शांत, शिथिल, सोई सी पानी के ऊपर पसरी काई की परत पर जैसे कोई कंकड़ फैंक दिया हो, कुछ इसी तरह वर्तमान समय के साथ पसरती आत्मविस्मृति की परत पर वैचारिक उद्वेलन के रूप में नज़र आती हैं अभिनव निरंजन की कविताएँ ….
मध्यरात्रि का विषाद
साहित्य के इस आधुनिक सरगर्मी में
अक्सर ख़ामोश रहना
और कभी यकायक चीख पड़ना
करतब है, तनी हुई रस्सी पे चलने का …
कविता के इस परिष्कृत सौंदर्य परिवेश में
सदैव बुझा बुझा रहना
और अचानक कभी भक् से जल उठना
चिंगारी है, पोखर में झूलते नंगी तारों का …
न तो मैं तार हूँ कोई नंगी
और न आता है करतब नटों का…
फिर आश्चर्य क्यूँ के न मैं चीख सकता,
न पतले रस्से पे सरपट दौड़ सकता
न भक् से जलता हूँ कभी
न मुझसे चिंगारी हि उठती है कोई …
विकल्प क्या ?
जब जलती ज़मीन पर
पाँव सिंक रहा हो
भुट्टे के माफ़िक,
हम भागते है
बेतहासा बदहवास
ये विचारे बगैर
के अगली शांत धारा
कोई नर्म मिट्टी का टुकड़ा
किसी ठूठ की छाया
मिलेगी किधर
ज्ञात है, तर्कसंगत नहीं ये
फिर भी, बस भागते हैं
छटपटये बौखलाए
तीतर जैसे
सरपट सीधे
कभी आड़े तिरछे
भले लगे आपके, पागलपन
हमारे लिए है आत्मरक्षा औ’
जीवन संरक्षण का
__ एकाकी सूत्र !
पेंटिंग- के0 रवींद्र
गुहार
ये तमाम लोग
इतने निर्दोष दीखते हैं कैसे
इतने सीधे सच्चे साफ़ सुथरे उजले
कैसे ?
बिछा डाला इन्होंने अपने हिस्से का अँधेरा
किस जगह ?
फैंक डाला अपने हिस्से का बोझ
किस पर ?
अपने हिस्से का झूठ बुलवाते हैं
किन से?
ये तमाम निर्दोष लोग
इसके हिस्से का दोष ढोता है
कौन ??
पड़ताल करो, पड़ताल करो !!!