच कर मुझे गले लगा लिया,
”टेक केयर!”,वह फुसफुसायाI
“तुझे कभी भुला नहीं पाऊँगी दोस्त!” मैंने कुछ अस्फुट स्वर में उसके कान में कहाI
“तो मैं लाश बनकर तेरे साथ चिपका जो रहूँगाI”,उसकी आवाज़ में इतनी चहक थी कि मुझे उस मनःस्थिति में भी हंसी आ गयीI
गुलाब का फूल पकड़े अन्दर जाते हुए मैंने दो-तीन बार पलट कर देखाI इस कान से उस कान तक की मुस्की खींचे वह हाथ हिला रहा थाI सारी औपचारिकताएं पूरी करके मैंने देखा, प्रवेश खुलने में अभी समय शेष था और मुझे ज़ोरों की भूख लग आई थीI अपने पीने की लिए कुछ खरीद कर मैं खाली कुर्सियों में से एक पर जा बैठी I
ठन्डे पेय के साथ जैसे मेरा कुहासा कुछ छंटने लगा थाI नेपथ्य का शोर,संगीत में बदलता जा रहा था और मेरी निर्मम पकड़ ढीली पड़ती जा रही थीI मैंने फ़ोन पर कॉन्टेक्ट्स खोलेI गति कुछ ज्यादा हो गयी,तो प्रणय के नंबर पर जा कर रुकीI जैसे एक प्यारे बच्चे के सर पर धौल जमा दी हो, ऐसे मैंने उसे हटा दियाI
फिर वापस लौटते हुए मैंने पारिजात पर उंगली दबा दी I हाँ पारिजात, हम तुम एक दूसरे के साथ शायद बहुत अच्छे लगेंगेI घंटी जा रही थीI अजीब सा लग रहा थाI आखिर दो साल तक मैंने उसके किसी फ़ोन का या मैसेज का उत्तर नहीं दिया था, और मैं वृत्त की पूरी परिधि में घूम कर लौटी, उसे स्वयं फ़ोन मिला रही थीI
एक मिनट के बाद उसकी आवाज़ आई,आश्चर्य और भावातिरेक से लबालब, “कनु? क्या यह तुम हो?”,
उसकी आवाज़ से मैंने महसूस किया कि उसकी आँखों में धुंध सी छा गयी है,
"हाँ, पारिजात मैं ही हूँ”,
कहते हुए,मैंने उसके कंधे पर अपना सिर टिका लिया था I