महात्मा गाँधी को चिट्ठी पहुँचे: व्यंग्य (हरिशंकर परसाई)

महात्मा गाँधी को चिट्ठी पहुँचे: व्यंग्य (हरिशंकर परसाई)

हरिशंकर परसाई 528 11/17/2018 12:00:00 AM

महात्मा गाँधी को चिट्ठी पहुँचे harishankar-parsai1 यह चिट्ठी महात्मा मोहनदास करमचंद गाँधी को पहुंचे. महात्माजी, मैं न संसद-सदस्य हूँ, न विधायक, न मंत्री, न नेता. इनमें से कोई कलंक मेरे ऊपर नहीं है. मुझमें कोई ऐसा राजनीतिक ऐब नहीं है कि आपकी जय बोलूं. मुझे कोई भी पद नहीं चाहिये कि राजघाट जाऊँ. मैंने आपकी समाधि पर शपथ भी नहीं ली. आपका भी अब भरोसा नहीं रहा. पिछले मार्च में आपकी समाधि मोरारजी भाई ने भी शपथ ली थी और जगजीवन राम ने भी. मगर बाबू जी रह गए और मोरारजी प्रधानमंत्री हो गए. आख़िर गुजराती ने गुजराती का साथ दिया. जिन्होंने आपकी समाधि पर शपथ ली थी उनका दस महीने में ही ‘जिंदाबाद’ से ‘मुर्दाबाद’ हो गया. वे जनता से बचने के लिए बाथरूम में ही बिस्तर डलवाने लगे हैं. मुझे अपनी दुर्गति नहीं करानी. मैं कभी आपकी समाधि पर शपथ नहीं लूँगा. उसमें भी आप टाँग खींच सकते हैं.

दो नाक वाले लोग: व्यंग्य (हरिशंकर परसाई)

दो नाक वाले लोग: व्यंग्य (हरिशंकर परसाई)

हरिशंकर परसाई 786 11/17/2018 12:00:00 AM

“कुछ नाकें गुलाब के पौधे की तरह होती हैं। कलम कर दो तो और अच्छी शाखा बढ़ती है और फूल भी बढ़िया लगते हैं। मैंने ऐसी फूलवाली खुशबूदार नाकें बहुत देखीं हैं। जब खुशबू कम होने लगती है, ये फिर कलम करा लेते हैं, जैसे किसी औरत को छेड़ दिया और जूते खा गए। ‘जूते खा गए‘ अजब मुहावरा है। जूते तो मारे जाते हैं। वे खाए कैसे जाते हैं? मगर भारतवासी इतना भुखमरा है कि जूते भी खा जाता है। नाक और तरह से भी बढ़ती है। एक दिन एक सज्जन आए। बड़े दुखी थे। कहने लगे – हमारी तो नाक कट गई। लड़की ने भागकर एक विजातीय से शादी कर ली। हम ब्राह्मण और लड़का कलाल! नाक कट गई।”

आवारा भीड़ के खतरे: व्यंग्य (हरिशंकर परसाई)

आवारा भीड़ के खतरे: व्यंग्य (हरिशंकर परसाई)

हरिशंकर परसाई 764 11/17/2018 12:00:00 AM

युवक साधारण कुरता पाजामा पहिने था। चेहरा बुझा था जिसकी राख में चिंगारी निकली थी पत्थर फेंकते वक्त। शिक्षित था। बेकार था। नौकरी के लिए भटकता रहा था। धंधा कोई नहीं। घर की हालत खराब। घर में अपमान, बाहर अवहेलना। वह आत्म ग्लानि से क्षुब्ध। घुटन और गुस्सा एक नकारात्क भावना। सबसे शिकायत। ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ होती है। खिले फूल बुरे लगते हैं। किसी के अच्छे घर से घृणा होती है। सुंदर कार पर थूकने का मन होता है। मीठा गाना सुनकर तकलीफ होती है। अच्छे कपड़े पहिने खुशहाल साथियों से विरक्ति होती है। जिस भी चीज से, खुशी, सुंदरता, संपन्नता, सफलता, प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है।

मरना कोई हार नहीं होती: संस्मरण (हरिशंकर परसाई)

मरना कोई हार नहीं होती: संस्मरण (हरिशंकर परसाई)

हरिशंकर परसाई 397 11/17/2018 12:00:00 AM

प्रमोद मैं और शान्ता भाभी तथा रमेश से सलाह करने दूसरे कमरे में चले गये।इधर मुक्तिबोध ज्ञानरंजन से नये प्रकाशनों पर बात करने लगे। तय हुआ कि जल्दी भोपाल ले चलना चाहिये। मित्रों ने कुछ पैसा जहाँ-तहाँ से भेज दिया था। हम लोगों ने सलाह की कि इसे रमेश के नाम से बैंक में जमा कर देना चाहिये। मुक्तिबोध पर बड़ी विचित्र प्रतिक्रिया हुई इसकी। बिल्कुल बच्चे की तरह वे खीझ उठे। बोले,” क्यों? मेरे नाम से खाता क्यों नहीं खुलेगा? मेरे ही नाम से जमा होना चाहिये। मुझे क्या आप गैर जिम्मेदार समझते हैं?” वे अड़ गये। खाता मेरे नाम से खुलेगा। थोड़ी देर बाद कहने लगे,”बात यह है पार्टनर कि मेरी इच्छा है ऐसी। ‘आई विश इट‘। मैं नहीं जानता कि बैंक में खाता होना कैसा होता है। एक नया अनुभव होगा मेरे लिये। तर्कहीन लालसा है-पर है जरूर ,कि एक बार अपना भी एकाउन्ट हो जाये! जरा इस सन्तोष को भी देख लूँ।” मुक्तिबोध हमेशा ही घोर आर्थिक संकट में रहते थे। अभावों का ओर-छोर नहीं था। कर्ज से लदे रहते थे। पैसा चाहते थे ,पर पैसे को ठुकराते भी थे। पैसे के लिये कभी कोई काम विश्वास के प्रतिकूल नहीं किया। अचरज होता है कि जिसे पैसे-पैसे की तंगी है, वह रुपयों का मोह बिना खटके कैसे छोड़ देता है। बैंक में खाता खुलेगा-यह कल्पना उनके लिये बड़ी उत्तेजक थी। गजानन माधव मुक्तिबोध का बैंक में खाता है-यह अहसास वे करना चाहते थे। वे शायद अधिक सुरक्षित अनुभव करते।……..

मरना कोई हार नहीं होती: संस्मरण (हरिशंकर परसाई)

मरना कोई हार नहीं होती: संस्मरण (हरिशंकर परसाई)

हरिशंकर परसाई 552 11/17/2018 12:00:00 AM

प्रमोद मैं और शान्ता भाभी तथा रमेश से सलाह करने दूसरे कमरे में चले गये।इधर मुक्तिबोध ज्ञानरंजन से नये प्रकाशनों पर बात करने लगे। तय हुआ कि जल्दी भोपाल ले चलना चाहिये। मित्रों ने कुछ पैसा जहाँ-तहाँ से भेज दिया था। हम लोगों ने सलाह की कि इसे रमेश के नाम से बैंक में जमा कर देना चाहिये। मुक्तिबोध पर बड़ी विचित्र प्रतिक्रिया हुई इसकी। बिल्कुल बच्चे की तरह वे खीझ उठे। बोले,” क्यों? मेरे नाम से खाता क्यों नहीं खुलेगा? मेरे ही नाम से जमा होना चाहिये। मुझे क्या आप गैर जिम्मेदार समझते हैं?” वे अड़ गये। खाता मेरे नाम से खुलेगा। थोड़ी देर बाद कहने लगे,”बात यह है पार्टनर कि मेरी इच्छा है ऐसी। ‘आई विश इट‘। मैं नहीं जानता कि बैंक में खाता होना कैसा होता है। एक नया अनुभव होगा मेरे लिये। तर्कहीन लालसा है-पर है जरूर ,कि एक बार अपना भी एकाउन्ट हो जाये! जरा इस सन्तोष को भी देख लूँ।” मुक्तिबोध हमेशा ही घोर आर्थिक संकट में रहते थे। अभावों का ओर-छोर नहीं था। कर्ज से लदे रहते थे। पैसा चाहते थे ,पर पैसे को ठुकराते भी थे। पैसे के लिये कभी कोई काम विश्वास के प्रतिकूल नहीं किया। अचरज होता है कि जिसे पैसे-पैसे की तंगी है, वह रुपयों का मोह बिना खटके कैसे छोड़ देता है। बैंक में खाता खुलेगा-यह कल्पना उनके लिये बड़ी उत्तेजक थी। गजानन माधव मुक्तिबोध का बैंक में खाता है-यह अहसास वे करना चाहते थे। वे शायद अधिक सुरक्षित अनुभव करते।……..

एक गौभक्त से भेंट: व्यंग्य (हरिशंकर परसाई)

एक गौभक्त से भेंट: व्यंग्य (हरिशंकर परसाई)

हरिशंकर परसाई 674 11/17/2018 12:00:00 AM

हरिशंकर परसाई हिंदी साहित्य जगत का एक ऐसा नाम जिसकी वज़ह से व्यंग्य को साहित्य विधा की पहचान मिली | परसाई ने सामाजिक रूप से हलके फुल्के मनोरंजन की सांस्कृतिक धारा को मानवीय सरोकारों के साथ व्यापक प्रश्नों से जोड़ने का काम किया | उनकी हर रचना सामाजिक चेतना की महत्वपूर्ण विरासत के रूप में नज़र आती है | यही कारण है कि आज भी लेखक व्यंग्यकार परसाई को अपना आदर्श मानते हैं बावजूद इसके उनके समूल राजनैतिक, सामाजिक एवं साहित्यिक दृष्टिकोण को लेकर एक अजीव विभ्रम की स्थिति नज़र आती है | जब अपनी अपनी सहूलियत के हिसाब से उनको व्याख्यायित कर लिया जाता है | तब जरूरत लगती है परसाई जी को एक सामूहिक दृष्टिकोण से समझने के प्रयास की | आइये इस कोशिश की शुरूआत खुद ‘हरिशंकर परसाई‘ के एक व्यंग्य से करते हैं | परसाई के व्यंग्य महज़ गुद-गुदाते भर नहीं हैं बल्कि समय, समाज और राजनीति के विकृत और भीव्त्स स्वरूप को सहज, स्वाभाविक भाषा और संवादों से, बेहद मनोरंजक अंदाज़ में उद्घाटित करने के साहित्यिक कौशल के साथ नज़र आते हैं |

हाल ही में प्रकाशित

नोट-

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