विवशता, कोमलता, आक्रान्त एवं संवेदनात्मक स्पंदन जैसे सूक्ष्म प्राकृतिक रूपों में प्रत्यक्ष स्त्री के मानसिक, दैहिक और वैचारिक मनोभावों को खोजने और समझने का प्रयास करतीं डॉ० रंजना जयसवाल की कवितायें…….
एक अकेली स्त्री से मिलकर

डॉ० रंजना जयसवाल
पुरूष
उसकी चाल-चलन में बदचलनी
हाव-भाव में छाव
हँसी में फंसाव
मुस्कुराहट में आमंत्रण देखते हैं
उसकी देह और सम्पत्ति ऐसी लावारिस
कीमती वस्तु होती है
जिसे लपकने को सब झपटते हैं
हाँ,उसका मन बेजान वस्तु की तरह
उपेक्षित होता है सबके लिए
वह स्त्रियों के लिए खतरा होती है
पुरूषों के लिए प्रलोभन
उसकी उपलब्धियां दूसरों की कृपा
असफलता उसका अपना दोष
कोई उसकी कमी को नहीं पुरता
जो लबालब है उसे पाने को ललकता है
अपने-पराये सभी करते हैं उससे
बुढ़ापे और मृत्यु की बातें
ताकि उसका यौवन और जीवन
उनके इशारों का मुहताज बनकर रह जाए
कोई नहीं समझना चाहता
सामजिक प्राणी अकेली स्त्री के
असामाजिक हो जाने की व्यथा-कथा
यहाँ तक की स्त्रियाँ भी
मुझे लगता है
शायद स्त्रियाँ उससे नहीं
अपने-आप से नाराज रहती हैं
कि नहीं कर सकतीं वे सब
जो कर गुजरती है अकेली स्त्री
वे सब असहय सहती हैं
पाले रहतीं हैं जीवन में कई-कई रोग
क्योंकि अकेली होने से डरती हैं
असुविधाओं और बुढापे से डरती हैं
डरती हैं उन उपाधियों के छीन लिए जाने से
जो उन्हें अच्छी और अकेली स्त्री को
बुरी के कटघरे में ला खड़ा करता है
वे अपनी असामयिक मृत्यु से भी
गौरवान्वित होती हैं
कि सतीत्व की बेदी पर दिए गए
उनकी बलि को सराहेगी
आने वाली नस्लें
अकेली स्त्री उन्हें इसलिए भयभीत करती है
कि बेदर्दी से काटकर फेंक देती है
असाध्य रोग से ग्रस्त अंग को
बुरी स्त्री कहलाने से नहीं डरती
अकेली होने से नहीं डरती |
सेमल

google से साभार
साँवली देह पर
लाल फूलों वाला
हरा कुरता पहने
रंगीला लग रहा है सेमल
छेड़ रही है भाभी हवा
चूम रही है प्रिया धूप
चिड़ियाँ बहनें गीत गा रही हैं
बहनोई कौओं को
मकरंद पीने से ही फुरसत नहीं
खिलखिला रहा है सेमल
बसंत के आते ही
अभी कल तक नंग-धडंग खड़ा था
तानाशाह शिशिर ने छीन लिए थे
हरे वस्त्र
ठंड से काला पड़ गया था साँवला शरीर
आज कितना सलोना लग रहा हँ
वही काला रंग
हरे और लाल के बीच
भूला नहीं है सेमल
शिशिर की ज्यादती
लाल फूलों में क्रोध की ऊष्मा है
ऊष्मा जो ढल रही है धीरे-धीरे
फलों के भीतर रूई की शक्ल में
शिशिर के विरोध का
गांधीवादी तरीका है यह
सेमल का |
फागुन
कत्थई देह पर
गुलाबी…धानी हरे और पीले शेड्स वाले
फागुनी कपड़े पहने
साँवली बाहों में लाल फूलों की पिचकारी उठाए
आकाश को रंग रहा है सेमल
खुश है
कि इस फागुन में
पूरा कुनबा है साथ
बाल-युवा-वृद्ध पत्ते
कलियाँ-फूल सब
चींटे..भ्रमर ..कौओं जैसे
अतिथियों की भी आगत है
फागुन तुम्हारा स्वागत है |
नीम के फूल

गूगल से साभार
नीम के दिन भी बहुरे हैं
उसकी नाजुक छरहरी टहनियों में
नए सुकुमार गुलाबी-धानी-हरे पत्ते ही नहीं
भुने रामदानों से खिले,नन्हें,नाजुक
भारहीन फूल भी आए हैं
जो गुच्छों में पतली सींकों के सहारे
हवा के झूले पर झूल रहे हैं
जाने कहाँ-कहाँ से आईं
एकरंग और बहुरंगी तितलियाँ
आहिस्ते से बैठकर उन फूलों पर
चूस रही हैं मकरंद
अपने पंखों को इतनी कोमलता से वे
फैलाती-सिकोड़ती हैं
कि उनके भार से टूटते नहीं
नीम के कोमलतम फूल
थोड़ा लरज जरूर जाते हैं
कल तक बदनाम था नीम अपनी कड़वाहट से
आज मिठास की गंध से
खींच रहा है तितलियों,चींटों और मधुमक्खियों को
कल उसके फूल बदल जायेंगे फल में
तब आयेंगे कई तरह के पक्षी भी
निम्बोरी का कषाय-मीठा स्वाद चखने
सिखाता है नीम कि कड़वे लोगों से भी
पा सकते हैं मनचाहा प्यार
बस तितलियों-सी समझ चाहिए |
प्रेम का दुख
वह पहला प्रेम नहीं था
जाने कैसे आखिरी बन गया
पाप कहो पुण्य कहो
गलत या सही जो भी नाम दो
किया तो किया प्रेम ही
अपने ख्यालों के एकांत में
खींच लाई उसे भी
जैसे दुख से बचने का इससे बेहतर
कोई उपाय ही न हो
दुख जो जन्मा था मेरे साथ ही
प्रतिद्वंदी रहा हर मोड पर
हारती रही थी उससे
प्रेम से हार गया दुख
पर बदले में दे गया
जीवन भर का दुख |
जबकि तुम

google से साभार
जबकि तुम
चले गए हो कब के बिखेर कर
जिंदगी के कैनवस पर ताजा रंग
शहर में तुम्हारी गंध
फैली है अभी भी
हर आयोजन में
अखबार के पन्नों में
ढूँढती हूँ तुम्हें
नींद में मिलती हूँ
लगभग रोज
आज भी उसी आवेग से
जबकि चले गए हो तुम
कब के
अब जब कि तुम चले गए हो
नहीं टपकती तुम्हारी बातें
पके फल की तरह
नहीं गूँजता मन में
मादक संगीत
झुक गए हैं फूलों के चेहरे
झर गया है पत्तियों से संगीत
नहीं उतरती
अब कोई साँवली साँझ
मन की मुंडेर पर.