‘उत्तमी की माँ’ एक विमर्श की माँग: समीक्षा (साक्षी)

कथा-कहानी समीक्षा

साक्षी 2199 11/18/2018 12:00:00 AM

पुरुषसत्तात्मक समाज में लड़की का नैतिकता पूर्ण आचरण व स्वयं को पुरुष के आनंद की वस्तु बनाना स्त्री की नियति है और ऐसा ही उसका मनोविज्ञान भी बनता है। सिमोन द बोउवार कहती है’’ स्त्री बनती नहीं बनाई जाती है’ और ‘‘औरत अपने मनोग्रन्थियों’ के योग से सोचती है’’। इस पुरुषवादी राजनीति का उद्घाटन हमें उत्तमी में दिखता है। वह अपने को पुरुष के पसंद की नहीं तो कम से कम उसके काम की वस्तु बनाना चाहती है। व अपने इस आचरण से जहां आक्षेपों का सामना करना पड़ता है वहीं वह मन ही मन संतुष्ट महसूस करती है। वहीं जब इसे विद्रोह का मौन रास्ता व साधना के माध्यम से अपने आप को कष्ट देने में ढूंढ़ती है तो वह भी समाज को स्वीकार्य नहीं। एक प्रश्न यहां ये भी उठता है कि समाज हर बुरे कार्यों के लिए स्त्री को ही दोष क्यों देता है। उन लड़कों कि जो उत्तमी के जीवन में आए बराबर की जिम्मेदारी है उनको समाज निरपराधी कैसे छोड़ देता है। सालिगराम जिसकी पत्नी व बच्चे हैं और धनीराम जिसका भी एक परिवार है अपने परिवारों के प्रति कृतध्नता का उनको दोष क्यों नहीं मिला। वह इसलिए कि औरत का अस्तित्व व पोषण पुरुष के नाम से ही जुड़ा है। यह आश्रयता स्त्री का सबसे बड़ा शोषण व रणनीति है। इसी का शिकार उत्तमी भी हुई। ‘यशपाल’ की कहानी पर शोधार्थी ‘साक्षी’ का आलेख ….

‘उत्तमी की माँ’ एक विमर्श की माँग 

साक्षी

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यशपाल जितना अपने क्रांतिकारी जीवन व कार्यों के लिए प्रसिद्ध है उतना ही क्रांतिकारी उनका लेखन भी है। यद्यपि अपने लेखन की विषय वैविध्यता, उनका मार्क्सवादी पक्ष, उनकी फ्रायडवादी अपील के लिए भी जहां उनकी प्रशंसा हुई वहां उनको कई आरोपों का सामना भी करना पड़ा। परन्तु उनका लेखन पाठकों के समक्ष कई प्रश्न रखता है जिनकी कई कड़ी आज तक खुलती मिलती है। ऐसे ही यशपाल की एक कहानी है ‘उत्तमी की माँ’। यह पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री की छिपी काम भावना व इससे लिपटी अनेक वर्जनाओं की कहानी है।

उत्तमी जो छोटे पन में ही शीतला के प्रकोप में आ गई, जिसके निशान उसके आगामी जीवन को भी प्रभावित करते रहे। उसकी सगाई टूट गई और सारा दोष उसकी कुरुपता पर आया। समाज की सुन्दर वस्तु की माँग पूरी करना अब उत्तमी के लिए संभव न था। घटना का उस पर ऐसा मानसिक प्रभाव पड़ा कि जहाँ खिड़की से झांकते लड़को से वह परेशान हो जाती थी अब वह उसी खिड़की पर बैठी रहती। कोई उसे चाहे, कोई उसकी तारीफ करे इसी चाह में लगी रहती। उत्तमी की विधवा माँ ने घर खर्च चलाने के लिए किराएदार रखे। अपने ही किराएदार कभी शिवराम से व उसके निकाले जाने के बाद दो छोटी लड़कियों के पिता सालिगराम में उसे इस प्रेम या कामुकता का अवलंब दिखा। दिनोंदिन बढ़ती इन घटनाओं से घर में कलह बढ़ने लगा। उत्तमी की माँ ने मामा के घर का रूख किया तो उत्तमी की वजह से उस घर से भी कलेश होने लगा। फिर घर में बंद माँ और भाई के पहरे लगा दिए गए। उत्तमी की माँ उस पर अच्छा प्रभाव डालने के लिए सत्संग ले गई। लेकिन उसका उल्टा ही प्रभाव पड़ा। वैरागिन को समाधि में देख उसने ‘‘इच्छा का दमन करो। मन सबसे बड़ा शत्रु है। मन को मारो।’’ यह मार्ग शारीरिक कष्ट का मार्ग था। धीरे-धीरे स्वयं को गलाने व खत्म करने का। लड़की की हालत देख माँ जो पहले बंधन लगाती थी अब अवसर देने लगी। परन्तु उत्तमी अब तो केवल अपनी शरीर कष्ट में सुख अनुभव करती व अंत में अपने प्राण दे दिए।

यह पूरी कहानी उत्तमी की मनोग्रंथि को दिखाती है। पुरुषसत्तात्मक समाज में लड़की का नैतिकता पूर्ण आचरण व स्वयं को पुरुष के आनंद की वस्तु बनाना स्त्री की नियति है और ऐसा ही उसका मनोविज्ञान भी बनता है। सिमोन द बोउवार कहती है’’ स्त्री बनती नहीं बनाई जाती है’ और ‘‘औरत अपने मनोग्रन्थियों’ के योग से सोचती है’’। इस पुरुषवादी राजनीति का उद्घाटन हमें उत्तमी में दिखता है। वह अपने को पुरुष के पसंद की नहीं तो कम से कम उसके काम की वस्तु बनाना चाहती है। व अपने इस आचरण से जहां आक्षेपों का सामना करना पड़ता है वहीं वह मन ही मन संतुष्ट महसूस करती है। वहीं जब इसे विद्रोह का मौन रास्ता व साधना के माध्यम से अपने आप को कष्ट देने में ढूंढ़ती है तो वह भी समाज को स्वीकार्य नहीं।

एक प्रश्न यहां ये भी उठता है कि समाज हर बुरे कार्यों के लिए स्त्री को ही दोष क्यों देता है। उन लड़कों कि जो उत्तमी के जीवन में आए बराबर की जिम्मेदारी है उनको समाज निरपराधी कैसे छोड़ देता है। सालिगराम जिसकी पत्नी व बच्चे हैं और धनीराम जिसका भी एक परिवार है अपने परिवारों के प्रति कृतध्नता का उनको दोष क्यों नहीं मिला। वह इसलिए कि औरत का अस्तित्व व पोषण पुरुष के नाम से ही जुड़ा है। यह आश्रयता स्त्री का सबसे बड़ा शोषण व रणनीति है। इसी का शिकार उत्तमी भी हुई।
कहानी में सन्यासिनों, वैरागिनों के जीवन से जुड़े भी कई सवाल दिमाग में आते है। कुछ सन्यासिनें ऐसी होती हैं जो ईश्वर की खोज में निकलती है। परन्तु ऐसी बहुत कम है क्योंकि औरतों के ईश्वर पुरुष (पति, पिता, भाई) ही हुआ करते हैं। उन्हीं की आश्रयता की स्वीकृति का पाठ पढ़ाया जाता है। अन्य वैरागिनें समाज से प्रताड़ित होती है जिनके पास सम्मान जनक जीवन जीने का इससे अच्छा मार्ग नहीं हो सकता। कुछ उत्तमी की तरह मनोग्रंथि के चलते ऐसा जीवन स्वीकारती है। यह ऐसी राजनीति है जो स्त्री को इच्छित जीवन जीने का भी अवसर प्रदान नहीं करती। आज भी वृंदावन में अनेक ऐसी स्त्रियां है जो निर्वासित या किसी कुप्रथा या अन्य समाज की समस्याओं के कारण ऐसा जीवन जीने को मजबूर होती है। यह कहानी एक विमर्श को माँग देती है जो इस पुरुषवादी सत्ता के खिलाफ विद्रोह व अपनी इच्छा से चयनित जीवन जीने का विकल्प दे सके।

साक्षी द्वारा लिखित

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