विभिन्न सुर-ताल से सजी कविताएं: रिपोर्ट (सुमन कुमारी)

विभिन्न सुर-ताल से सजी कविताएं: रिपोर्ट (सुमन कुमारी)

सुमन कुमारी 551 11/18/2018 12:00:00 AM

‘ताजमहल’ कविता में मजदूरों के दर्द, पीड़ा और उनकी दुर्दशा पर मुख्य रूप से बात की गई है। लोक प्रचलित धारणा से हटकर कवयित्राी यहां अपने दृष्टिकोण को विस्तार देती है। काव्य-गोष्ठी के तीसरे कवि रमेश प्रजापति रहे। जिनकी पहचान देशज कविता के लिए है। इन्होंने ‘पानी का राम’, ‘अरी लकड़ी’, ‘तपो-तपो हे सूर्य’ और ‘महानगर में मजदूर’ कविताओं का पाठ किया। इनके सभी विषय गांव और गांव से जुड़ी समस्याओं से संब( हैं। ‘पानी’ की महत्ता पर अपनी बात कहते हुए रमेश प्रजापति कहते हैं कि, ‘‘बेहिसाब बर्बाद हो रहा पूंजीपतियों की ऐय्यासी में कालाहांडी ही नहीं बल्कि बुंदेलखंड के साथ-साथ अब सूखने लगा है लातूर और भीलवाड़ा का कंठ।’’……

एक शाम अदब के नाम – ‘बज़्म-ए-शायरी’

एक शाम अदब के नाम – ‘बज़्म-ए-शायरी’

सीमा आरिफ 855 11/18/2018 12:00:00 AM

आज के युग में जहाँ सब कुछ बहुत तेज़ी से बदल रहा है, बहुत कुछ पीछे छुट रहा है। डिजिटल के दौर में हमें चीज़ों को भूलने की आदत पड़ती जा रही है।हम बहुत कुछ वो खो रहे हैं जिसको सेहजना,सवंरना हमारी ज़िम्मदारी है। इसी में एक है उर्दू ग़ज़ल शेरों शायरी। सुख़नवर-ए-शायरी का जन्म शेरों शायरी की मक़बुलियत, रिवायत को ज़िंदा, तरोताज़ा रखने, उसे एक नई शक्ल, स्फूर्ति दिलाने की नियत से हुआ था। सुख़नवर-ए-शायरी का मक़सद नई नस्ल के दिमाग़ों से यह ग़लतफ़हमी भी निकालना है कि शायरी ,ग़ज़ल बहुत ‘बोरिंग’ होती है। सुख़नवर-ए-शायरी का उद्देश्य नए शायरों, शायराओं के हाथों में एक ऐसा डाइस थमाना है जिस डाइस पर आकर वो किसी रिवायत,किसी बंदिश में बधें नहीं, बल्कि उर्दू ज़ुबाँ की रूह में खोकर शायरी पढ़े। ग़ज़ल की खुबसूरती में मदहोश होकर दूसरों के कलाम को सुने और नज़्मों की तिरछी चाल से क़दम से क़दम मिलाकर शायरी की महफ़िलों का लुत्फ उठाएं। वो एहसास जो ज़िन्दगी के हर पहलू को किसी ने किसे तरह से शायरी से जोड़ते हैं,ऐसे ही एक एहसास का नाम है सुख़नवर-ए-शायरी।

अंतिम युद्ध : नाटक (राजेश कुमार)

अंतिम युद्ध : नाटक (राजेश कुमार)

राजेश कुमार 1605 11/18/2018 12:00:00 AM

कइयों बार इन सवालों के व्यूह से गुजरा हूं कि आज जब देश आजाद है, विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र यहां स्थापित है, विश्व की राजनीति में लगातार किसी न किसी रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है, कला-सौंदर्य-अंतरिक्ष के क्षेत्र में कामयाबी के झंडे गाड़ रहा है, वहां फिर से भगतसिंह और मुठ़ी भर क्रांतिकारियों को याद करने का क्या मतलब हो सकता है? भगत सिंह पर तो वैसे भी फिल्म बन चुकी है, आजादी की स्वर्ण जयंती पर धड़ा-धड़ सीरियल बन रहे हैं, नाटक लिखे जा चुके हैं, इतिहास की किताबों में ढेरों कहानियां छप चुकी हैं फिर एक नाटक लिखने की जरूरत? कौन नहीं जानता है, सब जानते हैं भगत सिंह की कहानी। सबको पता है, भगतसिंह एक बहादुर इंसान थे, पक्के देशभक्त थे। उन्होंने सांडर्स को मारकर लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लिया। पुलिस की आंखों में धूल झोंककर दुर्गा भाभी व उनके पुत्र शची के साथ लाहौर से कलकत्ता गये। सेंट्रल असेम्बली में बम फेंका और गिरफ्तारी देकर हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गये। फिर इस कथा को पुनः दोहराने की क्या आवश्यकता? लोगों को स्मरण दिलाने के लिए एक बार अगर इतिहास दिखला भी दे तो उसकी प्रासंगिकता क्या है? निःसंदेह वे स्मरणीय है, पूजनीय है। उन पर गीत-कवितायें लिखे जा सकते हैं, आजादी के पर्वों पर उनकी कुरबानियों को याद किया जा सकता है पर आज के समाज में जो घट रहा है उथल-पुथल बरकरार हैं उसमें कहां फिट बैठते हैं? इन्हीं सवालों से जूझने व इसकी तह में जाने की प्रक्रिया की अभिव्यक्ति है यह नाटक ‘अन्तिम युद्ध’ ।

झोपड़पट्टी: नाटक (राजेश कुमार)

झोपड़पट्टी: नाटक (राजेश कुमार)

राजेश कुमार 1611 11/18/2018 12:00:00 AM

‘राजेश कुमार’ ऐसे इकलौते हिंदी नाटककार हैं जो निरंतरता में ऐसे नाट्यालेखों को लिख रहे हैं जो यथा स्थिति ही बयान नहीं करते बल्कि वे एक चेतना भी पैदा करते हैं और प्रतिरोध भी | उदारीकरण के प्रभाव में वर्तमान दौर से उपजी राजनैतिक उथल पुथल जिसके कारण विभिन्न सामाजिक तबकों की विविधता भरी जिंदगियों में तरह – तरह के बदलाव आये हैं जो सामान्यतः सकारात्मक से कहीं ज्यादा नकारात्मक हैं | राजनैतिक लालसा के प्रभाव में सामाजिक व्यक्तित्व भी, व्यक्तिवादी अंधी सोच में तब्दील हो रहा है | सामाजिक रूप से हमें इसका अंदाजा भी नहीं होता | चारों तरफ से राजनैतिक चालों से घिरे आम-जन के, इन्हीं बेरहम सवालों से जूझते हुए उनके जबाव खोजने का रचनात्मक प्रयास है नाटक ‘झोपडपट्टी”

जब तक मैं भूख ते मुक्त नाय है जाँगो…. : नाट्य समीक्षा (हनीफ मदार)

जब तक मैं भूख ते मुक्त नाय है जाँगो…. : नाट्य समीक्षा (हनीफ मदार)

हनीफ मदार 572 11/17/2018 12:00:00 AM

जब तक मैं भूख ते मुक्त नाय है जाँगो…. हनीफ मदार हनीफ मदार “हमारे युग की कला क्‍या है ? न्‍याय की घोषणा, समाज का विश्‍लेषण, परिमाणत: आलोचना, विचारतत्‍व अब कलातत्‍व तक में समा गया है। यदि कोई कलाकृति केवल चित्रण के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि उसमें वह आत्‍मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है जो युग में व्‍याप्‍त भावना से नि:सृत होती है, यदि वह पीड़ि‍त ह्रदय से निकली कराह या चरम उल्‍लसित ह्रदय से फूटा गीत नहीं, यदि वह कोई सवाल नहीं या किसी सवाल का जवाब नहीं तो वह निर्जीव है।” – बेलिंस्‍की ( 19वीं शताब्‍दी में रूस के जनवादी कवि)

हाल ही में प्रकाशित

नोट-

हमरंग पूर्णतः अव्यावसायिक एवं अवैतनिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक साझा प्रयास है | हमरंग पर प्रकाशित किसी भी रचना, लेख-आलेख में प्रयुक्त भाव व् विचार लेखक के खुद के विचार हैं, उन भाव या विचारों से हमरंग या हमरंग टीम का सहमत होना अनिवार्य नहीं है । हमरंग जन-सहयोग से संचालित साझा प्रयास है, अतः आप रचनात्मक सहयोग, और आर्थिक सहयोग कर हमरंग को प्राणवायु दे सकते हैं | आर्थिक सहयोग करें -
Humrang
A/c- 158505000774
IFSC: - ICIC0001585

सम्पर्क सूत्र

हमरंग डॉट कॉम - ISSN-NO. - 2455-2011
संपादक - हनीफ़ मदार । सह-संपादक - अनीता चौधरी
हाइब्रिड पब्लिक स्कूल, तैयबपुर रोड,
निकट - ढहरुआ रेलवे क्रासिंग यमुनापार,
मथुरा, उत्तर प्रदेश , इंडिया 281001
info@humrang.com
07417177177 , 07417661666
http://www.humrang.com/
Follow on
Copyright © 2014 - 2018 All rights reserved.