नाट्य लेखन का कृत्रिम संकट: आलेख (राजेश कुमार)

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राजेश कुमार 1022 11/18/2018 12:00:00 AM

जो लोग छाती पीट-पीट कर आज नाटक न लिखे जाने को रोना रोते हैं, वे आजादी के बाद धर्मवीर भारती और मोहन रोकष से आगे बढ़ ही नहीं पाते। उनकी सूई उन्हीं तक अटकी हुई है, या आजादी के पूर्व की बात करें तो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और जयशंकर प्रसाद तक। वे भूल जाते हैं कि उन दिनों पारसी थियेटर में भी निरंतर व्यवसायिक नाटक का लेखन हो रहा था। आगाहश्र कश्मीरी, पं राधेश्याम कथावाचक, नारायण प्रसाद ‘बेताब’ जैसे नाटककारों ने पारसी थियेटर से जुडकर दर्जनों उत्कृष्ट नाटकों को लेखन किया। ‘मार्शिकी हूर’ नाटक तो आज भी अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखे हुए हैं। अछूत के सवालों पर केंद्रित कर अछूतानंद ‘हरिहर’ का नाटक ‘राम राज्य न्याय’ को जान बूझकर दरकिनार किया गया पर उसमें उठाये गये सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं। इसी संदर्भ में फुले के नाटक भी उल्लेखनीय हैं। वंचित समाज पर लिखे गये नाटक तब भी साहित्य में उपेक्षित रहा, आज भी उस पर कोई विशेष तवज्जो नहीं है। जानबूझकर हाशिये पर डाल दिया गया है।

जो लोग हिन्दी नाट्य लेखन के मृत्यु की घोषणा कर चुके हैं, उनकी भी तफ़्तीश करने की जरूरत है और उन पर शक करने की भी। ऐसा तो नहीं कि अंत की घोषणा करने वाले किसी नास्ट्रलोजिया में जी रहे हों । जो लोग अन्य भाषाओं की तुलना में हिन्दी में नाटक के न लिखने का रोना रोते रहते हैं, मंचन के लिए बार-बार दूसरी भाषा के नाटकों का सहारा लेते हैं, अपने यथार्थ को विदेशी भाषा के नाटकों के माध्यम से दिखाने में फक्र महसूस करते हैं, उन्हें हिन्दी भाषा में नाटक लिखने वाले नाटककारों के नाटक ध्यान से उलटने-पुलटने की जरूरत है।  

साम्प्रदायिकता के सवाल को जो लोग यूरोपीय नाटक में ढूंढ़ते हैं, उन्हें भीष्म साहनी का ‘कबिरा खड़ा बाजार में’, ‘मुआवजे’, असगर बजाहत का ‘जिन लाहौर ना वेख्या’, राकेश के ‘रामलीला’ पर भी कुछ नजर इनायत करनी चाहिए। जनतंत्र को खोखला करने वालों का पदार्फाश करना हो तो एथेंस या जर्मन जाने के बजाए अगर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का ‘बकरी’, ज्ञानदेव अग्निहोत्री का ‘शुतुरमुर्ग ’, सुशील कुमार सिंह का ‘सिंहासन खाली है’, रमेश उपाघ्याय का ‘भारत भाग्य विधाता’ जैसे नाटकों को खंगालने की कोशिश करें तो जनता से सीधा जुड़ने व संवाद करने की संभावना बनेगी।

नाट्य लेखन का कृत्रिम संकट 

राजेश कुमार

अब भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो कहा करते हैं कि प्रेमचंद के बाद हिन्दी साहित्य में कहानी लिखने वाला कौन है ? उनके कहने का तात्पर्य ये होता है कि प्रेमचंद के बाद  कुछ लिखा ही नहीं गया है या जो लिखा जा रहा है, उनके समतुल्य नहीं हैं। कविता में भी कुछ इसी तरह को सुनने को मिलता है कि जो पहले लिखा गया, अब उस कोटि का सृजन संभव नहीं है। नाटक के क्षेत्र में तो इस तरह की बातें और भी सुनने को मिलती है। बल्कि कविता-कहानी से ज्यादा। इतना ज्यादा कि कुछ लोग यहाँ तक कहने से नहीं चूकते कि अब नाटक के क्षेत्र में है ही कौन? कौन लिख रहा है नाटक ? अंत हो चुका है नाट्य लेखन का। पर सवाल उठता है, नाट्य लेखन नहीं हो रहा है तो रोज-रोज देश भर में जो नाटक हो रहे हैं, वो क्या हैं? कहां से आ रहे हैं नये-नये नाटक ? जो लोग हिन्दी नाट्य लेखन के मृत्यु की घोषणा कर चुके हैं, उनकी भी तफ़्तीश करने की जरूरत है और उन पर शक करने की भी। ऐसा तो नहीं कि अंत की घोषणा करने वाले किसी नास्ट्रलोजिया में जी रहे हों। अतीत की उस अंध आस्था का शिकार तो नहीं हैं जिन्हें वर्तमान सुहाता ही नहीं। उनके लिए भूत ही सर्वस्व होता है। सब तो नहीं, कुछ तो जरूर होते हैं इस तरह के। देश आजाद हुए कितने बरस हो गए, अभी भी कई लोग ऐसे मिलते हैं जो अग्रेजों की तारीफ करते थकते नहीं हैं। उन्हें आजादी से अधिक गुलामी की छांव ही भाती है। चाहे कितनी उमस हो, गर्मी का मौसम हो, कोट-पैंट-शूट में ही घूमने में उन्हें आनंद आता है। मौसम की तब्दीली का उन्हें भान ही नहीं होता।

जो लोग छाती पीट-पीट कर नाटक न लिखे जाने को रोना रोते हैं, वे आजादी के बाद धर्मवीर भारती और मोहन रोकष से आगे बढ़ ही नहीं पाते। उनकी सूई उन्हीं तक अटकी रहती है, या आजादी के पूर्व की बात करें तो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और जयशंकर प्रसाद तक। वे भूल जाते हैं कि उन दिनों पारसी थियेटर में भी निरंतर व्यवसायिक नाटक का लेखन हो रहा था। आगाहश्र कश्मीरी, पं राधेश्याम कथावाचक, नारायण प्रसाद ‘बेताब’ जैसे नाटककारों ने पारसी थियेटर से जुडकर दर्जनों उत्कृष्ट नाटकों को लेखन किया। ‘मार्शिकी  हूर’ नाटक तो आज भी अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखे हुए हैं। अछूत के सवालों पर केंद्रित कर अछूतानंद ‘हरिहर’ का नाटक ‘राम राज्य न्याय’ को जान बूझकर दरकिनार किया गया पर उसमें उठाये गये सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं। इसी संदर्भ में फुले के नाटक भी उल्लेखनीय हैं। वंचित समाज पर लिखे गये नाटक तब भी साहित्य में उपेक्षित रहा, आज भी उस पर कोई विशेष तवज्जो नहीं है। जानबूझकर  हाशिये पर डाल दिया गया है।

हर काल में रचना रची गयी है और रचना का संबंध किसी न किसी रूप में उस वक्त के समाज से अवश्य रहा है। समाज और समय से कटकर कोई उत्कृष्ट साहित्य रचा नहीं जा सकता है। चाहे पारसी नाटक हो, लोक शैली से जुड़ा कोई नाटक या एकांकी, सभी ने समाज को जैसा देखा वैसा मंच पर उतारा। हो सकता है उनमें किसी नाटक की आयु कम रही हो लेकिन उनकी नीयत पर शक नहीं किया जा सकता है। सत्ता से जुड़े नाट्य आंदोलन की बात नहीं कर रहा हूँ, उनका जीवन तो बरसाती फतिंगे की तरह ही सीमित, अल्प होता है।

नाटक लिखा जाना और कोई उत्कृष्ट नाटक का लिखा जाना, दो अलग-अलग मुद्दे हैं। आजादी के बाद जब धर्मवीर भारती का ‘अंधा युग’ आया या मोहन राकेश के लगातार तीन नाटकों ने नाट्य जगत में जो महत्वपूर्ण दस्तक दी तब भी दर्जनों नाटककार थे जो उनके समकालीन थे और लगातार लेखन कर रहे थे। ‘लक्ष्मीनारायण लाल, विष्णु प्रभाकर, जगदीश चंद्र माथुर, रमेश उपाघ्याय ने जो लिखा, वह नाट्य लेखन की परम्परा को आगे ही बढ़ाया। जो लोग नाट्य लेखन की सीमा रेखा ‘अंधा युग’, ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘आधे-अधूरे’ तक खींच कर रख देते हैं, उन्हें भली-भांति समझने की जरूरत है कि हर समय उत्कृष्ट नाटक रचा नहीं जा सकता। न किसी रचनाकार की कलम से लिखी हर रचना कालजयी होती है। अगर ऐसा होता तो धर्मवीर भारती के और लिखे नाटक उस ऊंचाई को प्राप्त किये होते? जिस समय और काल में ‘अंधा युग’ का सृजन हुआ वह युद्ध की विभीषिका  से उत्पन्न कुंठा, संत्रास व निराशा का दौर था। सामान्य जन को उस कृति में अपना समाज दिखा। और जब वो समाज मंच पर उतरा तो लोगों ने अंतरमन से आत्मसात किया। ऐसा बाद में भी कई नाटकों के साथ हुआ। सर्वेश्वर दयाल सक्सैना का नाटक ‘बकरी’ ने जब लोकतंत्र की पोल खोली तो उसका भी उसी तरह स्वागत हुआ। वर्ण व्यवस्था पर प्रहार करता हुआ स्वदेश दीपक का नाटक ‘कोर्ट मार्शल’ ने तो नाट्य लेखन को एक नई दिशा दी। उसी के क्रम में असगर वजाहत का ‘जिन लाहौर ना वेख्या’ ने भी विषय और रूप दोनों के स्तर पर नाटक की नयी जमीन तैयार की।

नाटक के ना लिखने का रोना अब ज्यादा रोया जा रहा है। जिसे देखो वही कहे जा रहा है कि नाट्य लेखन की भूमि उर्वर नहीं रही। बल्कि वे निर्देशक ज्यादा जोर-जोर से छाती पीट-पीट कर रो रहे हैं जो सरकारी नाट्य संस्थानों से प्रशिक्षण प्राप्त कर रंग जगत में पैर रख रहे हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में जहां नाटक और नाटक से जुड़े विभिन्न रूपों से अवगत कराया जाता था अब तकनीक तक सीमित रह गया है। साहित्य से पहले जैसा रिश्ता अब रहा नहीं। वे जरूरत भी नहीं समझते है क्योंकि अनका लक्ष्य कुछ और होता है। वे संस्थान से प्रकाशित होने वाली रंग पंत्रिका ‘रंग प्रसंग’ तक तो उलटते-पुलटते नहीं और हिन्दी में नाट्य लेखन के अकाल का ऐलान कर देते हैं। ‘रंग प्रसंग’ के लगभग हर अंक में कोई न कोई नाटक छपा होता है। हिन्दी के अलावा देश के विभिन्न भाषाओं और विदेशी भाषाओं के भी। हिन्दी नाट्य पत्रिका ‘नटरंग’ नेमिचंद जैन के संपादन काल से लेकर अब तक लगभग हर अंक में नियमतः एक पूर्णकालिक नाटक प्रकाशित करता रहा है। ‘नटरंग’, ‘रंग प्रसंग’, ‘समकालीन हिन्दी साहित्य’ जैसे पंत्रिकाओं ने ससम्मान नाटकों को छापा है और हिन्दी के नाटककार असगर वजाहत,  हृषीकेष सुलभ, अब्दुल्ल बिस्मिल्लाह, कृष्ण बलदेव वैद, महेन्द्र मल्ला, मीराकांत, नंद किशोर आचार्य, बृज मोहन शाह, त्रिपुरारी शर्मा, अनुपम कुमार, मानव कौल, अविनाश मिश्र, श्रीकांत किशोर के चर्चित नाट्य चाहे वो ‘जिन लाहौर ने वेख्या’ हो या ‘भूख आग है’, ‘मृगतृष्णा’, मुक्ति पर्व’, ‘जिल्ले सुब्हानी’ ‘पीले स्कूटर वाला आदमी’ सब के सब इन्हीं पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पाठकों व नाट्य कर्मियों के बीच गया है।

नाटक हमेशा से लिखे जा रहे हैं। ये दूसरी बात है कि उनमें कितने नाटक अच्छे हैं। कितने की आयु कितनी है? मध्य कालीन समय छोड़ दे तो आज हमारे बीच संस्कृत के जो नाटक उपलब्ध है या जिन्हें उत्कृष्ट समझकर बार-बार मंचित करते हैं, क्या उस काल में उतने ही नाटक लिखे गये हैं? कालिदास, भास, भवभूति, शूद्रक, बोधायन के लिखे दो – तीन दर्जन ही उस काल में सृजित किये गये हैं? यूरोप में शेक्सपियर, बर्नाड शाॅ, इब्सन, पिंटर, सेमुएल वैकेट, यू जोन ओ नील, काफ्का, कामू जैसे लेखकों के ही नाटक मंचित हुए हैं या इनके अलावा किसी और के नाटक भी खेले गए हैं ? हर काल में, हर देश में जैसे साहित्य की अन्य विधाओं का सृजन होता रहा है, वैसे ही नाटक का भी। हो सकता है, किसी काल में नाटक की धारा थोड़ी कम पड़ी हो तो कभी तेज। जो लोग इस मुल्क में अन्य भाषाओं की तुलना में हिन्दी में नाटक के न लिखने का रोना रोते रहते हैं, मंचन के लिए बार-बार दूसरी भाषा के नाटकों का सहारा लेते हैं, देश के यथार्थ को विदेशी भाषा के नाटकों के माध्यम से दिखाने में फक्र महसूस करते हैं, उन्हें हिन्दी भाषा में नाटक लिखने वाले नाटककारों के नाटक ध्यान से उलटने-पुलटने की जरूरत है। साम्प्रदायिकता के सवाल को जो लोग यूरोपीय नाटक में ढूंढ़ते हैं, उन्हें भीष्म साहनी का ‘कबिरा खड़ा बाजार में’, ‘मुआवजे’, असगर बजाहत का ‘जिन लाहौर ना वेख्या’, राकेश के ‘रामलीला’ पर भी कुछ नजर इनायत करनी चाहिए। जनतंत्र को खोखला करने वालों का पदार्फाश करना हो तो एथेंस या जर्मन जाने के बजाए अगर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का ‘बकरी’, ज्ञानदेव अग्निहोत्री का ‘शुतुरमुर्ग ’, सुशील कुमार सिंह का ‘सिंहासन खाली है’, रमेश उपाघ्याय का ‘भारत भाग्य विधाता’ जैसे नाटकों को खंगालने की कोशिश करें तो जनता से सीधा जुड़ने व संवाद करने की संभावना बनेगी।

हिन्दी क्या दूसरी भाषाओं में नाटक लिखने वाले दो तरह के होते हैं। एक वे होते हैं जो नाट्य विधा से सीधे जुड़े होते हैं। सीधे जुड़े होने से तात्पर्य ये है कि वे लेखन के अतिरिक्त, मंच संबंधित समस्त विभागों मसलन गीत-संगीत, मंच सज्जा व परिकल्पना से वाकिफ रहते हैं। नाटक की तैयारी के दौरान किसी न किसी रूप में जुड़े रहते हैं। संस्कृत नाटकों की प्रस्तावना में जिस तरह उनके लेखकों के बारे में सूत्रधार द्वारा चर्चा की गयी है, उससे स्पष्ट जाहिर हो जाता है कि नाटककार केवल लिखने तक अति नहीं समझते थे, परन्तु उसकी तैयारी की प्रक्रिया में भी सक्रिय रहते थे। शेक्सपियर, ब्रतोल्त ब्रेष्ट, पिंटर, चेखव जैसे यूरोपीय नाटककार भी इसी तरह के उदाहरण हैं। पारसी थियेटर में तो नाटककारों की बजाप्ते बहाली होती थी। हर कंपनी का एक नाटककार जिन्हें उस वक्त मुंशी भी कहते थे, सम्मानजनक पारिश्रमिक पर नियुक्त किया जाता था। आगाहश्र कश्मीरी, पं0 राधे श्याम कथावाचक, नारायण प्रसाद ‘बेताब’ जैसे नाटककार उस वक्त किस तरह के नाटक की जरूरत है, दर्शक की क्या पसंद है, कौन-कौन से लोकप्रिय तत्वों के समायोजन से नाटक आकर्षण का केंद्र बनेगा, घ्यान में रखकर सृजन करते थे। भारतेन्दु हरिश्चंद्र भी इसी परंपरा के समद्ध नाटककार थे। इससे इतर दूसरे नाटककार जो होते हैं, उनकी सीमा केवल नाटक लिखने तक होती है। वे मंच परे कार्याे में कोई हस्तक्षेप नहीं करते हैं, न ही उनकी इनमें कोई रूचि होती है। वे ये मानकर चलते हैं कि जरूरी नहीं कि रंगमंच को घ्यान में रखते हुए नाटक लिखा जाए बल्कि नाटक के अनुकूल रंगमंच का निर्माण हो। जैसा नाटक हो उसके सदृश्य नाटक का स्वरूप गढ़ा जाए। कुछ इस तरह का विवाद संगीत में भी है। आजकल संगीत निर्देशक धुन की रचना पहले कर देते हैं और गीतकार को उस दायरों में शब्द रचने को कहते हैं। ऐसे में गीतकार के सम्मुख उतनी स्वतंत्रता नहीं होती है जितना पहले हुआ करती थी। गीतकार पहले गीत लिखते थे, उसके बाद संगीतकार उसके मुताबिक धुन बनाने में लग जाते थे। आज संगीतकार फिल्मों में गीतकार की अपेक्षा अत्यधिक प्रभावी है, अतएव कफन पहले तैयार कर लिया जाता है, उसी के मुताबिक लाश को अंदर एडजस्ट कराना पड़ता है।

यही कश्मकश वर्तमान में भी नाटककारों और निर्देशकों के बीच है। सरकारी – अर्द्ध सरकारी नाट्य संस्थानों से तकनीकी रूप से नाट्य प्रशिक्षण लेकर जब निर्देशक का सामना किसी नाटककार के आलेख से होता है तो वह आलेख को उन्हीं मापदंड़ों पर कसने की कोशिश करता है। और जो नाटककार साहित्य को एक दृश्यात्मक विधा के रूप में कोई नाटक रचता है, वह अगर नाट्य तकनीक के बारे में उतना सजग नहीं है, बल्कि तकनीक के स्थान पर कंटेंट पर जोर देता है तो प्रस्तुति की प्रक्रिया में निर्देशक और नाटककार के बीच असहमति का आना स्वाभाविक है। भीष्म साहनी के नाटक ‘कबिरा खड़ा बाजार में’ को जब निर्देशक एम0के0 रैना निर्देशन दे रहे थे तो लिखित आलेख को अपनी परिकल्पना को मंच पर उतारने के लिए जहां भी स्वतंत्रता चाहिए थी, उन्होंने लिया। दृश्य कम किये, कुछ दृश्यों को एक में सम्मिलित कर दिया, नये गाने लिखवाने पढ़े तो लिखवाये भी। ऐसी ही स्वतंत्रता हबीब तनवीर ने असगर वजाहत के नाटक ‘जिन लाहौर नहीं वेख्या’ में ली। लेखक और निर्देशक में अगर एक तालमेल है, परस्पर लचीलापन है तो कोई समस्या नहीं आती। जहां दोनों में से किसी एक के आत्म स्वाभिमान को ठेस लगती है तब उसी तरह का विवाद खड़ा हो जाता है जैसा कि ‘अमली’ नाटक को लेकर हृषीकेश सुलभ और सतीश आनंद के बीच, राकेश और सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ के बीच ‘रामलीला’ नाटक को लेकर, नाग बोडस और रंजीत कपूर के मध्य ‘खबसूरत बहू’ तथा नौटंकी शैली पर लिखा गया ‘आला अफसर’ नाटक के मंचन के दौरान मुद्राराक्षस और बंशी कौल के बीच मतभेद गहराया था। इसके विपरीत मोहन राकेश और श्यामानंद जालान, ओम शिवपुरी के बीच जो नाट्य प्रस्तुति के दौरान जो परस्पर सृजनात्मक संबंध थे, वे भी एक उदाहरण है कि निर्देशक और नाटककार नाटक को उत्कृष्ट एवं उच्चतम रूप देने के प्रति कितना प्रतिबद्ध है। ऐसे स्वस्थ संबंध दोनों को ऊर्जा प्रदान करते हैं। निर्देशक जहाँ एक उत्कृष्ट कल्पना को साकार करता है, वहीं नाटककार को लगता है कि उसकी रचना के साथ सही न्याय हुआ है तो भविष्य में अन्य सृजन के प्रति उसके अंदर ललक जगती है। मोहन रोकश के उत्कृष्ट नाटकों के सृजन का एक महत्वपूर्ण कारण ये भी है। अन्यथा उसके विपरीत ऐसे अनेको उदाहरण हमारे सामने हैं कि लेखक को रंगकर्म में यथोचित सम्मान नहीं मिला तो वे साहित्य की उसी धारा मैं लौट गये, जहाॅं से आये थे। काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, रमेश उपाघ्याय, अब्दुल बिसमिल्लाह, जितेन्द्र भाटिया जैसे कई हिन्दी के कहानीकार, उपन्यासकार जिनके नाटकों को अगर रंगकर्म में उचित आदर मिला होता तो इस विधा में निरंतर सक्रिय रह सकते थे। लेकिन कहीं न कहीं इन्हें अपने नाटकों के लिए किसी निर्देशक की कृपा दृष्टि पर निर्भर रहना मुनासिब न लगा हो, इसलिए पूर्ववत धारा में वापसी उचित समझा। और वैसे भी नाटक जब तक मंचित नहीं हो जाता, लेखक का कार्य पूर्ण नहीं होता है। नाटक का छपना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उसका मंचन होना। अगर दूसरे संदर्भ में परिभाषित किया जाए तो यह कहा जायेगा कि जब तक नाटक मंचित नहीं होता, उसका नारीत्व. पूरा नहीं होता है। सर्वेष्वर दयाल सक्सैना, शरद जोषी और वर्तमान में असगर वजाहत भी ऐसे ही सख्स हैं जो एक सफल नाटककार होते हुए भी नाटक के क्षेत्र में अपने को मजबूती से टिका नहीं पाते हैं। दूसरी विधाओं से नाटक में उनका आना-जाना लगा ही रहता हैं। कहीं न कहीं इन्हें नाटक पर उतना भरोसा नहीं रहता है और उसी तरह नाटक वालों का भी उन पर। आज भी हिन्दी के जाने-माने नाटककार जितना भरोसा दूसरी भाषाओं तथा विदेशी नाटकों पर करते हैं, उतना यहां के लेखकों पर नहीं करते हैं। जानने की भी जहमत नहीं करते कि हिन्दी में कौन-कौन लिख रहे हैं? या पत्र-पत्रिकाओं में जो नाटक प्रकाशित हो रहे हैं, किस तरह के है? उन्हें पता भी नहीं होगा कि हिन्दी भाषा में असगर वजाहत, मीरा कांत, मानव कौल, महेन्द्र भल्ला, राधा कृष्ण सहाय, जावेद अख्तर खां, राकेष, सुमन कुमार, ऊषा किरण खान, त्रिपुरारी शर्मा जैसे अनेकों लेखक लगातार नाटक लिख रहे हैं, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे हैं, कहीं न कहीं मंचित हो रहे हैं। इतना कुछ लिखे जाने के बाद भी गर कोई हिन्दी में नाटक न लिखे जाने का रोना रो रहा है तो उसे बुक्के फाड कर रोने दीजिए।

अच्छा लिखा जा रहा है या बुरा, यह दूसरी बात है। लेकिन जो तोते की तरह रट लगाये जा रहे हैं कि नाटक का अकाल पड़ गया है, वह यथार्थ नहीं, कृत्रिम संकट है। ऐसी मानसिकता का विश्लेषण करने की जरूरत है। ये वही लोग है जो कहते हैं कि भावना के स्तर पर जो नाटक छूता है, वही नाटक करते हैं। ऐसे लोगों को आत्महत्या कर रहे किसानों को दर्द आहत नहीं करता है, जाति का दंश झेल रहे दलितों की मुखर अभिव्यक्ति उद्धेलित नहीं करती है, औरतों के प्रति जो बर्बर रवैया अपनाया जा रहा है, कदापि उनकी भावना को झकझोरती नहीं है, बल्कि झकझोरती है तो सत्ता द्वारा दिखाये गये सब्जबाग जिसके छेड़े गये धुन पर कहीं भी नाचने में संकोच नहीं होता है। अपनी छद्म प्रगतिशीलता को बरकरार रखने के लिए क्यों न विदेशी नाटकों के माध्यम से साम्प्रदायिक्ता के सवाल को रख ले, लोकतंत्र की ढाप पीट ले, जनता जानती है कि सच से भागने का यह एक और बहाना है। सच न कहना पड़े इसलिए ये कोई दूसरा बेसुरा राग छेड़े हुए हैं। जो समय का नाटक दिखने के अपेक्षा इधर-उधर की बातें करेगा, जनता को पकड़ते देर नहीं लगेगी। उसे उठाकर इतिहास के कूड़ेदान में फेंक देगी। जनता के साथ धोखा अधिक दिनों तक नहीं चल सकता है। एक न एक दिन तो सियार का रंग उतरना ही है, असली चेहरा सबकों दिखना ही है।

राजेश कुमार द्वारा लिखित

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