एक लड़की : कहानी (अंजली देशपांडे)

कथा-कहानी कहानी

अंजली देशपांडे 1146 3/2/2021 12:00:00 AM

"विश्व महिला दिवस" को समर्पित हमरंग की प्रस्तुति "एक कहानी रोज़" 'महिला लेखिकाओं की चुनिंदा कहानी' में आज दूसरे दिन प्रस्तुत है वरिष्ठ लेखिका "अंजली देशपांडे" की कहानी । कहानी पर महत्वपूर्ण टिप्पणी लिखी है "प्रतिमा सिन्हा जी" ने ॰॰॰॰॰ कहानी पर आप भी अपनी टिप्पणियाँ नीचे कमेंट बॉक्स में ज़रूर करें।

एक लड़की 

बात खत्म करके फोन रखते ही खन्ना ने मुड़कर पत्नी से दंग होकर कहा, ‘‘विश्वास नहीं करोगी। रत्ना को किसी ने छेड़ दिया।’’

डाइनिंग टेबल पर आलू छीलते नीलू के हाथ रूक गये। वह भी कुछ हैरान हो गई थी। ‘‘आदमी भी खासे गलीच होते हैं,’’ उसने हिकारत से कहा।

    खन्ना समझ नहीं पाये कि यह हिकारत रत्ना के साथ छेड़खानी करने वाले आदमी की जुर्रत पर थी या उसमें सुरूचि के अभाव पर। सोचने का वक्त भी नहीं था। रत्ना उनके दफ्तर में टाइपिस्ट थी और नीलू उसे नौकरी देने के खन्ना के दयाभाव की रह-रह कर तारीफ किया करती थी जिससे खन्ना को अपने ऊपर ही गुस्सा आने लगा था।

    ‘‘बात बहुत बढ़ गई लगता है। पुलिस दोनों को थाने ले गई है। जाना होगा। क्या मुसीबत है।’’ खन्ना ने नहाने का इरादा टाला और उतारी कमीज फिर पहनने लगे। ‘‘तुम भी चलती तो अच्छा होता,’’ आशा भरी निगाहों से उन्होंने नीलू को देखा। 

    अगस्त की उमस भरी शाम किसी बदबूदार थाने में बिताने की नीलू की न इच्छा थी न मजबूरी मगर अब तक रत्ना के प्रति दर्शाई गई हमदर्दी की असलियत का इम्तहान था। मन मार कर आलू उठाकर किचन में रख आई और कपड़े बदलने लगी।

    ओमप्रकाश खन्ना का चादरों और दरियों के निर्यात का कारोबार था। पानीपत के कई उत्पादकों से माल आता था, उनके संग उठना बैठना था। उनकी पुरानी टाइपिस्ट दो साल पहले हाथों में सोनें के कलीचडे पहन कर ऐसे ही एक उत्पादक के युवा सुपरवाइजर का घर बसाने पानीपत चल दी थी तब रत्ना को विरासत की तरह पकड़ा गई थी। सुपरवाइजर के ताऊ की बेटी थी रत्ना। बाप किसी सरकारी महकमे में क्लर्क रिटायर हुआ था, दो बेटियां ब्याह चुका था और रत्ना के बाद तीन और बच्चे रोटियों और कॉपी किताबों का बोझ उसकी बारीक पेंशन पर लादे बैठे थे। सरकारी स्कूल में पढ़ी थी। ऐसी लड़कियों की अंग्रेजी अच्छी कहां होती है। खन्ना बहुत हिचकियाए, आनाकानी की मगर सुपरवाइजर और मुंह लगी टाइपिस्ट के अनुरोधों ने हिचकिचाहट को  इनकार में नहीं बदलने दिया। बिना लड़की से मिले हां कह बैठे। पहले दिन रत्ना दफ्तर आई तो खन्ना ने अपनी कमजोर इच्छाशक्ति को उतना ही कोसा जितना अपनी पुरानी टाइपिस्ट और उसके पति को।

    रत्ना को देखते ही खन्ना को लगा था, ‘‘हो न हो मौत का यही रंग होगा।’’ चेहरा अस्वाभाविक रूप से ज़र्द था, लगता था बेरंग त्वचा के नीचे पीली पर्त बिछी हो जो कभी-कभी अचानक ज्यादा पीली हो जाती थी। चिपचिपे से काले बाल माथे से इतने सटा कर लंबी चोटी बांधती थी कि चपटा चेहरा और चपटा लगता था। एक आंख, कुछ बड़ी थी, जिससे वह बौराई सी लगती थी और इस बड़ी आंख की पुतली उसके उत्तेजित होने पर माथे में चढ़ जाया करती थी। मुंह पर फुंसियों के झुंड थे। लगता था किसी ने ऑलपिन खोंस दिये हों। फुंसियां जाती ही न थीं बस इधर की उधर हो जाया करती थीं। एक बार खन्ना ने पूछ लिया था कि तबियत खराब रहती है क्या, तो रत्ना ने बड़ी गंभीरता से कहा था, ‘‘हाजमा खराब रहता है, सर।’’ उम्र पच्चीस से कम न रही होगी, अनब्याही थी और खन्ना को यकीन था कि अनब्याही ही रहेगी। 

    एक आंख बड़ी होने से चेहरा असंतुलित लगता था। ‘‘लोग भी अपने बच्चों को कैसे भ्रामक नाम देते हैं,’’ खन्ना ने मन ही मन सोचा और ठान ली थी कि काम में कोई नुक्स निकाल कर महीने दो महीने में उसे चलता कर देंगे। पचास पार कर चुके थे, ज्यादा कुछ करने का साहस नहीं था मगर नयनसुख का अधिकार तो रखते ही थे। वह भी इस लड़की के चलते खो बैठे। खन्ना बहुत क्षुब्ध थे।

    एक बार नीलू दफ्तर आकर रत्ना से मिली तो बहुत खुश हुई। उसने उन्हें ‘बेचारी लड़की’ को नौकरी पर रखे रहने का आग्रह दोहराया। नीलू के मन में लड़की के लिए उमड़ी ममता का भेद खन्ना से छिपा न था। ऐसी लड़कियां दाम्पत्य सुख के लिये खतरा नहीं बनतीं। इसीलिए वे कहते भी घबराते थे कि लड़की से इतना लगाव है तो किसी अच्छे डॉक्टर से इलाज क्यों नहीं करवा देती, लड़की के जीवन में शहनाई सुनने की आस तो जगे।

    पत्नी की वे अनसुनी भी कर भी देते और रत्ना को बाहर का रास्ता दिखाते मगर खन्ना को उसके काम में नुक्स का बहाना भी न मिला। लड़की की अंग्रेजी खराब नहीं थी। गजब की हिम्मत भी थी उसमें। कोई तकनीकी लफ्ज समझ में नहीं आता तो वह धीरे से कुर्सी पीछे खिसका कर धम्म धम्म चलती हुई उनके सामने आ खड़ी होती, कतई न घबराती और कहती कि उसे कैपिटल लेटर्स में लिख दें। गलती वह कम करती थी, एक बार सीखा शब्द याद रखती थी, दफ्तरी खतों के अंदाज सीख गई थी और जल्दी ही खन्ना की अपाठ्य लिखाई अच्छे से पढ़ने लगी थी। उनके कूड़ेदान में, खराब हो गये कागजों के टुकड़े कम हो गये।

    काम में रत्ना निपुण थी और खन्ना सोचते, ‘‘हो भी क्यों न, ध्यान कहीं और बंटे इसके लायक तो कुछ है नहीं इसके पास।’’ 

    रत्ना हर काम बड़े मनोयोग से करती थी। गोविंदपुरी की तरफ रहती थी, दो बसें बदलकर भी समय से शाहपुर जाट के दफ्तर में आ पहुंचती, टाइपराइटर पर से प्लास्टिक का कवर उतारती, नर्म मलमल के कपड़े से उसे अच्छी तरह पोंछती और सफेद करारे कागजों के बीच मुलायम कार्बन की पर्ते छोरों से पकड़ कर चढ़ाती कि दाग न लगे, न उंगलियों पर, न कागज पर। बहुत सहेज कर उन्हें टाइपराइटर में चढ़ाती। हर दूसरे दिन मलमल के कपड़े को तहा कर अपनी सस्ती रेक्सिन के हैंडबैग में घर ले जाती, धोकर, सुखाकर ले आती थी।

    वह दफ्तर में बैठी अविराम टाइपिंग करती थी। दिन भर टाइपराइटर का रोलर खिसकाने की आवाज के अलावा वह कुछ और सुनती थी इसमें संदेह था।

    एक बार खन्ना ने सोचा कि कम्प्यूटर खरीद लें तो इससे पीछा छूटे। दफ्तरों में अब कम्प्यूटर का चलन होने लगा था। 

‘‘तुम कम्प्यूटर तो नहीं जानती हो ना?’’ उन्होंने पूछा था। 

‘‘सीख लूंगी, सर। आप खरीदने वाले हैं?’’ रत्ना ने अपनी भावहीन आंखें उनके चेहरे पर टिका कर आश्वासन दिया। 

खन्ना को विश्वास था, सीख लेगी और बेहतरीन काम करेगी। उन्होंने कम्प्यूटर खरीदने का इरादा छोड़ दिया। ख्वामख्वाह पचास साठ हजार का खर्चा हो जाता और इसको चलता करने की मुराद भी पूरी न होती। दफ्तर छोटा सा ही था मगर रत्ना की किसी से खास जमी नहीं। महीने दो महीने में अकाऊंटेंट से चपरासी तक एक बार तो उससे पूछ ही लेते थे, ‘‘कोई खुशखबरी है क्या?’’ अपनी असंभव शादी की तरफ इशारे के इस क्रूर प्रहार का वह निर्विकार निरुत्तरता से मुकाबला करती थी। किसीसे ज्यादा बातें नहीं करती थी।

    उस रत्ना को किसी ने ऐसा क्या कर दिया कि वह थाने पहुंच गई, खन्ना हैरान होकर सोच रहे थे। मन में थाने जाने की मजबूरी की खीझ के चलते एक बार यह खयाल भी आया था कि किसी ने छेड़ा तो रत्ना को तो उसे अपनी प्रशंसा समझ कर खुश हो जाना चाहिए था, तमाशा करके पुलिस तक जाने की क्या जरूरत थी। शराफत का तमगा हासिल करना चाहती है क्या? लड़की सचमुच दिमाग से खारिज लगती है। 

    उधर रत्ना स्वभावानुसार अविचल थाने के बेंच पर बैठी खन्ना साहब के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। उस पर हमला करने वाला लॉकप में बंद था और कुछ देर पहले का कोलाहल अब उसके भीतर दही की तरह जम गया था। घर में खबर करने की कोई सूरत नहीं थी। जानती थी घर में सब लोग कुछ देर में परेशान हो उठेंगे, यहां जाने और कितनी देर लगेगी। मगर जो भी हो घटनाक्रम उसके हाथों से निकल चुका था।

    रोज की तरह दफ्तर से निकल कर बस स्टॉप पर खड़ी वह चुपचाप उस खाली जगह को निहार रही थी जहां बस को आकर खड़ा होना था और जहां कारें और ऑटो सरपट भाग रहे थे। उसकी आंखों को इधर-उधर न देखने का अभ्यास था इसीलिए वह उस आदमी को देख नहीं पाई जो उसके नजदीक आकर खड़ा हो गया था। कितने ही लोग स्टॉप पर आकर खड़े होते हैं, धका पेल करते हैं, रत्ना बस हैंडबैग को बगल में दबोचे रहती थी कि कोई उसके थोड़े से पैसे न चुरा ले जाये। आदमी उसके और नजदीक आया तब भी रत्ना को अनहोनी की आशंका नहीं हुई थी, वह एक कदम दूर हट गई। आदमी यूं उसके हटते ही उसके और करीब आ गया मानो उससे कुछ कहना चाहता हो। तब जाकर रत्ना ने आंखें उसकी ओर मोड़ीं। छाती पर हाथ बांधे आदमी का दायां हाथ उसकी बाईं बगल के नीचे से निकला हुआ था जिसमें पचास रुपये का नोट था। रत्ना से नजर मिलते ही उसने नोट को जोर से हिलाया और भौंहे चढ़ाई। अचंभित रत्ना एक कदम और खिसकी। ‘‘कम है क्या?’’ आदमी ने हाथ बगल से निकाला और उसके और नजदीक आ गया। तब रत्ना को समझ में आया कि आदमी उसी से बात कर रहा है। वह आगे बढ़ी और मुड़कर ठीक उस आदमी की तरफ मुंह करके खड़ी हो गई।

    ‘‘तेरी मां वेश्या है या बाप दलाल है?’’ रत्ना ने अपने संयमित स्वर में उससे  पूछा। 

    आदमी सकपका गया। लगा कुछ गलत सुना है। उसके मंुह से निकला, ‘क्या’? 

    ‘‘मैंने पूछा कि तेरी मां धंधा करती है या बाप दलाली करता है?’’ रत्ना ने फिर कहा। उसे कानों में अपने ही रक्तचाप की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। हो न हो इसी कारण उसने जरा ज्यादा ही ऊंची आवाज में पूछा। स्टॉप पर खड़े लोग अब दोनों को देख रहे थे।

    आदमी इस बीच अपना नोट जेब में डालने लगा था। उसका चेहरा तमतमा रहा था और जेब में नोट रखकर उसने रत्ना के मुंह पर थप्पड़ जड दिया। राह चलती लड़की को खरीदने की पेशकश उसके परिवार के चरित्र पर कलंक नहीं थी लेकिन मां बाप की इज्जत प्यारी थी। 

    रत्ना डगमगाई नहीं। उसने उस आदमी का गिरेबान पकड़ लिया, टाइपराइटर पर चल चल कर कड़ी हो गई उंगलियों में संचित शक्ति से। आदमी उससे गिरेबान न छुड़ा सका। 

    ‘‘छोड़ साली, कुतिया,’’ वह चीखने लगा। 

    भीड़ अब चारों ओर से उन्हें घेर चुकी थी। आदमी कॉलर छुड़ा लेता तो शायद भाग लेता मगर एक तो भीड़ रास्ते में थी, दूसरे लड़की में कमाल की दृढ़ता थी। रत्ना नहीं जानती थी वह क्या करना चाहती थी, क्या कर सकती थी। भीड़ के बीच बचाव और फब्तियों की आवाज उस तक पहुंच भी नहीं रही थी। संयोग ही था कि वहीं के थाने का हवलदार गुजर रहा था, भीड़ को देखकर आ पहुंचा और मामला भांप कर उसने आदमी को धर दबोचा। आदमी नौकरीशुदा लगता था, महीने का पहला हफ्ता ही था, हवलदार ताड़ चुका था। कमाई का मौका था, उसने भीड़ से दोनों को अलग किया।

    ‘‘इसके खिलाफ केस कीजिए,’’ रत्ना ने हवलदार की ओर मुड़कर अपने स्वभावगत ठहरे स्वर में कहना चाहा मगर उसकी आवाज टूट गई, एक आंख माथे में चढ़ने लगी। हवलदार कुछ असहज सा हुआ, फिर उसने आदमी को एक झन्नाटेदार थप्पड़ मारा और बोला, ‘‘चल थाने’’। 

    आदमी को वह घसीटता हुआ थाने ले आया था और रत्ना धीरे-धीरे उनके पीछे चली आई थी। थाने में रत्ना खामोश बैठी रही और हवलदार आदमी को एक ओर ले गया। वह सुनती रही आदमी उस पर क्या इल्जाम लगा रहा था।

    ‘‘कहता है तू धंधा करती है,’’ हवलदार ने आकर उससे कहा। एक सब इंस्पेक्टर भी आकर उसे सिर से पैर तक ताड़ रहा था। ‘‘जनाब मामला इतना सीधा नहीं है।’’ हवलदार ने सब इंस्पेक्टर से कहा।

    रत्ना अब तक संयमित हो चुकी थी। उसने साफ साफ पूरा वाकया बयान किया, अपना परिचय दिया और अपने चरित्र के सबूत के तौर पर खन्ना साहब को बुलाने को कह दिया।

    थाने के लोग खन्ना को जानते थे। पुराने कारोबारी थे, थाने से सीधे वास्ता तो नहीं पड़ता था मगर इलाके के बड़े आदमियों में गिने जाते थे। सब इंस्पेक्टर ने रत्ना से उनके घर का नंबर लेकर फोन कर दिया। आदमी भाग न जाये इसलिए उसे लॉकअप में धक्का देकर हवलदार ने बाहर से कुंडी लगा दी। थाना अपने काम में मशगूल हो गया, रत्ना टकटकी लगा कर थाने के बाहर सड़क को देखती बैठी रही जहां खन्ना की गाड़ी को आना था। सब इंस्पेक्टर ने कहा था, ‘‘ आ रहे हैं, बैठो।’’

    आधे घंटे बाद ही खन्ना आ पहुंचे। मारुति एस्टीम से उनके साथ उनकी पत्नी को उतरते देख रत्ना के मन में खन्ना के प्रति फिर कृतज्ञता जागी। बिना टाइपिंग टेस्ट लिए, बिना उससे मिले ही इस आदमी ने उसे नौकरी पर रख लिया था जबकि कई दफ्तरों में टेस्ट में चिकनी त्वचा की लड़कियों से बेहतर टाइपिंग करके भी वह नौकरी पाने में नाकाम रही थी। सब इंस्पेक्टर ने खन्ना को पूरा वाकया कह सुनाया। आदमी पास ही के एक दफ्तर में क्लर्क है। कहता था लड़की को महीनों से देख रहा है, धंधा करती है। 

    ‘‘कहता है लड़की से पैसे को लेकर तकरार हो गई तो उस पर इल्जाम लगा रही है,’’ सब इंस्पेक्टर बोला। नीलू तब तक जाकर रत्ना के पास बेंच पर बैठ गई थी।

    खन्ना के मन में संदेह जागा, कहीं लड़की सचमुच खाली वक्त में यह काम तो नहीं करती? कौन जाने देह की भूख क्या-क्या करवा लेती है। पैसे की तंगी तो खैर उसे थी ही। मुड़कर उन्होंने रत्ना को देखा, रेक्सिन का हैंडबैग, भूरी सस्ती सलवार कमीज, काला दुपट्टा, पैर में कोल्हापुरी चप्पल। न लिपस्टिक, न बिंदी, कान में बुंदे भी गिलट के ही लगते थे, कभी काले न पड़े थे। जब से आई थी यही बुंदे पहने रहती थी। उन्होंने रत्ना की दोनों असंतुलित आंखें अपने चेहरे पर टिकी पाईं। खुद अपने ही शक पर शर्म हो आई। संरक्षक का भाव जागा।

        ‘‘उस बेशर्म आदमी की बात का भरोसा कर रहे हैं आप? ऐसा होता तो यह केस करने को क्यों कहती?’’ खन्ना ने कहा। 

‘‘आप शरीफ आदमी हैं। नहीं जानते क्या कुछ होता है। हवा चली है जी आजकल। लड़कियां मनमाने इल्जाम लगा रही हैं। रोज ऐसे केस आते हैं, आपको क्या बताएं। लड़की की जबान सुनेंगे तो आपको भी विश्वास नहीं होगा। पूछिए क्या कहा इसने आदमी से,’’ सब इंस्पेक्टर ने कहा।

    रत्ना उठकर उनके करीब आ गई। वह नीलू को बता चुकी थी क्या हुआ था। अब उसने खन्ना को पूरी बात कह सुनाई। नीलू और सब इंस्पेक्टर भी उसकी साफगोई से ही नहीं, ठीक उन्हीं शब्दों में एक ही बात को बताने के उसके हुनर से चकित रह गये। पहले हवलदार को, फिर सब इंस्पेक्टर को फिर नीलू को और अब खन्ना, सबको रत्ना ने पूरी बात इस तरह सुनाई थी कि एक भी शब्द इधर से उधर न हुआ था। 

    खन्ना ने ‘वेश्या’ सुनते ही सकपका कर नीलू को देखा। ‘दलाली’ सुनकर तो उन्होंने सर झुका लिया। उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि रत्ना को यह शब्द आते भी हैं। 

  ‘‘बैठो, बैठो,’’ अचकचाकर उन्होंने रत्ना से कहा। बहस छिड़ गई। खन्ना को लगा लड़की सच बोल रही है इसमें शक नहीं मगर केस करने की तुक उन्हें समझ में नहीं आ रही थी। ‘‘आदमी से माफी मंगवाइये,’’ उन्होंने कहा और नीलू की ओर देखा।

    नीलू अब तक मर्दों को मामला निपटा देने के मूड में थी। उसे लगा अब उसे दखल देना ही होगा। हवलदार चायवाले को बोल आया था। चाय का गिलास हाथ में लेकर नीलू रत्ना के पास बेंच पर बैठ कर उसे समझाने लगी। केस करने का क्या फायदा, सालों कचहरी के चक्कर लगेंगे। 

    ‘‘उसने मुझे पैसे दिखाए। उसने मुझे थप्पड़ मारा,’’ अपनी असंतुलित आंखें नीलू की आंखों में गड़ाते हुए रत्ना ने कहा। नीलू घर से बेमन से चली थी मगर रत्ना की दशा पर उसे दया आ गई। यह खयाल भी आया कि कौन जज इसे देखकर मान लेगा कि किसी ने इसे छेड़ा होगा। सबूत भी क्या है? बस स्टॉप पर खड़े गवाह तो छितर गये। कचहरी में ख्वामख्वाह तरह-तरह की बातें कहीं जायेंगी। बदनामी लड़की की ही होती है। रत्ना सच बोल रही है इसमें उसे शक नहीं था मगर लड़की की इज्जत पर कचहरी में भी कीचड़ ही उछाली जाती है। 

‘‘फजीहत से बचो,’’ उसने समझाया। ‘‘केस करना ही चाहती हो तो कर सकते हैं। मगर सोच लो आसान नहीं है ऐसा केस लड़ना।’’

        ‘‘उसने मुझे पैसे दिखाए। उसने मुझे थप्पड़ मारा,’’ रत्ना फिर से बोली। 

        अब नीलू को उस पर गुस्सा आने लगा। रोज ही लड़कियों के साथ ऐसा होता है।

    ‘‘देखो उसे एकाध रात हवालात में बंद रहने दो। यही सजा काफी है,’’ नीलू ने कहा। फिर मुड़कर सब इंस्पेक्टर से बोली, ‘‘उठक-बैठक करवाइये। माफी मांगेगा ठीक से। देखेंगे तब क्या करना है।’’

    खन्ना ने चैन की सांस ली। अच्छा ही हुआ नीलू को साथ ले आये। सब इंस्पेक्टर ने हवलदार की ओर देखा तो वह जाकर भीतर लॉकअप से आदमी को ले आया। ‘‘चल माफी मांग लड़की से,’’ उसने कहा।

        आदमी रत्ना को देखते ही बिफर गया। ‘‘इसने मेरी मां को गाली दी। इससे माफी मांगूगा? साली धंधेवाली।’’

    नीलू तमतमा कर उठ खड़ी हुई। ‘‘तूने तो बड़ा अच्छा काम किया ना कि तुझे गाली न देती? तेरे परिवार में कुछ खोट तो होगी ही कि ऐसे संस्कार तुझे मिले हैं।’’ अब उसे भी लगने लगा था कि इस पर केस करना ही चाहिए।

        ‘‘सड़क पर लड़कियों को पैसे दिखाता है। ऐसे संस्कार कहां से मिले? मैंने दी, सर, मैंने इसे गाली दी,’’ रत्ना ने कहा। 

   खन्ना के मन में रत्ना के पति सममान का भाव जागा ।  दबंग लडकी है स्वाभिमानिनी  है।

  ‘‘बड़ी हूर है, परी है जो मैं इसको पैसे देता। शक्ल तो देखो इसकी, साली के मुंह पर थूकूं भी नहीं,’’ आदमी बोला।

    ‘‘हूर नहीं हूं तब तेरा यह हाल है। होती तो जाने क्या करता,’’ रत्ना ने बेंच पर बैठे-बैठे ही ऊंची आवाज में कहा। फिर उसने नीलू को समर्थन की आशा में देखा और दुहराने लगी, ‘‘इसने मुझे पैसे दिखाए, मुझे थप्पड़ मारा।’’

    खन्ना पत्नी के गुस्से से परेशान हो गये। मामला संभलते-संभलते बिगड़ने लगा था। थाने में खड़े-होकर भी आदमी की अकड़ नहीं टूटी थी इससे वे भी हैरान थे। किसी भी सूरत में वे केस करने के हक में नहीं थे। नीलू का क्या भरोसा कल को कहने लगे ‘‘बेचारी लड़की के साथ कचहरी चले जाना’’।

    ‘‘थप्पड़ तो हम ही रसीद कर देते हैं इसके,’’ सब इंस्पेक्टर बोला। हवलदार ने तड़ातड़ दो जड़ दिये आदमी के मुंह पर। नीलू ने कस कर डांट पिलाई, बोली इसके घरवालों को बुलाओ, इसे इसके मोहल्ले में ले जाकर पीटो। फसाद बढ़ने लगा। बाहर अंधेरा हो चला था। खन्ना के बहुत कहने पर नीलू चुप हुई और हांफती हुई फिर से रत्ना के पास आ बैठी। हवलदार आदमी को एक किनारे ले गया और सबकी नजर बचाकर जेब खाली करवा ली। चार सौ बासठ रुपये निकले।

    ‘‘साले बहनचोद, केस हुआ तो वकील ही हजारों झाड़ लेगा। इतने से काम बनेगा?’’ उसने पूछा। अब जाकर आदमी को पता चला रात हवालात में कट सकती है और जेब पर डकैती तो पड़ेगी ही। घर से हजार रुपये मंगवा कर देने का वादा किया। 

        ‘‘चल माफी मांग लड़की से,’’ हवलदार ने धक्का दिया।

    आदमी आकर सब इंस्पेक्टर के सामने खड़ा हो गया। अभी भी अकड़ा खड़ा था। खन्ना ने हिकारत से उसे ऊपर से नीचे तक देखा और सब इंस्पेक्टर से बोले, ‘‘लगता है ऐसे नहीं मानेगा।’’

        ‘‘लाओ केस ही लिख लें। कल कचहरी में पेश कर देंगे,’’ सब इंस्पेक्टर ने कहा।

        आदमी बेंच की ओर मुड़ा। ‘‘माफ कर दो, गलती हो गई।’’

    ‘‘ठीक से माफी मांग।’’ सब इंस्पेक्टर को अब मजा आने लगा था। आदमियों की अकड़ तोड़ने का अपना लुत्फ होता है। उसने खन्ना को देखा जो उसकी चतुर चाल पर बधाई देने की मुद्रा में उसे देखकर मुस्कुरा दिये। ‘‘तेरी बहन के समान है। हाथ जोड’’ सब इंस्पेक्टर ने कहा।  

    आदमी ने अब हाथ जोड़े और दो-तीन बार माफी मांगी। साफ था डर माफी मंगवा रहा था, उसे पश्चाताप था तो इस लड़की को निशाना बनाने का, अपनी हरकत का नहीं। नीलू ने रत्ना की पीठ थपथपाई। ‘‘चलो, चलो। खत्म करो बात,’’ उसने कहा। 

रत्ना काठ की तरह बैठी थी। अब वह उठी और धीरे-धीरे चल कर आदमी के सामने आकर खड़ी हो गई स्थिर, अविचल। एकाएक उसने जोर का एक थप्पड़ आदमी के मुंह पर दे मारा। नीलू तेज कदमों से उसके पास आई और उसका हाथ पकड़कर बाहर ले जाने लगी। खन्ना ने सब इंस्पेक्टर से हाथ मिलाया, और बाहर आ गये। 

    रत्ना की आंखें गीली थीं। नीलू उससे कह रही थी कि पुलिस ने आदमी से पैसे ऐंठ लिए हैं, है तो आदमी बड़ा कमीना, मगर ऐसे तो रोज मिलते हैं, रोज केस तो नहीं कर सकते। खन्ना ने गाड़ी का दरवाजा खोला।

        ‘‘उसने मुझे थप्पड़ मारा,’’ उन्होंने रत्ना को फिर से कहते सुना।

        ‘‘तुमने भी उसे थप्पड़ लगा दिया अब। देानों बराबर हो गये,’’ उन्होंने आश्वासन के लहजे में कहा।

    रत्ना ने निर्विकार भाव से उन्हें देखा। ‘‘मैं उसके बराबर नहीं होना चाहती,’’ उसके मुंह में आया। पर चुप रही।   

 ‘‘चलो तुम्हें घर छोड़ दें,’’ नीलू ने रत्ना से कहा।

 

कहानी पर 'प्रतिमा सिन्हा' की टिप्पणी - 

समाज की कई परतों से झांकती ‘एक लड़की’ !

कहानी एक ऐसी विधा है जो शब्दों के माध्यम से दृश्य अंकित करती है. इस नज़रिए से देखा जाए तो कहानी, वह सशक्त है, जिसके शब्द-दृश्य पाठक की आँखों के सामने घटित हुए दृश्यों की तरह स्पष्ट हों। अंजली देशपांडे की कहानी “एक लड़की” इस कसौटी पर सौ फ़ीसदी खरी उतरती है.
ओमप्रकाश खन्ना का अपनी पत्नी नीलू के साथ वार्तालाप, लगी-लगाई पुरानी टाइपिस्ट के अचानक नौकरी छोड़ने से पैदा हुई परेशानी और फिर बदसूरती की हद को छूते हुए चेहरे वाली रत्ना का टाइपिस्ट बनकर ऑफिस आना, सब कुछ ऐसा लगता है कि हमने पढ़ा नहीं बल्कि कहीं घटते हुए देखा है. कहानी की भाषा कमाल करती है. प्रवाहपूर्ण, बेहद सधी हुई और शब्दों की कसी हुई बेहद महीन बुनावट में पिरोया गया ‘कहानी का कहन’. कथ्य का बहाव कुछ ऐसा कि एक बार पढना शुरू कर दें तो खत्म किए बिना रुकने का प्रश्न ही नहीं. पाठक की दृष्टि में एक अच्छा कहानीकार वो होता है जो साधारण से घटनाक्रम को भी पठनीय बना दे. किसी ऐसी बात पर रुक कर सोचने पर मजबूर कर दे जिस पर हम रोज़ाना की ज़िन्दगी में शायद ही कभी सोचते हों. कहानी ‘एक लड़की’ की मुख्य पात्र ‘रत्ना’ है. एक ऐसी लड़की, जो दिखने में इतनी ‘औसत’ है कि ‘औसत’ भी उसके सामने बहुत ज्यादा है. बदसूरती के कई सारे पैमाने एक साथ तोड़ती हुई रत्ना जैसी लड़कियां ‘दांपत्य सुख के लिए कभी खतरा नहीं बनतीं’ इसीलिए पति के दफ्तर में रत्ना के टाइपिस्ट बन कर आने के बावजूद नीलू को उससे कोई खतरा नहीं लगता और वो स्त्रीसुलभ सामान्य ईर्ष्याभाव से पूर्णतया मुक्त हो कर रत्ना के साथ कुछ हद तक इंसानियत दिखा पाती है लेकिन इसमें दयाभाव की मात्रा सामान्य से ज़्यादा है. 
 
फिर एक दिन होता यूँ है कि जिस लड़की को आमतौर पर कोई नज़र उठाकर भी नहीं देखता उसके साथ कोई सरेराह छेड़खानी कर जाता है. अपमानित रत्ना पुलिस में रिपोर्ट के लिए थाने पहुंचती है और अपने चरित्र के सुबूत के लिए ओमप्रकाश खन्ना को फोन करके थाने बुला लेती है. खन्ना के मन में स्वाभाविक रूप से समाज का वो वर्ग जाग उठता है जिसके लिए औसत से भी कम चेहरे वाली एक लड़की ‘बेचारी’ ही होती है. यानी प्रशंसा की इस कदर भूखी कि सड़कछाप छेड़खानी को भी उसे प्रशंसा समझ कर सिर-माथे रखना चाहिए, यह सोच कर कि कम से कम किसी ने उसे इस योग्य तो समझा. मगर रत्ना बद्सूरत होने के बावजूद बिल्कुल अलग तेवर की है. मेहनती है, अपने काम में निपुण है, नया काम सीखने को तत्पर है. सारी निम्नस्तरीय सहानुभूतियों के बीच अपनेआप को कठोर और मजबूत बनाए रखने का उसका अभ्यास है. दफ़्तर में अविराम टाइपिंग करती है, इस तन्मयता और दक्षता से कि ऑफिस के कूड़ेदान मेंखराब हो गये कागजों के टुकड़े कम हो गये हैं. 
 
उसे शायद हमेशा ही से अपमान और तिरस्कार झेलने की आदत है तभी वह हर परिस्थिति का सामना बखूबी कर लेती है. बस स्टॉप पर पचास का नोट दिखा कर उसे साथ चलने का इशारा करते हुए आदमी से संयमित स्वर में पूछती है कि, “तेरी मां वैश्या है या बाप दलाल है ?” मतलब कि तमाम चुप्पी के बावजूद उसे सामने वाले की भाषा में ही सवाल करना आता है. चाहे सब उसका अपमान करते रहे हों मगर रत्ना अपने अपमान से सहमत नहीं है इसीलिए वह तमाशा खड़ा करने की हद तक जाकर उस आदमी का गिरेबान पकड़ लेती है, ‘टाइपराइटर पर चल-चल कर कड़ी हो गई उंगलियों में संचित शक्ति से’. यह पंक्ति अपने में बहुत गहरा भाव समेटे हुए है. अनायास ही महसूस होता है जैसे एक औरत की उनसे खूबसूरत ऊँगलियां और क्या होंगी, जिनसे अपने अपमान के विरुद्ध उठने वाली गर्दन को मरोड़ा जा सके. 
रत्ना के पास कुछ भी तराशा हुआ नहीं है. न रूपरंग, ना हावभाव, ना तो बोलने का तरीका. वह बार-बार अपने कहे को दोहराती है लेकिन उसमें एक अजीब सी दृढ़ता है जो खन्ना, नीलू और पुलिस वालों को देर तक उलझाए रखती है. खन्ना के मन में संरक्षक का भाव जागता है. नीलू उसके लिए लड़ने को खड़ी होती है और पुलिस उस आदमी को माफी मांगने के लिए तैयार करता है. 
रत्ना निडर है, निर्विकार है लेकिन अपनी सोच पर पूरी तरह से अडिग. आखिर में जब नीलू कहती है कि “उसने तुम्हें थप्पड़ मारा, तुमने भी उसे थप्पड़ लगा दिया. अब दोनों बराबर हो गए.” तो रत्ना निर्विकार भाव से देखते हुए सोचती है, “मैं उसके बराबर नहीं होना चाहती.” 
 
अंजली पांडे की लेखनी बहुत ही सहजता से कहानी के बहाव के साथ बहते हुए रत्ना को मुख्य किरदार के रूप में खड़ा कर देती है, वो भी बिना किसी अनर्गल महिमामंडन के. हालाँकि औसत से भी कम दिखने वाले किसी पात्र को कहानी के केंद्र में खड़ा करना एक बड़ी चुनौती है. कहानी की विशेषता यह भी है कि सीधी-सरल दिखने के बावजूद इसकी कई सारी परतें हैं. खन्ना का किरदार, जो 50 को पार कर लेने के बाद भी नयनसुख का अधिकार खोना नहीं चाहते, चाहे कुछ और ना कर सकें. खन्ना की पत्नी नीलू जो दांपत्य जीवन के सुरक्षित रहने से ही प्रसन्न रहती है और रत्ना जो हमारे आसपास की ऐसी तमाम लड़कियों का अक्स बनकर हमारे सामने रहती है जो खूबसूरती और कमनीयता के रूढ़ मानदंडों से कोसों दूर अपने ही तरह की ज़िन्दगी जीने की जद्दोजहद में लगी हुई हैं. एक अच्छी कहानी का काम यह भी है कि वह पढ़ने के बाद पाठक के पास सोचने, महसूस करने और कहने के लिए कुछ छोड़ जाए. अंजली देशपांडे की कहानी ‘एक लड़की’ इन सारी शर्तों को पूरा करती है. लेखिका को एक बेहतरीन कहानी के लिए बेशक़ बधाई दी जा सकती है.
 

(प्रतीकात्मक चित्र google से साभार)

अंजली देशपांडे द्वारा लिखित

अंजली देशपांडे बायोग्राफी !

नाम : अंजली देशपांडे
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अंजली देशपांडे पत्रकार रही हैंअनेक आंदोलनों और अभियानों से जुड़ी रही हैं.

इनमें नारी मुक्ति आन्दोलन और भोपाल गैस पीड़ितों के न्याय के लिए संघर्ष प्रमुख रहे. 

सत्तर और अस्सी के दशक में कई नुक्कड़ नाटक लिखे और उनमें अभिनय भी कियाहिंदी अंग्रेजीदोनों भाषाओँ में लेखन करती हैं

दो उपन्यास प्रकाशित.

भोपाल गैस त्रासदी की पृष्ठभूमि में हिंदी में ‘महाभियोग’ राजकमल प्रकाशन से और अंग्रेजी में इमपीच्मेंट’ हशेट इंडिया से छपे. 

‘हत्या’ उपन्यास राजपाल एंड संस से प्रकाशित. 

हाल ही में पहला कहानी संग्रह ‘अंसारी की मौत की अजीब दास्तान’ सेतु प्रकाशन से आया. 

हंस, कथादेश, रचना समय, दृश्यांतर, लमही सहित कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित. दूसरों के लिखे की बेबाक समीक्षा का भी शौक है, लिखी भी हैं, छपी भी हैं. 

दिल्ली में पति के साथ रहती हैं.

जन्म 1954 में.

फ़ोन : 9871167515

ईमेल : anjalides@gmail.com

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पोस्ट की गई टिप्पणी -

शैलेन्द्र स्वरूप सक्सेना

02/Mar/2021
एक औसत दर्जे की कहानी,एक छेड़छाड़ की आम घटना,घटना से निपटने का वही पुलिसिया तरीका,नीलू को रत्ना में अपनी सुरक्षा का अहसास, खन्ना साहब की बोरियत से निजात पाने की आकांछा,कांस्टेबिल की जेब गरम करने की फिराक,इसे मसाला कहानी नहीं तो उससे कम भी नहीं कह सकते।एक मज़बूत पहलू है कहानी का,रत्ना की दृढ़ता,उसका आत्मविश्वास, जो कि कठिन हालात का समय करती कामकाजी महिला में होना स्वभाविक है।पठनीय।

anand kumar

02/Mar/2021
यह अंजली की शायद सबसे पहली या शुरुआती कहानी है। मैंने पढ़ी थी। या उसने सुनाई होगी। आज फिर पढ़ी। मैं आम तौर से कहानियाँ आदि कम पढ़ता हूँ। मुझे लगा था कि इस लड़की को इतना बदसूरत बनाने की ज़रूरत नहीं थी। पर बाद में जब आदमी ऐसा ही कहता है कि इसकी शक्ल पर थूकूँ भी नहीं तब मुझे पता चला कि कहानी इस बात का भी जवाब देगी कि सूरत ही सब कुछ नहीं होती। मर्द नीचता करने के बाद भी अपना पलड़ा भारी रखना चाहते हैं। रत्ना बदसूरत कहलाने पर अपमानित महसूस नहीं करती। उस आदमी की महा भद्दी सोच पर लड़की की तथाकथित शारीरिक कुरूपता भारी पड़ती है, वह एकदम से सुंदर बन जाती है। जैसा कि प्रतिमा सिन्हा ने इसके विश्लेषण में कहा है, एक मेहनतकश लड़की के हाथों में जो दम होता है उससे कोई ज़ुल्म ढाने वाला अपना गिरेबान नहीं छुड़ा सकता। नाज़ूक उँगलियों के बजाय ऐसी कर्मठ उँगलियों का सौंदर्य कुछ और ही होता है। बहुत पहले अंजली के साथ नुक्कड़ नाटकों में मैं पुलिस वाला या इसी तरह के ज़ुल्म करने वालों की भूमिका करता था। पर मैं विचार और विचारधारा से ही नहीं वास्तव में न्याय के लिए संघर्ष में जुटी हर महिला और पुरुष के भी साथ हूँ। जैसा कि हनीफ मदार के बारे में भी कह सकते हैं। उन्होने इस तरह एक हफ्ते तक ऐसी कहानियाँ अपने पेज पर डालने का बहुत ही अच्छा कदम उठाया है। अंजली, प्रतिमा सिन्हा, देश और दुनिया की सब महिलाओं को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की बधाई। आशा है कि समानता का संघर्ष बहुत लंबा नहीं चलेगा, मंज़िल जल्दी हासिल होगी। पुनश्च: हम दोनों जीवन साथी साबित हो चुके हैं !!

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