जो डूबा सो हुआ पार…: आलेख (अनीता मिश्रा)

विमर्श-और-आलेख विमर्श-और-आलेख

अनीता 308 11/17/2018 12:00:00 AM

”क़ैद बन जाए मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल”, या ”ज़न्नत एक और हैं, जो मर्द के पहलू में नहीं..” आमतौर पर लोग प्रेम के मायने बंधना या बांधना समझते हैं। लेकिन एक स्त्री और पुरुष के बीच का प्रेम फैसला लेने की एक आजाद पहल है, इसलिए प्रेम होते ही आजादी का अहसास होता है। प्रेम की तरह ही आजादी भी हमारी बुनियादी जरूरत है। इसलिए स्वतंत्र महसूस किए बिना एक दूसरे से प्रेम भी नहीं किया जा सकता हैं। एक दूसरे को मुक्त करके ही अपने साथी को प्रेम में बांधा जा सकता है। बंधन और मुक्ति के इस अहसास को खलील ज़िब्रान ने बहुत ख़ूबसूरती के साथ जाहिर किया है—- “एक दूसरे के साथ/ रहकर, एक दूसरे के लिए/ जगह छोड़ें/ एक दूसरे से प्रेम करें/ लेकिन प्रेम को बंधन न बनाएं/ हम वीणा के उन तारों की तरह रहें/ जो अलग-अलग होतें हैं/ पर उनसे एक ही/ धुन बजती है।”

जो डूबा सो हुआ पार… 

अनीता मिश्रा

इश्क एक खूबसूरत अहसास जो कभी खुद की खुद से पहचान करा देता है तो कभी खुद को खुद से ही दूर कर देता है। कभी यह ज़िंदगी को ‘मौजों की रवानी’ बनाने वाला नगमा है तो कभी “पांव तले ज़न्नत” महसूस कराने वाला गीत है। रहीम के मुताबिक कभी ‘हरदी-चून’ वाला संबंध है, जिसमे प्रेमियों का अपना रंग खो जाता है और एक नया रंग बनता है, तो कभी बुल्लेशाह के लफ्जों में ये इश्क़ ‘थैया-थैया’ करके नचाता है। कभी ये इश्क़ अपनी पहचान भुलाकर ‘छाप तिलक’ सब छीन लेता है तो कभी घुंघरू बांध कर नाचने पर मजबूर कर देता है। जिन्हे इस दर्द से गुजरना पड़ता है, वे आह भरकर कहते है “ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे” और जो खुद को पूरी तरह से मिटा डालते हैं वे ”जो डूबा सो पार” कह जाते हैं।

कहने वाले इश्क़ को जादू समझें या नशा, दर्द समझे या दवा, ये धूप लगे या छांव, डुबाए या पार लगाए, लेकिन इश्क़ में सब पड़ना चाहते हैं। बिना इश्क़ जिंदगी रेगिस्तान जैसी है। जेम्स एम बेरी ने शायद इसीलिए कहा है- ”अगर आपके पास प्रेम है तो दुनिया में किसी और चीज की जरूरत नहीं है। और अगर प्रेम नहीं है तो जीवन में कुछ भी हो,व्यर्थ है।” यानी केवल प्रेम ही एक ऐसा शब्द है, एक अहसास है, जो हमें जिंदगी के बोझ और दर्द से मुक्त कर देता है।

लेकिन जिंदगी को तमाम दर्द और बोझ से मुक्त करने वाला प्रेम खुद प्रेम करने वालों को मुक्त करता है या फिर बांधता है? जब हम किसी के प्रेम में होते हैं तो हर पल उसकी नजदीकी चाहते हैं। अपने प्रियतम के दिलोदिमाग और पूरे व्यक्तित्व पर हम अपना हक चाहने लगते हैं। एक भय भी मन में होता है कहीं, कि हमारा प्रिय हमे छोड़ कर न चला जाए। इसलिए हम चाहने लगते हैं कि वह सारी दुनिया से कट कर सिर्फ हममें सिमट जाए, सिर्फ हमारे बारे में सोचे। उसकी ज़िंदगी हमसे शुरू हो और हम पर ही ख़त्म हो जाए। यहीं से आपस में प्रेम करने वाले एक दूसरे का स्पेस लेने लगते हैं। एक दूसरे की आजादी पर कब्ज़ा करने लगते हैं। यब सब जब एक हद को पार कर जाता है तब वह सवाल भी हमसे रूबरू होता है कि जिस प्रेम ने हमे सामाजिक परंपराओं, रस्मों-रिवाज़ों से मुक्त होना सिखाया था, वह अब दम घुटने की वजह क्यों बन रहा है? फिर जवाब भी हमारे भीतर से निकल आता है कि उसने हमे दूसरी तमाम बातों से तो स्वतंत्र किया, मगर खुद एक बंधन बन गया।

दायरों से आजादी…  

साभार google से

हमारे आसपास ऐसे न जाने कितने वाकये होंगे, जब दो लोग एक दूसरे के लिए समाज के बनाए तमाम बंधनो से खुद को आज़ाद करते हैं और उन्ही प्रेमियों को कुछ साल बाद प्रेम ही बंधन लगने लगता हैं। सवाल है कि जिस प्रेम ने उन्हें समाजी रिवायतों से आजाद किया था, उसी से छुटकारे की छटपटाहट कहां से पैदा हो जाती है? दरअसल, यह अनायास नहीं होता। प्रेम को कोई छोड़ना नहीं चाहता। लेकिन जो प्रेम आजादी की राह दिखाता है, उसकी चाह नहीं छूटती। इसलिए बस राह बदलती है, मुड़ती है। यह मोड़ प्रेम के समाजीकरण के दायरे, यानी शादी जैसे बंधन में बदलने के बाद आना लाजिम हो जाता है। एक दूसरे के बदलने की शिकायत शुरू हो जाती है। इश्क़ में किए वायदे और करार याद दिलाने का दौर शुरू हो जाता है। जहाँ रिश्ते की शुरुआत में यह कहा जाता है कि “तेरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूं, मेरी सादगी देख क्या चाहता हूं”। लेकिन ज़िंदगी जब यह सिखाती है कि ‘और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा’, तब इश्क़ के अहसास खुद को मुश्किल दौर में पाते हैं। दअसल अहसास और समाज कई बार दो अलग मोर्चे पर खड़े दिखते हैं। प्रेम का अर्थ स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग होता है, जैसा कि बायरन ने कहा है,”स्त्री के लिए सारा जीवन, और पुरुष के लिए जीवन का एक हिस्सा।” इस तरह स्वभाव से अलग होना ही स्त्री-पुरुष को एक दूसरे से जोड़ता है, और अलग भी करता है।

बराबरी की खातिर… 

google से

दरअसल, हमारे समाज में स्त्री और पुरुष की स्थिति एक जैसी नहीं रही है। शादी से पहले कहां, कब, कितनी देर के लिए और कैसे मिलना है, ये तमाम बातें आमतौर पर स्त्री तय करती है। पुरुष अपनी इच्छा जरूर जाहिर करता है। लेकिन रिश्ते के अमूमन हर कदम पर प्रेमी, यानी पुरुष को अपनी प्रेमिका की दया पर निर्भर रहना पड़ता है। एक स्त्री प्रेम करते हुए खुद को तमाम सामाजिक वर्जनाओं से मुक्त करती है और प्रेम की इस यात्रा में अपने पुरुष साथी का सहयोग पाती है। यही एक ऐसा सफर होता है जिसमें वह खुद को समाज से ऊपर और पुरुष की सामाजिक हैसियत के बराबर महसूस करती है।

लेकिन समाजी दायरों को तोड़ कर प्रेम के पहलू में आने के बाद इसी प्रेम का सिरा फिर से समाज के दायरे में लौटता है, यानी विवाह का बंधन दोनों को बांधता है। समस्या यहीं से शुरू होती है विवाह के बाद स्त्री की बराबरी के अहसास को सम्मान देने वाला वही पुरुष अपनी पत्नी को एक बंधे-बंधाए सामाजिक ढांचे में देखना चाहता है। प्रेमिका उसके लिए पत्नी में तब्दील हो जाती है। वही पत्नी, जो उसकी मर्जी के मुताबिक उसके लिए सहज उपलब्ध है।

हमारा सामाजिक ढांचा ऐसा है कि पति-पत्नी का संबंध यहां सिर्फ एक ही शक्ल में कायम हैं, शासक और शासित। इसमें पति शासक है और पत्नी शासित। अगर स्त्री आत्मनिर्भर नहीं है, तब उसके सामने इस संबंध में हर कदम पर समझौता करने या घुटते रहने के सिवा कोई और विकल्प नहीं होता। अगर वह आत्मनिर्भर है तो भी उसे घर और बाहर, दोनों मोर्चे पर पिसना पड़ता है। खैर, जो पुरुष प्रेम करते समय अपनी प्रेमिका के साथ बराबरी का साथी होता है, उसके पत्नी बनते ही उसका मालिक बन जाता है। खुद को मालिक समझने वाला व्यक्ति जैसा चाहेगा, वैसा बर्ताव करेगा। इससे उसकी सत्ता कायम रहती है। मालिक बन कर वह आदेश देता है, नहीं माने जाने पर दंड देता है। अपने लिए वह नियम खुद बनाता है और अपनी शासित के रूप में पत्नी के लिए भी सारे नियम खुद ही तय कर देता है।

अगर किसी के सामने झुकने की नौबत हो, तो उससे प्रेम नहीं किया जा सकता। जहां आजादी का अतिक्रमण होगा, वहां प्रेम टिक नहीं सकता। और हुक्म देने वाला साथी प्रेम नहीं कर सकता। स्वतंत्रता की तरह प्रेम भी इंसान की कुदरती खासियत है, इसलिए साथी की मर्जी के स्वीकार का साहस खुद को अपनी नजरों में उठाने की प्रक्रिया है और यह एक ऐसी ताकत बख्शता है, जिसमें किसी तरह के छल या ढोंग की जगह नहीं।

जंजीरों में प्रेम… 

साभार google से

ऐसी स्थिति आने के बाद स्त्री के सारे भ्रम टूटते हैं। वह हैरान होती है कि जिस प्रेम में पड़ कर उसने मुक्ति का अहसास हासिल किया था, वही उसे बांध रहा है, जंजीरों में जकड़ रहा है, उस पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। वह प्रेम, जिसने कभी उसे पंख दिए थे, उन पंखों को क़तर कर उसकी उड़ान रोकना चाहता है। प्रेम में जिस स्त्री ने बराबरी का दरजा महसूस किया था, शादी के बाद खुद को दोयम दरजे पर खड़ा और ठगा हुआ पाती है। धीरे-धीरे हालात ऐसे बन जाते हैं, जब प्रेम ख़त्म हो जाता है और बंधन की शक्ल में औपचारिक शादी बचती है।

ज़ज्बातों के साथ- साथ कुदरती-जैविक और भौतिक जरूरतें भी एक हकीकत हैं, जिन्हें पूरी तरह नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं है। तो वह कौन-सा रास्ता हो, ताकि जिंदगी की कुदरती जरूरतें भी पूरी हों और आभासी ही सही, जज्बातों में जीने का लुत्फ भी हासिल हो सके। बिना विवाह संस्था की मुहर के इसका फौरी हल एक “मॉडल”, यानी लिव-इन या सहजीवन संबंधों के तौर पर पश्चिमी मुल्कों ने सामने रखा, लेकिन यह एक “गैर-समाजी” शक्ल में शायद दुनिया के हर हिस्से में मौजूद रहा है। हां, उसे जिंदगी को जीने के एक समाजी तरीके के तौर पर स्वीकृति अब तक नहीं मिल सकी है।

आजादी की जिंदगी…

कुछ लोगों ने जिंदगी में आजादी के अहसास को कायम रखने के लिए इस “मॉडल”, यानी लिव-इन के रास्ते को चुना। बेशक यह जरूरतों से पैदा हुआ रिश्ता है, लेकिन इसका अगला कदम फिर किसी न किसी शक्ल में उसी समाजी-शक्ल में तब्दील हो जाता है। हालांकि इसके आदर्श उदाहरण दुनिया में मौजूद रहे हैं। मशहूर अस्तित्ववादी दार्शनिक ज्यां पाल सार्त्र और स्त्रीवादी लेखिका सिमोन द बोउआर के जीवन जीने का तरीका सिखाता है कि एक दूसरे की स्वतंत्रता को, विचारों को सम्मान देते हुए भी एक दूसरे से सारी ज़िंदगी अपने शुद्ध अर्थों में प्रेम किया जा सकता है। सार्त्र ने स्वीकार किया है कि ”सिमोन द बोउआर के साथ सम्बन्धों में ज़िंदगी अपने सभी अर्थों में मौजूद थी।’ सिमोन को भी अपनी स्वतंत्रता बेहद अजीज़ थी जो कि उन्हें सार्त्र के साथ प्रेम में पूरी तरह हासिल थी। उन्हें कभी ऐसा नहीं महसूस हुआ कि प्रेम उनसे उनकी आजादी, निजता या एकांत छीन रहा है। ये तो दो बड़े आजादी से मुहब्बत करने वाले ऊंचाइयों पर पहुंचे बुद्धिजीवियों की बात हुई। लेकिन क्या बाकी लोग भी लिव-इन में एक दूसरे को इतनी आजादी देते हुए प्रेम को कायम रख पाते हैं?

भारत में यह रिश्ता अभी भी सामाजिक तौर पर पूरी तरह से स्वीकार नहीं है। पहले तो इसके अकेले उदाहरण के तौर पर अमृता और इमरोज का नाम लिया जाता था, लेकिन अब काफी लोग इस तरह के रिश्ते में रहने की हिम्मत करने लगे हैं। मुमकिन है, कई लोग प्रेम और वैचारिक करीबी के कारण बिना विवाह संस्था की मुहर के इस रिश्ते में रहना चाहते है। ऐसे लोग अघोषित रूप से एक दूसरे के साथ पति-पत्नी की तरह ही रहते हैं। इस रिश्ते में रहने का मतलब है सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ कर विवाह से इतर एक बंधनों से आजाद रिश्ते को अपनाना। घोषित तौर पर तो प्रतिबद्धता यहां नहीं होती, लेकिन कई बार यह साथ रहते हुए विकसित हो जाती है। और उस दबी या छिपी हुई “प्रतिबद्धता” के बावजूद एक दूसरे की आजादी और निजता कायम रखने, एक दूसरे के लिए किसी तरह का बोझ न बनने की कोशिश जारी रहती है। ऐसे में सीमित आमदनी या भौतिक जरूरतों की वजह से जन्मा यह रिश्ता अक्सर साथ रहते हुए प्रेम में तब्दील हो जाता है।

शासक बनाम शासित… 

इस रिश्ते में मुश्किल तब आती है, जब साथ रहने की जरूरत के बीच बिना किसी आहट के प्रेम आकर अपना घर बना लेता है। अगर यह किन्हीं हालात में शादी की घोषित रिवायत तक पहुंचता है, तब फिर वहां पुरुष पति हो जाता है और स्त्री पत्नी। फिर से पारंपरिक पति अपनी पत्नी से उसी दायरे की मांग करने लगता है, जिन दायरों से बगावत कर आजादी के लिए स्त्री ने रिश्ते की यह शक्ल चुनी थी। जाहिर है, वह लिव-इन के बीच उपजे प्रेम के बाद समाजी दायरों में बंधना कबूल नहीं करती है और उसकी मुखालफत करती है। दूसरी ओर, पितृसत्ता और पुरुष ग्रंथियों में लिपटा पुरुष अपने भीतर के पति के पारंपरिक “अधिकारों” से अपनी स्त्री साथी पर हावी होना चाहता है। यह बेवजह नहीं है कि लिव-इन रिश्तों में स्त्री के ऊपर अत्याचार के तमाम मामले सामने आते रहते हैं। समाज इस रिश्ते को मान्यता नहीं देता हैं। ऐसे में पुरुष तो इस समाज का “विशेषाधिकार प्राप्त” प्राणी है, लेकिन स्त्री अपनी शिकायत लेकर कहां जाए? इन रिश्तों में स्त्री पर अत्याचार की बढ़ती घटनाओं के मद्देनज़र ही अदालतों ने स्त्री के अधिकारों के लिए कुछ ठोस और तारीफ के काबिल पहल किए हैं।

प्रेम, लिव-इन रिश्ते या बिना शादी किए साथ रहने का फैसले के बीच जब तक स्त्री-पुरुष एक दूसरे की गरिमा को सम्मान देते हुए, उनकी निजता को स्पेस देते हुए साथी की तरह रहते हैं, तब तक उनके बीच समस्या नहीं आती है। मुश्किल तब शुरू होती है, जब दो लोग आपस में साथी के बजाय शासक और शासित का व्यवहार करने लगते हैं। जाहिर है, इसमें शासक की शक्ल में पुरुष हमेशा ही स्त्री को अपनी शासित ही देखना चाहता है। लेकिन जहां शासक और शासित का बर्ताव है, वहां प्रेम टिक नहीं सकता।

साभार google से

मुक्ति की मंजिल है इश्क…

शौकत आज़मी ने एक बार कैफ़ी साहब के बारे में कहा था कि शादी के चालीस साल बाद भी वे वैसे ही हैं। ज़ाहिर है, ”क़ैद बन जाए मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल”, या ”ज़न्नत एक और हैं, जो मर्द के पहलू में नहीं..” जैसी सोच रखने वाले शायर के लिए अपनी पत्नी की आज़ादी भी मायने रखती होगी। रिश्ते में ज्यादातर दिक्कतें आती ही इसलिए हैं कि दो प्रेम करने वाले एक दूसरे की आजादी पर हावी हो जाना चाहते हैं। आमतौर पर लोग प्रेम के मायने बंधना या बांधना समझते हैं। लेकिन एक स्त्री और पुरुष के बीच का प्रेम फैसला लेने की एक आजाद पहल है, इसलिए प्रेम होते ही आजादी का अहसास होता है। प्रेम की तरह ही आजादी भी हमारी बुनियादी जरूरत है। इसलिए स्वतंत्र महसूस किए बिना एक दूसरे से प्रेम भी नहीं किया जा सकता हैं। एक दूसरे को मुक्त करके ही अपने साथी को प्रेम में बांधा जा सकता है।

बंधन और मुक्ति के इस अहसास को खलील ज़िब्रान ने बहुत ख़ूबसूरती के साथ जाहिर किया है—- “एक दूसरे के साथ/ रहकर, एक दूसरे के लिए/ जगह छोड़ें/ एक दूसरे से प्रेम करें/ लेकिन प्रेम को बंधन न बनाएं/ हम वीणा के उन तारों की तरह रहें/ जो अलग-अलग होतें हैं/ पर उनसे एक ही/ धुन बजती है।”

अनीता द्वारा लिखित

अनीता बायोग्राफी !

नाम : अनीता
निक नाम :
ईमेल आईडी :
फॉलो करे :
ऑथर के बारे में :

अपनी टिप्पणी पोस्ट करें -

एडमिन द्वारा पुस्टि करने बाद ही कमेंट को पब्लिश किया जायेगा !

पोस्ट की गई टिप्पणी -

हाल ही में प्रकाशित

नोट-

हमरंग पूर्णतः अव्यावसायिक एवं अवैतनिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक साझा प्रयास है | हमरंग पर प्रकाशित किसी भी रचना, लेख-आलेख में प्रयुक्त भाव व् विचार लेखक के खुद के विचार हैं, उन भाव या विचारों से हमरंग या हमरंग टीम का सहमत होना अनिवार्य नहीं है । हमरंग जन-सहयोग से संचालित साझा प्रयास है, अतः आप रचनात्मक सहयोग, और आर्थिक सहयोग कर हमरंग को प्राणवायु दे सकते हैं | आर्थिक सहयोग करें -
Humrang
A/c- 158505000774
IFSC: - ICIC0001585

सम्पर्क सूत्र

हमरंग डॉट कॉम - ISSN-NO. - 2455-2011
संपादक - हनीफ़ मदार । सह-संपादक - अनीता चौधरी
हाइब्रिड पब्लिक स्कूल, तैयबपुर रोड,
निकट - ढहरुआ रेलवे क्रासिंग यमुनापार,
मथुरा, उत्तर प्रदेश , इंडिया 281001
info@humrang.com
07417177177 , 07417661666
http://www.humrang.com/
Follow on
Copyright © 2014 - 2018 All rights reserved.