सुबह होने तक: कहानी (हनीफ़ मदार)

कथा-कहानी कहानी

हनीफ मदार 659 11/17/2018 12:00:00 AM

“गुड़िया खेलने की उम्र में ब्याह दिया था मुझे । मैं रानी ही तो थी उस घर की । दिन में कई-कई बार सजती-सँवरती, घर भर में किसी ऐसे फूल की तरह थी जिसके मुरझाने पर सब चिंतित हो जाते । मोटी-मोटी कच्ची मिट्टी की बनी दीवारों वाले कमरों में गर्मियों में भी ख़ूब ठंडक रहती थी । सर्दियों में ठंडे भी उतने ही ज़्यादा होते । पर सर्द रातों में जिस्मों की जुंबिश से जैसे गर्म ज्वालामुखी फूट पड़ता था । किसी सख़्त तने से लिपटी नाज़ुक बेल सी, मैं भयंकर शीत के ऐहसास से भी मुक्त रहती थी । मैं उम्र की अल्हड़ता में बहुत बातों के बिना अर्थ जाने ही मस्त थी । कि अचानक सब बदलने लगा था । मिस्त्रानी छत पर जाकर देखने की कोशिश में हैं । चारों तरफ़ भखुआए अंधेरे में कोहरा अपने लिए जगह खोजने को मँढ़रा रहा है । हरीसिंह के बड़े आँगन की रोशनी ने, कोहरे के साथ मिलकर धुँधला किंतु विशाल रूप धारण कर लिया है । हरिसिंह को सब नेताजी बुलाते है । उसका ख़ुद का घर तो अलग है । जिसकी मुंढेर पर पार्टी का झंडा हमेशा लगा रहता है । सरकार बदलते ही घर पर लगे झंडे का रंग भी बदल जाता है । यहाँ तो बाड़े नुमा परकोटे में, बड़ा सा आँगन छोड़ कर, चारों तरफ़ कई कमरे बनवा दिए हैं । उनमें सलीम की तरह गाँव छोड़कर शहर में मज़दूरी करने आए लोग किराए पर रहते हैं ।” ‘दुनिया इन दिनों’ में प्रकाशन के बाद अब यहाँ हमरंग के स्नेहिल पाठकों के समक्ष ‘हनीफ़ मदार’ की मार्मिक कहानी सिर्फ़ आपके लिए॰॰॰॰॰ । – अनीता चौधरी

सुबह होने तक 

हनीफ़ मदार

दिसम्बर में दिन ख़ूब छोटा होने लगता है । पाँच बजते ही पखेरू अपने घौंसलों में लौटने  लगते हैं । सलीम मिस्त्री की छुट्टी ही साढ़े पाँच होती है तो घर पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो ही जाता है । पर आज वे और दिन से ज़्यादा लेट हो गए हैं । उनका लेट होना मिस्त्रानी को और परेशान कर रहा है ।

“आज अभी तक नहीं लौटे॰॰॰ जाने कहाँ ऐसी-तैसी मरा रहे हैं॰॰॰?” मिस्त्रानी जब ग़ुस्सा हों या किसी टेंशन में तब सलीम मिस्त्री को ऐसे ही कोसतीं हैं । पर आज तो बढ़ते अंधेरे के साथ उनकी घबराहट भी बढ़ रही है । गलियों में आवाजाही भी कम होने लगी है । यह शहर के बाहर बसी मज़दूर बस्ती है । मज़दूर की रोज़ाना की उपलब्धि भी तो यही है कि दिन भर की मेहनत के बाद शाम को पेट भर रोटी मिल जाय । ठंड भी बढ़ ही रही है तो सब अपने-अपने घरों में दुबके हैं । पर सलीम मिस्त्री के घर का तो चूल्हा भी ठंडा पड़ा है । घर में मिस्त्रानी उनकी बेटी हिना और छोटे बेटे आबिद सहित कुल जमा तीनों प्राणियों को, रत्ती भर भूख का ऐहसास नहीं है । भूख भी पेट से नहीं दिमाग़ से ही तो लगती है और उनका दिमाग़ तो जैसे सुन्न हो रह है ।  

आबिद बैठे-बैठे जैसे पथरा गया है । पुतलियाँ एक ही जगह देर तक ठहरी हैं । उसने  पलक झपकने के साथ ही लम्बी साँस खींची है तो लगा जैसे गहरे पानी में साँस रुकने पर छटपटाकर बाहर निकला हो । वह दिमाग़ी पहुँच की अतल गहराइयों में से कोई रास्ता खोज कर, पापा की अनुपस्थिति में भी, घर में मर्द मौजूद होने का ऐहसास कराने की जुगत में है । मिस्त्रानी छोटे से आँगन में चक्कर काटकर बाहर दरवाज़े तक जातीं हैं, कुछ बुदबुदाती हैं फिर लौट आतीं हैं । पर वे सलीम को कोसना नहीं भूल रहीं  “हाय॰॰॰॰ इस समय तक जाने कहाँ कमाई फटी जा रही है॰॰॰॰ जो अभी तक॰॰॰॰॰?” 

हिना का मन भी हुआ कि अम्मा से कहे कि ‘जान बूझ कर थोड़े ही रुके होंगे, कुछ न कुछ काम ही लगा होगा ।’ लेकिन इतनी सामान्य बात कहने की स्थिति भी तो नहीं है घर में । ‘पापा आज पहली बार थोड़े ही लेट हो रहे हैं । कभी-कभी काम ज़्यादा होता है या काम ख़त्म करना होता है तो रुकना भी पड़ता है । अम्मा भी तो यह बात जानतीं हैं । पर अचानक चढ़ी इस आँधी का कारण भी तो मैं ही हूँ । मैं या मेरी क़िस्मत, जो भी हो पर यह आफ़त तो मेरे ही कारण टूटी है ।‘ यही सोचकर वह कुछ कह नहीं पा रही है । बुत बनी बैठी वह मन ही मन ख़ुद को कोस रही है ।

“नसीब में लिखे को कौन मिटा सकता है । क़िस्मत ही फूटी है तो कोई क्या करे ?” अम्मा की अक्सर कही जाने वाली यह बात उसके दिमाग़ में ग़ुस्साए साँप सी फ़ुफकार रही है । कौन लिखता है ऐसा नसीब और क्यों लिखता है॰॰॰॰? कौन ख़ुश होता होगा इसे लिख कर ? अचानक उसे वे बातें याद हो आईं, जब मिस्त्री उसके लिए लड़का देख कर आए थे और मिस्त्रानी को बताया था । 

“घर अच्छा है । खेत-हार, भैंस-कटिया से भरा-पूरा । दो ही भाई हैं । नवाबी गाँव है । उस घर का भी गाँव भर में नवाबों जैसा ही मान-सम्मान है । अकेला घर है जो आज भी घोड़ी रखता है । आस-पास के गाँवों तक में घोड़ी वालों के नाम से जानते हैं लोग । मुझे तो ख़ुद अचरज है कि वे हमारी हिना का रिश्ता करने को राज़ी कैसे हो गए ?” 

तब यही अम्मा रीझ गई थी मुझ पर । “इसके नसीब को कहाँ ले जाओगे । लिखा कर लाई है रानी बनना । क़िस्मत कुंडी खटका रही है इसकी, तो तुम क्यों पीछे हटते हो ।”

वह लिखा अब कैसे बदल गया ? कहते हैं धरती पर आने से पहले, खुदा हर इंसान की क़िस्मत लिख कर भेजता है, फिर मेरे लिखे को किसने बदल दिया ? बहुत ज़ोर आज़माइश के बाद भी यह सब हिना की समझ से बाहर है । उसके भीतर गुज़रे वक़्त की रेल सी दौड़ रही है जिसकी थरथराहट से उसके अतीत के वर्खों पर जमी धूल झड़ने लगी है ।

गुड़िया खेलने की उम्र में ब्याह दिया था मुझे । मैं रानी ही तो थी उस घर की । दिन में कई-कई बार सजती-सँवरती, घर भर में किसी ऐसे फूल की तरह थी जिसके मुरझाने पर सब चिंतित हो जाते । मोटी-मोटी कच्ची मिट्टी की बनी दीवारों वाले कमरों में गर्मियों में भी ख़ूब ठंडक रहती थी । सर्दियों में ठंडे भी उतने ही ज़्यादा होते । पर सर्द रातों में जिस्मों की जुंबिश से जैसे गर्म ज्वालामुखी फूट पड़ता था । किसी सख़्त तने से लिपटी नाज़ुक बेल सी, मैं भयंकर शीत के ऐहसास से भी मुक्त रहती थी । मैं उम्र की अल्हड़ता में बहुत बातों के बिना अर्थ जाने ही मस्त थी । कि अचानक सब बदलने लगा था ।

मैंने ‘उनसे’ पूछ था ‘हिना ! सब ठीक तो है तुम्हारे बीच॰॰॰॰ वह बोलता तो है तुझसे॰॰॰॰?’ “रोज़ाना क्यों पूछती हैं तुम्हारी अम्मा मुझसे ?”

“अम्मा बच्चा चाहती हैं तुझसे॰॰॰।” उनका यह बताना भी मेरे लिए अबूझ पहेली ही रहा  कि इसमें मैं कहाँ ग़लती कर रही हूँ, फिर यह सवाल केवल मुझसे ही क्यों ?’ कई वर्षों में समझ पाई थी कि ‘मैं औरत हूँ और मेरी ही ज़िम्मेदारी है बच्चा देने की । जिसे मैं  पूरी नहीं करने की ग़लती कर रही हूँ ।’ दो तीन सालों में ही घर वालों का सब्र टूट गया था ।

“देख तो कितने बज गए ?” मिस्त्रानी ने आबिद से घड़ी देखने को कहा है । 

“नौ बज गये अम्मा ।” 

घड़ी में टाइम तो मिस्त्रानी भी देख लेतीं हैं । लेकिन उन्होंने घर में जमे डरावने सन्नाटे को तोड़ने के लिए कहा है । वे जानतीं हैं कि डर को डरते हुए जितना ज़्यादा सोचो वह उतना ही ज़्यादा डरावना होता जाता है । वे दोनों को हिम्मत देना चाहतीं हैं । उनके दिमाग़ में कुछ खदबदा रहा है । “बताओ गली में कोई आदमी दिखाई नहीं दे रहा॰॰॰अभी वे चढ़ आएँ तो कोई क्या कर लेगा॰॰॰॰?” 

“अम्मा ! अब वे चढ़ आएँ तो चढ़ आएँ, पापा भी क्या हलूमान हैं॰॰॰॰?” अपनी गोद में सोए बच्चे को हसरत से ताकती हिना के मुँह से निकल ही गया । 

“तू हमसे उल्टी बात मत कर लाली॰॰॰॰॰। बेटा ! तुमने क्या देखा है अभी॰॰॰? गाँव में तुम्हारे बाबा घर पर नहीं थे तब बिगाड़ा ऐसे ही चढ़ आए थे ।” सच ही तो कह रहीं हैं मिस्त्रानी । अख़बारों में पढ़ना या दूसरों के संकट सुन कर मुँह बिचका लेना बहुत आसान है लेकिन उस से ख़ुद जूझना कितना भयानक होता है । 

क़रीब पंद्रह साल पहले सलीम मिस्त्री यहाँ आकर बसे थे । साइकिल रिपेरिंग के अलावा दूसरा कोई काम नहीं आता था । काम तो मिल गया था शहर में एक दुकान पर लेकिन शहर से जुड़ी हुई कॉलोनियाँ में किराए पर घर नहीं मिला । घर मिलता लेकिन नाम सुनते ही मना कर दिया जाता । ‘गाँव में काम नहीं है, यहाँ मेरे नाम में ही ख़राबी लग रही है॰॰॰॰ तो यहाँ बच्चों को लाकर रखूँगा कहाँ ?’ मजबूर होकर लौट ही जाते सलीम, पर भला हो उस राजू का जो उसी दुकान पर काम करता था । वही लेकर आया था यहाँ अपनी इस दलित बस्ती में । शहर से एकदम बाहर । तब जंगल सा ही था यहाँ । आख़िर करते भी क्या॰॰॰? फिर सोचा ‘और लोग भी तो रह रहे हैं यहाँ, तो हमें ही कौन खाए जा रहा है । घर तो मिल रहा है किराए पर । जम तो जायें यहाँ । हिना की शादी हो जाय फिर देखेंगे॰॰॰॰।’ 

हिना का रिश्ता तो गाँव में ही तय हो गया था पर शादी यहाँ बसने के दो साल बाद हुई थी । आबिद तब मिस्त्रानी की गोद में था । मिस्त्रानी के बच्चे तो और भी हुए, पर सब जाते रहे । इन दो को ही ज़िंदगी में हिस्सा मिला । 

समय के खाद-पानी से बढ़ती शहर की जड़ें, फैलती हुई इस बस्ती के आस-पास तक पहुँच गईं । गलियों से गालियाँ जुड़तीं गईं और यह बस्ती कई नई-नई कॉलोनियाँ  के बीच में आ गई । पंडितजी की सिफ़ारिश पर सलीम मिस्त्री को शहर के कृष्णापुरी   चौराहे पर, लकड़ी का एक खोखा रखने की हिम्मत भी मिल गई जहाँ उन्होंने अपनी साईकिल रिपेरिंग की दुकान खोल ली । 

पंडितजी का घर दरसल बस्ती के दाहिनी तरफ़ नई बनी कॉलोनी में गली का पहला ही घर है । सलीम के दुआ-सलाम करने पर पंडितजी ने पूछ लिया था, “कहाँ के रहने वाले हो मिस्त्री साहब॰॰॰?”

सलीम मिस्त्री ने अपना गाँव बताया तो पंडितजी चौंके और सलीम भी ख़ुश कि वे  दोनों आस-पास गाँव के हैं । जैसे सात समंदर पार एक दूसरे को कोई अपने मुल्क का आदमी मिल गया हो । पंडितजी पुलिस में नौकरी करते थे । रिटायरमेंट से पहले उन्होंने यहीं ठाकुर जी की नगरी में मकान बना लिया । पंडितजी से ही कुछ पैसों की मदद मिली तो यहीं इन तंग गलियों की बस्ती में एक छोटा सा घर सलीम मिस्त्री ने भी बना ही लिया । हिम्मत भी बढ़ गई थी सलीम मिस्त्री की । काम पर लेट-सेट भी हो जाएँ तो घर की कोई चिंता नहीं रहती है । आस-पड़ोस को भी उनसे कभी कोई शिकायत नहीं रहती । इसलिए उनके व्यवहार से कोई भी उनकी मदद के लिए तैयार रहता है । 

अचानक मिस्त्रानी के दिमाग़ में आया ‘पंडितजी को तो सब पता होगी कि वहाँ क्या बातें हो रहीं हैं ? उनकी तो धाक है उस कॉलोनी में । हरीसिंह का घर भी उनसे दो ही घर आगे तो है । वहाँ की आवाज़ें यहीं तो साफ़ सुनाई नहीं पड़ रहीं, उन्हें तो सुनाई पड़ रहीं होंगी।’ पर वहाँ तक जाने की हिम्मत नहीं हो रही उनकी । आबिद को भेजने के ख़याल से ही वे काँप रहीं हैं । बारह-तेरह साल का आबिद इन झमेलों को क्या समझे । मिस्त्रानी को याद है गाँव में उनके ससुर ने खेत बेचने से माना कर दिया था । तब लंबरदार के यहाँ ऐसे ही आदमी इकट्टे हुए थे । घर पर तब भी कोई नहीं सिर्फ़ औरतें थीं । मर्द बाहर कमाने निकले थे । मिस्त्रानी बस यूँ ही बाहर की टोह लेने को निकली थीं कि उन्हें घेर लिया था । उन्हें तो आभास भी नहीं था कि लोग उन पर हाथ उठाएँगे । मिस्त्रानी बहू थीं गाँव की । पर पीछे से लाठी मारी थी, सीधे सिर में, मुश्किल से बच पाईं थीं । उसके बाद ही सलीम मिस्त्री के पैर उखड़ गए थे गाँव से ।

“अम्मा ऊपर जाकर देखूँ॰॰॰॰?” आबिद के मन की जिज्ञासा बाहर निकली है । 

“ज़्यादा धारासिंह मत बन तू॰॰॰।” लेकिन मिस्त्रानी को आबिद की यह बात ज़रूर ठीक लगी “मैं जाकर देखती हूँ॰॰॰।” मिस्त्रानी दबे पाँव सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर पहुँच गईं ।

मिस्त्रानी के ऊपर जाते ही दोनों भाई-बहनों के बीच निशब्द रिक्तता खौफ में बदलने लगी । किबाडों की झिर्रियों से छनकर चाँदनी का एक टुकड़ा, हिना की गोद में सोते बच्चे के मुँह पर आ बैठा है । वह कुनमुनाया । हिना मारे डर के काँप गई । बल्ब की रोशनी में उसका चेहरा पीला पड़ गया जैसे उसका सारा ख़ून सूख गया है । उसने पीछे खिसक कर चाँदनी के टुकड़े को बच्चे के मुँह से हटाकर, अपने आँचल के कोने में सहेज लिया है । काँपते हाथों से बच्चे को थपकी देते हुए उसकी यादों के कई पन्ने उसके सामने बिखरने लगे हैं ।

बच्चा पाने के लिए गाँव-आनगाँव की जमादारिनों की दुआओं और मालिशों का भी कोई असर नहीं हुआ । सब के मन में मेरे ख़िलाफ़ एक अजीब सी घृणा भरने लगी थी । वह तब अक्सर निकलती जब गाँव की बड़ी-बूढ़ियाँ मुझे देखने या मिलने आतीं । गाँव भर के लिए मैं एक क़िस्सा बन गई थी । जैसे घर-आँगन में मेरे अलावा दूसरी कोई ज़रूरी बातें ही न रहीं हों । मैंने उनके घर को कलंकित या अपमानित कर दिया था । शादी-ब्याह के बंधन को तोड़ना भी इतना आसान नहीं है, शायद यही सोचकर वे खिसिया जाते और मुझ पर हाथ भी उठा बैठते । घर भर में सन्नाटा छाया रहता । सब जैसे चिंतन करके मुझसे बच्चा या छुटकारा पा लेने का सही रास्ता खोजने की क़वायद में जुटे रहते । रास्ता एक दिन एक साधू दे गया “दिखाओ इसको । इसकी कोख किसी ने बाँध रखी है॰॰॰॰।” 

मेरी कोख की गाँठ खोलने को ज्योतिषियों ने भी धागे बांधे । पीर साहब के कहने पर मुझे उनके मज़ार पर भी ले जाया गया । वहाँ यह देखकर मुझे तसल्ली हुई कि अभागी मैं ही नहीं हूँ न जाने कितनी हैं । पर वहाँ का इलाज़ देखकर मैं भीतर तक काँप गई थी । दो औरतें लोहे की ज़ंजीरों में जकड़ी आज़ाद होने को छटपटाती हुई चीख़ रहीं थीं । उनके हाथ-पैरों में ज़ंजीरों से काले निशान पड़े हुए थे । देखकर मुझे अंदाज़ा हुआ कि वे हफ़्तों से जकड़ी हैं । वे अब लगातार नहीं चीख़ रहीं थीं जैसे उन्होंने हालात से समझौता कर लिया हो । दूसरी तरफ़ कुछ और थीं जिन्हें उनके घर वालों ने ही जकड़ रखा था और उन्हें, उनकी कमर पर गरम लोहे की छड़ी से झुलसाया जा रहा था । वे गाय सी रम्भा जातीं । ‘मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही होना है’, सोचकर मेरे रौंगटे खड़े हो गये थे । पर मैं परेशान भी थी यह सोचकर कि दुनिया भर के भूत-प्रेत हम औरतों पर ही क्यों कब्ज़ा जमाते हैं । एक भी मर्द तो दिखाई नहीं दे रहा यहाँ मुझे । 

मेरा पहला दिन था तो मेरी कनपटी के बाल खींचे थे उस दाढ़ी वाले ने । मेरे चीख़ने से वह ख़ुश हुआ था । उसकी नींद अब भी नहीं टूटी थी, जो अंदर ढेर चादरों के नीचे सोया था । मर्द वहाँ माथा टेक रहे थे । जबकि स्त्रियाँ बाहर चीख़ रहीं थीं । एक हफ़्ते बाद दोबारा बुलाया था मुझे । दोबारा आने की कल्पना से ही मेरी रूह फ़ना हो रही थी । घर आकर, मैंने चुपके से एक चिट्ठी पापा के नाम लिखी और एक बच्चे को लालच देकर डिब्बे में डलवा दी । वक़्त की बात कि पापा को चिट्ठी समय से मिल गई थी । वे अगले ही दिन अम्मा की बीमारी का बहाना कर के यहाँ ले आए थे । 

अम्मा तब भी ऐसे ही परेशान हुईं थीं । “घर-बार अच्छा मिल गया, आदमी भी अच्छे हैं॰॰॰ क्या भाड़ अच्छे हैं॰॰॰? ज़माना कहाँ से कहाँ पहुँच गया पर वे, अभी तक भूत और चुड़ैल पर ही अटके हैं । ख़बर न मिलती तो मेरी लड़की को तो मार ही देते ।” 

अम्मा मेरे ससुराल वालों को कोस रहीं थीं । मैं अपने आप से लड़ रही थी । कितनी ही बार जीत और हार रही थी । मैं उस दिन किसी अपराधी सी सहमी बैठी थी । 

अम्मा ने ही हौसला दिया था “तू रह हँसी-ख़ुशी । आने दे तेरे आदमी को मैं बात करूँगी कि जो भी इलाज कराना है यहाँ कराओ और डॉक्टर से । मेरी लड़की नहीं जाएगी किसी दाढ़ी वाले के पास । उसकी क़िस्मत में बच्चे होंगे, तो हो जायंगे, नहीं तो किसी के हाथ में नहीं हैं ।” 

अम्मा ने मुझे जीने की हिम्मत दी थी । कितनी बहादुर थी अम्मा । लेकिन आज मेरे ही कारण वे इतनी कमज़ोर हो रहीं हैं कि मुझे कुछ कहते नहीं बन रहा । 

मिस्त्रानी छत पर जाकर देखने की कोशिश में हैं । चारों तरफ़ भखुआए अंधेरे में कोहरा अपने लिए जगह खोजने को मँढ़रा रहा है । हरीसिंह के बड़े आँगन की रोशनी ने, कोहरे के साथ मिलकर धुँधला किंतु विशाल रूप धारण कर लिया है । हरिसिंह को सब नेताजी बुलाते है । उसका ख़ुद का घर तो अलग है । जिसकी मुंढेर पर पार्टी का झंडा हमेशा लगा रहता है । सरकार बदलते ही घर पर लगे झंडे का रंग भी बदल जाता है । यहाँ तो बाड़े नुमा परकोटे में, बड़ा सा आँगन छोड़ कर, चारों तरफ़ कई कमरे बनवा दिए हैं । उनमें सलीम की तरह गाँव छोड़कर शहर में मज़दूरी करने आए लोग किराए पर रहते हैं । 

इन्हीं में से एक कमरे में महीने भर पहले ही आकर बसे हैं गुड्डू और उसकी पत्नी । दोनों ने प्रेम विवाह किया है । इस शहर से उस शहर घूमते तीन साल हो गए । अभी तक दोनों में से किसी के घर वाले उन्हें अपनाने को राज़ी नहीं हुए हैं । पर न जाने कहाँ औरे कैसे वे दोनो नेताजी से टकरा गए । बस फिर क्या, गुड्डू को अपने शराब के ठेके पर काम दे दिया और उसकी पत्नी की नज़रों में उनके ख़ैर-ख़्वाह बनकर इसी आहते में रहने को एक कमरा दे दिया । नेताजी दिन में एक दो बार गुड्डू की पत्नी से “कोई परेशानी हो तो बताना॰॰॰।” पूछना भी  नहीं भूलते ।

रोशनी में बनती किसी छाया की, कोहरे में कई प्रतिछाया दिखाई देने से मिस्त्रानी को लग रहा है वहाँ आज कई लोग इकट्ठे हैं । मिस्त्रानी ने कान लगाए लेकिन वहाँ से रह-रहकर उठते हँसी के ठहाकों के अलावा कुछ भी ठीक से सुनाई नहीं दे रहा । ‘कोई दरवाज़ा खटका दे औरे बच्चे पापा समझ कर खोल न दें॰॰॰॰।’ सोचते हुए शंका-आशंकाओं से घिरी वे वापस नीचे आ गईं । उनके आते ही दरवाज़ा खटका है । मिस्त्रानी का ख़ून जैसे जम गया है । ज़ुबान मानो पथरा गई । 

“पापा आ गए॰॰॰।” कहते हुए आबिद चिहुंक कर उठा । 

“रुक॰॰॰ पहले पूछने दे॰॰॰॰।” मिस्त्रानी ने उसे रोकते हुए पूछा “कौन है॰॰॰?” इतना कहने में मिस्त्रानी को पूरी ताक़त लगानी पड़ी ।

“मिस्त्री साब को नेताजी बुला रहे हैं ।” एक लड़खड़ाती सी आवाज़ आई । 

सुन कर, घर में तीनों ऐसे काँपे जैसे अचानक धरती हिली हो । कलेजा मुँह को आया हो । मिस्त्रानी ने कलेजा पक्का किया “आए नहीं हैं अभी॰॰॰॰॰।”

“आ जाँय तो भेजना॰॰॰ नेताजी इंतज़ार कर रहे हैं॰॰॰।” कहकर पदचापों को दूर जाने की आवाज़ से आश्वस्त हो तीनों ने राहत की साँस ली है । लेकिन मिस्त्रानी की शंका और गहरा गई है यह सोचकर कि “बाहर कुछ और लोग हो सकते हैं । और तेरे पापा अभी तक॰॰॰॰॰।” 

कुंडी फिर खटकी । मिस्त्रानी की बटोरी हुई हिम्मत ने फिर साथ दिया है “कौन है॰॰॰॰?” 

“खोल न॰॰॰॰।” 

सलीम की आवाज़ पहचानकर मिस्त्रानी ने कुंडी खोल कर मिस्त्री को लगभग अंदर खींचते हुए दरवाज़ा बंद कर लिया । चेहरों की हवाइयाँ उड़ी देखकर मिस्त्री अपनी थकान भूल ही गए । “क्या हो गया॰॰॰॰॰?” 

“इससे कहा था, ससुराल चली जाती तो शायद॰॰॰॰॰ जो मुझे डर था वही हो गया॰॰॰॰।” कहते हुए मिस्त्रानी, सलीम को सुबह से अब तक की पूरी घटना सुनाने लगी । आबिद भी उन्ही के पास खिसक आया । उनकी बातें सुनकर वह दुनियादारी सीख रहा है । घड़ी लोहार के हथौड़े की तरह आवाज़ करती समय के पहिए को घुमा रही है । हिना वहीं बैठी ममता का हाथ अपने सोते बच्चे के सिर पर फिरा रही है । बच्चे को अपलक निहारती हिना, ख़ुद के भीतर वक़्त की लिखी किताब में कुछ खोज रही है । 

वहाँ मैं क़िस्सा थी यहाँ बेचारी बन गई हूँ । अम्मा हर औरत के सामने मेरा दुख दोहरातीं । सुनने वालीं ऐसे आह भरतीं जैसे मेरा दर्द उनको होने लगता हो । 

एक दिन पंडितानी ने सलाह दी “इसके आदमी को बुलाओ, आगरा में एक डॉक्टर है, पंडित जी उसका नाम पता बता देंगे, उसे दिखवाओ ।” 

डूबते को तो जलकुंभी भी नाव का आभास कराती है । अम्मा ने शाम को ही पापा को पंडित जी से पूछकर, और वहीं से फ़ोन कराने को भेज दिया था । फ़ोन पर उन्होंने कह दिया था “तुम्हीं दिखवालो, जो ख़र्चा हो हम दे देंगे॰॰॰।” 

फिर पंडित जी ने उन्हें समझाया था “डॉक्टर कुछ पूछेगा तो हम कैसे बता पाएँगे लाला, बात सिर्फ़ पैसों की या खर्चें की ही नहीं है । इसलिए तुम आ जाओ ।”

दो दिन बाद वे आए थे । पापा हमें लेकर ख़ुद आगरा गये थे । डॉक्टर ने मेरी कई जाँच कराईं और रिपोर्ट देखकर कहा कि “सब नॉर्मल है ।“ पापा के सामने मैं तो शर्म से कुछ बोल ही नहीं पाई थी । पापा ने ही पूछ था “तो फिर, इसके अभी तक॰॰॰॰॰॰?” 

“इसका सब कुछ नॉर्मल होने से ही बच्चा हो जाएगा यह किसने कह दिया । बच्चा होने के लिए दोनों लोगों को ठीक होना ज़रूरी है न॰॰॰॰।”

पापा जैसे समझ कर भी कुछ नहीं समझे थे फिर भी हाँ में सिर हिला दिया था । फिर पूछा   “डॉक्टर साब ! तो॰॰॰॰?”

“इसके पति की भी जाँच करनी पड़ेगी । वह कहाँ है॰॰॰?”

“वो॰॰॰ बाहर बैठे हैं॰॰॰॰॰।” पापा से पहले मैं बोल पड़ी थी । 

“बाहर क्या कर रहा है॰॰॰॰? उसे ही आना चाहिए॰॰॰॰।” 

“जी मेम साब॰॰॰ मैं भेजता हूँ उनको, उन्हें ही समझा दीजिए ।” कहकर बेचारे पापा ऐसे बाहर निकले थे मानो उनसे कोई ग़लती हुई हो । 

वे डॉक्टर के सामने आए, तब तक उनके माथे पर सलवटें आ गईं थीं । उन्होंने बैठते हुए जैसे आँखों से ही पूछा था “क्या है॰॰॰?”

“इसकी तो सभी रिपोर्ट नॉर्मल हैं । एक बार तुम्हारी जाँच और करा लेती हूँ॰॰॰।” 

डॉक्टर के इतना कहते ही उनके माथे की सलवटें और गहरी हो गईं थीं “मेरी क्या जाँच होगी॰॰॰? मैं तो एक दम ठीक हूँ॰॰॰आप इससे पूछ लो॰॰॰।” उन्होंने मेरी तरफ़ इशारा किया था ।

“हूँ॰॰॰॰ ! मैं तुम्हारे शरीर की बात नहीं कर रही । इससे मुझे जो पूछना था वह पूछ लिया । अब मैं तुमसे पूछती हूँ कि तुम्हें अपनी जाँच कराना इतना ख़राब क्यों लग रहा है ?” डॉक्टर के शब्द तमतमा गए थे ।

उन पर कोई जबाव नहीं था लेकिन उन्होंने कसमसाते हुए एक बार मुझे देखा था । मैं नज़रें झुकाए चुप-चाप बैठी थी । मेरी ओर से कोई हरकत न होती देख उनका मन कसैला हो गया था । जैसे सोच रहे हों ‘अभी यहाँ सबके सामने अपने मर्द को खुल्ला छोड़ दूँ और दिखा दूँ इन सबको, फिर पूछूँ इनसे, क्या कमी है मुझमें॰॰॰॰॰?’ 

“अभी और सोच-विचार करना है तो बाहर बैठ लीजिए, मैं दूसरे मरीज़ देख लूँ॰॰॰।”

हाँ में सिर हिलाते हुए वे बाहर निकले तो पीछे से मैं भी बाहर आ गई । बाहर आते ही, उनके मन का वह सब जो अंदर नहीं निकल पाया था, झटके से बाहर निकला था ।

“क्या बता दिया है तूने उसे॰॰॰॰, जो वह मेरी जाँच की कह रही है ? कह दे उससे, मेरे साथ सो कर देख ले॰॰॰ सब पता चल जाएगा उसे॰॰॰॰।” कहते-कहते उनका चेहरा सुर्ख़ हो गया था । 

“क्या चिल्ला रहे हो॰॰॰॰॰? कोई सुन लेगा तो॰॰॰॰। मैंने झुकी नज़रों से ही अपने आस-पास टटोला था कि किसी ने सुना तो नहीं है ।

“अंदर उस औरत के सामने मेरी बेज़्ज़ती कराई, उससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा तुझे॰॰॰?” उन को जैसे कुछ खाए जा रहा था ।

“बेटा डॉक्टर के सामने क्या बेज़्ज़ती॰॰॰॰? यह तो वही जानें क्या जाँच करनी है और क्यों करनी है, हम-तुम इतना जानते तो यहाँ आते ही क्यों॰॰॰॰?” दोनों को उलझते देख, पापा ने आकर उन्हें समझाने की कोशिश की थी । 

“बीवी ही न जाने किस जन्म का बदला ले रही है॰॰॰॰ तो किसी और से क्या कहना॰॰॰॰।” दाँत पीसते हुए उन्होंने मुझसे से कहा और पैर पटकते अंदर चले गये थे । कुछ देर बाद बाहर आकर, वे मुझसे अलग ऐसे बैठ गए थे मानो मैंने उनका सब कुछ लुटवा दिया हो । तीनों अपने-अपने दायरे में सिमटे किसी से कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे । उनका  चेहरा बहुत सख़्त हो रहा था । मुझे लगा वे शायद अपनी रिपोर्ट के इंतज़ार में हैं जिसे वे मेरे मुँह पर दे मारेंगे और पूछेंगे ‘ले, हो गई तसल्ली तुझे॰॰॰ ।’

कुछ देर बाद हमें अंदर बुलाया गया । इस बार किसी फ़ौजी कमांडर की तरह वे सबसे आगे थे ।

“तुम्हारे वीर्य में बच्चा पैदा करने वाले शुक्राणु नहीं हैं॰॰॰॰। दवाई दे सकती हूँ लेकिन कोई गारंटी नहीं कि कुछ हो पाए ॰॰॰।” 

सुनते ही मुझे झटका लगा था । उनके पैरों के नीचे से तो जैसे डॉक्टर ने ज़मीन ही खींच ली थी । वे भौंचक्के से डॉक्टर को देखने लगे थे जैसे डॉक्टर ने एक पल में उनकी मर्दानगी को झटक कर फैंक दिया हो । वे मुझसे नज़रें नहीं मिला पा रहे थे और बिना कुछ कहे, थके बैल की तरह बाहर निकले थे । 

‘डॉक्टर ने बाद में मुझे ख़ूब समझाया था “देखो हिना ! अभी तुम्हारी उम्र भी ज़्यादा नहीं है । चाहो तो दूसरी शादी पर विचार कर सकती हो । इसके साथ तुम्हें बच्चे का सुख नहीं मिल सकता ।” 

‘दूसरी शादी, यानी पापा की छाती पर दोबारा से शिला बनकर रख जाना । कितने कष्ट दूँ उन्हें॰॰॰॰? फिर क्या गारंटी कि दूसरे से बच्चा हो ही जाएगा ? जिनके बच्चा नहीं होता क्या वे औरत नहीं रहतीं ? जीती नहीं हैं वे॰॰॰? उनमें कमी है, यह मुझमें भी तो हो सकती थी । तब वे मुझे छोड़ते, तो मुझे कैसा लगता॰॰॰॰?’ उस एक पल में, मैंने न जाने क्या-क्या सोच लिया था। “नहीं॰॰॰॰ डॉक्टर साब, अब मैं दूसरी शादी नहीं कर सकती । जो भी है, जैसा भी है, मैं इन्हीं के साथ ठीक हूँ । फिर मेरा नसीब है ।” कह कर चली आई थी मैं । पर इस घर को अपनी काली छाया से बरी आज तक नहीं कर पाई, आज तो जैसे यहाँ जान के लाले पड़े हैं । 

पूरी बात सुनते-सुनते मिस्त्रानी का पूरा डर, शब्दों के साथ सलीम मिस्त्री के भीतर उतर चुका है । एक पल को तो उनके दिमाग़ ने भी जैसे काम करना ही बंद कर दिया है । ‘आख़िर यह हुआ तो हुआ कैसे॰॰॰?’ यह समझने के लिए वे बार-बार अपने दिमाग़ को धक्का देने में जुटे हैं । पर दिमाग़ है कि बस पंडितजी पर ही आकर रुक जाता है । ‘उन्होंने ही तो सब कुछ कराया था । सब बातें तो कर ही लीं थीं उन्होंने । अंत में वे अपना सिर पकड़ कर बैठ गए  

“इतना पैसा भी ख़र्चा हुआ पर॰॰॰॰॰।” मिस्त्री कुछ और बुदबुदाते कि मिस्त्रानी ने आँखे तरेरीं “जब बचोगे ही नहीं तो पैसों का हिसाब किसके लिए॰॰॰?”

“अरे ऐसे क्या खा जाएँगे॰॰॰ ? बेमतलब की बात करती है । यहाँ आदमी नहीं रहते॰॰॰?”

“वक़्त कितना ख़राब है पता तो है॰॰॰॰? भले ही यहाँ उनके लिए सब नीची जाति के हैं, पर एक आवाज़ में हिंदू बन जाते हैं॰॰॰॰! तब कौन सुनेगा तुम्हारी॰॰॰॰॰?”

सलीम के एक वाक्य से हिना और आबिद में थोड़ी हिम्मत तो आई लेकिन मिस्त्रानी की बातों ने उन्हें फिर से कंपा दिया । ख़ुद सलीम के चेहरे पर भी ख़ौफ़ उतर आया है । 

“पंडितजी के पास जाऊँ॰॰॰॰? उन्होंने ही तो यह बग्गौर रची है । अब कोई न कोई रास्ता तो बताएँगे ही॰॰॰॰।” सलीम चलने को हुए कि 

“गली एकदम सुनसान है॰॰॰॰?” मिस्त्रानी परेशान हैं ।

“तुम कुंडी मत खोलना किसी के लिए भी । इसके अलावा और रास्ता भी क्या है ? यहाँ  पड़ोसियों को बताएँ, तो कहीं बड़ा बवाल न हो जाय ? पंडितजी की निगाह भी तो बदल सकती है, कहेंगे हमें बताया भी नहीं॰॰॰॰। मैं जा ही रहा हूँ ।” 

मिस्त्रानी दरवाज़ा बंद करके ऊपर हाथ उठकर किसी से कुछ मिन्नतें सी कर रहीं हैं । हिना मिस्त्रानी को ऐसा करते हुए एक-टक देख रही है । अचानक उसे लगा है जैसे उसके भीतर कोई बोल रहा है । ‘किससे मिन्नतें कर रही है अम्मा॰॰॰? कहीं कोई है ही नहीं । होता तो पहले ही सुन लेता और यह सब नौबत ही न आती ।’ हिना ने बैठे-बैठे ही नज़रें घुमाईं कहीं कोई नहीं है फिर कौन बोल रहा है ? उसने ध्यान दिया तो समझ गई यह उसी का मन बोल रहा है । बोल क्या जैसे समय की परतों में दबे, उसके बीते दिनों की रेखाएँ पढ़ रहा है ।

ऐसे ही मिन्नतें करती थी मैं । वे सुबह तहसील जाते । शाम को निराश होकर लौटते । मैं रोज़ अपना भरोसा जोड़ती और उन्हें तहसील जाने को मजबूर करती॰॰॰॰॰॰॰।

यहाँ से जाने के बाद, बहुत दिन लगे थे उन्हें यह स्वीकारने में कि मर्द में भी कमी हो सकती है । वह भी बाँझ हो सकता है । उन्होंने घर में किसी को कुछ नहीं बताया था । मैं भला कैसे बताती । घर वाले जब भी पूछते ‘क्या बताया डॉक्टर ने ?’ वे बात को टाल देते ‘कुछ नहीं॰॰॰ कुछ होगा नहीं ।’ या इधर-उधर निकल जाते । 

घर वाले दूसरी शादी को दबाव बना रहे थे । तब एक दिन वे फट पड़े थे “मुझे नहीं करनी दूसरी और तीसरी शादी । बच्चे मेरे नहीं होंगे, तुमको क्यों खुजली है इस बात की ?”

एक दिन हिम्मत करके मैंने पूछा था “हम एक बच्चा गोद ले लें॰॰॰? सुना है अनाथ आश्रम से भी लोग बच्चा गोद लेते हैं ।” इनकी समझ में तो आ गया था लेकिन घर में एक और महाभारत खड़ा हो गया था ।

“अपना ख़ून अपना ही होता है । अब वहाँ की कौन जाने किसका ख़ून हो ? किस जाति का हो ? इससे तो अच्छा है अपने घर में से ही किसी को रख लो॰॰॰। कम से कम घर-सम्पत्ति घर में तो रहेगी॰॰॰॰।” 

इनके बड़े भैया ने यह कहकर और बखेड़ा खड़ा कर दिया था । महीनों लगे थे इस जंग को जीतने में हमें । या शायद जीते नहीं थे बहरे हो गये थे हम । घर में बातें होतीं रहतीं हम उन्हें अनसुना करते । एक दिन अनाथ आश्रम पहुँच ही गए ।

जिले के अनाथ आश्रम में तम्बाकू चबाते, ऊँघते से बैठे मोटे आदमी ने एक बच्चा बताया था “यह मिल सकता॰॰॰॰।” 

क़रीब दो या ढाई साल उम्र थी उसकी । गोरा-चिट्टा बड़ा सुंदर सा । देखकर मैं सोचने लगी ‘इतने सुंदर से बच्चे को कौन छोड़ गया होगा यहाँ ?’ दुनिया भी कितनी अजीब है ? एक बच्चा पाने के लिए मैंने क्या-क्या नहीं झेला । कुछ जन्म देकर यहाँ छोड़ जाते हैं । एक पल को मेरा मन उनके लिए हिक़ारत से भर गया था । मैंने ख़ुश होकर बच्चे को गोद में उठा लिया । उसे गोद में लेते ही न जाने क्यों मुझे लगा, मेरे भीतर कुछ बदल रहा है । मैं हिना नहीं, माँ बन गई हूँ । मैंने उसे पल भर में कई बार चूमा और अपनी छाती से चिपका लिया । अचानक मुझे लगा मेरी ज़िंदगी के ख़ालीपन को हज़ारों रंगों ने एक साथ भर दिया हो । जैसे मन में लगातार होती जलन पर बर्फ़ का टुकड़ा रख दिया हो । 

मेरा मन उसे छोड़ना बिल्कुल नहीं चाह रहा था किंतु उस मोटे ने मुझे मजबूर किया था ।

“इसे छोड़ दो, इतना लगाव ठीक नहीं है, अभी यह तुम्हारा नहीं हुआ है । पहले तुम्हें डॉक्टर की रिपोर्ट, कि आपको बच्चा कभी नहीं होगा, और तहसील से हैसियत प्रमाणपत्र लाना होगा, जिससे यह पता लगे कि तुम में बच्चा पालने की क्षमता है ।” उसने जैसे हमको तमांच मारा था । 

हम दोनों सोचने लगे क्या अजीब आदमी है यह॰॰॰ भला जिसके बच्चे हो सकते हों, वह यहाँ क्यों आएगा ? 

“डॉक्टर की रिपोर्ट तो है हमारे पास ।” इन्होंने कहा

“हाँ तो ठीक है॰॰॰हैसियत और लानी है ।” कहकर वह हथेली पर चूना लगाने में लग गया ।

“हैसियत के कागज़ की क्या ज़रूरत है साब॰॰॰? हमारे घर में किसी चीज़ की कमी नहीं है । तुम देख लेना, यहाँ से तो बहुत अच्छा ही रहेगा ।” उस दड़वे जैसे आश्रम को देखकर, हैसियत के कागज़ वाली बात मुझे बेतुकी लगी थी । 

“तुम्हें बच्चा चाहिए या मुझसे बहस करनी है॰॰॰? 

“बच्चा॰॰॰॰।” मैं डरी, यह कहीं ना न कर दे ।

“तो जो मैं कह रहा हूँ वह करो॰॰॰सरकारी नियम तो पूरे करने पड़ेंगे न॰॰॰?” कहकर उसने इन्हें न जाने क्या-समझाया था । 

“अपना नाम पता लिखा जाओ ताकि हम किसी और को इसे नहीं दिखाएँगे॰॰॰॰ और कुछ ख़र्चा-पानी भी॰॰॰ इस बच्चे के लिए॰॰॰॰।” 

न जाने उस समय मुझे क्यों लगा था जैसे मेरा बच्चा उस अस्पताल में भर्ती है । डॉक्टर उसका इलाज करने के पैसे माँग रहा है । ‘मैं अपने बच्चे के लिए कुछ भी करूँगी’ न जाने कहाँ से और क्यों मेरे मन में उठे इस ख़याल में, मैंने अपने बटुए में रखे दो हज़ार रुपए उसे दे दिए थे । यह पैसे मैंने एक-एक रुपया करके जोड़े थे । उसने ख़ुश होते हुए रजिस्टर खोलकर इनका नाम पूछा –

“जमाल॰॰॰।” इन्होंने बताया वह लिखने लगा, अचानक लिखते-लिखते रुक गया ।

“जमाल॰॰॰॰ यह तो मु॰॰॰ मुसलमान हुआ॰॰॰॰?” 

“हाँ॰॰॰ तो क्या हम को॰॰॰॰॰?” 

“अरे नहीं॰॰॰नहीं, मैंने तो बस ऐसे ही॰॰॰॰आप चिंता न करें बस वे काग़ज़ ज़रूरी हैं जो बताए हैं ।“  

तब भी पापा आपना काम छोड़-छोड़कर इनके साथ क़रीब छः महीने यहाँ से वहाँ इस दफ़्तर से उस दफ़्तर, कभी तहसील कभी ज़िला भागते रहे थे । मैं रोज़ चिराग़ जलाती, हाथ उठा-उठाकर मिन्नतें करती । वे निराश होकर लौटते, तो मुझे लगता मेरी मिन्नतों में कहीं कमी रह गई । 

एक दिन शाम को ये बड़े ख़ुश होकर लौटे थे । उस दिन मेरी ज़िंदगी की सब चिन्ताएँ दूर हो गईं थीं । मुझे लगा मेरे जलाए चिराग़ों ने मिलकर अंधेरे को ख़त्म कर दिया हो । पर मैं सच्चाई से दूर, अंधेरे की ताक़त से अंजान थी । कि उसे परास्त करना इतना आसान नहीं है । मुझे लगा आख़िर उसने आज मेरी सुन ही ली । पर क्या हुआ, मेरे ऊपर तो तब कड़कड़ाती बिजली ही गिरी थी जब उस मोटे ने मुस्कराते हुए बताया था “वह बच्चा तो चला गया॰॰॰॰।”

“कहाँ॰॰॰॰॰?” मैं बौरा गई थी । 

“मंत्री जी की सिफ़ारिस पर एक बड़े व्यापारी को । अभी हफ़्ते भर पहले ही दिया है । तुम्हारा नाम-पता लिखा है । कोई बच्चा आएगा तो हम ख़बर कर देंगे ।” मुसकराते हुए उसने ऐसे कह दिया था जैसे भिखारियों को देने के लिए उसकी जेब में अठन्नी-चवन्नी ख़त्म हो गईं हों  । वह कुर्सी छोड़कर अंदर चला गया था । उसे जाते हुए मैंने भाँप लिया था वह मुझसे नज़रें नहीं मिलाना चाहता है । वह रुकता तो, सच में मैं उससे न जाने क्या-क्या कहती । आसमान में अचानक भूरे-काले बादल आ गये थे । मेरे भीतर कुछ बरसने लगा था । जैसे वहाँ बैठा सरकारी बाबू मेरे मन को निचोड़कर कुर्सी से उठा हो । मेरा मन भी उस ख़ाली कुर्सी की तरह रिक्त हो गया था । अपने बेजान शरीर को लेकर मैं वापस हुई थी । अब किससे क्या कहती॰॰॰? पर मैं अम्मा से लड़ गई थी “नहीं सुनी उसने तेरी और तेरी बेटी की॰॰॰॰ ।”

हिना को लग रहा है कि आज भी, उस दिन की तरह अम्मा को टोक दे ‘कोई नहीं है वहाँ सुनने वाला ।’ पर डर के बोझ से दबी मिस्त्रानी को शायद इससे ताक़त मिल रही थी । नहीं तो सामान्यतः मिस्त्रानी भी तो कह देतीं हैं, ‘कहीं कुछ नहीं है ऊपर-नीचे ।’ इसी ख़याल से हिना ने मिस्त्रानी को नहीं टोका है । 

मिस्त्रानी का मन नहीं माना तो वे फिर से छत आईं हैं, पीछे-पीछे आबिद भी आ गया है । अंधेरे में पंडितजी का दरवाज़ा तो नहीं दिख रहा है । अब भी हरिसिंह के बाड़े से उठतीं ठहाकों की आवाज़ें अंधेरे को चीरती उनके कानों तक पहुँच रहीं हैं । पर इन ठाहकों में उन्हें पहले से कुछ ज़्यादा लोगों की आवाज़ें महसूस हो रहीं हैं । उन्होंने देखा आबिद काँप रहा है “तू यहाँ क्यों आ गया ठंड में ? जा नीचे॰॰॰। हिना अकेली है॰॰॰॰॰, तू नीचे वहीं उसके पास बैठ ।” 

हिना ख़ुद में ही डूबी है । उसे पता ही नहीं कि वह इस समय घर में अकेली है । आबिद और अम्मा कब ऊपर चले गए इस से अंजान वह, अपने जीवन की किताब के शेष पन्ने पढ़ने में लगी है । उसे लग ही नहीं रहा कि वह अकेली है किताब के पन्नों में बैठे वे सभी पात्र जैसे उसकी स्मृतियों से निकलकर उसके सामने आँगन में आ बैठे हैं । पंडितजी, पंडितानी, गुड्डू उसकी सुंदर बीवी, अम्मा और पापा भी, सभी तो बाहर आ गए हैं । वह वक़्त से पीछे लौटकर, उन सब के लिए चाय बना रही है ।

मैं ख़ुशी-ख़ुशी चाय लेकर लाई थी । रात लगभग इतनी ही हो गई थी । वैसे तो पंडितानी दिन में सब बता गईं थीं । अम्मा मान भी गईं थीं । बस घर के मर्दों के बीच बात-चीत करने को शाम का इंतज़ार था । फिर गुड्डू भी इतनी रात गये ही घर आ पाता था । मैं भी यह सोचकर मान गई थी कि ज़िंदगी न जाने कब करवट ले और मैं ना समझ पाऊँ । फिर इस बार तो कोई संशय था ही नहीं । यहीं इसी कमरे में बैठकर तो बात हुई थी । 

पंडतानी ने कहा था “लाला गुड्डू॰॰॰ जो भी है अब खुल के बात कर ले॰॰॰ बता अब तू ?”

“आंटी ! बिना ठिकाने के हम तीन साल से भाग रहे हैं लेकिन घर वाले मानने को राज़ी नहीं हैं । कोई ऐसे आसार भी तो नहीं देख रहे जिनके सहारे और उम्मीद बांधी जाय । क्या भरोसा कब हम उनका शिकार बन जाएँ । अपनी मर्ज़ी से शादी करके ग़लती हमने ही तो की है पर ज़िंदा तो हमारे बच्चे को भी नहीं छोड़ा जायगा । मैं अपने लिए नहीं, अपने बच्चे के लिए काँप जाता हूँ । इसलिए सोचा है कि इसे कोई अपनाकर पाल ले ।” कहते-कहते गुड्डू सुबकने लगा था थोड़ी देर को सब शांत हो गये थे । 

“बेटा रीता ! हमारी तो यह बिसात भी नहीं है कि हम तुम्हारे घर वालों को समझा भी सकें । लेकिन तू माँ है, तो तू बोल क्या कहती है॰॰॰?” पापा ने सब कुछ साफ़ करना चाहा था । 

“ख़ूब सोच समझ ले बेटा कोई ज़बरन नहीं है । गुड्डू ने कहा था मुझसे तो मैंने सोचा कि तेरा बच्चा किसी ऐसी गोद में रहे जहाँ बच्चे की चाहत हो, ज़रूरत हो । यह गारंटी है कि हिना के घर में तेरा बच्चा राजकुमार बन के रहेगा ।” पंडितजी ने शायद उसका कोई संशय दूर किया था । 

“ख़ूब अच्छा घर है, ये मिस्त्री-मिस्त्रानी भी सज्जन आदमी हैं पर फिर भी हम कोई दबाव नहीं डाल रहे तुझ पर कि तू अपना बच्चा इसे दे ही दे । हमारे लिए तो तू और हिना एक जैसी ही हैं ।” पंडतानी ने रीता को तसल्ली दी थी । 

मैं तो तब भी चुप बैठी सब सुन ही रही थी । उस दिन मैं जान-बूझ कर कोई सपने नहीं बुन रही थी । टूटने के डर से । 

रीता सिसकने लगी थी “तुम इस बच्चे को रख ही लो॰॰॰॰।” कहकर वह चुप हो गई थी ।

दोनों ने यह शहर छोड़ कहीं और जा बसने को पाँच हज़ार रुपए माँगे थे । सब कुछ राज़ी ख़ुशी से ही हुआ था । कल तहसील में गोदनामा भी लिखा गया जिस पर उन दोनों ने दस्तखत भी किए हैं । पंडितजी और पंडितानी गवाह थे । गुड्डू कह रहा था कि आज शाम को ही हम यहाँ से चले जाएँगे कहीं और । हमारे यहाँ होने का पता इसके घर वालों को हो गया है शायद । बस फिर वे अपने घर और हम अपने घर आए थे ।

पर वह अभी तक गया क्यों नहीं है॰॰॰॰॰? अपने जीवन की किताब के अंतिम पेज का अंतिम वाक्य उसके दिमाग़ में अटक गया है । मानो उसे अचानक कोई सूत्र मिला हो । 

“पापा नहीं आए अभी, अम्मा॰॰॰॰?” हिना जैसे अचानक उपस्थित हुई हो कुछ व्याकुल सी ।

तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई । आवाज़ पहचानकर हिना ने ही दरवाज़ा खोला है । सलीम स्तब्ध और अनिश्चय से भरे हुए हैं । अंदर आते ही मिस्त्रानी लपक कर पास आ गई,

“क्या पता चला॰॰॰॰?” 

“पापा पहले यह बताओ यह गुड्डू और रीता गये क्यों नहीं यहाँ से॰॰॰॰?” 

“तू चुप हो॰॰॰॰ हाँ ! पंडितजी ने क्या कही॰॰॰॰?” मिस्त्रानी ने हिना को रोका ।

“ठीक कह रही है हिना॰॰॰, यही पेच है । हालाँकि पंडितजी कह रहे थे घबराओ मत । वहाँ आज कुछ नया नहीं हो रहा है । हम तो रोज़ ही यह सब सुनते हैं । ख़ुद का ठेका है तो एक-आध बोतल ख़ाली करने से क्या फ़र्क़ पड़ता है नेताजी पर । हिना से कहो परेशान न हो, हम बीच में हैं । तहसील में लिखा पढ़ी हुई है कोई मज़ाक नहीं है !”

“फिर ये॰॰॰॰?” मिस्त्रानी का डर इससे दूर नहीं हुआ है ।

“हरीसिंह की है सब करतूत॰॰॰॰। गुड्डू और रीता के यहाँ रहने की ख़बर उनके किसी घर वाले को नहीं हुई है॰॰॰।” 

“फिर गुड्डू ने ऐसे क्यों कहा था॰॰॰॰॰?” हिना भी अब जैसे मैदान में उतर आई है ।

“पंडितजी बता रहे थे, हरिसिंह की पहले दिन से ही रीता पर नज़र है॰॰॰। उसका विश्वासी बनने के लिए ही उसने गुड्डू को काम दिया । ख़ुद देर रात तक उस बाड़े में बैठा रहता है शराब पीकर ।” 

“तो पंडितजी ने पहले क्यों नहीं बताया था॰॰॰?” मिस्त्रानी के दिमाग़ में हलचल है।

“उन्हें क्या पता था । यह बात तो उस बाड़े में रह रहे एक किरायेदार ने उन्हें बताई है । और यह भी कि हरिसिंह ने ही गुड्डू को डराया है कि रीता के घर वालों को तेरे यहाँ होने का पता चल गया है । अगर गुड्डू को कुछ हुआ तो कोई और नहीं, हरिसिंह करवाएगा ।” सलीम ने दबी ज़ुबान बताया है । 

“रीता पर उसकी नज़र है, ठीक है॰॰॰॰। पर इस बच्चे से उसे क्या समस्या है॰॰॰॰?” हिना की बेचैनी बढ़ती जा रही है । 

“बता रहे थे कि, हरिसिंह ने इस लड़के का किसी से एक लाख में सौदा कर लिया है । इसी ने गुड्डू को डरा कर पट्टी पढ़ाई कि बेटा रीता के घर वाले रात-बिरात तेरे साथ कुछ भी कर सकते हैं । उसे उकसाया कि वह इस बच्चे को किसी को गोद दे-दे । ॰॰॰ रीता ने भी नेताजी की हरकतें गुड्डू को बताईं, तभी गुड्डू समझ गया था । तब उसने चुप-चाप पंडितजी से कहा था कि वे, इस बच्चे को किसी को दिलवा दें । मुसीबत के मारे तो हैं ही, बेचारे डर गये, सोचा दोनों यहाँ से रात को ही निकल जाएँगे । जब घर वाले ही साथ नहीं हैं तो किसी और का क्या भरोसा॰॰॰।” 

“फिर वह रात को गया क्यों नहीं॰॰॰॰?” हिना को इस सवाल का जवाब अभी नहीं मिला है ।

“हरिसिंह के मुँह लगे किरायेदार भी तो हैं उस बाड़े में॰॰॰॰? इतना गुप-चुप किया । पर उसे ख़बर हो ही गई कि बच्चा तो गया । तभी से दोनो को घेर रखा है । उन पर दबाव बना रहा है कि उससे बच्चा लाकर मुझे दे । तेरी हिम्मत कैसे हो गई एक हिंदू बच्चे को मुसलमान बनाने की । अरे हम दिलवाते, हिन्दू ख़ून हिन्दू तो रहता । अगर तूने सुबह तक बच्चा लाकर नहीं दिया तो तू समझ ले कितना बड़ा बवाल खड़ा होगा ।” 

“अच्छा तो अब समझी कि दिन में रीता कई बार बच्चे को क्यों वापस लेने आई । हाँ, उसने इशारा भी किया था । ‘या तो आप इसे लेकर अभी ससुराल चली जाओ या वापस दे दो मुझे।”

हिना को रीता की कही बातें अब समझ आई हैं । 

“लेकिन॰॰॰॰ अब॰॰॰॰ ?” मिस्त्रानी चकरा रहीं हैं, क्या करें क्या नहीं ?

“पंडितजी भी कह रहे थे इस ससुरे ने यह हिंदू-मुसलमान का झंझट जो खड़ा कर दिया है इससे थोड़ा मैं भी परेशान हूँ । पर कोई बात नहीं सुबह देखेंगे । बच्चा तो वह वापस ले नहीं सकता । इतना क़ानून तो मैं भी जानता हूँ । पैंतीस साल पुलिस में ऐसी-तैसी नहीं मराई है । उसने चार शराबी बिठा लिए वे हिंदू हो गये, फिर हम क्या हैं॰॰॰॰॰? अड़ोसी-पड़ोसी क्या हैं॰॰॰॰? अरे असल हिंदू तो वे हैं जो सबकी मदद को खड़े रहते हैं ।” पंडित जी जोश में आ गए ।

“पंडितजी ने कह तो दिया, पर उसका क्या भरोसा रात में ही॰॰॰॰तब पंडित जी क्या कर लेंगे॰॰॰ ?” मिस्त्रानी के संशय भरे इस वाक्य ने सभी को फिर बेचैन कर दिया है । 

बारह बज चुके हैं । खाने की किसी को फ़िक्र नहीं है । आज तो मिस्त्री के घर में नामुराद सर्दी भी किसी को नहीं लग रही । सलीम और मिस्त्रानी दोनों छत पर आ गए हैं । यह अनचाहा डर उन्हें सोने भी तो नहीं दे रहा है । झींगुर-मंजीरों की आवाज़ों के बीच में, गलियों के आवारा कुत्तों की रह-रह कर आतीं आवाज़ें उनके भीतर के डर को और बढा रहीं हैं । थोड़ी देर में ही वे नीचे आ गए हैं । बाहर गली में कुत्ता भी निकलता है तो उनका दिल इतनी ज़ोरों से धड़क जाता है कि मानो पसलियों से बाहर आ गिरेगा । आबिद बैठे-बैठे यूँ ही दीवार से टिक कर सो गया है । 

हिना की आँखों में कोसों तक नीद नहीं है । उसे, अब क्या होने वाला है से ज़्यादा यह बात बेचैन कर रही है कि सुबह क्या होगा । वह उन कपड़ों को उलट-पलट कर देख रही है जिन्हें वह आज ही अपने बच्चे के लिए खरीदकर लाई थी । मिस्त्रानी ने तो कहा भी था 

“तू चली जा । यह सब वहीं जा कर ख़रीद लेना । क्यों खाम-खाँ यहाँ ढोल पीट रही है । इंसान का मन बदलते देर नहीं लगती 

हिना कल तो चली ही जाती । यह अंदाज़ा तो शायद किसी को भी नहीं था कि इतना बड़ा बखेड़ा खड़ा हो जाएगा । ख़ुद मिस्त्रानी को भी नहीं । 

“वर्षों से यहाँ इस बस्ती में रहते हुए कभी ध्यान ही नहीं हुआ कि हम कौन हैं । सब आते-जाते, खाते-पीते रहे । यहाँ हमारा गाँव तो था नहीं, लेकिन हिना की शादी में बिल्कुल पता नहीं चला कि हम परदेश में हैं । अब अचानक ही हम में इतनी ख़राबी कैसे हो गई कि॰॰॰॰?” मिस्त्रानी जैसे परेशानी में बड़बड़ा रहीं हैं ।

“क्यों॰॰॰? इस हरीसिंह ने ही तो खान-पान का पूरा काम दिखवाया था । मुझे तो लगता है यह कोई हिंदू-मुसलमान का मामला नहीं हैं, सब पैसों का खेल है । उस लड़की का भी क्या करेगा, कहीं न कहीं बेच ही देगा॰॰॰॰।” सलीम ने कहकर बीड़ी जलाई है ।” 

“पर इस बात को कहे कौन॰॰॰॰ ?” मिस्त्रानी निराश हैं । 

“यही सब कहेंगे॰॰॰॰ पंडित जी कहेंगे॰॰॰॰। कह रहे थे कोर्ट में लिखा-पढ़ी हुई है । इसका बाप भी अब बच्चे को तुमसे नहीं ले सकता । हमारे देश का क़ानून इतना अपाहिज नहीं हो गया है । तुम सुबह लड़की को ससुराल छोड़ आओ फिर यहाँ हम देख लेंगे ।”

ऐसी बातों से एक दूसरे को हिम्मत बँधाते दोनों, रात खुली आँखों से काट देने का जतन कर रहे हैं । दोनों को ध्यान भी नहीं रहा अब हिना क्या सोच रही है । मिस्त्रानी ने बातों ही बातों कुछ साहस पाकर हिना से कहा “बेटा तू कपड़ा-वपड़ा रख ले॰॰॰॰॰।”

हिना ने एक लम्बी साँस खींची “नहीं अम्मा॰॰॰॰ कोर्ट में लड़ाई सम्पत्तियों के लिए लड़ी जातीं हैं । हारी और जीती जातीं हैं॰॰॰॰। इंसानों के मन का फ़ैसला कोर्ट नहीं करता । मैं इसे अपने बच्चे की तरह पालना चाहती हूँ । कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटते हुए, मेरे मन में बैठे इसे छिन जाने के डर के बीच, मैं इसे कितना प्यार दे पाऊँगी ? उससे इसका भी क्या भला होगा । इस को परवरिश चाहिए, मैं पालूँ या कोई और । कोई लाखों रुपया दे कर इसे पाले या कोर्ट में लिखा कर, उससे इस पर क्या फ़र्क़ पड़ता है । और फिर अम्मा ! इसे ले जाने वाली भी हिंदू नहीं औरत ही होगी जो माँ न बन पाने का दंश झेलती होगी ।” 

कह कर हिना चुप हो गई । मिस्त्रानी को लगा वह रोने लगेगी लेकिन वह रोई नहीं जैसे उसके आँसू उसकी आँखों में ही कहीं सूख गये हों । सलीम मिस्त्री और मिस्त्रानी पर कोई जवाब नहीं है । एक दम स्तब्ध और शांत सुबह होने के इंतज़ार में । 

हनीफ मदार द्वारा लिखित

हनीफ मदार बायोग्राफी !

नाम : हनीफ मदार
निक नाम : हनीफ
ईमेल आईडी : hanifmadar@gmail.com
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ऑथर के बारे में :

जन्म -  1 मार्च १९७२ को उत्तर प्रदेश के 'एटा' जिले के एक छोटे गावं 'डोर्रा' में 

- 'सहारा समय' के लिए निरंतर तीन वर्ष विश्लेष्णात्मक आलेख | नाट्य समीक्षाएं, व्यंग्य, साक्षात्कार एवं अन्य आलेख मथुरा, आगरा से प्रकाशित अमर उजाला, दैनिक जागरण, आज, डी एल ए आदि में |

कहानियां, समीक्षाएं, कविता, व्यंग्य- हंस, परिकथा, वर्तमान साहित्य, उद्भावना, समर लोक, वागर्थ, अभिव्यक्ति, वांग्मय के अलावा देश भर  की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित 

कहानी संग्रह -  "बंद कमरे की रोशनी", "रसीद नम्बर ग्यारह"

सम्पादन- प्रस्फुरण पत्रिका, 

 'बारह क़िस्से टन्न'  भाग १, 

 'बारह क़िस्से टन्न'  भाग ३,

 'बारह क़िस्से टन्न'  भाग ४
फिल्म - जन सिनेमा की फिल्म 'कैद' के लिए पटकथा, संवाद लेखन 

अवार्ड - सविता भार्गव स्मृति सम्मान २०१३, विशम्भर नाथ चतुर्वेदी स्मृति सम्मान २०१४ 

- पूर्व सचिव - संकेत रंग टोली 

सह सचिव - जनवादी लेखक संघ,  मथुरा 

कार्यकारिणी सदस्य - जनवादी लेखक संघ राज्य कमेटी (उत्तर प्रदेश)

संपर्क- 56/56 शहजादपुर सोनई टप्पा, यमुनापार मथुरा २८१००१ 

phone- 08439244335

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