‘डिअर जिन्दगी’ व-नाम लव यू ज़िन्दगी..: फिल्म समीक्षा (संध्या नवोदिता)
संध्या निवोदिता 604 11/18/2018 12:00:00 AM
जिंदगी में प्यार बहुत से रिश्तों से मिलता है लेकिन हमें बचपन से भावनाओं को दबाना सिखाया जाता है. रोओ तो कहा जाता है रोते नहीं, स्ट्रांग बनो. किसी पर गुस्सा आये तो गुस्सा नहीं करो, स्माइल करो. ऐसे अनुकूलन करते हुए कब हम अपनी सच्ची भावनाओं को छिपाना और मौके के अनुसार व्यवहार करना सीख जाते हैं, पता ही नहीं चलता. पता तब चलता है जब इस बार प्यार किसी बहाने से नहीं, किसी आवरण में नहीं बल्कि सीधे प्यार की शक्ल में ही आता है और तब हम उससे भी सच्चा व्यवहार नहीं कर पाते. जहां बुरा लगता है, बुरा नहीं कह पाते, प्यार की ज़बरदस्त फीलिंग है मगर छिपाए घूमते हैं, अलग होना चाहते हैं वह भी नहीं कह पाते. क्योंकि अंदर नकारे जाने का डर होता है. उस डर से बाहर निकलो.
जिंदगी में कई ख़ास रिश्ते होते हैं. ऐसा दोस्त जिस से हम मन की कोई भी बात बहुत सहजता से पाते हैं, ऐसा दोस्त जिसके साथ हम संगीतमय हो जाते हैं, ऐसा दोस्त जिसके साथ पहाड़ पर चढने और एडवेंचर में मजा आता है, ऐसा दोस्त जिसके साथ किताबों कि दुनिया और ज्यादा समझ में आती है, और एक दोस्त ऐसा जिसके साथ जिंदगी रोमांटिक हो जाती …. खोजो उसे |
अब तक तो हिन्दी फ़िल्में प्यार में कामयाबी को ही ज़िन्दगी की कामयाबी के बतौर स्थापित करती आई हैं. कुल जमा सारी कायनात की ऊर्जा दो प्रेमियों को मिलाने में ही खर्च होती रही है. माने मर जाएँ, मिट जाएँ मंजूर है, पर प्रेमी के बिना मंजूर नहीं !!
यहाँ ‘डिअर जिन्दगी’ में हिंदी फिल्मों के इस आम चलन से क्या और कैसे इतर है जानने के लिए पढ़ते हैं ‘संध्या नवोदिता’ का यह समीक्षात्मक आलेख …….| – संपादक