गोदान: उपन्यास, भाग 9 (प्रेमचंद)

कथा-कहानी उपन्यास

मुसी प्रेमचंद 1799 11/17/2018 12:00:00 AM

गोदान: उपन्यास, भाग 9 (प्रेमचंद)

गोदान: उपन्यास, भाग 9

पुर चलने लगा। धनिया को होरी ने न आने दिया। रूपा क्यारी बराती थी और सोना मोट ले रही थी। रूपा गीली मिट्टी के चूल्हे और बरतन बना रही थी, और सोना सशंक आँखों से सोनारी की ओर ताक रही थी। शंका भी थी, आशा भी थी, शंका अधिक थी, आशा कम। सोचती थी, उन लोगों को रुपए मिल रहे हैं, तो क्यों छोड़ने लगे? जिनके पास पैसे हैं, वे तो पैसे पर और भी जान देते हैं। और गौरी महतो तो एक ही लालची हैं। मथुरा में दया है, धरम है, लेकिन बाप की जो इच्छा होगी, वही उसे माननी पड़ेगी, मगर सोना भी बचा को ऐसा फटकारेगी कि याद करेंगे। वह साफ कहेगी, जा कर किसी धनी की लड़की से ब्याह कर, तुझ-जैसे पुरुष के साथ मेरा निबाह न होगा। कहीं गौरी महतो मान गए, तो वह उनके चरन धो-धो कर पिएगी। उनकी ऐसी सेवा करेगी कि अपने बाप की भी न की होगी। और सिलिया को भर-पेट मिठाई खिलाएगी। गोबर ने उसे जो रूपया दिया था, उसे वह अभी तक संचे हुए थी। इस मृदु कल्पना से उसकी आँखें चमक उठीं और कपोलों पर हल्की-सी लाली दौड़ गई।

मगर सिलिया अभी तक आई क्यों नहीं? कौन बड़ी दूर है। न आने दिया होगा उन लोगों ने। अहा! वह आ रही है, लेकिन बहुत धीरे-धीरे आती है। सोना का दिल बैठ गया। अभागे नहीं माने साइत, नहीं सिलिया दौड़ती आती। तो सोना से हो चुका ब्याह। मुँह धो रखो।

सिलिया आई जरूर, पर कुएँ पर न आ कर खेत में क्यारी बराने लगी। डर रही थी, होरी पूछेंगे कहाँ थी अब तक, तो क्या जवाब देगी। सोना ने यह दो घंटे का समय बड़ी मुश्किल से काटा। पर छूटते ही वह भागी हुई सिलिया के पास पहुँची।

‘वहाँ जा कर तू मर गई थी क्या! ताकते-ताकते आँखें फूट गईं।’

सिलिया को बुरा लगा – तो क्या मैं वहाँ सोती थी? इस तरह की बातचीत राह चलते थोड़े ही हो जाती है। अवसर देखना पड़ता है। मथुरा नदी की ओर ढोर चराने गए थे। खोजती-खोजती उसके पास गई और तेरा संदेसा कहा – ऐसा परसन हुआ कि तुझसे क्या कहूँ। मेरे पाँव पर गिर पड़ा और बोला – सिल्लो, मैंने जब से सुना है कि सोना मेरे घर में आ रही है, तब से आँखों की नींद हर गई है। उसकी वह गालियाँ मुझे फल गईं, लेकिन काका को क्या करूँ – वह किसी की नहीं सुनते।

सोना ने टोका – तो न सुनें। सोना भी जिद्दिन है। जो कहा है, वह कर दिखाएगी। फिर हाथ मलते रह जाएँगे।

‘बस, उसी छन ढोरों को वहीं छोड़, मुझे लिए हुए गौरी महतो के पास गया। महतो के चार पुर चलते हैं। कुआँ भी उन्हीं का है। दस बीघे का ऊख है। महतो को देखके मुझे हँसी आ गई, जैसे कोई घसियारा हो। हाँ, भाग का बली है। बाप-बेटे में खूब कहा-सुनी हुई। गौरी महतो कहते थे, तुझसे क्या मतलब, मैं चाहे कुछ लूँ या न लूँ, तू कौन होता है बोलने वाला? मथुरा कहता था, तुमको लेना-देना है, तो मेरा ब्याह मत करो, मैं अपना ब्याह जैसे चाहूँगा, कर लूँगा। बात बढ़ गई और गौरी महतो ने पनहियाँ उतार कर मथुरा को खूब पीटा। कोई दूसरा लड़का इतनी मार खा कर बिगड़ खड़ा होता। मथुरा एक घूँसा भी जमा देता, तो महतो फिर न उठते, मगर बेचारा पचासों जूते खा कर भी कुछ न बोला। आँखों में आँसू भरे, मेरी ओर गरीबों की तरह ताकता हुआ चला गया। तब महतो मुझ पर बिगड़ने लगे। सैकड़ों गालियाँ दीं, मगर मैं क्यों सुनने लगी थी? मुझे उनका क्या डर था? मैंने सफा कह दिया – महतो, दो-तीन सौ कोई भारी रकम नहीं है, और होरी महतो इतने में बिक न जाएँगे, न तुम्हीं धनवान हो जाओगे, वह सब धन नाच-तमासे में ही उड़ जायगा। हाँ, ऐसी बहू न पाओगे।

सोना ने सजल नेत्रों से पूछा – महतो इतनी ही बात पर उन्हें मारने लगे?

सिलिया ने यह बात छिपा रक्खी थी। ऐसी अपमान की बात सोना के कानों में न डालना चाहती थी, पर यह प्रश्न सुन कर संयम न रख सकी। बोली – वही गोबर भैया वाली बात थी। महतो ने कहा – आदमी जूठा तभी खाता है, जब मीठा हो। कलंक चाँदी से ही धुलता है। इस पर मथुरा बोला – काका, कौन घर कलंक से बचा हुआ है? हाँ, किसी का खुल गया, किसी का छिपा हुआ है। गौरी महतो भी पहले एक चमारिन से फँसे थे। उससे दो लड़के भी हैं। मथुरा के मुँह से इतना निकलना था कि डोकरे पर जैसे भूत सवार हो गया। जितना लालची है, उतना ही क्रोधी भी है। बिना लिए न मानेगा।

दोनों घर चलीं। सोना के सिर पर चरसा, रस्सा और जुए का भारी बोझ था, पर इस समय वह उसे फूल से भी हल्का लग रहा था। उसके अंतस्तल में जैसे आनंद और स्फूर्ति का सोता खुल गया हो। मथुरा की वह वीर मूर्ति सामने खड़ी थी, और वह जैसे उसे अपने हृदय में बैठा कर उसके चरण आँसुओं से पखार रही थी। जैसे आकाश की देवियाँ उसे गोद में उठाए, आकाश में छाई हुई लालिमा में लिए चली जा रही हों।

उसी रात को सोना को बड़े जोर का ज्वर चढ़ आया।

तीसरे दिन गौरी महतो ने नाई के हाथ एक पत्र भेजा –

‘स्वस्ती श्री सर्वोपमा जोग श्री होरी महतो को गौरीराम का राम-राम बाँचना। आगे जो हम लोगों में दहेज की बातचीत हुई थी, उस पर हमने सांत मन से विचार किया, समझ में आया कि लेन-देन से वर और कन्या दोनों ही के घरवाले जेरबार होते हैं। जब हमारा-तुम्हारा संबंध हो गया, तो हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि किसी को न अखरे! तुम दान-दहेज की कोई फिकर मत करना, हम तुमको सौगंध देते हैं। जो कुछ मोटा-महीन जुरे, बरातियों को खिला देना। हम वह भी न माँगेंगे। रसद का इंतजाम हमने कर लिया है। हाँ, तुम खुसी-खुर्रमी से हमारी जो खातिर करोगे। वह सिर झुका कर स्वीकार करेंगे।’

होरी ने पत्र पढ़ा और दौड़े हुए भीतर जा कर धनिया को सुनाया। हर्ष के मारे उछला पड़ता था, मगर धनिया किसी विचार में डूबी बैठी रही। एक क्षण के बाद बोली – यह गौरी महतो की भलमनसी है, लेकिन हमें भी तो अपने मरजाद का निबाह करना है। संसार क्या कहेगा! रूपया हाथ का मैल है। उसके लिए कुल-मरजाद नहीं छोड़ा जाता। जो कुछ हमसे हो सकेगा, देंगे और गौरी महतो को लेना पड़ेगा। तुम यही जवाब लिख दो। माँ-बाप की कमाई में क्या लड़की का कोई हक नहीं है? नहीं, लिखना क्या है, चलो, मैं नाई से संदेसा कहलाए देती हूँ।

होरी हतबुद्धि-सा आँगन में खड़ा था और धनिया उस उदारता की प्रतिक्रिया में, जो गौरी महतो की सज्जनता ने जगा दी थी, संदेशा कह रही थी। फिर उसने नाई को रस पिलाया और बिदाई दे कर विदा किया।

वह चला गया तो होरी ने कहा – यह तूने क्या कर डाला धनिया? तेरा मिजाज आज तक मेरी समझ में न आया। तू आगे भी चलती है, पीछे भी चलती है। पहले तो इस बात पर लड़ रही थी कि किसी से एक पैसा करज मत लो, कुछ देने-दिलाने का काम नहीं है और जब भगवान ने गौरी के भीतर बैठ कर यह पत्र लिखवाया, तो तूने कुल-मरजाद का राग छेड़ दिया। तेरा मरम भगवान ही जाने।

धनिया बोली – मुँह देख कर बीड़ा दिया जाता है, जानते हो कि नहीं? तब गौरी अपने सान दिखाते थे, अब वह भलमनसी दिखा रहे हैं। ईंट का जवाब चाहे पत्थर हो, लेकिन सलाम का जवाब तो गाली नहीं है।

होरी ने नाक सिकोड़ कर कहा – तो दिखा अपनी भलमनसी। देखें, कहाँ से रुपए लाती है।

धनिया आँखें चमका कर बोली – रुपए लाना मेरा काम नहीं, तुम्हारा काम है।

‘मैं तो दुलारी से ही लूँगा।’

‘ले लो उसी से। सूद तो सभी लेंगे। जब डूबना ही है, तो क्या तालाब और क्या गंगा?’

होरी बाहर आ कर चिलम पीने लगा। कितने मजे से गला छूटा जाता था, लेकिन धनिया जब जान छोड़े तब तो। जब देखो, उल्टी ही चलती है। इसे जैसे कोई भूत सवार हो जाता है। घर की दसा देख कर भी इसकी आँखें नहीं खुलतीं
भोला इधर दूसरी सगाई लाए थे। औरत के बगैर उनका जीवन नीरस था। जब तक झुनिया थी, उन्हें हुक्का-पानी दे देती थी। समय से खाने को बुला ले जाती थी। अब बेचारे अनाथ-से हो गए थे। बहुओं को घर के काम-धाम से छुट्टी न मिलती थी। उनकी क्या सेवा-सत्कार करतीं। इसलिए अब सगाई परमावश्यक हो गई थी। संयोग से एक जवान विधवा मिल गई, जिसके पति का देहांत हुए केवल तीन महीने हुए थे। एक लड़का भी था। भोला की लार टपक पड़ी। झटपट शिकार मार लाए। जब तक सगाई न हुई, उसका घर खोद डाला।

अभी तक उसके घर में जो कुछ था, बहुओं का था। जो चाहती थीं, करती थीं, जैसे चाहती थीं, रहती थीं। जंगी जब से अपनी स्त्री को ले कर लखनऊ चला गया था, कामता की बहू ही घर की स्वामिनी थी। पाँच-छ: महीनों में ही उसने तीस-चालीस रुपए अपने हाथ में कर लिए थे। सेर-आधा सेर दूध-दही चोरी से बेच लेती थी। अब स्वामिनी हुई उसकी सौतेली सास। उसका नियंत्रण बहू को बुरा लगता था और आए दिन दोनों में तकरार होती रहती थी। यहाँ तक कि औरतों के पीछे भोला और कामता में भी कहा-सुनी हो गई। झगड़ा इतना बढ़ा कि अलग्योझे की नौबत आ गई और यह रीति सनातन से चली आई है कि अलग्योझे के समय मार-पीट अवश्य हो। यहाँ भी उस रीति का पालन किया गया। कामता जवान आदमी था। भोला का उस पर जो कुछ दबाव था, वह पिता के नाते था, मगर नई स्त्री ला कर बेटे से आदर पाने का अब उसे कोई हक न रहा था। कम-से-कम कामता इसे स्वीकार न करता था। उसने भोला को पटक कर कई लातें जमाईं और घर से निकाल दिया। घर की चीजें न छूने दीं। गाँव वालों में भी किसी ने भोला का पक्ष न लिया। नई सगाई ने उन्हें नक्कू बना दिया था। रात तो उन्होंने किसी तरह एक पेड़ के नीचे काटी, सुबह होते ही नोखेराम के पास जा पहुँचे और अपनी फरियाद सुनाई। भोला का गाँव उन्हीं के इलाके में था और इलाके-भर के मालिक-मुखिया जो कुछ थे, वही थे। नोखेराम को भोला पर तो क्या दया आती, पर उनके साथ एक चटपटी, रंगीली स्त्री देखी तो चटपट आश्रय देने पर राजी हो गए। जहाँ उनकी गाएँ बँधती थी, वहीं एक कोठरी रहने को दे दी। अपने जानवरों की देखभाल, सानी-भूसे के लिए उन्हें एकाएक एक जानकार आदमी की जरूरत महसूस होने लगी। भोला को तीन रूपया महीना और सेर-भर रोजाना अनाज पर नौकर रख लिया।

नोखेराम नाटे, मोटे, खल्वाट, लंबी नाक और छोटी-छोटी आँखों वाले साँवले आदमी थे। बड़ा-सा पग्गड़ बाँधते, नीचा कुरता पहनते और जाड़ों में लिहाग ओढ़ कर बाहर आते-जाते थे। उन्हें तेल की मालिश कराने में बड़ा आनंद आता था, इसलिए उनके कपड़े हमेशा मैले, चीकट रहते थे। उनका परिवार बहुत बड़ा था। सात भाई और उनके बाल-बच्चे सभी उन्हीं पर आश्रित थे। उस पर स्वयं उनका लड़का नवें दरजे में अंग्रेजी पढ़ता था और उसका बबुआई ठाठ निभाना कोई आसान काम न था। रायसाहब से उन्हें केवल बारह रुपए वेतन मिलता था, मगर खर्च सौ रुपए से कौड़ी कम न था। इसलिए असामी किसी तरह उनके चंगुल में फँस जाए, तो बिना उसे अच्छी तरह चूसे न छोड़ते थे। पहले छ: रुपए वेतन मिलता था, तब असामियों से इतनी नोच-खसोट न करते थे, जब से बारह रुपए हो गए थे, तब से उनकी तृष्णा और भी बढ़ गई थी, इसलिए रायसाहब उनकी तरक्की न करते थे।

गाँव में और तो सभी किसी-न-किसी रूप में उनका दबाव मानते थे, यहाँ तक कि दातादीन और झिंगुरीसिंह भी उनकी खुशामद करते थे, केवल पटेश्वरी उनसे ताल ठोकने को हमेशा तैयार रहते थे। नोखेराम को अगर यह जोम था कि हम ब्राह्मण हैं और कायस्थों को उँगली पर नचाते हैं, तो पटेश्वरी को भी घमंड था कि हम कायस्थ हैं, कलम के बादशाह, इस मैदान में कोई हमसे क्या बाजी ले जायगा? फिर वह जमींदार के नौकर नहीं, सरकार के नौकर हैं, जिसके राज में सूरज कभी नहीं डूबता। नोखेराम अगर एकादशी का व्रत रखते हैं और पाँच ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, तो पटेश्वरी हर पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा सुनेंगे और दस ब्राह्मणों को भोजन कराएँगे। जब से उनका जेठा लड़का सजावल हो गया था, नोखेराम इस ताक में रहते थे कि उनका लड़का किसी तरह दसवाँ पास कर ले, तो उसे भी कहीं नकलनवीसी दिला दें। इसलिए हुक्काम के पास फसली सौगातें ले कर बराबर सलामी करते रहते थे। एक और बात में पटेश्वरी उनसे बढ़े हुए थे। लोगों का खयाल था कि वह अपनी विधवा कहारिन को रखे हुए हैं। अब नोखेराम को भी अपनी शान में यह कसर पूरी करने का अवसर मिलता हुआ जान पड़ा।

भोला को ढाढ़स देते हुए बोले – तुम यहाँ आराम से रहो भोला, किसी बात का खटका नहीं। जिस चीज की जरूरत हो, हमसे आ कर कहो। तुम्हारी घरवाली है, उसके लिए भी कोई न कोई काम निकल आएगा। बखारों में अनाज रखना, निकालना, पछोरना, फटकना क्या थोड़ा काम है?

भोला ने अरज की – सरकार, एक बार कामता को बुला कर पूछ लो, क्या बाप के साथ बेटे का यही सलूक होना चाहिए? घर हमने बनवाया, गाएँ-भैंसें हमने लीं। अब उसने सब कुछ हथिया लिया और हमें निकाल बाहर किया। यह अन्याय नहीं तो क्या है? हमारे मालिक तो तुम्हीं हो। तुम्हारे दरबार में इसका फैसला होना चाहिए।

नोखेराम ने समझाया – भोला, तुम उससे लड़ कर पेश न पाओगे, उसने जैसा किया है, उसकी सजा उसे भगवान देंगे। बेईमानी करके कोई आज तक फलीभूत हुआ है? संसार में अन्याय न होता, तो इसे नरक क्यों कहा जाता? यहाँ न्याय और धर्म को कौन पूछता है? भगवान सब देखते हैं। संसार का रत्ती-रत्ती हाल जानते हैं। तुम्हारे मन में इस समय क्या बात है, यह उनसे क्या छिपा है? इसी से तो अंतरजामी कहलाते हैं। उनसे बच कर कोई कहाँ जायगा? तुम चुप होके बैठो। भगवान की इच्छा हुई तो यहाँ तुम उससे बुरे न रहोगे।

यहाँ से उठ कर भोला ने होरी के पास जा कर अपना दुखड़ा रोया। होरी ने अपने बीती सुनाई – लड़कों की आजकल कुछ न पूछो भोला भाई। मर-मर कर पालो, जवान हों, तो दुसमन हो जायँ। मेरे ही गोबर को देखो। माँ से लड़ कर गया, और सालों हो गए। न चिट्ठी, न पत्तर। उसके लेखे तो माँ-बाप मर गए। बिटिया का विवाह सिर पर है, लेकिन उससे कोई मतलब नहीं। खेत रेहन रख कर दो सौ रुपए लिए हैं। इज्जत-आबरू का निबाह तो करना ही होगा।

कामता ने बाप को निकाल बाहर तो किया, लेकिन अब उसे मालूम होने लगा कि बुड्ढा कितना कामकाजी आदमी था। सबेरे उठ कर सानी-पानी करना, दूध दुहना, फिर दूध ले कर बाजार जाना, वहाँ से आ कर फिर सानी-पानी करना, फिर दूध दुहना, एक पखवारे में उसका हुलिया बिगड़ गया। स्त्री-पुरुष में लड़ाई हुई। स्त्री ने कहा – मैं जान देने के लिए तुम्हारे घर नहीं आई हूँ। मेरी रोटी तुम्हें भारी हो, तो मैं अपने घर चली जाऊँ। कामता डरा, यह कहीं चली जाए, तो रोटी का ठिकाना भी न रहे, अपने हाथ से ठोकना पड़े। आखिर एक नौकर रखा, लेकिन उससे काम न चला। नौकर खली-भूसा चुरा-चुरा कर बेचने लगा। उसे अलग किया। फिर स्त्री-पुरुष में लड़ाई हुई। स्त्री रूठ कर मैके चली गई। कामता के हाथ-पाँव फूल गए। हार कर भोला के पास आया और चिरौरी करने लगा – दादा, मुझसे जो कुछ भूल-चूक हुई हो, क्षमा करो। अब चल कर घर सँभालो, जैसे तुम रखोगे, वैसे ही रहूँगा।

भोला को यहाँ मजूरों की तरह रहना अखर रहा था। पहले महीने-दो-महीने उसकी जो खातिर हुई, वह अब न थी। नोखेराम कभी-कभी उससे चिलम भरने या चारपाई बिछाने को भी कहते थे। तब बेचारा भोला जहर का घूँट पी कर रह जाता था। अपने घर में लड़ाई-दंगा भी हो, तो किसी की टहल तो न करनी पड़ेगी।

उसकी स्त्री नोहरी ने यह प्रस्ताव सुना तो, ऐंठ कर बोली – जहाँ से लात खा कर आए, वहाँ फिर जाओगे? तुम्हें लाज नहीं आती।

भोला ने कहा – तो यहीं कौन सिंहासन पर बैठा हुआ हूँ?

नोहरी ने मटक कर कहा – तुम्हें जाना हो तो जाओ, मैं नहीं जाती।

भोला जानता था, नोहरी विरोध करेगी। इसका कारण भी वह कुछ-कुछ समझता था, कुछ देखता भी था, उसके यहाँ से भागने का एक कारण यह भी था। यहाँ उसकी कोई बात न पूछता था, पर नोहरी की बड़ी खातिर होती थी। प्यादे और शहने तक उसका दबाव मानते थे। उसका जवाब सुन कर भोला को क्रोध आया, लेकिन करता क्या? नोहरी को छोड़ कर चले जाने का साहस उसमें होता, तो नोहरी भी झख मार कर उसके पीछे-पीछे चली जाती। अकेले उसे यहाँ अपने आश्रय में रखने की हिम्मत नोखेराम में न थी। वह टट्टी की आड़ से शिकार खेलने वाले जीव थे, मगर नोहरी भोला के स्वभाव से परिचित हो चुकी थी।

भोला मिन्नत करके बोला – देख नोहरी, दिक मत कर। अब तो वहाँ बहुएँ भी नहीं हैं। तेरे ही हाथ में सब कुछ रहेगा। यहाँ मजूरी करने से बिरादरी में कितनी बदनामी हो रही है, यह सोच!

नोहरी ने ठेंगा दिखा कर कहा – तुम्हें जाना है जाओ, मैं तुम्हें रोक तो नहीं रही हूँ। तुम्हें बेटे की लातें प्यारी लगती होंगी, मुझे नहीं लगतीं। मैं अपनी मजदूरी में मगन हूँ।

भोला को रहना पड़ा और कामता अपनी स्त्री की खुशामद करके उसे मना लाया। इधर नोहरी के विषय में कनबतियाँ होती रहीं – नोहरी ने आज गुलाबी साड़ी पहनी है। अब क्या पूछना है, चाहे रोज एक साड़ी पहने। सैयाँ भए कोतवाल, अब डर काहे का। भोला की आँखें फूट गईं हैं क्या?

सोभा बड़ा हँसोड़ था। सारे गाँव का विदूषक, बल्कि नारद। हर एक बात की टोह लगाता रहता था। एक दिन नोहरी उसे घर में मिल गई। कुछ हँसी कर बैठा। नोहरी ने नोखेराम से जड़ दिया। सोभा की चौपाल में तलबी हुई और ऐसी डाँट पड़ी कि उम्र-भर न भूलेगा।

एक दिन लाला पटेश्वरीप्रसाद की शामत आ गई। गर्मियों के दिन थे। लाला बगीचे में आम तुड़वा रहे थे। नोहरी बनी-ठनी उधर से निकली। लाला ने पुकारा – नोहरी रानी, इधर आओ, थोड़े से आम लेती जाओ, बड़े मीठे हैं।

नोहरी को भ्रम हुआ, लाला मेरा उपहास कर रहे हैं। उसे अब घमंड होने लगा था। वह चाहती थी, लोग उसे जमींदारिन समझें और उसका सम्मान करें। घमंडी आदमी प्राय: शक्की हुआ करता है। और जब मन में चोर हो, तो शक्कीपन और भी बढ़ जाता है। वह मेरी ओर देख कर क्यों हँसा? सब लोग मुझे देख कर जलते क्यों हैं? मैं किसी से कुछ माँगने नहीं जाती। कौन बड़ी सतवंती है। जरा मेरे सामने आए, तो देखूँ। इतने दिनों में नोहरी गाँव के गुप्त रहस्यों से परिचित हो चुकी थी। यही लाला कहारिन को रखे हुए हैं और मुझे हँसते हैं। इन्हें कोई कुछ नहीं कहता। बड़े आदमी हैं न! नोहरी गरीब है, जात की हेठी है, इसलिए सभी उसका उपहास करते हैं। और जैसा बाप है, वैसा ही बेटा। इन्हीं का रमेसरी तो सिलिया के पीछे पागल बना फिरता है। चमारियों पर तो गिद्ध की तरह टूटते हैं, उस पर दावा है कि हम ऊँचे हैं।

उसने वहीं खड़े हो कर कहा – तुम दानी कब से हो गए लाला! पाओ तो दूसरों की थाली की रोटी उड़ा जाओ। आज बड़े आमवाले हुए हैं। मुझसे छेड़ की तो अच्छा न होगा, कहे देती हूँ।

ओ हो! इस अहीरिन का इतना मिजाज। नोखेराम को क्या फाँस लिया, समझती है, सारी दुनिया पर उसका राज है। बोले – तू तो ऐसी तिनक रही है नोहरी, जैसे अब किसी को गाँव में रहने न देगी। जरा जबान सँभाल कर बातें किया कर, इतनी जल्द अपने को न भूल जा।

‘तो क्या तुम्हारे द्वार कभी भीख माँगने आई थी?’

‘नोखेराम ने छाँह न दी होती, तो भीख भी माँगती।’

नोहरी को लाल मिर्च-सा लगा। जो कुछ मुँह में आया, बका – दाढ़ीजार, लंपट, मुँह-झौंसा और जाने क्या-क्या कहा और उसी क्रोध में भरी हुई कोठरी में गई और अपने बरतन-भाँड़े निकाल-निकाल कर बाहर रखने लगी।

नोखेराम ने सुना तो घबराए हुए आए और पूछा – यह क्या कर रही है नोहरी, कपड़े-लत्ते क्यों निकाल रही है? किसी ने कुछ कहा है क्या?

नोहरी मर्दों को नचाने की कला जानती थी। अपने जीवन में उसने यही विद्या सीखी थी। नोखेराम पढ़े-लिखे आदमी थे। कानून भी जानते थे। धर्म की पुस्तकें भी बहुत पढ़ी थीं। बड़े-बड़े वकीलों, बैरिस्टरों की जूतियाँ सीधी की थीं, पर इस मूर्ख नोहरी के हाथ का खिलौना बने हुए थे। भौंहें सिकोड़ कर बोली – समय का फेर है, यहाँ आ गई, लेकिन अपनी आबरू न गवाँऊँगी।

ब्राह्मण सतेज हो उठा। मूँछें खड़ी करके बोला – तेरी ओर जो ताके, उसकी आँखें निकाल लूँ।

नोहरी ने लोहे को लाल करके घन जमाया – लाला पटेसरी जब देखो मुझसे बेबात की बात किया करते हैं। मैं हरजाई थोड़े ही हूँ कि कोई मुझे पैसे दिखाए। गाँव-भर में सभी औरतें तो हैं, कोई उनसे नहीं बोलता। जिसे देखो, मुझी को छेड़ता है।

नोखेराम के सिर पर भूत सवार हो गया। अपना मोटा डंडा उठाया और आँधी की तरह हरहराते हुए बाग में पहुँच कर लगे ललकारने – आ जा बड़ा मर्द है तो। मूँछें उखाड़ लूँगा, खोद कर गाड़ दूँगा! निकल आ सामने। अगर फिर कभी नोहरी को छेड़ा तो खून पी जाऊँगा। सारी पटवारगिरी निकाल दूँगा। जैसा खुद है, वैसा ही दूसरों को समझता है। तू है किस घमंड में?

लाला पटेश्वरी सिर झुकाए, दम साधे जड़वत खड़े थे। जरा भी जबान खोली और शामत आ गई। उनका इतना अपमान जीवन में कभी न हुआ था। एक बार लोगों ने उन्हें ताल के किनारे रात को घेर कर खूब पीटा था, लेकिन गाँव में उसकी किसी को खबर न हुई थी। किसी के पास कोई प्रमाण न था। लेकिन आज तो सारे गाँव के सामने उनकी इज्जत उतर गई। कल जो औरत गाँव में आश्रय माँगती आई थी, आज सारे गाँव पर उसका आतंक था। अब किसकी हिम्मत है, जो उसे छेड़ सके? जब पटेश्वरी कुछ नहीं कर सके, तो दूसरों की बिसात ही क्या!

अब नोहरी गाँव की रानी थी। उसे आते देख कर किसान लोग उसके रास्ते से हट जाते थे। यह खुला हुआ रहस्य था कि उसकी थोड़ी-सी पूजा करके नोखेराम से बहुत काम निकल सकता है। किसी को बँटवारा कराना हो, लगान के लिए मुहलत माँगनी हो, मकान बनाने के लिए जमीन की जरूरत हो, नोहरी की पूजा किए बगैर उसका काम सिद्ध नहीं हो सकता। कभी-कभी वह अच्छे-अच्छे असामियों को डाँट देती थी। असामी ही नहीं अब कारकुन साहब पर भी रोब जमाने लगी थी।

भोला उसका आश्रित बन कर न रहना चाहता था। औरत की कमाई खाने से ज्यादा अधम उसकी दृष्टि में दूसरा न था। उसे कुल तीन रुपए माहवार मिलते थे, वह भी उसके हाथ न लगते। नोहरी ऊपर ही ऊपर उड़ा लेती। उसे तमाखू पीने को धेला मयस्सर नहीं, और नोहरी दो आने रोज के पान खा जाती थी। जिसे देखो, वही उन पर रोब जमाता था। प्यादे उससे चिलम भरवाते, लकड़ी कटवाते, बेचारा दिन-भर का हारा-थका आता और द्वार पर पेड़ के नीचे झिंलगे खाट पर पड़ा रहता। कोई एक लुटिया पानी देने वाला भी नहीं। दोपहर की बासी रोटियाँ रात को खानी पड़तीं और वह भी नमक या पानी के साथ।

आखिर हार कर उसने घर जा कर कामता के साथ रहने का निश्चय किया। कुछ न होगा, एक टुकड़ा रोटी तो मिल ही जायगी, अपना घर तो है।

नोहरी बोली – मैं वहाँ किसी की गुलामी करने नहीं जाऊँगी।

भोला ने जी कड़ा करके कहा – तुम्हें जाने को तो मैं नहीं कहता। मैं तो अपने को कहता हूँ।

‘तुम मुझे छोड़ कर चले जाओगे? कहते लाज नहीं आती?’

‘लाज तो घोल कर पी गया।’

‘लेकिन मैंने तो अपनी लाज नहीं पी। तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकते।’

‘तू अपने मन की है, तो मैं तेरी गुलामी क्यों करूँ?’

‘पंचायत करके मुँह में कालिख लगा दूँगी, इतना समझ लेना।’

‘क्या अभी कुछ कम कालिख लगी है? क्या अब भी मुझे धोखे में रखना चाहती है?’

‘तुम तो ऐसा ताव दिखा रहे हो, जैसे मुझे रोज गहने ही तो गढ़वाते हो। तो यहाँ नोहरी किसी का ताव सहने वाली नहीं है।’

भोला झल्ला कर उठे और सिरहाने से लकड़ी उठा कर चले कि नोहरी ने लपक कर उनका पहुँचा पकड़ लिया। उसके बलिष्ठ पंजों से निकलना भोला के लिए मुश्किल था। चुपके से कैदी की तरह बैठ गए। एक जमाना था, जब वह औरतों को अँगुलियों पर नचाया करते थे, आज वह एक औरत के करपाश में बँधे हुए हैं और किसी तरह निकल नहीं सकते। हाथ छुड़ाने की कोशिश करके वह परदा नहीं खोलना चाहते। अपने सीमा का अनुमान उन्हें हो गया है। मगर वह क्यों उससे निडर हो कर नहीं कह देते कि तू मेरे काम की नहीं है, मैं तुझे त्यागता हूँ। पंचायत की धमकी देती है! पंचायत क्या कोई हौवा है, अगर तुझे पंचायत का डर नहीं, तो मैं क्यों पंचायत से डरूँ?

लेकिन यह भाव शब्दों में आने का साहस न कर सकता था। नोहरी ने जैसे उन पर कोई वशीकरण डाल दिया हो।
लाला पटेश्वरी पटवारी-समुदाय के सद्गुणों के साक्षात अवतार थे। वह यह न देख सकते थे कि कोई असामी अपने दूसरे भाई की इंच भर भी जमीन दबा ले। न वह यही देख सकते थे कि असामी किसी महाजन के रुपए दबा ले। गाँव के समस्त प्राणियों के हितों की रक्षा करना उनका परम धर्म था। समझौते या मेल-जोल में उनका विश्वास न था, यह तो निर्जीविता के लक्षण हैं! वह तो संघर्ष के उपासक थे, जो जीवन का लक्षण है। आए दिन इस जीवन को उत्तेजना देने का प्रयास करते रहते थे। एक-न-एक गुलझड़ी छोड़ते रहते थे। मँगरू साह पर इन दिनों उनकी विशेष कृपा-दृष्टि थी। मँगरू साह गाँव का सबसे धनी आदमी था, पर स्थानीय राजनीति में बिलकुल भाग न लेता था। रोब या अधिकार की लालसा उसे न थी। मकान भी उसका गाँव के बाहर था, जहाँ उसने एक बाग, एक कुआँ और एक छोटा-सा शिव-मंदिर बनवा लिया था। बाल-बच्चा कोई न था, इसलिए लेन-देन भी कम कर दिया था और अधिकतर पूजा-पाठ में ही लगा रहता था। कितने ही असामियों ने उसके रुपए हजम कर लिए थे, पर उसने किसी पर न नालिश-फरियाद न की। होरी पर भी उसके सूद-ब्याज मिला कर कोई डेढ़ सौ हो गए थे, मगर न होरी को ऋण चुकाने की कोई चिंता थी और न उसे वसूल करने की। दो-चार बार उसने तकाजा किया, घुड़का-डाँटा भी, मगर होरी की दशा देख कर चुप हो बैठा। अबकी संयोग से होरी की ऊख गाँव भर के ऊपर थी। कुछ नहीं तो उसके दो-ढाई सौ सीधे हो जाएँगे, ऐसा लोगों का अनुमान था। पटेश्वरीप्रसाद ने मँगरू को सुझाया कि अगर इस वक्त होरी पर दावा कर दिया जाय, तो सब रुपए वसूल हो जायँ। मँगरू इतना दयालु नहीं, जितना आलसी था। झंझट में पड़ना न चाहता था, मगर जब पटेश्वरी ने जिम्मा लिया कि उसे एक दिन भी कचहरी न जाना पड़ेगा, न कोई दूसरा कष्ट होगा, बैठे-बिठाए उसकी डिगरी हो जायगी, तो उसने नालिश करने की अनुमति दे दी, और अदालत-खर्च के लिए रुपए भी दे दिए।

होरी को खबर न थी कि क्या खिचड़ी पक रही है। कब दावा दायर हुआ, कब डिगरी हुई, उसे बिलकुल पता न चला। कुर्कअमीन उसकी ऊख नीलाम करने आया, तब उसे मालूम हुआ। सारा गाँव खेत के किनारे जमा हो गया। होरी मँगरू साह के पास दौड़ा और धनिया पटेश्वरी को गालियाँ देने लगी। उसकी सहज बुद्धि ने बता दिया कि पटेश्वरी ही की कारस्तानी है, मगर मँगरू साह पूजा पर थे, मिल न सके और धनिया गालियों की वर्षा करके भी पटेश्वरी का कुछ बिगाड़ न सकी। उधर ऊख डेढ़ सौ रुपए में नीलाम हो गई और बोली भी हो गई मँगरू साह ही के नाम। कोई दूसरा आदमी न बोल सका। दातादीन में भी धनिया की गालियाँ सुनने का साहस न था।

धनिया ने होरी को उत्तेजित करके कहा – बैठे क्या हो, जा कर पटवारी से पूछते क्यों नहीं, यही धरम है तुम्हारा गाँव-घर के आदमियों के साथ?

होरी ने दीनता से कहा – पूछने के लिए तूने मुँह भी रखा हो। तेरी गालियाँ क्या उन्होंने न सुनी होंगी?

‘जो गाली खाने का काम करेगा, उसे गालियाँ मिलेंगी ही।’

‘तू गालियाँ भी देगी और भाई-चारा भी निभाएगी।’

‘देखूँगी, मेरे खेत के नगीच कौन जाता है?’

‘मिल वाले आ कर काट ले जाएँगे, तू क्या करेगी, और मैं क्या करूँगा? गालियाँ दे कर अपने जीभ की खुजली चाहे मिटा ले।’

‘मेरे जीते-जी कोई मेरा खेत काट ले जायगा?’

‘हाँ, तेरे और मेरे जीते-जी। सारा गाँव मिल कर भी उसे नहीं रोक सकता। अब वह चीज मेरी नहीं, मँगरू साह की है।’

‘मँगरू साह ने मर-मर कर जेठ की दुपहरी में सिंचाई और गोड़ाई की थी?’

‘वह सब तूने किया, मगर अब वह चीज, मँगरू साह की है। हम उनके करजदार नहीं हैं?’

ऊख तो गई, लेकिन उसके साथ ही एक नई समस्या आ पड़ी। दुलारी इसी ऊख पर रुपए देने को तैयार हुई थी। अब वह किस जमानत पर रुपए दे? अभी उसके पहले ही के दो सौ रुपए पड़े हुए थे। सोचा था, ऊख से पुराने रुपए मिल जाएँगे, तो नया हिसाब चलने लगेगा। उसकी नजर में होरी की साख दो सौ तक थी। इससे ज्यादा देना जोखिम था। सहालग सिर पर था। तिथि निश्चित हो चुकी थी। गौरी महतो ने सारी तैयारियाँ कर ली होंगी। अब विवाह का टलना असंभव था। होरी को ऐसा क्रोध आता था कि जा कर दुलारी का गला दबा दे। जितनी चिरौरी-बिनती हो सकती थी, वह कर चुका, मगर वह पत्थर की देवी जरा भी न पसीजी। उसने चलते-चलते हाथ बाँध कर कहा – दुलारी, मैं तुम्हारे रुपए ले कर भाग न जाऊँगा। न इतनी जल्द मरा ही जाता हूँ। खेत हैं, पेड़-पालो हैं, घर है, जवान बेटा है। तुम्हारे रुपए मारे न जाएँगे, मेरी इज्जत जा रही है, इसे सँभालो। मगर दुलारी ने दया को व्यापार में मिलाना स्वीकार न किया। अगर व्यापार को वह दया का रूप दे सकती, तो उसे कोई आपत्ति न होती। पर दया को व्यापार का रूप देना उसने न सीखा था।

होरी ने घर आ कर धनिया से कहा – अब?

धनिया ने उसी पर दिल का गुबार निकाला – यही तो तुम चाहते थे!

होरी ने जख्मी आँखों से देखा – मेरा ही दोस है?

‘किसी का दोस हो, हुई तुम्हारे मन की।’

‘तेरी इच्छा है कि जमीन रेहन रख दूँ?’

‘जमीन रेहन रख दोगे, तो करोगे क्या?’

‘मजूरी’?

मगर जमीन दोनों को एक-सी प्यारी थी। उसी पर तो उनकी इज्जत और आबरू अवलंबित थी। जिसके पास जमीन नहीं, वह गृहस्थ नहीं, मजूर है।

होरी ने कुछ जवाब न पा कर पूछा – तो क्या कहती है?

धनिया ने आहत कंठ से कहा – कहना क्या है। गौरी बारात ले कर आयँगे। एक जून खिला देना। सबेरे बेटी विदा कर देना। दुनिया हँसेगी, हँस ले। भगवान की यही इच्छा है, कि हमारी नाक कटे, मुँह में कालिख लगे तो हम क्या करेंगे!

सहसा नोहरी चुँदरी पहने सामने से जाती हुई दिखाई दी। होरी को देखते ही उसने जरा-सा घूँघट-सा निकाल लिया। उससे समधी का नाता मानती थी।

धनिया से उसका परिचय हो चुका था। उसने पुकारा – आज किधर चलीं समधिन? आओ, बैठो।

नोहरी ने दिग्विजय कर लिया था और अब जनमत को अपने पक्ष में बटोर लेने का प्रयास कर रही थी। आ कर खड़ी हो गई।

धनिया ने उसे सिर से पाँव तक आलोचना की आँखों से देख कर कहा – आज इधर कैसे भूल पड़ीं?

नोहरी ने कातर स्वर में कहा – ऐसे ही तुम लोगों से मिलने चली आई। बिटिया का ब्याह कब तक है?

धनिया संदिग्ध भाव से बोली – भगवान के अधीन है, जब हो जाए।

‘मैंने तो सुना, इसी सहालग में होगा। तिथि ठीक हो गई है?’

‘हाँ, तिथि तो ठीक हो गई है।’

‘मुझे भी नेवता देना।’

‘तुम्हारी तो लड़की है, नेवता कैसा?’

‘दहेज का सामान तो मँगवा लिया होगा? जरा मैं भी देखूँ।’

धनिया असमंजस में पड़ी, क्या कहे। होरी ने उसे सँभाला – अभी तो कोई सामान नहीं मँगवाया है, और सामान क्या करना है, कुस-कन्या तो देना है।

नोहरी ने अविश्वास-भरी आँखों से देखा – कुस-कन्या क्यों दोगे महतो, पहली बेटी है, दिल खोल कर करो।

होरी हँसा, मानो कह रहा हो, तुम्हें चारों ओर हरा दिखाई देता होगा, यहाँ तो सूखा ही पड़ा हुआ है।

‘रुपए-पैसे की तंगी है, क्या दिल खोल कर करूँ। तुमसे कौन परदा है?’

‘बेटा कमाता है, तुम कमाते हो, फिर भी रुपए-पैसे की तंगी किसे बिस्वास आएगा?’

‘बेटा ही लायक होता, तो फिर काहे का रोना था। चिट्ठी-पत्तर तक भेजता नहीं, रुपए क्या भेजेगा? यह दूसरा साल है, एक चिट्ठी नहीं।’

इतने में सोना बैलों के चारे के लिए हरियाली का एक गट्ठर सिर पर लिए, यौवन को अपने अंचल से चुराती, बालिका-सी सरल, आई और गट्ठा वहीं पटक कर अंदर चली गई।

नोहरी ने कहा – लड़की तो खूब सयानी हो गई है।

धनिया बोली – लड़की की बाढ़ रेंड़ की बाढ़ है। है अभी कै दिन की!

‘बर तो ठीक हो गया है न?’

‘हाँ, बर तो ठीक है। रुपए का बंदोबस्त हो गया, तो इसी महीने में ब्याह कर देंगे।’

नोहरी दिल की ओछी थी। इधर उसने जो थोड़े-से रुपए जोड़े थे, वे उसके पेट में उछल रहे थे। अगर वह सोना के ब्याह के लिए कुछ रुपए दे दे, तो कितना यश मिलेगा। सारे गाँव में उसकी चर्चा हो जायगी। लोग चकित हो कर कहेंगे, नोहरी ने इतने रुपए दिए। बड़ी देवी है। होरी और धनिया दोनों घर-घर उसका बखान करते फिरेंगे। गाँव में उसका मान-सम्मान कितना बढ़ जायगा। वह ऊँगली दिखाने वालों का मुँह सी देगी। फिर किसकी हिम्मत है, जो उस पर हँसे, या उस पर आवाजें कसे? अभी सारा गाँव उसका दुश्मन है। तब सारा गाँव उसका हितैषी हो जायगा। इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल गई।

‘थोड़े-बहुत से काम चलता हो, तो मुझसे ले लो, जब हाथ में रुपए आ जायँ तो दे देना।’

होरी और धनिया दोनों ही ने उसकी ओर देखा। नहीं, नोहरी दिल्लगी नहीं कर रही है। दोनों की आँखों में विस्मय था, कृतज्ञता थी, संदेह था और लज्जा थी। नोहरी उतनी बुरी नहीं है, जितना लोग समझते हैं।

नोहरी ने फिर कहा – तुम्हारी और हमारी इज्जत एक है। तुम्हारी हँसी हो तो क्या मेरी हँसी न होगी? कैसे भी हुआ हो, पर अब तो तुम हमारे समधी हो।

होरी ने सकुचाते हुए कहा – तुम्हारे रुपए तो घर में ही हैं, जब काम पड़ेगा, ले लेंगे। आदमी अपनों ही का भरोसा तो करता है, मगर ऊपर से इंतजाम हो जाय, तो घर के रुपए क्यों छुए।

धनिया ने अनुमोदन किया – हाँ, और क्या!

नोहरी ने अपनापन जताया – जब घर में रुपए हैं, तो बाहर वालों के सामने हाथ क्यों फैलाओ? सूद भी देना पड़ेगा, उस पर इस्टाम लिखो, गवाही कराओ, दस्तूरी दो, खुसामद करो। हाँ, मेरे रुपए में छूत लगी हो, तो दूसरी बात है।

होरी ने सँभाला – नहीं, नहीं नोहरी, जब घर में काम चल जायगा तो बाहर क्यों हाथ फैलाएँगे, लेकिन आपस वाली बात है। खेती-बारी का भरोसा नहीं। तुम्हें जल्दी कोई काम पड़ा और हम रुपए न जुटा सके, तो तुम्हें भी बुरा लगेगा और हमारी जान भी संकट में पड़ेगी। इससे कहता था। नहीं, लड़की तो तुम्हारी है।

‘मुझे अभी रुपए की ऐसी जल्दी नहीं है।’

‘तो तुम्हीं से ले लेंगे। कन्यादान का फल भी क्यों बाहर जाए?’

‘कितने रुपए चाहिए?’

‘तुम कितने दे सकोगी?’

‘सौ में काम चल जायगा?’

होरी को लालच आया। भगवान ने छप्पर फाड़ कर रुपए दिए हैं, तो जितना ले सके, उतना क्यों न ले।

‘सौ में भी चल जायगा। पाँच सौ में भी चल जायगा। जैसा हौसला हो।’

‘मेरे पास कुल दो सौ रुपए हैं, वह मैं दे दूँगी।’

‘तो इतने में बड़ी खुसफेली से काम चल जायगा। अनाज घर में है, मगर ठकुराइन, आज तुमसे कहता हूँ, मैं तुम्हें ऐसी लच्छमी न समझता था। इस जमाने में कौन किसकी मदद करता है, और किसके पास है। तुमने मुझे डूबने से बचा लिया।’

दिया-बत्ती का समय आ गया था। ठंडक पड़ने लगी थी। जमीन ने नीली चादर ओढ़ ली थी। धनिया अंदर जा कर अंगीठी लाई। सब तापने लगे। पुआल के प्रकाश में छबीली, रंगीली, कुलटा नोहरी उनके सामने वरदान-सी बैठी थी। इस समय उसकी उन आँखों में कितनी सहृदयता थी, कपोलों पर कितनी लज्जा, होंठों पर कितनी सत्प्रेरणा!

कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करके नोहरी उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई घर चली – अब देर हो रही है। कल तुम आ कर रुपए ले लेना महतो!

‘चलो, मैं तुम्हें पहुँचा दूँ।’

‘नहीं-नहीं, तुम बैठो, मैं चली जाऊँगी।’

‘जी तो चाहता है, तुम्हें कंधों पर बैठा कर पहुँचाऊँ।’

नोखेराम की चौपाल गाँव के दूसरे सिरे पर थी, और बाहर-बाहर जाने का रास्ता साफ था। दोनों उसी रास्ते से चले। अब चारों ओर सन्नाटा था।

नोहरी ने कहा – तनिक समझा देते रावत को। क्यों सबसे लड़ाई किया करते हैं। जब इन्हीं लोगों के बीच में रहना है, तो ऐसे रहना चाहिए न कि चार आदमी अपने हो जायँ। और इनका हाल यह है कि सबसे लड़ाई, सबसे झगड़ा। जब तुम मुझे परदे में नहीं रख सकते, मुझे दूसरों की मजूरी करनी पड़ती है, तो यह कैसे निभ सकता है कि मैं न किसी से हँसूँ, न बोलूँ, न कोई मेरी ओर ताके, न हँसे। यह सब तो परदे में ही हो सकता है। पूछो, कोई मेरी ओर ताकता या घूरता है तो मैं क्या करूँ? उसकी आँखें तो नहीं फोड़ सकती। फिर मेल-मुहब्बत से आदमी के सौ काम निकलते हैं। जैसा समय देखो, वैसा व्यवहार करो। तुम्हारे घर हाथी झूमता था, तो अब वह तुम्हारे किस काम का? अब तो तुम तीन रुपए के मजूर हो। मेरे घर सौ भैंसें लगती थीं, लेकिन अब तो मजूरिन हूँ, मगर उनकी समझ में कोई बात आती ही नहीं। कभी लड़कों के साथ रहने की सोचते हैं, कभी लखनऊ जा कर रहने की सोचते हैं। नाक में दम कर रखा है मेरे।

होरी ने ठकुरसुहाती की – यह भोला की सरासर नादानी है। बूढ़े हुए, अब तो उन्हें समझ आनी चाहिए। मैं समझा दूँगा।

‘तो सबेरे आ जाना, रुपए दे दूँगी।’

‘कुछ लिखा-पढ़ी…….।’

‘तुम मेरे रुपए हजम न करोगे, मैं जानती हूँ।’

उसका घर आ गया था। वह अंदर चली गई। होरी घर लौटा।
गोबर को शहर आने पर मालूम हुआ कि जिस अड्डे पर वह अपना खोंचा ले कर बैठता था, वहाँ एक दूसरा खोंचे वाला बैठने लगा है और गाहक अब गोबर को भूल गए हैं। वह घर भी अब उसे पिंजरे-सा लगता था। झुनिया उसमें अकेली बैठी रोया करती। लड़का दिन-भर आँगन में या द्वार पर खेलने का आदी था। यहाँ उसके खेलने को कोई जगह न थी। कहाँ जाय? द्वार पर मुश्किल से एक गज का रास्ता था। दुर्गंध उड़ा करती थी। गरमी में कहीं बाहर लेटने-बैठने को जगह नहीं। लड़का माँ को एक क्षण के लिए न छोड़ता था। और जब कुछ खेलने को न हो, तो कुछ खाने और दूध पीने के सिवा वह और क्या करे? घर पर भी कभी धनिया खेलाती, कभी रूपा, कभी सोना, कभी होरी, कभी पुनिया। यहाँ अकेली झुनिया थी और उसे घर का सारा काम करना पड़ता था।

और गोबर जवानी के नशे में मस्त था। उसकी अतृप्त लालसाएँ विषय-भोग के सफर में डूब जाना चाहती थीं। किसी काम में उसका मन न लगता। खोंचा ले कर जाता, तो घंटे-भर ही में लौट आता। मनोरंजन का कोई दूसरा सामान न था। पड़ोस के मजूर और इक्केवान रात-रात भर ताश और जुआ खेलते थे। पहले वह भी खूब खेलता था, मगर अब उसके लिए केवल मनोरंजन था, झुनिया के साथ हास-विलास। थोड़े ही दिनों में झुनिया इस जीवन से ऊब गई। वह चाहती थी, कहीं एकांत में जा कर बैठे, खूब निश्चिंत हो कर लेटे-सोए, मगर वह एकांत कहीं न मिलता। उसे अब गोबर पर गुस्सा आता। उसने शहर के जीवन का कितना मोहक चित्र खींचा था, और यहाँ इस काल-कोठरी के सिवा और कुछ नहीं। बालक से भी उसे चिढ़ होती थी। कभी-कभी वह उसे मार कर निकाल देती और अंदर से किवाड़ बंद कर लेती। बालक रोते-रोते बेदम हो जाता।

उस पर विपत्ति यह कि उसे दूसरा बच्चा पैदा होने वाला था। कोई आगे न पीछे। अक्सर सिर में दर्द हुआ करता। खाने से अरुचि हो गई थी। ऐसी तंद्रा होती थी कि कोने में चुपचाप पड़ी रहे। कोई उससे न बोले-चाले, मगर यहाँ गोबर का निष्ठुर प्रेम स्वागत के लिए द्वार खटखटाता रहता था। स्तन में दूध नाम को नहीं, लेकिन लल्लू छाती पर सवार रहता था। देह के साथ उसका मन भी दुर्बल हो गया। वह जो संकल्प करती, उसे थोड़े-से आग्रह पर तोड़ देती। वह लेटी रहती और लल्लू आ कर जबरदस्ती उसकी छाती पर बैठ जाता और स्तन मुँह में ले कर चबाने लगता। वह अब दो साल का हो गया था। बड़े तेज दाँत निकल आए थे। मुँह में दूध न जाता, तो वह क्रोध में आ कर स्तन में दाँत काट लेता, लेकिन झुनिया में अब इतनी शक्ति भी न थी कि उसे छाती पर से ढकेल दे। उसे हरदम मौत सामने खड़ी नजर आती। पति और पुत्र किसी से भी उसे स्नेह न था। सभी अपने मतलब के यार हैं। बरसात के दिनों में जब लल्लू को दस्त आने लगे तो उसने दूध पीना छोड़ दिया, तो झुनिया को सिर से एक विपत्ति टल जाने का अनुभव हुआ, लेकिन जब एक सप्ताह के बाद बालक मर गया, तो उसकी स्मृति पुत्र-स्नेह से सजीव हो कर उसे रुलाने लगी।

और जब गोबर बालक के मरने के एक ही सप्ताह बाद फिर आग्रह करने लगा, तो उसने क्रोध में जल कर कहा – तुम कितने पशु हो!

झुनिया को अब लल्लू की स्मृति लल्लू से भी कहीं प्रिय थी। लल्लू जब तक सामने था, वह उससे जितना सुख पाती थी, उससे कहीं ज्यादा कष्ट पाती थी। अब लल्लू उसके मन में आ बैठा था, शांत, स्थिर, सुशील, सुहास। उसकी कल्पना में अब वेदनामय आनंद था, जिसमें प्रत्यक्ष की काली छाया न थी। बाहर वाला लल्लू उसके भीतर वाले लल्लू का प्रतिबिंब मात्र था। प्रतिबिंब सामने न था, जो असत्य था, अस्थिर था। सत्य रूप तो उसके भीतर था, उसकी आशाओं और शुभेच्छाओं से सजीव। दूध की जगह वह उसे अपना रक्त पिला-पिला कर पाल रही थी। उसे अब वह बंद कोठरी, और वह दुर्गंधमयी वायु और वह दोनों जून धुएँ में जलना, इन बातों का मानो ज्ञान ही न रहा। वह स्मृति उसके भीतर बैठी हुई जैसे उसे शक्ति प्रदान करती रहती। जीते-जी जो उसके जीवन का भार था, मर कर उसके प्राणों में समा गया था। उसकी सारी ममता अंदर जा कर बाहर से उदासीन हो गई। गोबर देर में आता है या जल्द, रूचि से भोजन करता है या नहीं, प्रसन्न है या उदास, इसकी अब उसे बिलकुल चिंता न थी। गोबर क्या कमाता है और कैसे खर्च करता है, इसकी भी उसे परवा न थी। उसका जीवन जो कुछ था, भीतर था, बाहर वह केवल निर्जीव थी।

उसके शोक में भाग ले कर, उसके अंतर्जीवन में पैठ कर, गोबर उसके समीप जा सकता था, उसके जीवन का अंग बन सकता था, पर वह उसके बाह्य जीवन के सूखे तट पर आ कर ही प्यासा लौट जाता था।

एक दिन उसने रूखे स्वर में कहा – तो लल्लू के नाम को कब तक रोए जायगी! चार-पाँच महीने तो हो गए।

झुनिया ने ठंडी साँस ले कर कहा – तुम मेरा दु:ख नहीं समझ सकते। अपना काम देखो। मैं जैसी हूँ, वैसी पड़ी रहने दो।

‘तेरे रोते रहने से लल्लू लौट आएगा?’

झुनिया के पास कोई जवाब न था। वह उठ कर पतीली में कचालू के लिए आलू उबालने लगी। गोबर को ऐसा पाषाण-हृदय उसने न समझा था।

इस बेदर्दी ने उसके लल्लू को उसके मन में और भी सजग कर दिया। लल्लू उसी का है, उसमें किसी का साझा नहीं, किसी का हिस्सा नहीं। अभी तक लल्लू किसी अंश में उसके हृदय के बाहर भी था, गोबर के हृदय में भी उसकी कुछ ज्योति थी। अब वह संपूर्ण रूप से उसका था।

गोबर ने खोंचे से निराश हो कर शक्कर के मिल में नौकरी कर ली थी। मिस्टर खन्ना ने पहले मिल से प्रोत्साहित हो कर हाल में यह दूसरा मिल खोल दिया था। गोबर को वहाँ बड़े सबेरे जाना पड़ता, और दिन-भर के बाद जब वह दिया-जले घर लौटता, तो उसकी देह में जरा भी जान न रहती थी। घर पर भी उसे इससे कम मेहनत न करनी पड़ती थी, लेकिन वहाँ उसे जरा भी थकन न होती थी। बीच-बीच में वह हँस-बोल भी लेता था। फिर उस खुले मैदान में, उन्मुक्त आकाश के नीचे, जैसे उसकी क्षति पूरी हो जाती थी। वहाँ उसकी देह चाहे जितना काम करे, मन स्वच्छंद रहता था। यहाँ देह की उतनी मेहनत न होने पर भी जैसे उस कोलाहल, उस गति और तूफानी शोर का उस पर बोझ-सा लदा रहता था। यह शंका भी बनी रहती थी कि न जाने कब डाँट पड़ जाए। सभी श्रमिकों की यही दशा थी। सभी ताड़ी या शराब में अपने दैहिक थकन और मानसिक अवसाद को डुबाया करते थे। गोबर को भी शराब का चस्का पड़ा। घर आता तो नशे में चूर, और पहर रात गए। और आ कर कोई-न-कोई बहाना खोज कर झुनिया को गालियाँ देता, घर से निकालने लगता और कभी-कभी पीट भी देता।

झुनिया को अब यह शंका होने लगी कि वह रखेली है, इसी से उसका यह अपमान हो रहा है। ब्याहता होती, तो गोबर की मजाल थी कि उसके साथ यह बर्ताव करता। बिरादरी उसे दंड देती, हुक्का-पानी बंद कर देती। उसने कितनी बड़ी भूल की कि इस कपटी के साथ घर से निकल भागी। सारी दुनिया में हँसी भी हुई और हाथ कुछ न आया। वह गोबर को अपना दुश्मन समझने लगी। न उसके खाने-पीने की परवा करती, न अपने खाने-पीने की। जब गोबर उसे मारता, तो उसे ऐसा क्रोध आता कि गोबर का गला छुरे से रेत डाले। गर्भ ज्यों-ज्यों पूरा होता जाता है, उसकी चिंता बढ़ती जाती है। इस घर में तो उसकी मरन हो जायगी। कौन उसकी देखभाल करेगा, कौन उसे सँभालेगा? और जो गोबर इसी तरह मारता-पीटता रहा, तब तो उसका जीवन नरक ही हो जायगा।

एक दिन वह बंबे पर पानी भरने गई, तो पड़ोस की एक स्त्री ने पूछा – कै महीने है रे?

झुनिया ने लजा कर कहा – क्या जाने दीदी, मैंने तो गिना-गिनाया नहीं है।

दोहरी देह की, काली-कलूटी, नाटी, कुरूपा, बड़े-बड़े स्तनों वाली स्त्री थी। उसका पति एक्का हाँकता था और वह खुद लकड़ी की दुकान करती थी। झुनिया कई बार उसकी दुकान से लकड़ी लाई थी। इतना ही परिचय था।

मुस्करा कर बोली – मुझे तो जान पड़ता है, दिन पूरे हो गए हैं। आज ही कल में होगा। कोई दाई-वाई ठीक कर ली है?

झुनिया ने भयातुर स्वर में कहा – मैं तो यहाँ किसी को नहीं जानती।

‘तेरा मर्दुआ कैसा है, जो कान में तेल डाले बैठा है?’

‘उन्हें मेरी क्या फिकर!’

‘हाँ, देख तो रही हूँ। तुम तो सौर में बैठोगी, कोई करने-धरने वाला चाहिए कि नहीं? सास-ननद, देवरानी-जेठानी, कोई है कि नहीं? किसी को बुला लेना था।’

‘मेरे लिए सब मर गए।’

वह पानी ला कर जूठे बरतन माँजने लगी, तो प्रसव की शंका से हृदय में धड़कनें हो रही थीं। सोचने लगी – कैसे क्या होगा भगवान? उँह! यही तो होगा, मर जाऊँगी, अच्छा है, जंजाल से छूट जाऊँगी।

मुसी प्रेमचंद द्वारा लिखित

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