दादा साहेब फ़ाल्के: भारतीय सिनेमा के अमिट हस्ताक्षर (एस तौहीद शहबाज़)
एस. तौहीद शहबाज़ 549 11/18/2018 12:00:00 AM
फ़ाल्के के जीवन मे फ़िल्म निर्माण से जुडा रचनात्मक मोड सन 1910 ‘लाईफ़ आफ़ क्राईस्ट’ फ़िल्म को देखने के बाद आया, उन्होने यह फ़िल्म दिसंबर के आस-पास ‘वाटसन’ होटल मे देखी | वह फ़िल्म अनुभव से बहुत आंदोलित हुए और इसके बाद उस समय की और भी फ़िल्मों को देखा | फ़िल्म बनाने की मूल प्रेरणा फ़ाल्के को ‘क्राईस्ट का जीवन’ देखने मिली, फ़िल्म को देखकर उनके मन मे विचार आया कि –क्या भारत मे भी इस तर्ज़ पर फ़िल्म बनाई जा सकती हैं? फ़िल्म कला को अपना कर उन्होने प्रश्न का ठोस उत्तर दिया |फ़िल्म उस समय मूलत: विदेशी उपक्रम था और फ़िल्म बनाने के अनिवार्य तकनीक उस समय भारत मे उपलब्ध नही थी ,फ़ाल्के सिनेमा के ज़रुरी उपकरण लाने लंदन गए | लंदन मे उनकी मुलाकात जाने-माने निर्माता और ‘बाईस्कोप’ पत्रिका के सम्पादक सेसिल हेपवोर्थ से हुई फिर दादा साहेब फ़ाल्के ने फ़िल्म में अपना तन,मन,धन लगाने की पहल की | उस कठिन समय में वे इस ओर उन्मुख हुए, जब फ़िल्म उद्योग के लिए परिस्थितियां प्रतिकूल थी | बुद्धिजीवी,शिक्षित और आम लोग सभी फ़िल्मों के भविष्य को लेकर बेहद ऊहापोह में थे एवं इससे दूरी बनाए हुए थे, इससे जुडी शंका के बादल लोगों के मन पर हावी थे | फ़ाल्के की आशातीत सफ़लता ने इस पर विराम लगाया, लोग फ़िल्म जगत से जुडे और इसमे रोज़गार का अवसर पाया |
हाल ही में 30 अप्रैल को दादा साहेब फ़ाल्के का जन्म दिवस रहा इस मौके पर भारतीय सिने जगत में फाल्के की भूमिका को व्याख्यायित करता ‘सैयद एस तौहीद‘ का आलेख