मनुष्य होने के सन्दर्भ तलाशते लयबंध: समीक्षा (उमाशंकर सिंह परमार)

मनुष्य होने के सन्दर्भ तलाशते लयबंध: समीक्षा (उमाशंकर सिंह परमार)

उमाशंकर सिंह परमार 1726 6/2/2019 12:00:00 AM

बृजेश लय आधारित विधा के सफल और नामचीन कवि हैं। उनके लयबन्धों पर लिखना चुनौती भरा काम है। अमूमन गीतों और गज़लों की समीक्षा में व्याकरण व भावनात्मक आवेगों की प्रतिच्छाया सक्रिय रहती है आलोचक वाह-वाही की शैली में स्ट्रक्चर पर अपनी बात रखकर आलोचना की इतिश्री कर देते हैं। वह गीतों और बन्धों की वैचारिक विनिर्मिति और समाजशास्त्र पर जाना ही नहीं चाहते हैं। इससे हिन्दी कविता के क्षेत्र में गज़ल और गीतों को दोयम माना जाता रहा है। यह कमी विधा की नहीं है आलोचना की कमी है कि गीतों और बन्धों में समाजशास्त्रीय आलोचना को नहीं लागू किया गया वह अब भी अपने परम्परागत आलोचना प्रतिमानों द्वारा मूल्यांकित की जा रही है।

स्त्री अधिकारों का 'मौन अनुबंध' कविता समीक्षा (गणेश गनी)

स्त्री अधिकारों का 'मौन अनुबंध' कविता समीक्षा (गणेश गनी)

गणेश गनी 1381 4/29/2019 12:00:00 AM

हिंदी साहित्य में ऐसे धूर्त साहित्यकार भतेरे हैं जो स्त्री विमर्श की आंच पर अपनी साहित्यिक रोटियां तो सेकते हैं, जो महिलाओं पर केंद्रित कविताएँ तो लिखते हैं, जो महिला विशेषांक भी निकालते हैं और सम्मेलनों में जाकर भाषण झाड़ते हैं कि उनसे बड़ा औरतों का संरक्षक कोई और है ही नहीं, परन्तु असलियत कुछ और ही होती है और वो यह कि उनके विचार इन सबसे एकदम उलट होते हैं। इनकी मानसिकता तब और भी उजागर हो जाती है जब ये दारूबाज पार्टियों में अपनी घिनौनी सोच को जगज़ाहिर करते हैं। दरअसल हमारे समाज में अब भी स्त्रियों को वो सम्मान और हक अभी नहीं मिले हैं, जिनकी वे वास्तव में हकदार हैं। आज भी अधिकतर चालाक पुरुष उसे अपनी सम्पति से अधिक कुछ नहीं समझते। कवयित्री भावना मिश्रा की अधिकतर कविताएँ ऐसी मानसिकता पर गज़ब की चोट करती हैं। भावना मिश्रा ने पुरुष मानसिकता की कलई शानदार तरीके से खोली है-

हमारे समय के धड़कते जीवन की कविताएं: समीक्षा (डॉ० राकेश कुमार)

हमारे समय के धड़कते जीवन की कविताएं: समीक्षा (डॉ० राकेश कुमार)

डॉ० राकेश कुमार 392 11/18/2018 12:00:00 AM

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के मध्यांतर में प्रदीप मिश्र की कविताएं तेजी से बदलते भारतीय समाज के विविध रंगों को हमारे सामने लाते हैं। वर्तमान समय में भारतीय समाज लोकतंत्र, भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद और निजीकरण की बड़ी चुनौतियों से जूझ रहा है। समाज की सतह पर दिखाई देता है कि लोकतंत्र सही और स्वस्थ दिशा में जा रहा है। भूमंडलीकरण ने मध्यवर्ग को नए सपने और वैश्विक बाज़ार दिया है। बाज़ार ने आज इतने विकल्प उपलब्ध करा दिए हैं कि उपभोक्ता चकित है और निजीकरण ने सरकारी लेटलतीफी को तोड़ दिया है। परंतु यदि सतह के नीचे देखा जाए तो उदारीकरण के इन पच्चीस वर्षों में भारत में आज भी समाज का बहुत बड़ा वर्ग इस चमचमाते लोकतंत्र में अपनी जगह ढूंढ रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के बड़े सपनों के बीच यह आम आदमी आज निराश हो रहा है। प्रदीप मिश्र इसी आम आदमी के सपनों, संघर्षों और उपलब्धियों को बड़े फलक पर उठाते हैं। ‘प्रदीप मिश्र’ के नए काव्य संग्रह ‘उम्मीद’ जो “मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरूस्कार” २०१६ के लिए चुना गया है, साठ कविताओं को समेटे इस काव्य संग्रह पर ‘डॉ० राकेश कुमार’ का समीक्षालेख……..

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