लकीरें— एवं अन्य कविताएँ (रवि सिंह)

कविता कविता

रवि सिंह 182 11/18/2018 12:00:00 AM

संवेदनाएं किसी सीमा, रेखा, पद, प्रतिष्ठा या क़ानून की बंदिश से ऊपर वह मानवीय गुण है जो इंसानी दृष्टि से शुरू होकर प्रेम और करुणा तक जाता है और सम्पूर्ण समाज जगत को अपने भीतर बसे होने का एहसास जगाता है | रवि सिंह की कवितायें उसी मानवीय गुण के साथ संवेदनाओं को छूकर निकलती हैं | – संपादक

लकीरें— 

रवि सिंह

रवि सिंह

एक बड़ी लकीर खीच रही हैं
मेरे दोस्त ,
तुम्हारे और मेरे बीच
आने वाले मौसम मे ,
न मै सेवइयां खावूंगा
न तुम होली की गुझिया
तुम्हारे साथ पी हुई चाय अब फीकी लग रही हैं

दोस्त हमारे रिश्तों से बड़े नारे हो गए हैं,
मैंने वो मन्नत के धागे खोल लिए हैं, जो मज़ार पर बांधे थे

लेकिन
वो मजे चले गए जो तुम्हारे साथ थे,
वो इफ्तारियों के खजूर
वो पतंगबाज़ी
उर्दू अदब की मिठास।
मेरे दोस्त हमे कुछ करना होगा
इससे पहले की, तुमको मै नूर मिया* की तरह याद रखूँ।

जेल की दीवारों के दोनों तरफ-

एक पूरी दुनिया इंतज़ार करती हैं
दीवार के दोनों ओर
वो जो तुमसे मिलने खड़े हैं
पीठ पर झोला टाँगे
हड्डियों में चिपके मांस को ढोते
बंदी रक्षकों से रिरियाते

पता नही सजा कौन पा रहा हैं
तुम या
वो जो तुम्हारे इंतज़ार में खड़े रहते हैं या
घरों में दुबके हैं

अक्सर ऐसा होता हैं
तुम रेप या मर्डर के आरोपी होते हो
तुम पर दया करना
मानवता पर अपराध हैं
लेकिन तुम्हारी सुनी आँखों का इंतज़ार
मुझे दुःख दे रहा हैं।

मौसम और तुम

अब जबकि ठण्ड ,
कम्बल और कोहरा बनकर
लिपट रही हैं,मेरे शहर मे

तुम्हारे गाँव मे यह जाड़ा,
छतों पर मोती सा पसर रहा होगा,
मेरी यादों के पिटारे,
क्या तुम्हारी संदूकों से गर्म शालों की तरह निकले होंगे,

शाम के धुँधलके में ,तुम्हारे साथ चलने का सुख
और थक कर पी हुई खूब मीठी चाय,
क्या चाय ही मीठी थी?

आज अभी जब अपने को छूता हूँ,
क्या मैं वही हूँ?
भूत और भविष्य में घिरा हुआ।

रवि सिंह द्वारा लिखित

रवि सिंह बायोग्राफी !

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