यूं तो कोई भी इतिहास सत्ता लौलुपताओं से उत्पन्न, वर्गीय संघर्षों से रक्त-रंजित, मानवीय त्रासदियों के बड़े दस्तावेज के रूप में ही मिलता है | कुछ इतिहास सभ्यताओं की तरह ज़मीदोज़ हैं, हो गये या फिर कर दिए गए, यह सब खुद इतिहास बनकर वक़्त की स्मृतियों में दर्ज है | वहीँ कुछ, स्मृतियों में तारीखों में होते रहे बदलावों, साजिशों, घटनाओं के साथ मानवीय अवशेषों को खुद में समेटे आज भी अनिर्णीत रूप में जीवंत हैं | इन्हीं में से, सैकड़ों वर्षों की लम्बी यात्रा कर चुका ‘कश्मीर’ महज़ एक शब्द या एक राज्य का नाम भर नहीं बल्कि वक़्त के क्रूर थपेड़ों से जूझते हुए यहाँ तक पहुंचा एक ऐसा पथिक है जो अपने समय की झोली में संस्कृति, परम्पराएं, लालच, युद्ध, टीस-कराहटें, चीख-पुकार, गीत-संगीत, धारणाओं और किम्ब्दंतियों का बड़ा खजाना अपनी धरोहर के रूप लिए हुए है…… | अन्याय इतिहासों की तरह जीवंत कश्मीर के कृति-विकृत बदलाव झेलते सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक चेहरे को अनेक इतिहासकार स-समय लिपिवद्ध भी करते रहे | इसी कश्मीर के ऐतिहासिक दस्तावेजों और संदर्भों से शोध-दृष्टि के साथ गुज़रते हुए “अशोक कुमार पाण्डेय” “कश्मीरनामा: इतिहास की क़ैद में भविष्य” शीर्षक से किताब लिख रहे हैं | कई वर्षों की लम्बी मेहनत के बाद, मूर्त रूप लेती यह किताब भी जल्द ही हमारे सामने होगी किन्तु इससे पूर्व ‘अशोक कुमार पाण्डेय’ द्वारा लिखा गया ‘कश्मीर : एक संक्षिप्त इतिहास’ आलेख यहाँ पढ़ते हैं | संक्षिप्त रूप में लिखे जाने के बावजूद भी बड़े बन पड़े इस आलेख को हम यहाँ साप्ताहिक किस्तों के रूप में आपके समक्ष लाते रहेंगे | – संपादक
कश्मीर : एक संक्षिप्त इतिहास
अशोक कुमार पांडेय
कश्मीर भारतीय उपमहाद्वीप का वह इकलौता क्षेत्र है जिसका इतिहास लिखित रूप में अबाध, श्रेणीबद्ध और उपलब्ध है.[i] कल्हण द्वारा लिखी गई “राजतरंगिणी” कश्मीर के राजवंशों और राजाओं का प्रमाणिक दस्तावेज़ है जिसमें उन्होंने 1184 ईसापूर्व के राजा गोनंद से लेकर अपने समकालीन राजा विजयसिम्हा (1129 ईसवी) तक का कालानुक्रमिक वर्णन दर्ज किया है. कश्मीर में इतिहास लेखन की परम्परा कल्हण के बाद भी फली फूली. पंद्रहवीं सदी में जोनाराजा ने “द्वितीय राजतरंगिणी” लिखी जिसे उन्होंने वहां से शुरू किया जहाँ कल्हण ने अपनी पुस्तक समाप्त की थी और इसे जैन-उल-आब्दीन तक लेकर आये. हालाँकि जैन-उल-आब्दीन के जीवनकाल में ही जोनाराजा गुज़र गए तो उनके काम को उनके शिष्य पंडित श्रीवर ने 1486 में फाह शाह के गद्दीनशीन होने तक बढ़ाया. इसके बाद प्राज्ञ भट्ट ने “राजावलीपतक” लिखी जो 1588 में अकबर के आधिपत्य तक का इतिहास है.[ii] इसके अलावा फ़ारसी विद्वानों ने भी समकालीन इतिहास पर महत्त्वपूर्ण किताबें लिखी हैं.
कश्मीर के उद्भव का वर्णन नीलमत पुराण में है जिसके अनुसार कल्प के आरंभ में घाटी कई सौ फीट गहरी सतीसर नामक झील थी जिसमें जलोद्भव नामक एक राक्षस रहता था. उसने झील के रक्षक नागों को आतंकित किया हुआ था. सातवें मनु के समय नागकुल के गुरु कश्यप मुनि जब हिमालय की तीर्थयात्रा पर आये तो उन्होंने जलोद्भव के अत्याचारों के बारे में ब्रह्मा से शिकायत की. ब्रह्मा के आदेश पर देवताओं ने झील को घेर लिया. लेकिन जलोद्भव को यह वरदान प्राप्त था कि जब तक वह जल में रहेगा उसे कोई मार नहीं सकेगा. जलोद्भव को जल से बाहर करने के लिए विष्णु ने अपने बड़े भाई बलभद्र को बुलाया और उन्होंने अपने हल से झील के चारों तरफ स्थित बारामूला (वाराह मूल) की पहाड़ियों में एक गोल छेद बना दिया जिससे झील का सारा पानी बह गया. इसके बाद विष्णु ने अपने चक्र से जलोद्भव की गर्दन काट दी और कश्यप मुनि इस सूखी घाटी में बस गए. कश्मीर का नाम (पहले कश्यपमार, फिर कश्मार और अंततः कश्मीर)[iii] इन्हीं कश्यप ऋषि के नाम पर पड़ा. आश्चर्यजनक है कि भू विज्ञानियों ने अपने शोध में पाया कि वास्तव में यहाँ एक बड़ी झील थी जो बर्फ युग के बाद के एक बड़े भूकंप में पहाड़ों के धँसने से हुए छिद्र से बह गई और यह हरी-भरी घाटी अस्तित्व में आई.[iv]श्रीनगर के पास हुई एक खुदाई में यहाँ पर 2000 वर्ष पहले मनुष्यों के निवास के अपुष्ट प्रमाण मिले हैं. नाग, पिशाच और यक्ष यहाँ के सबसे पहले निवासी माने जाते हैं जिसके बाद खस,डार,भट्ट,डामर,निषाद, तान्त्रिन आदि क़बीलों ने प्रवेश किया. नीलमत पुराण की इस कहानी का एक आधार 800 ईसा पूर्व आये आर्यों और स्थानीय निवासियों के बीच का संघर्ष भी हो सकता है. संभव है कि लोहे का उपयोग सीख चुके आर्यों ने पत्थरों में छेद कर झील को सुखा दिया हो और नागों का वहां रहना मुश्किल कर इलाक़े पर अपना कब्ज़ा कर लिया हो.[v] नाग क़बीले के लोग सांस्कृतिक रूप से बेहद समृद्ध थे. सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल इसी वंश के थे. यह भी माना जाता है कि प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान नागार्जुन और नागबुधि भी नाग वंश से ही ताल्लुक रखते थे. कश्मीर के इन मूल निवासियों ने आर्यों के आने के बाद अपनी हार के साथ-साथ वैदिक धर्म अपना लिया और बाद में जब बौद्ध धर्म आया तो इनमें से अधिकाँश ने बौद्ध धर्म अपनाया.[vi] आमतौर पर मान्यता है कि आर्यों की एक शाखा ओक्जस (वर्तमान में तजिकिस्तान, अफगानिस्तान,तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान से बहने वाली अमू दरिया) और जैक्सेरेट्स (वर्तमान में किर्गिस्तान के त्यान शान पर्वत से निकल कर दक्षिण कज़ाकस्तान से होकर अराल नदी में मिलने वाली सिर दरिया) की ओर जाते हुए अपने अपने साथियों से अलग होकर कश्मीर में बस गई थी.[vii] हालाँकि कल्हण के अनुसार गोनंद कृष्ण का समकालीन था और उनके शत्रु मगध के राजा जरासंध का रिश्तेदार. कृष्ण के ख़िलाफ़ युद्ध में उसने जरासंध का साथ दिया और मारा गया. उसके बाद कश्मीर का सिंहासन उसके पुत्र दामोदर[viii] को मिला. जब उसने सुना कि यादव उसके राज्य के निकट गांधार में स्वयंवर में भाग लेने आ रहे हैं तो वह अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने निकल पड़ा और अंततः कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसकी गर्दन उड़ा दी. उस समय उसकी पत्नी यशोवती गर्भवती थी और दरबारियों ने उसे रानी मानने से इंकार कर दिया. तब कृष्ण ने स्वयं हस्तक्षेप कर कहा कि “कश्मीर की धरती पार्वती है ; इसलिए इसका राजा स्वयं शिव का एक अंश है. उसका अपमान किसी हाल में नहीं होना चाहिए, तब भी नहीं जब वह बुद्धिमान व्यक्तियों के कल्याण में बाधा उत्पन्न करे”[ix] फिर समय आने पर रानी ने पुत्र को जन्म दिया और वह गोनंद द्वितीय के नाम से कृष्ण की सरपरस्ती में सिंहासन पर बैठा. जब कौरव पांडव युद्ध हुआ तो अपने अल्पवय के कारण उसे किसी भी पक्ष से लड़ने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया[x]. देखा जाए तो महाभारत काल से कश्मीर के इतिहास को जोड़ने के पीछे ऐतिहासिकता कम और इसे एक पौराणिक वैधता दिलाना अधिक लगता है.
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कश्मीर में बौद्ध धर्म
कश्मीर का प्रमाणिक इतिहास मौर्य वंश के प्रसिद्ध सम्राट अशोक (273 से 232 ईसापूर्व) के कश्मीर पर अधिकार से आरम्भ होता है. कल्हण बताते हैं कि उसने ही 96 लाख घरों वाले भव्य श्रीनगरी को बसाया और वितस्त तथा सुस्क्लेत्र में बौद्ध विहारों का निर्माण कराया.उसने पाटलिपुत्र में हुए महासंगीति (महासभा) ने मझ्झंतिका के नेतृत्व में पांच सौ बौद्ध भिक्षुओं को कश्मीर घाटी और गांधार में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा था. लेकिन अशोक के बाद वहां शासन में आये उसके पुत्र की आस्था शैव धर्म में थी. कश्मीर में राज्याश्रित बौद्ध धर्म की वापसी कोई दो सदी बाद कुषाण वंश के शासक कनिष्क के शासन काल में हुई. हूणों से पराजित हो चीन की सीमाओं पर स्थित अपने मूल निवास स्थान से विस्थापित होकर यह घुमंतू जाति (यू ची) ईसापूर्व पंद्रहवीं शताब्दी में काबुल की घाटी में बस गई थी. कुषाण इसी के एक क़बीले थे जिन्होंने बाद में अफगानिस्तान से उत्तर भारत के एक बड़े भूभाग पर कब्ज़ा कर लिया था. कनिष्क इस वंश का चौथा शासक था जिसका शासन बंगाल से ओक्जस नदी तक विस्तृत था. उसने न केवल एक विस्तृत भूभाग में अपना राज्य स्थापित किया बल्कि कई महत्त्वपूर्ण निर्माण भी कराये. कनिष्क ने सर्वस्तिवाद की विभिन्न पुस्तकों और यत्र तत्र फैले विचारों को एक साथ रखकर उसका व्यापक आधार निर्मित करने के उद्देश्य से श्रीनगर के कुंडल वन विहार में प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुमित्र की अध्यक्षता में सर्वस्तिवाद परम्परा की चौथी बौद्ध महासंगीति का आयोजन किया जिसमें सर्वस्तिवाद के तीन प्रमुख ग्रन्थ लिखे गए. इनमें से एक “महा विभास शास्त्र” अब भी चीनी भाषा में उपलब्ध है.[xi]
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आठवीं-नौवीं शताब्दी में कश्मीर में शैव दर्शन विकसित हुआ. यह शैव सिद्धांत प्रत्यभिज्ञा या त्रिक दर्शन कहलाता है जिसके सबसे उद्भट विद्वान अभिनव गुप्त का जन्म 950-960 ईस्वी के बीच हुआ था. उनकी पुस्तक ‘तन्त्रलोक’ एकेश्वरवादी दर्शन की इनसाइक्लोपीडिया मानी जाती है. उन्होंने कुल 50 पुस्तकें लिखी थीं लेकिन आज कुल 44 पुस्तकें उपलब्ध हैं जिनमें तन्त्रलोक के अलावा ‘तंत्रसार’ और ‘परमार्थ सार’ उल्लेखनीय हैं. वह शैव दर्शन में आभासवाद के प्रणेता माने जाते हैं जिसमें उन्होंने ‘कुल’ और ‘कर्म’ की व्यवस्थाएं दीं.[xii] उन्होंने दर्शन के अलावा व्याकरण, नाट्यशास्त्र और काव्यशास्त्र का विशेष अध्ययन किया था और भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर एक टीका भी लिखी थी. उन्हें रस सिद्धांत का प्रणेता माना जाता है. अभिनवगुप्त के शिष्य क्षेमेन्द्र संस्कृत के अत्यंत प्रतिष्ठित कवि थे जिन्होंने अपने गुरु का काम आगे बढ़ाते हुए “प्रत्याभिज्ञान हृदय’ में अद्वैत शैव परम्परा के ग्रंथों का सहज विश्लेषण प्रस्तुत किया तथा तांत्रिक परम्परा पर कई सुदीर्घ भाष्य भी लिखे. कश्मीर में विकसित इस दर्शन ने पूरे दक्षिण एशिया की शैव परम्परा पर गहरा प्रभाव डाला. नौवीं से बारहवीं सदी के बीच बौद्ध धर्म का प्रभाव क्षीण होता गया और शैव दर्शन कश्मीर का सबसे प्रभावी दर्शन बन गया.[xiii]
शैव धर्म का प्रभाव
कश्मीर के इतिहास में कनिष्क के बाद सबसे प्रभावी राजा था मिहिरकुल जो साकल (आज का सियालकोट) का हूण राजा था. उसने मालवा के राजा यशोवर्मन और मगध के राजा बालादित्य से मिली पराजय के बाद कश्मीर में शरण ली. उसकी क्रूरता के कारण कल्हण ने उसे हिंसक म्लेच्छ, यमराज के समतुल्य और ज़िंदा बेताल कहा है जिसके आने का पता उसके आगे आगे चलते कौओं और गिद्धों से चलता था. इसकाका अंदाज़ एक घटना से लगाया जा सकता है जिसमें एक युद्ध से लौटते हुए पीर पंजाल दर्रे के पास जब उसकी सेना का एक हाथी खाई में गिर गया तो हाथी की करुण पुकार सुनकर मिहिरकुल को इतना रोमांच हुआ कि उसने एक के बाद एक सौ हाथियों को खाई में गिरवा दिया. लेकिन उसने समय के अनुरूप शैव धर्म अपना कर उसने ब्राह्मणों को अपने पक्ष में कर लिया था. कश्मीर का एक और प्रतापी राजा कार्कोट वंश का ललितादित्य मुक्तपीड़( सन 724- सन 761) था जिसके राज्य को कश्मीर में स्वर्ण युग कहा जाता है. गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद अस्त-व्यस्त पड़े उत्तर भारत, दक्कन के रजवाड़ों में आतंरिक संघर्ष और कश्मीर के पश्चिम में पसरे राजनीतिक शून्य का फायदा उठा कर उसने अपने राज्य का खूब विस्तार किया. वह बेहद कुशल और सहिष्णु प्रशासक था जिसने जिसका राज्यकाल “कश्मीरी बौद्ध युग का स्वर्ण काल” कहा जाता है.[xiv]उसकी सेना के सेनापति और कई प्रमुख मंत्री बौद्ध थे. चाहे कोई भी युग रहा हो, धार्मिक सहिष्णुता हमेशा राज्य की शान्ति, समृद्धि और खुशहाली के मूल में रही है. उसकी मृत्यु के बाद कार्कोट वंश का पतन शुरू हो गया. राजा की उपपत्नी और भतीजे आदि के बीच चले सत्ता संघर्ष में यह वंश समाप्त हो गया.
संदर्भ-
[i] देखें, पेज़ 179, द वैली ऑफ़ कश्मीर, डी एच लारेंस, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,लन्दन, 1895
[ii] देखें, http://www.peacekashmir.org/jammu-kashmir/history.htm
[iii] देखें, http://www.peacekashmir.org/jammu-kashmir/geography.htm
[iv] पेज़ 10, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम जे अकबर, छठवां संस्करण, 2011, रोली बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली
[v] देखें, माई फ्रोज़ेन टर्बुलेंस इन कश्मीर, जगमोहन, दूसरा संस्करण, 1991, अलाइड पब्लिशर्स लिमिटेड, नई दिल्ली
[vi] देखें, बुद्धिज्म इन कश्मीर, डा आर एल आइमा, जून, 1984, कश्मीरी ओवरसीज़ असोसिएशन की वेबसाईट
[vii] देखें पेज़ 9, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम जे अकबर, छठवां संस्करण, 2011, रोली बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली
[viii] माई फ्रोज़ेन टर्बुलेंस इन कश्मीर में जगमोहन ने दामोदर को जरासंध का पुत्र बताया है. लेकिन राजतरंगिणी में उसे गोनंद का पुत्र बताया गया है. (पेज़ 16)
[ix] देखें, पेज 17, तरंग 1, श्लोक 72, कल्हण, राजतरंगिणी में, साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा मुद्रित आर एस पंडित का अनुवाद
[x] नीलमत पुराण, श्लोक 10
[xi] देखें, बुद्धिज्म इन कश्मीर, डा आर एल आइमा, जून, 1984, कश्मीरी ओवरसीज़ असोसिएशन की वेबसाईट
[xii] देखें, पेज़ 10-11, कश्मीर इन क्रूसिबल, प्रेम नाथ बज़ाज़, दूसरा संस्करण, 1967, पाम्पोश पब्लिकेशन,नई दिल्ली
[xiii] देखें, पेज़ 109, प्राचीन भारतीय धर्म और दर्शन, शिवस्वरूप सहाय, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली-2001
[xiv] देखें,पेज़ 43, माई फ्रोज़ेन टर्बुलेंस इन कश्मीर, जगमोहन, दूसरा संस्करण, 1991, अलाइड पब्लिशर्स लिमिटेड, नई दिल्ली